Friday, 8 March 2019

विचार-निर्विचार

ग्रन्थि और ग्रन्थिभेद 
जडचिन्मध्ये ग्रन्थिर्घटिता ।
यद्यपि मृषा मुच्यते कठिनया।।
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जड-चेतन महँ ग्रन्थि परि जाई ।
जदपि मृषा छूटै कठिनाई ।।
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(मुझे पता नहीं कि मेरा इसे संस्कृत में रूपांतरित करने का प्रयास कितना सही-गलत, शुद्ध अशुद्ध है ! विद्वज्जन कृपया शुद्ध कर लें ।)
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विचार-निर्विचार 
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स्पष्ट ही है कि जड (विषय) / object और चेतन (विषयी) / subject . मूलतः और स्वरूपतः भी परस्पर अत्यंत विपरीत और विलक्षण हैं । इसलिए उनके बीच ग्रन्थि (गाँठ) पड़ जाना असंभव सा है । इसलिए यदि ऐसा प्रतीत होता भी है तो वह इसलिए क्योंकि 'विचार' नामक पर्दा उनके बीच अस्तित्व में आकर उन दोनों का दो भिन्न प्रकार के तत्वों के रूप में कृत्रिम और आभासी विभाजन पैदा कर देता है ।
'विचार' रूपी यह विभाजन भाषा की भूल से पैदा होता है ।
'मैं सोचता हूँ', 'मैं नहीं सोचता' आदि विचार आते हैं और चले जाते हैं। इसके साथ ही 'मैं सोच रहा था', 'मैं नहीं सोच रहा था', जैसा विचार भी इस वर्तमान के क्षण में पैदा होता है । विचार के दो आयाम होते हैं एक, -वह भौतिक समय जिसे घड़ी से सेकण्ड या सेकण्ड के किसी हिस्से में नापा जा सकता है । समय के इस पैमाने से, कोई भी विचार वस्तुतः बहुत अल्पकालिक होता है । किन्तु विचार के इस पहलू पर हमारा ध्यान शायद ही कभी जाता हो । वह; -जो है हमारा 'ध्यान', -वह काल / समय के किसी पैमाने से नितान्त अछूता है । उस पर काल / समय का कोई पैमाना लागू नहीं होता।  वह सतत, शाश्वत, सनातन और अविच्छिन्न है ।            
'मैं सोचता हूँ', 'मैं नहीं सोचता' आदि विचार आना और जाना जिस परिप्रेक्ष्य में होता है वह परिप्रेक्ष्य स्वयं न तो आता है न जाता है ।
किन्तु भाषा की भूल का अगला चरण यह होता है कि 'विचार' द्वारा ही पुनः 'मैं' परिभाषित किया जाकर उसे स्वयं (विषयी) से भिन्न कोई ऐसी सत्ता मान लिया जाता है जो स्थिर और अविकारी (immutable) है । और जो स्वयं से भी भिन्न हो । इससे बड़ा विरोधाभास और क्या हो सकता है ?
'विचार' विषय तथा विषयी के बीच अस्तित्व में आता है, और चला भी जाता है और इसलिए 'विचार' को कभी तो 'विषय', और कभी 'विषयी' मान लिया जाता है ।   
'विचार' इस प्रकार स्वयं ही अपने सृष्टा को कल्पना से सृजित कर लेता है।  
इस प्रकार 'मैं' के एक ऐसी एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में होने का 'विचार' घटित हो जाता है, जो किसी वास्तविक अस्तित्वमान वस्तु का सूचक नहीं, फिर भी उसे वास्तविक वस्तु की तरह ग्रहण कर लिया जाता है ।
इसलिए यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि  'मैं सोचता हूँ', 'मैं नहीं सोचता' इत्यादि प्रकार के वाक्य व्यवहार में  भले ही प्रयोग किए जाएँ मूलतः वे यह भ्रम पैदा करते हैं कि 'मैं' नामक व्यक्ति की स्वतंत्र सत्ता है । शरीर, मन, बुद्धि आदि विशेषताएँ अवश्य ही मस्तिष्क में स्थित स्मृति का विषय हैं किन्तु स्मृति इन सब तत्वों को जिस सूत्र में ग्रथित करती है, वह सूत्र स्वयं नित्य बनता-मिटता रहता है और स्मृति की निरन्तरता से ही यह भ्रम पैदा होता है कि 'मैं' नामक व्यक्ति की स्वतंत्र सत्ता है ।
विचार का जन्म और विचार का अन्त, निरन्तर अनेक विचारों से जिस विचार-शृँखला को बनाता है वह विचार-शृँखला किसी कल्पित संसार का आधार होती है । ऐसे असंख्य संसार क्षण-क्षण प्रतीति की तरह प्रकट और विलुप्त होते रहते हैं और यदि उनकी सत्यता की परीक्षा की जाए तो उनमें से कोई भी न तो इन्द्रियग्राह्य होता है, न बुद्धिग्राह्य ।
विचार-शृंखलाओं के इस खेल में चेतन (विषयी) इतना मग्न हो जाता है कि चेतना के स्वरुप का विस्मरण हो जाता है और इसी समय वह चेतना की बजाय उस स्वतंत्र संसार को सत्य मान लेता है, जिसमें उसे अपने जैसे ही असंख्य व्यक्ति दिखाई पड़ते हैं । जबकि 'चेतना' / consciousness विषय-विषयी के इस विभाजन से सर्वथा अछूती है।
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