Sunday, 10 March 2019

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है !

आस्था या न्याय ?
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न्याय आस्था पर आश्रित होना चाहिए, किन्तु क्या आस्था भी न्यायसम्मत नहीं होना चाहिए?
स्थापित न्याय-प्रणाली राज्य (State) के संविधान के दायरे (मर्यादा) में कार्य करती है ।
न्याय संविधान की विवेचना (interpretation) के माध्यम से तय किया जाता है । 
विवेचना अर्थात् विवेक (conscience) से प्राप्त किया गया निष्कर्ष ।
विवेक (conscience) का प्रयोग, -क्या किसी धर्मग्रंथ को बीच में लाए बिना भी किया जा सकता है? 
इस प्रक्रिया में धर्म और आस्था की क्या भूमिका हो सकती है?
किसी 'प्रकरण' (the matter before the judiciary) के सारे पहलुओं को ध्यान में रखते हुए, इसकी विवेचना करना भी, कि धर्म और आस्था क्या है; न्याय-पालिका (judiciary) के लिए क्या इतना ही आवश्यक नहीं है ?
यदि "धर्म और आस्था क्या है?" इस प्रश्न पर विचार, और इसकी विवेचना नहीं की गई है, तो श्रेष्ठ न्याय के लिए क्या यह पर्याप्त और उचित आधार होगा ?
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क्या राजनीति ऐसे किसी प्रकरण में एक पक्षकार हो सकती है?
क्या समाज ऐसे किसी प्रकरण में एक पक्षकार हो सकता है?
क्या मीडिआ (संवाद-तंत्र) ऐसे किसी प्रकरण में एक पक्षकार हो सकता है?
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बस कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है !
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प्रसंगवश 

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