Monday, 4 March 2019

Orthography / अर्थग्राही

भाषा-विन्यास 
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इससे पहले की पोस्ट "पाण्डुलिपि / The Manuscript" लिखते समय दरअसल मैं यह कहना चाहता था कि किस प्रकार इस पुस्तक "I AM THAT" का हिंदी अनुवाद "अहं ब्रह्मास्मि" करते समय मेरा समान्तर प्रयास यह था कि भाषा की संरचना (Orthography) के बारे में अनुसंधान भी साथ-साथ चलता रहे ।
"वर्णानामर्थसंघानां ..." के सन्दर्भ पर तब मेरा ध्यान नहीं था किन्तु मुझे यह अवश्य प्रतीत हुआ कि यदि संस्कृत भाषा की संरचना की समझ स्पष्ट हो तो दुनिया की किसी भी भाषा की संरचना को अच्छी तरह समझा जा सकता है, जबकि संस्कृत के अलावा किसी भी अन्य भाषा की संरचना की कितनी भी अच्छी समझ हो, और वह समझ संस्कृत की संरचना को समझने में सहायक भले ही हो, हमेशा सहायक होती ही हो यह ज़रूरी नहीं है । वैसे मैंने आज के प्रचलित भाषाशास्त्र का गंभीर अध्ययन कभी नहीं किया, इसलिए उस बारे में कुछ कहने का मेरा अधिकार शायद नहीं है, लेकिन संस्कृत (की संरचना) का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से मुझे यही अनुभव हुआ ।
शब्द-साम्य (रूपिम), वर्ण-साम्य (स्वनिम), ध्वनि-साम्य (Onomatopoeia), लिपि-साम्य (?) तथा अर्थ-साम्य (?) इन पाँच कारकों से किसी भी भाषा की संरचना और इस आधार पर उसके व्याकरण को भी इसी प्रकार बेहतर समझा जा सकता है ।
मेरा कोई दावा नहीं कि भाषा-विज्ञान की अधुनातन खोजें भ्रामक या त्रुटिपूर्ण हैं, किन्तु संस्कृत के दस व्याकरणों के बारे में मैं जितना समझ सका उसके आधार पर यह कह सकता हूँ कि भाषा तथा व्याकरण का उद्भव और प्रचलन दो प्रकार से हुआ । पहला, जो बाह्य-स्तर पर मनुष्य के द्वारा प्रयोग में लाए जानेवाले ध्वनि-संकेत (Onomatopoeia) पर आधारित कामचलाऊ भाषा के उद्भव के रूप में हुआ, दूसरा आतंरिक (मनोगत) स्तर पर मनुष्य के हृदय से उत्स्फूर्त हुए वर्णों के क्रमबद्ध संयोजन द्वारा ।
इस निष्कर्ष पर पहुँचने में मुझे लगभग बीस वर्षों से भी अधिक का समय लगा क्योंकि मैंने अपनी अंतःप्रेरणा / intuition को इस बारे में चिंतन का आधार बनाया। स्पष्ट है कि अंतःप्रेरणा से होनेवाली प्रतीति की पुष्टि बाहरी तर्कों से हो यह ज़रूरी नहीं, इसलिए भी मुझे एक सुनिश्चित सिद्धांत तय करने के लिए बहुत समय लगा । चूँकि मैं उच्चतर गणित और विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ और संस्कृत भाषा का मेरा अध्ययन सिर्फ इस हेतु से प्रेरित हुआ कि मैं धर्म तथा अध्यात्म के उन भारतीय ग्रंथों को पढ़ना चाहता था जो मूलतः संस्कृत में लिखे गए हैं । अंतःप्रेरणा से ही मुझे सदा यही लगता रहा है कि किसी भी धर्मग्रन्थ का किसी भी दूसरी भाषा में प्रामाणिक अनुवाद केवल वही कर सकता है जिसका मूल ग्रन्थ की भाषा पर इतना अधिकार हो मानों वह उसकी मातृभाषा ही हो । इसलिए भारत या सनातन-धर्म के मूल संस्कृत भाषा (या पालि प्राकृत इत्यादि भी,) में लिखे गए जितने भी विभिन्न अनुवाद हैं, उनका मैंने न तो कभी मूल्यांकन किया और न उनकी प्रामाणिकता की परीक्षा ही की । और चूँकि मैं उन्हें उनकी मूल भाषा (संस्कृत, पालि) में ही अधिक अच्छी तरह पढ़ और समझ सकता था इसलिए भी इस सबकी ज़रूरत तक मुझे कभी महसूस नहीं हुई । दूसरी ओर जब मैंने इन ग्रंथों के उन तथाकथित लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों के द्वारा किए गए अंग्रेज़ी अनुवादों को पढ़ा तो मुझे प्रायः हँसी आती रही कि किस प्रकार उनके पास मूल संस्कृत शब्दों के भाव / अर्थ को अंग्रेज़ी में व्यक्त करने के लिए ऐसे शब्द ही नहीं हैं, और वे केवल जिस किसी तरह संभव हो उनके तात्पर्य को खींच-तान कर कोई अर्थ निकालने में लगे रहे । इसके मूल में यद्यपि एक कारण यह भी है कि जहाँ एक ओर संस्कृत का व्याकरण इतना सुगठित (compact), इतना सुनियत ( meticulous) और इतना अर्थग्राही (Orthographic) है कि उसके सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य में उसका अर्थ निर्विवादतः स्पष्ट हो जाता है, वहीं दूसरी ओर संस्कृत में लिखे ग्रन्थ प्रायः 'छन्द' अर्थात् कविता के रूप में लिखे गए हैं । और किसी कविता का शाब्दिक अर्थ और भावगत अर्थ वैसे भी परस्पर अत्यंत और बहुत भिन्न होते हैं इसलिए किसी 'विचार' की तरह उनका अनुवाद करना एक अत्यंत जोखिम भरा कार्य है जो मूल के तात्पर्य को न सिर्फ बदल देता है बल्कि प्रायः विकृत तक कर सकता है ।
अभी तीन-चार दिनों पहले मैं श्री राजीव मल्होत्रा और श्री नित्यानंद मिश्राजी का एक विडिओ यू-ट्यूब पर देख रहा था । चूँकि मैंने वाल्मीकि-रामायण के गीता-प्रेस के हिंदी अनुवाद के संस्करण को ध्यान से पढ़ा था, और मुझे उसके अंग्रेज़ी अनुवाद को पढ़ने की ज़रूरत कभी महसूस तक नहीं हुई इसलिए भी यह विडिओ मुझे इसका एक श्रेष्ठ उदाहरण प्रतीत हुआ, कि किस प्रकार विभिन्न विदेशी भाषाविदों ने (जिनकी मातृभाषा संस्कृत नहीं रही), केवल बौद्धिक और साहित्यिक तर्कों से यथासंभव श्रमपूर्वक भी इन ग्रंथों का अपनी भाषा में अनुवाद करते समय उसके तात्पर्य को न केवल इतना तोड़-मरोड़ दिया कि उससे मूल भाव और तात्पर्य विरूपित हुआ, बल्कि वह हास्यास्पद होने की सीमा तक जा पहुँचा । जब वाल्मीकि रामायण जैसे ग्रंथों (के अनुवाद) की यह हालत है तो वेद तथा गीता जैसे ग्रंथों के (अनुवाद के) बारे में तो बस अनुमान लगाना ही काफी होगा । वास्तव में यह हमारा अपनी विरासत के प्रति घोर प्रमाद ही है कि विदेशी जिसका अनुचित लाभ लेकर न सिर्फ हमारे ग्रंथों के मनमाने तात्पर्य तय और व्यक्त करते हैं बल्कि इसके लिए वाहवाही भी लूट लेते हैं । और उनमें से कुछ अवश्य ही येन-केन-प्रकारेण हमारी संस्कृति, भाषा, इतिहास को नीचा दिखाना तथा उसका मज़ाक उड़ाना भी चाहते हैं ताकि इस बहाने उनकी अपनी हीनता-ग्रंथि को छुपा भी सकें। 
उक्त विडिओ देखते समय मैंने उन प्रथम पाँच श्लोकों सहित वाल्मीकि रामायण के गीताप्रेस के उस संस्करण को सामने रखा जिसके बारे में इसमें विवेचना की गई है । इसी प्रसंग में जैसा कि जर्मन लेखक Wilhelm Von Pochhammer ने अपनी पुस्तक India's Road to Nationhood में लिखा था :
"यदि आपको किसी राष्ट्र को नष्ट करना है तो उसके इतिहास को नष्ट कर दो",
इन विदेशी भाषा के विद्वानों ने हमारे इतिहास को न सिर्फ नष्ट किया है बल्कि उसे अनुवाद तथा अध्ययन के बहाने से इतना अधिक विकृत भी कर दिया है कि हम इन ग्रंथों को "Mythology" समझने लगे हैं और विद्वत्ता के अपने ग़रूर में अंग्रेज़ीदां होने में गौरव महसूस करने लगे हैं ।
यद्यपि मेरे इस पोस्ट का उद्देश्य था Orthography की विवेचना करना, -किन्तु वह काम फिर कभी ।
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