तथ्य, प्रश्न और समस्या
'बोरियत' शायद हर किसी के लिए एक महत्वपूर्ण विषय है । कोई भी विषय (मुद्दा) तभी महत्वपूर्ण होता है, जब वह हमसे बहुत गहराई से जुड़ा होता है, -हमसे बहुत घनिष्ठ होता है; एक तरह की 'love-hate-relationship', -जिसमें हम तय नहीं कर पाते कि हम उससे छुटकारा चाहते हैं या छुटकारा बिलकुल भी नहीं चाहते । तब हम उसे 'जी' रहे होते हैं । लेकिन जब कोई मुद्दा हमारे लिए अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण, यहाँ तक कि इतना व्यर्थ होता है कि उससे ऊब होने लगती है, तो यह ऊब हमारे लिए 'बोरियत' हो जाती है । और फिर भी बोरियत भी किसी एक ही या दूसरे विषय के संबंध में होती हो, ऐसा भी नहीं है । अलग अलग वक्त पर हमें अलग अलग चीज़ों से बोरियत होती है । कभी कोई नया गाना हमें इतना अच्छा लगता है कि उसे हम अपनी रिंगटोन बना लेते हैं और थोड़ी देर बाद ही उससे ऊब जाते हैं । फिर हमें कोई दूसरा गाना इतना अच्छा लगता है कि उसे हम रिंगटोन बना लेते हैं। इस तरह गाने बदलते रहना भी न तो प्रश्न है न समस्या और किसी गाने से ऊब जाना भी न तो प्रश्न है, न समस्या । कोई स्थिति प्रश्न या समस्या कब बनती है ? एक उदाहरण लें 'भूख' का। जब हमें 'भूख' लगती है तो भोजन हमारी ज़रूरत होता है और वह न मिल पाए तो कुछ देर हम अपना ध्यान किसी दूसरी ओर लगा सकते हैं या दूसरी ओर ध्यान लगाया जाना अधिक ज़रूरी होता है । लेकिन एक हद के बाद जब 'भूख' बर्दाश्त से बाहर हो जाती है तो जिस दूसरी ओर हमने ध्यान दिया था उससे हमारा ध्यान हटने लगता है और 'भूख' से निपटने की ओर अनायास एकाग्र हो जाता है । तब 'भूख' की रिंगटोन कैसी है हमारे लिए इस बारे में सोचना तक मुमकिन नहीं रह जाता, और 'रिंगटोन' उबाऊ है या पसंद है यह मुद्दा तो हमारे लिए उपेक्षणीय हो जाता है । लेकिन जब 'भूख' शांत हो चुकी होती है तब 'भूख' के तथ्य का सामना हम उसका सामना 'समस्या' की तरह नहीं बल्कि उसे एक प्रश्न समझ कर करते हैं । तब मुझे यह तथ्य / मुद्दा मेरे अपने भूखे होने की तरह कचोटता नहीं, बल्कि वह समाज के दूसरे लोगों की 'भूख' के बारे में होता है जो मुझे केवल तभी और इतना ही कचोटता है जब इससे मेरा सीधा सरोकार हो, जब यह मेरी व्यक्तिगत ज़रूरतों, इच्छाओं, शुभ-अशुभ, पवित्र-अपवित्र लालसाओं पर कुठाराघात करने लगता है । और यह भी हो सकता है कि यह मुझमें विद्यमान मेरी स्वाभाविक मानवीय-संवेदना के कारण भी मेरे लिए महत्वपूर्ण होता हो, जिसका विस्तार प्राणिमात्र तक होता हो । 'भूख' जैसे अनेक ऐसे तथ्य / मुद्दे हैं जो मेरे जीवन से अभिन्नतः जुड़े होते हैं और यह तो मेरी संवेदनशीलता ही है जिसका विस्तार होने पर वे मुझमें स्वाभाविक मानवीय संवेदनाएँ पैदा होने का कारण हो सकते हैं । लेकिन इस संवेदनशीलता की कमी या इसके अभाव से ही मैं बहुत मूर्ख और इसलिए चालाक, धूर्त, छल-कपटपूर्ण भी होता हूँ क्योंकि तब मैं केवल 'अपने' सुख के लोभ या वह सुख खोने की आशंका से ग्रस्त होकर इस सुख को सुरक्षित करना तथा और-और बढ़ाते रहना चाहता हूँ । और मजे की बात यह भी है कि तब मैं अपने-आपको बहुत चतुर या स्मार्ट भी समझ सकता हूँ। हो सकता है कि मैं 'भूख' के विरुद्ध अपने जैसे (?) लोगों का एक संगठन बना लूँ । इस 'सुख-लिप्सा' को मैं 'सांसारिक-धरातल' की 'तुच्छ-वस्तु' कहकर उसकी भर्त्सना भी कर सकता हूँ, इस 'सुख-लिप्सा' को किसी काल्पनिक 'ईश्वर', 'स्वर्ग' या 'मुक्ति' की प्राप्ति का नाम देकर मैं अपने आपको दूसरों से श्रेष्ठ समझने का भ्रम भी पाल सकता हूँ, और इस तरह जाने-अनजाने दुर्भाग्यवश प्रकृति-प्रदत्त स्वाभाविक संवेदनशीलता से भी स्वयं को वंचित कर सकता हूँ, जो मेरी असंवेदनशीलता, मूर्खता आदि ही होगा । यह संगठन भी पुनः मुझे अत्यंत व्यस्त किए रह सकता है और मैं 'मिशन-भावना' से इसके प्रति समर्पित भी हो सकता हूँ । लेकिन क्या इससे 'बोरियत' के तथ्य का समाधान होता है ? या वह तथ्य बस आँखों से ओझल भर हो जाता है ? हाँ, किसी 'आदर्श' के लिए समर्पित होकर कार्य करने में मुझे गौरव और अभिमान भी महसूस हो सकता है, जो बिलकुल वैसा ही एक 'तथ्य' है जो किसी भी कट्टर और धर्मान्ध व्यक्ति में अपने 'धर्म' के लिए खुद को और दूसरों को भी मिटा-मार डालने में महसूस होता है ।
'भूख', 'बोरियत', 'समाज' 'देश' जैसे और भी अनेक तथ्य / मुद्दे हैं और अधिक महत्वपूर्ण यह है कि मैं उन्हें समस्या की तरह देखता हूँ या प्रश्न की तरह । मैं उनका निदान (diagnosis) करता हूँ और कोई समाधान (उपाय) कर उन्हें हल करता हूँ, या बस ऊब से ऊब तक गुज़रता रहता हूँ ।
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'बोरियत' शायद हर किसी के लिए एक महत्वपूर्ण विषय है । कोई भी विषय (मुद्दा) तभी महत्वपूर्ण होता है, जब वह हमसे बहुत गहराई से जुड़ा होता है, -हमसे बहुत घनिष्ठ होता है; एक तरह की 'love-hate-relationship', -जिसमें हम तय नहीं कर पाते कि हम उससे छुटकारा चाहते हैं या छुटकारा बिलकुल भी नहीं चाहते । तब हम उसे 'जी' रहे होते हैं । लेकिन जब कोई मुद्दा हमारे लिए अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण, यहाँ तक कि इतना व्यर्थ होता है कि उससे ऊब होने लगती है, तो यह ऊब हमारे लिए 'बोरियत' हो जाती है । और फिर भी बोरियत भी किसी एक ही या दूसरे विषय के संबंध में होती हो, ऐसा भी नहीं है । अलग अलग वक्त पर हमें अलग अलग चीज़ों से बोरियत होती है । कभी कोई नया गाना हमें इतना अच्छा लगता है कि उसे हम अपनी रिंगटोन बना लेते हैं और थोड़ी देर बाद ही उससे ऊब जाते हैं । फिर हमें कोई दूसरा गाना इतना अच्छा लगता है कि उसे हम रिंगटोन बना लेते हैं। इस तरह गाने बदलते रहना भी न तो प्रश्न है न समस्या और किसी गाने से ऊब जाना भी न तो प्रश्न है, न समस्या । कोई स्थिति प्रश्न या समस्या कब बनती है ? एक उदाहरण लें 'भूख' का। जब हमें 'भूख' लगती है तो भोजन हमारी ज़रूरत होता है और वह न मिल पाए तो कुछ देर हम अपना ध्यान किसी दूसरी ओर लगा सकते हैं या दूसरी ओर ध्यान लगाया जाना अधिक ज़रूरी होता है । लेकिन एक हद के बाद जब 'भूख' बर्दाश्त से बाहर हो जाती है तो जिस दूसरी ओर हमने ध्यान दिया था उससे हमारा ध्यान हटने लगता है और 'भूख' से निपटने की ओर अनायास एकाग्र हो जाता है । तब 'भूख' की रिंगटोन कैसी है हमारे लिए इस बारे में सोचना तक मुमकिन नहीं रह जाता, और 'रिंगटोन' उबाऊ है या पसंद है यह मुद्दा तो हमारे लिए उपेक्षणीय हो जाता है । लेकिन जब 'भूख' शांत हो चुकी होती है तब 'भूख' के तथ्य का सामना हम उसका सामना 'समस्या' की तरह नहीं बल्कि उसे एक प्रश्न समझ कर करते हैं । तब मुझे यह तथ्य / मुद्दा मेरे अपने भूखे होने की तरह कचोटता नहीं, बल्कि वह समाज के दूसरे लोगों की 'भूख' के बारे में होता है जो मुझे केवल तभी और इतना ही कचोटता है जब इससे मेरा सीधा सरोकार हो, जब यह मेरी व्यक्तिगत ज़रूरतों, इच्छाओं, शुभ-अशुभ, पवित्र-अपवित्र लालसाओं पर कुठाराघात करने लगता है । और यह भी हो सकता है कि यह मुझमें विद्यमान मेरी स्वाभाविक मानवीय-संवेदना के कारण भी मेरे लिए महत्वपूर्ण होता हो, जिसका विस्तार प्राणिमात्र तक होता हो । 'भूख' जैसे अनेक ऐसे तथ्य / मुद्दे हैं जो मेरे जीवन से अभिन्नतः जुड़े होते हैं और यह तो मेरी संवेदनशीलता ही है जिसका विस्तार होने पर वे मुझमें स्वाभाविक मानवीय संवेदनाएँ पैदा होने का कारण हो सकते हैं । लेकिन इस संवेदनशीलता की कमी या इसके अभाव से ही मैं बहुत मूर्ख और इसलिए चालाक, धूर्त, छल-कपटपूर्ण भी होता हूँ क्योंकि तब मैं केवल 'अपने' सुख के लोभ या वह सुख खोने की आशंका से ग्रस्त होकर इस सुख को सुरक्षित करना तथा और-और बढ़ाते रहना चाहता हूँ । और मजे की बात यह भी है कि तब मैं अपने-आपको बहुत चतुर या स्मार्ट भी समझ सकता हूँ। हो सकता है कि मैं 'भूख' के विरुद्ध अपने जैसे (?) लोगों का एक संगठन बना लूँ । इस 'सुख-लिप्सा' को मैं 'सांसारिक-धरातल' की 'तुच्छ-वस्तु' कहकर उसकी भर्त्सना भी कर सकता हूँ, इस 'सुख-लिप्सा' को किसी काल्पनिक 'ईश्वर', 'स्वर्ग' या 'मुक्ति' की प्राप्ति का नाम देकर मैं अपने आपको दूसरों से श्रेष्ठ समझने का भ्रम भी पाल सकता हूँ, और इस तरह जाने-अनजाने दुर्भाग्यवश प्रकृति-प्रदत्त स्वाभाविक संवेदनशीलता से भी स्वयं को वंचित कर सकता हूँ, जो मेरी असंवेदनशीलता, मूर्खता आदि ही होगा । यह संगठन भी पुनः मुझे अत्यंत व्यस्त किए रह सकता है और मैं 'मिशन-भावना' से इसके प्रति समर्पित भी हो सकता हूँ । लेकिन क्या इससे 'बोरियत' के तथ्य का समाधान होता है ? या वह तथ्य बस आँखों से ओझल भर हो जाता है ? हाँ, किसी 'आदर्श' के लिए समर्पित होकर कार्य करने में मुझे गौरव और अभिमान भी महसूस हो सकता है, जो बिलकुल वैसा ही एक 'तथ्य' है जो किसी भी कट्टर और धर्मान्ध व्यक्ति में अपने 'धर्म' के लिए खुद को और दूसरों को भी मिटा-मार डालने में महसूस होता है ।
'भूख', 'बोरियत', 'समाज' 'देश' जैसे और भी अनेक तथ्य / मुद्दे हैं और अधिक महत्वपूर्ण यह है कि मैं उन्हें समस्या की तरह देखता हूँ या प्रश्न की तरह । मैं उनका निदान (diagnosis) करता हूँ और कोई समाधान (उपाय) कर उन्हें हल करता हूँ, या बस ऊब से ऊब तक गुज़रता रहता हूँ ।
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