विचार, विचारधारा और सिद्धांत
--
मनुष्य और पशु में बुनियादी फर्क यह है कि मनुष्य के पास विचार होता है । मनुष्य को विचार उसके समाज से प्राप्त होता है । समाज जितना अधिक विचारसंपन्न होगा मनुष्य भी उतना अधिक विचारशील हो सकता है । किन्तु जैसे साधनों और उपभोग की वस्तुओं के बहुत होने से उनका दुरुपयोग भी बढ़ जाता है या वे बेकार पडी नष्ट भी हो जाया करती हैं, वैसे ही वैचारिक संपन्नता भी विपन्नता बन सकती हैं । इसमें संदेह नहीं कि विचार का विकास (ramification and enhancement) विज्ञान के विकास में सहायक है और वह जीवन के दूसरे भी अनेक क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है लेकिन क्या युद्ध के साधनों के आश्चर्यजनक आविष्कारों और उनकी प्रोन्नत तकनालाजी से नित नए भीषण शस्त्रास्त्रों का विकास और हर राष्ट्र द्वारा उन्हें अपनी 'रक्षा' के लिए ज़रूरी समझने के बाद भी उनका एक बड़ा हिस्सा अंततः 'बेकार', तिथिबाह्य, पुराना (obsolete, redundant, outdated) हो जाता है, और इसी तरह युद्ध के लिए तैयार की गयी कुशल मनुष्यों की पंक्तियाँ भी इसी तरह अंततः 'बेकार', तिथिबाह्य, पुरानी (obsolete, redundant, outdated) हो जाती हैं । हाँ, हम उनके जीते-जी या उनके मरणोपरांत उनका सम्मान अवश्य कर सकते हैं लेकिन इससे उनका जीवन लौटता है क्या ?
यंत्रों और यांत्रिक साधनों का 'बेकार', तिथिबाह्य, पुराना (obsolete, redundant, outdated) हो जाना तो फिर भी ठीक है लेकिन जो मानव युद्ध के संसाधन (human resources) होते हैं उनमें से बहुत से तो न जाने कितने युद्धों के दौरान अपाहिज, बीमार, भिन्न भिन्न मानसिक रोगों से रुग्ण हो जाते हैं, क्या यह आज के 'विकसित', सभ्य कहे जानेवाले मनुष्य के मुँह पर एक करारी थप्पड़ से कुछ कम है ?
इसी तरह कुछ लोगों के द्वारा भावनात्मक और बौद्धिक दिवालिएपन की हद यह कि उन्हें यह तक नहीं पता होता कि उनके पास कितनी दौलत है जिसमें से अधिकाँश सड़ रही होती है । दूसरी ओर कितने ही लोग, लाखों और करोड़ों, जिनके पास न तो कोई आजीविका है, न दो वक्त का भोजन, न रहने के लिए छोटा-सा मकान और न जिन्हें शिक्षा या रोज़गार के अवसर ही प्राप्त होते हैं, किस तरह गुज़र-बसर करते हैं इसकी किसी को फ़िक्र नहीं होती। संपन्न भी कभी कभी अपराधी बन जाते हैं और गरीब, अशिक्षित, बेरोज़गार भी कभी कभी अपराध के रास्ते पर चल पड़ते हैं।
'वैचारिक सम्पन्नता' भी इसका अपवाद नहीं है । किसी विचार / विचारों से मोहित होना एक बात है और किसी विचारधारा से अभिभूत होकर उसके प्रति समर्पित होने की हद तक उसके कायल हो जाना ज़रा और बात है । विचारधाराएँ 'सिद्धांत' का रूप लेकर मनुष्य को विभिन्न वर्गों में संगठित करती हैं और इस प्रकार से सिद्धांत राजनीति का आधार बनकर राजनीतिक रूप से चतुर, महत्वाकांक्षी, नेतृत्वकुशल लोगों के लिए सफलता की सीढ़ी जिस पर चढ़कर वे प्रतिष्ठ, पद तथा धन-दौलत बटोरते हैं । उनमें से भी कुछ केवल भोलेपन से इसका शिकार होते हैं, तो दूसरे इतने धूर्त और दुष्ट, असंवेदनशील होते हैं कि निष्ठुरतापूर्वक सबका शोषण निर्दयता से करते रहते हैं । इसलिए आश्चर्य नहीं कि संसार के किसी भी हिस्से में कोई ऐसा शासन-तंत्र कहीं नहीं स्थापित हो सका जो ईमानदारी से जनता की सेवा कर सके ।
और ऐसी राजनीति का सर्वाधिक क्रूर, वीभत्स रूप वह है जो धर्म के आधार पर लोगों को संगठित करता है ।
विचार मनुष्य की नियति है, विचारधारा उसका भाग्य, किसी विचारधारा से प्रभावित होकर उसके लिए समर्पित होकर काम करते रहना उसका दुर्भाग्य, और विचारधारा से अभिभूत हुए बिना मनुष्यमात्र में विद्यमान मानवीय चेतना की पहचान कर पाना उसका सौभाग्य है ।
यही सर्वाधिक स्वाभाविक तरीका है जिससे समाज और संसार किसी हद तक सुखी और शांतिपूर्ण स्थिति में रह सकता है । किसी आंदोलन, क्रान्ति, परिवर्तन या उपद्रव से, किसी धर्म या सिद्धांत का आग्रह करने से हम निरंतर दुविधा में रहते हुए अंततः लड़ते-झगड़ते हुए बस समाप्त हो जाते हैं ।
--
--
मनुष्य और पशु में बुनियादी फर्क यह है कि मनुष्य के पास विचार होता है । मनुष्य को विचार उसके समाज से प्राप्त होता है । समाज जितना अधिक विचारसंपन्न होगा मनुष्य भी उतना अधिक विचारशील हो सकता है । किन्तु जैसे साधनों और उपभोग की वस्तुओं के बहुत होने से उनका दुरुपयोग भी बढ़ जाता है या वे बेकार पडी नष्ट भी हो जाया करती हैं, वैसे ही वैचारिक संपन्नता भी विपन्नता बन सकती हैं । इसमें संदेह नहीं कि विचार का विकास (ramification and enhancement) विज्ञान के विकास में सहायक है और वह जीवन के दूसरे भी अनेक क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है लेकिन क्या युद्ध के साधनों के आश्चर्यजनक आविष्कारों और उनकी प्रोन्नत तकनालाजी से नित नए भीषण शस्त्रास्त्रों का विकास और हर राष्ट्र द्वारा उन्हें अपनी 'रक्षा' के लिए ज़रूरी समझने के बाद भी उनका एक बड़ा हिस्सा अंततः 'बेकार', तिथिबाह्य, पुराना (obsolete, redundant, outdated) हो जाता है, और इसी तरह युद्ध के लिए तैयार की गयी कुशल मनुष्यों की पंक्तियाँ भी इसी तरह अंततः 'बेकार', तिथिबाह्य, पुरानी (obsolete, redundant, outdated) हो जाती हैं । हाँ, हम उनके जीते-जी या उनके मरणोपरांत उनका सम्मान अवश्य कर सकते हैं लेकिन इससे उनका जीवन लौटता है क्या ?
यंत्रों और यांत्रिक साधनों का 'बेकार', तिथिबाह्य, पुराना (obsolete, redundant, outdated) हो जाना तो फिर भी ठीक है लेकिन जो मानव युद्ध के संसाधन (human resources) होते हैं उनमें से बहुत से तो न जाने कितने युद्धों के दौरान अपाहिज, बीमार, भिन्न भिन्न मानसिक रोगों से रुग्ण हो जाते हैं, क्या यह आज के 'विकसित', सभ्य कहे जानेवाले मनुष्य के मुँह पर एक करारी थप्पड़ से कुछ कम है ?
इसी तरह कुछ लोगों के द्वारा भावनात्मक और बौद्धिक दिवालिएपन की हद यह कि उन्हें यह तक नहीं पता होता कि उनके पास कितनी दौलत है जिसमें से अधिकाँश सड़ रही होती है । दूसरी ओर कितने ही लोग, लाखों और करोड़ों, जिनके पास न तो कोई आजीविका है, न दो वक्त का भोजन, न रहने के लिए छोटा-सा मकान और न जिन्हें शिक्षा या रोज़गार के अवसर ही प्राप्त होते हैं, किस तरह गुज़र-बसर करते हैं इसकी किसी को फ़िक्र नहीं होती। संपन्न भी कभी कभी अपराधी बन जाते हैं और गरीब, अशिक्षित, बेरोज़गार भी कभी कभी अपराध के रास्ते पर चल पड़ते हैं।
'वैचारिक सम्पन्नता' भी इसका अपवाद नहीं है । किसी विचार / विचारों से मोहित होना एक बात है और किसी विचारधारा से अभिभूत होकर उसके प्रति समर्पित होने की हद तक उसके कायल हो जाना ज़रा और बात है । विचारधाराएँ 'सिद्धांत' का रूप लेकर मनुष्य को विभिन्न वर्गों में संगठित करती हैं और इस प्रकार से सिद्धांत राजनीति का आधार बनकर राजनीतिक रूप से चतुर, महत्वाकांक्षी, नेतृत्वकुशल लोगों के लिए सफलता की सीढ़ी जिस पर चढ़कर वे प्रतिष्ठ, पद तथा धन-दौलत बटोरते हैं । उनमें से भी कुछ केवल भोलेपन से इसका शिकार होते हैं, तो दूसरे इतने धूर्त और दुष्ट, असंवेदनशील होते हैं कि निष्ठुरतापूर्वक सबका शोषण निर्दयता से करते रहते हैं । इसलिए आश्चर्य नहीं कि संसार के किसी भी हिस्से में कोई ऐसा शासन-तंत्र कहीं नहीं स्थापित हो सका जो ईमानदारी से जनता की सेवा कर सके ।
और ऐसी राजनीति का सर्वाधिक क्रूर, वीभत्स रूप वह है जो धर्म के आधार पर लोगों को संगठित करता है ।
विचार मनुष्य की नियति है, विचारधारा उसका भाग्य, किसी विचारधारा से प्रभावित होकर उसके लिए समर्पित होकर काम करते रहना उसका दुर्भाग्य, और विचारधारा से अभिभूत हुए बिना मनुष्यमात्र में विद्यमान मानवीय चेतना की पहचान कर पाना उसका सौभाग्य है ।
यही सर्वाधिक स्वाभाविक तरीका है जिससे समाज और संसार किसी हद तक सुखी और शांतिपूर्ण स्थिति में रह सकता है । किसी आंदोलन, क्रान्ति, परिवर्तन या उपद्रव से, किसी धर्म या सिद्धांत का आग्रह करने से हम निरंतर दुविधा में रहते हुए अंततः लड़ते-झगड़ते हुए बस समाप्त हो जाते हैं ।
--
No comments:
Post a Comment