विज्ञान की कसौटी / मर्यादा
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श्री राजीव दीक्षितजी का एक विडिओ यू-ट्यूब पर देखा ।
स्त्रियाँ सदा पवित्र (और निष्पाप भी) होती हैं, -यह अवश्य ही बिलकुल सत्य है चाहे इसे कोई धर्मग्रंथ माने या न माने । केवल पुरुष ही प्रायः अपवित्र और पापयुक्त होते हैं किन्तु बुद्धि तो किसी की भी शुद्ध या मलिन, निर्दोष या दूषित हो सकती है यह भी सत्य है । और इसलिए स्त्री पतित भी प्रायः तभी होती है जब कोई पुरुष उसके पतित होने के लिए कारण होता है ।
श्री राजीव दीक्षितजी की बात पूर्णतः तर्कसंगत और न्यायसंगत भी है । और जब वे कहते हैं कि वह ख़ास समय, जब स्त्री रजस्वला होती है तब भी वह पवित्र होती है इतना ही सत्य है । वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो भी इसे स्वीकार किया जा सकता है । वे यह भी कहते हैं कि किसी भी वेद में स्त्री के लिए उस समय भी मन्त्रों का, यहां तक कि धीमे स्वर में प्रणव का जप करना भी निषिद्ध नहीं है ।
वास्तव में यहाँ वे यह भूल जाते हैं कि यद्यपि स्कन्द-पुराण में स्त्री के लिए सामान्य अवस्था में भी प्रणवसहित षडाक्षर या द्वादशाक्षर मन्त्र का उच्चारण निषिद्ध है, जब साधना में उसकी पर्याप्त प्रगति हो जाती है तब वह प्रणवसहित इन मन्त्रों का जप कर सकती है । स्कन्द-पुराण में तो स्वयं भगवान शंकर ने पार्वती से यही कहा था ।
याद आता है "श्री रमण महर्षि से बातचीत" का एक प्रसंग जब यह स्पष्ट किया जाता है कि पानी में डूबा हुआ व्यक्ति बोल क्यों नहीं पाता ? सामान्य बुद्धि से कहा जाता है कि तब चूँकि मुँह खोलते ही पानी उसके मुख में चला जाएगा और वह साँस न ले सकने से मर भी सकता है । किन्तु शास्त्र पर तर्क-वितर्क करनेवाले विद्वान् यह तर्क देते हैं कि वाणी अग्नि तत्व है और पानी जलतत्व, और पानी में आग बुझ जाती है इसलिए पानी में डूबा व्यक्ति बोल नहीं सकता ।
वास्तव में जो बात सामान्य तर्क से भी समझी / समझाई जा सकती है उसके लिए कोई गंभीर तर्क दिए जाने को तो बुद्धि का दुरुपयोग ही कहा जाना चाहिए ।
इसी विडिओ में श्री राजीव दीक्षितजी कहते हैं, चूँकि ऋतुकाल के समय अग्नि तत्व बढ़ जाने से रक्तचाप भी बढ़ जाता है इसलिए भी स्त्री को उस दौरान उच्च स्वर में मन्त्र आदि का उच्चारण नहीं करना चाहिए । किन्तु जब वाणी स्वयं ही अग्नि तत्व है और विशेष रूप से मन्त्र तो वाणी से ही होते हैं, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या तब उनके धीमे या उच्च स्वरों में उच्चारण करने से अग्नितत्व का प्रभाव नहीं बढ़ेगा । वास्तव में विज्ञान की अपनी मर्यादा और कसौटी है । जब तक अग्नि (और वायु, जल, पृथ्वी तथा आकाश आदि) को एक आधिभौतिक सत्य के रूप में देखा और उस दृष्टि से उसका अध्ययन और उससे व्यवहार किया जाता है, तब तक उस कसौटी पर उसके प्रभाव और गुणों के बारे में कहा जाना ठीक ही है, किन्तु जैसे ही उसके आधि-दैविक स्वरूप को सत्य मानकर उस दृष्टि से उसका अध्ययन और उससे व्यवहार किया जाता है तो उस पर आधिभौतिक के नियम और सिद्धांत कितने और कैसे लागू होंगे कहना कठिन है ।
पाप और पुण्य, पवित्रता और अपवित्रता, आधिदैविक अर्थात् अधिमानसिक (मन से जुड़ी स्थूल अथवा सूक्ष्म) स्थितियाँ होती हैं, और वे सामाजिक, परंपरागत मान्यताओं से, तो दूसरी ओर स्वयं व्यक्ति के अपने विवेक / दृष्टिकोण से भी गहराई से जुड़ी होती हैं, वहीं 'धर्म' से उनका क्या संबंध हो सकता है इसका कोई सर्वसम्मत उत्तर शायद ही किसी के पास हो ।
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श्री राजीव दीक्षितजी का एक विडिओ यू-ट्यूब पर देखा ।
स्त्रियाँ सदा पवित्र (और निष्पाप भी) होती हैं, -यह अवश्य ही बिलकुल सत्य है चाहे इसे कोई धर्मग्रंथ माने या न माने । केवल पुरुष ही प्रायः अपवित्र और पापयुक्त होते हैं किन्तु बुद्धि तो किसी की भी शुद्ध या मलिन, निर्दोष या दूषित हो सकती है यह भी सत्य है । और इसलिए स्त्री पतित भी प्रायः तभी होती है जब कोई पुरुष उसके पतित होने के लिए कारण होता है ।
श्री राजीव दीक्षितजी की बात पूर्णतः तर्कसंगत और न्यायसंगत भी है । और जब वे कहते हैं कि वह ख़ास समय, जब स्त्री रजस्वला होती है तब भी वह पवित्र होती है इतना ही सत्य है । वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो भी इसे स्वीकार किया जा सकता है । वे यह भी कहते हैं कि किसी भी वेद में स्त्री के लिए उस समय भी मन्त्रों का, यहां तक कि धीमे स्वर में प्रणव का जप करना भी निषिद्ध नहीं है ।
वास्तव में यहाँ वे यह भूल जाते हैं कि यद्यपि स्कन्द-पुराण में स्त्री के लिए सामान्य अवस्था में भी प्रणवसहित षडाक्षर या द्वादशाक्षर मन्त्र का उच्चारण निषिद्ध है, जब साधना में उसकी पर्याप्त प्रगति हो जाती है तब वह प्रणवसहित इन मन्त्रों का जप कर सकती है । स्कन्द-पुराण में तो स्वयं भगवान शंकर ने पार्वती से यही कहा था ।
याद आता है "श्री रमण महर्षि से बातचीत" का एक प्रसंग जब यह स्पष्ट किया जाता है कि पानी में डूबा हुआ व्यक्ति बोल क्यों नहीं पाता ? सामान्य बुद्धि से कहा जाता है कि तब चूँकि मुँह खोलते ही पानी उसके मुख में चला जाएगा और वह साँस न ले सकने से मर भी सकता है । किन्तु शास्त्र पर तर्क-वितर्क करनेवाले विद्वान् यह तर्क देते हैं कि वाणी अग्नि तत्व है और पानी जलतत्व, और पानी में आग बुझ जाती है इसलिए पानी में डूबा व्यक्ति बोल नहीं सकता ।
वास्तव में जो बात सामान्य तर्क से भी समझी / समझाई जा सकती है उसके लिए कोई गंभीर तर्क दिए जाने को तो बुद्धि का दुरुपयोग ही कहा जाना चाहिए ।
इसी विडिओ में श्री राजीव दीक्षितजी कहते हैं, चूँकि ऋतुकाल के समय अग्नि तत्व बढ़ जाने से रक्तचाप भी बढ़ जाता है इसलिए भी स्त्री को उस दौरान उच्च स्वर में मन्त्र आदि का उच्चारण नहीं करना चाहिए । किन्तु जब वाणी स्वयं ही अग्नि तत्व है और विशेष रूप से मन्त्र तो वाणी से ही होते हैं, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या तब उनके धीमे या उच्च स्वरों में उच्चारण करने से अग्नितत्व का प्रभाव नहीं बढ़ेगा । वास्तव में विज्ञान की अपनी मर्यादा और कसौटी है । जब तक अग्नि (और वायु, जल, पृथ्वी तथा आकाश आदि) को एक आधिभौतिक सत्य के रूप में देखा और उस दृष्टि से उसका अध्ययन और उससे व्यवहार किया जाता है, तब तक उस कसौटी पर उसके प्रभाव और गुणों के बारे में कहा जाना ठीक ही है, किन्तु जैसे ही उसके आधि-दैविक स्वरूप को सत्य मानकर उस दृष्टि से उसका अध्ययन और उससे व्यवहार किया जाता है तो उस पर आधिभौतिक के नियम और सिद्धांत कितने और कैसे लागू होंगे कहना कठिन है ।
पाप और पुण्य, पवित्रता और अपवित्रता, आधिदैविक अर्थात् अधिमानसिक (मन से जुड़ी स्थूल अथवा सूक्ष्म) स्थितियाँ होती हैं, और वे सामाजिक, परंपरागत मान्यताओं से, तो दूसरी ओर स्वयं व्यक्ति के अपने विवेक / दृष्टिकोण से भी गहराई से जुड़ी होती हैं, वहीं 'धर्म' से उनका क्या संबंध हो सकता है इसका कोई सर्वसम्मत उत्तर शायद ही किसी के पास हो ।
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