Thursday, 28 March 2019

यततो ह्यपि कौन्तेय

गीता अध्याय 2
मन की गति 
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।58
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अर्थ :
(और) जब यह (पुरुष) समस्त इन्द्रियों को उनके अर्थों (विषयों) से वैसे ही पूरी तरह भीतर खींचकर अन्तर्मुख हो जाता है जैसे कछुआ अपने अंगों को सिकोड़कर हो जाता है तब उसकी प्रज्ञा स्व-प्रतिष्ठित हो जाती है अर्थात् विषयों में नहीं रमती।          
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।60 
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अर्थ :
(किन्तु) इस प्रकार से अभ्यास करनेवाले विपश्चित -मेधावी पुरुष की भी इन्द्रियों को हठी मन पुनः बलपूर्वक बाहर खींच लिया करता है।
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।61
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अर्थ :
उन सब इन्द्रियों को संयत रखते हुए जो मेरा (अपनी आत्मा का, या अपने और जगत के स्वामी परमात्मा का) परायण होता है, और जिसकी इन्द्रियाँ अपने वश में होती हैं, उसकी प्रज्ञा स्व-प्रतिष्ठित हो जाती है अर्थात् पुनः विषयों में नहीं रमती।
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टिप्पणी :
अधिक सूक्ष्म विवेचना करें तो 'मत्परः' का 'मेरा परायण' ही अधिक सरल और अनायास सुग्राह्य सीधा अर्थ भी  है। क्योंकि यदि यहाँ 'मत्परः' का अर्थ 'अपने और जगत का स्वामी' कोई 'ईश्वर' किया जाए, तो वह विचार भी पुनः मन / बुद्धि तक सीमित होगा और आत्मा तथा परमात्मा में भिन्नता का द्योतक होने से अपरोक्षतः ही आत्मा / परमात्मा का वास्तविक तात्पर्य होगा।  वैसे भी यदि 'ईश्वर' सर्वभूतात्मात्मा है, अर्थात् यदि 'ईश्वर' सभी भूतों (जीवों) की आत्मा का भी अंतरात्मा परमात्मा है, तो वह मुझमें और मुझसे अभिन्न ही है। किन्तु भिन्न भिन्न मनुष्यों में 'ईश्वर' से अपनी अभिन्नता / अनन्यता की निष्ठा होना तो दुर्लभ ही होता है। कुछ मनुष्य तो 'ईश्वर' को अत्यंत शक्तिशाली और असीम सामर्थ्यशील मानते हुए उससे अपनी तुलना करने तक में उसकी अवमानना देख सकते हैं। ऐसे किसी मनुष्य के लिए यही उचित होगा कि वह 'मत्परः' का अर्थ 'ईश्वर-परायणता' समझे। इस प्रकार 'मत्परः' 'आत्म-परायणता' और 'ईश्वर-परायणता' मूलतः तो एक ही अर्थ रखते हैं। अपना जैसा भी दृष्टिकोण हो उसके अनुसार मनुष्य की परमात्मा के प्रति निष्ठा हो सकती है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।62
अर्थ :
(प्रश्न यह है कि पुरुष की इन्द्रियाँ वश में क्यों नहीं होती?) ऐसा इसलिए है क्योंकि जब पुरुष (प्रमादवश) विषयों पर ध्यान देता है तो तत्काल ही चित्त का उन विषयों से सङ्ग / जुड़ाव हो जाता है। जुड़ाव होते ही उन विषयों से संबंधित कामना जाग्रत हो जाती है। कामना उन विषयों में सुख अथवा दुःख की प्रतीति अर्थात् राग या द्वेष (विराग) हो सकता है। तब विषयों के प्रति आकर्षण या विकर्षण हो सकता है। यदि किसी विषय में सुख या दुःख की प्रतीति ही न हो तो चित्त को उससे वैराग्य होता है, और चित्त उससे उदासीन हो सकता है, किन्तु और किसी दूसरे विषय से जुड़ सकता है। इस प्रकार कामना के उठते ही राग-द्वेष पैदा होता है और राग-द्वेष होने से उस-उस विषय के भोग या उससे दूर रहने की प्रवृत्ति होती है। उस विषय (में प्रतीत होनेवाले सुख) की प्राप्ति न हो पाने की स्थिति में क्रोध होता है।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।63
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अर्थ :  (राग तथा) द्वेष से क्रोध पैदा होता है क्रोध से बुद्धि अति-मोहग्रस्त हो जाती है जिससे स्मृति (उचित अनुचित की स्वाभाविक समझ) भ्रमित हो जाती है। स्मृति के भ्रष्ट होते ही सम्यक् बुद्धि का नाश हो जाता है और दुर्बुद्धि उसका स्थान ले लेती है। दुर्बुद्धि के हावी होते ही पुरुष पूरी तरह से विनष्ट (बर्बाद) हो जाता है। 
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टिप्पणी :
'पुरुष' शब्द से यहाँ अर्थ है वह चेतना जो समस्त भूतों में 'मैं' के ज्ञान की तरह प्रकट और विलुप्त होती है और जिसे क्षर (विनाशशील) कहा जाता है। इस प्रकार समस्त भूत नित्य प्रकट और विलुप्त होते हैं।  इसकी तुलना में वह 'पुरुष' जो इस लोक का स्वामी तथा एकमात्र आश्रय है, अक्षर (अविनाशी) आधार है। 
अध्याय 15 में इसे ही स्पष्ट किया गया है :        
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।16
अर्थ :
लोक (संसार) में दिखाई देनेवाले ये जो क्षर और अक्षर दो पुरुष हैं इनमें से क्षर (विनाशशील) तो वह है जो सभी भूतों में 'मैं' की तरह विद्यमान होकर ऐसे दूसरे भूतों से अपनी अलग पहचान रखता है, और अक्षर (अविनाशी) वह है जो सब भूतों में कूटस्थ रूप से, -प्रच्छन्नतः अवस्थित है।
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