Saturday, 30 March 2019

Consciousness, Awareness, Realization

चेतना और साक्षात्
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अस् (होना) (अदादिगण - भू भवति - अस्ति है ।) :
'क्तिन्' प्रत्यय का ’ति’ शेष रहने से भाववाचक संज्ञा ’अस्तिः’ (exist) होता है ।
जन् (जन्म होना) :
'क्तिन्' प्रत्यय का ’ति’ शेष रहने से भाववाचक संज्ञा ’जातिः’ (being) होता है ।
इस प्रकार 'जो है' / अस्तित्व, वह ’भूत’ है, और जन्म ’जातिः’ होता है ।
इस प्रकार जीवमात्र तथा मनुष्य आदि भी जरायुज, उद्भिज्ज, अंडज, तथा स्वेदज इन चार जाति में से किसी में जन्म लेने से उस जाति का कहा जाता है ।
मनुष्य जाति में जन्म मात्र लेने से कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ण का या अवर्ण (वर्ण-व्यवस्था से इतर) नहीं हो जाता ।
जन्म से तो मनुष्यमात्र शूद्र ही होता है किन्तु संस्कार होने से वह सवर्ण होता है ।
यह संस्कार भी पूर्व-जन्म से प्राप्त हुआ भी और प्रसुप्त हो सकता है, अथवा अज्ञात कारणों से समय आने पर जागृत हो जाता है ।
यदि यह पहले से प्राप्त न हुआ हो, तो ग्रहण किया जा सकता है ।
भूतिः (exist होने) के बाद ही जातिः (being / जीव) है ।
जाति के बाद पुनः अनुभूति (feeling / experiencing) है ।
अनुभूति के बाद प्रतीति / भावना (emotion) है ।
प्रतीति होने के बाद मननशील प्राणियों अर्थात् मानव में भाषा का स्फुरण होता है ।
भाषा का तात्पर्य है ध्वनियों के संयोग से बने ’शब्द’ से किसी वस्तु का संबंध स्थापित करना ।
’मा’, ’पा’ ’ता’ ’दा’ आदि शब्द प्रायः माता-पिता के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द होते हैं, जिन्हें शिशु बोलना तथा उनके अर्थ का साहचर्य स्थापित करना सीखता है ।
इस प्रकार धीरे-धीरे अनेक नए शब्द वह सीख लेता है जो वस्तुवाची (objective) तथा भाववाची (abstraction / abstract) अर्थ के द्योतक (indicative) होते हैं ।
अनुभूति (feeling / experiencing) सुखप्रद, दुःखप्रद या क्लिष्ट (मिली-जुली) हो सकती है ।
अनुभूति का दोहराव ’प्रतीति’ (emotion) का कारण है ।
’प्रतीति’ (emotion) तथ्य के अनुसार यथावत, या उससे भिन्न हो सकती है ।
भिन्न-भिन्न शब्दों को साथ साथ प्रयोग करने से ’विचार’ से इंगित की जानेवाली भाववाचक संज्ञा अस्तित्व में आती है । जिससे किसी वस्तु या वस्तु-विशेष का संकेत और बोध नहीं होता। 
इसलिए ’विचार’ भाव-संप्रेषण में उपयोगी तो हो सकता है, उसके द्वारा प्रकट या ग्रहण किया जानेवाला भाव या तात्पर्य एक नितांत अमूर्त तत्व है ।
’विचार’ का परिणाम है स्मृति, -जो समस्त घटनाओं के मध्य एक सातत्य (क्रम) का सृजन करती है, और जो पुनः एक ’विचार’ ही होता है ।
इस प्रकार स्मृति से आच्छन्न चित्त अतीत की कल्पना करता है, और असंख्य घटनाओं को क्रम देते हुए उन्हें जोड़कर, केवल भ्रम और भूल से इस अतीत को एक ठोस सत्य समझा जाता है, जो वस्तुतः बस स्मृति का ही कमाल होता है।
इसी अतीत के परिप्रेक्ष्य में ’मैं’ नामक स्वसत्ता को आधारभूत केन्द्र समझ लिया जाता है, और यह समझ पुनः बुद्धि के अन्तर्गत ही संभव होती है ।
बुद्धि यद्यपि इस केन्द्र से स्वतन्त्र रहकर अपने नियमों से संचालित होती है तथापि बुद्धि पर अपना स्वामित्व अनुभव और प्रतीति जान पड़ता है ।
न तो अनुभव और न प्रतीति स्थिर / अटल होता है, जबकि वे जिसके अन्तर्गत और जिसके आधार पर सक्रिय और निष्क्रिय होते रहते हैं वह तत्व ’चेतना’/ Consciousness सदा नेपथ्य में ही विद्यमान रहती है ।
जैसे विषय का प्रमाण विषयी की तरह विषय से भिन्न और अन्य होता है, चेतना स्वप्रमाणित और स्वयं सिद्ध होने से उसकी सत्ता का प्रमाण उस तरह उससे भिन्न और अन्य नहीं हो सकता ।
इस सत्य पर ध्यान / Attention / Awareness जाते ही उस चेतना को ब्रह्म, आत्मा, परमात्मा आदि जिस किसी प्रकार से शब्द देकर उसे व्यक्त किया जाता है ।
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Thursday, 28 March 2019

यततो ह्यपि कौन्तेय

गीता अध्याय 2
मन की गति 
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।58
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अर्थ :
(और) जब यह (पुरुष) समस्त इन्द्रियों को उनके अर्थों (विषयों) से वैसे ही पूरी तरह भीतर खींचकर अन्तर्मुख हो जाता है जैसे कछुआ अपने अंगों को सिकोड़कर हो जाता है तब उसकी प्रज्ञा स्व-प्रतिष्ठित हो जाती है अर्थात् विषयों में नहीं रमती।          
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।60 
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अर्थ :
(किन्तु) इस प्रकार से अभ्यास करनेवाले विपश्चित -मेधावी पुरुष की भी इन्द्रियों को हठी मन पुनः बलपूर्वक बाहर खींच लिया करता है।
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।61
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अर्थ :
उन सब इन्द्रियों को संयत रखते हुए जो मेरा (अपनी आत्मा का, या अपने और जगत के स्वामी परमात्मा का) परायण होता है, और जिसकी इन्द्रियाँ अपने वश में होती हैं, उसकी प्रज्ञा स्व-प्रतिष्ठित हो जाती है अर्थात् पुनः विषयों में नहीं रमती।
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टिप्पणी :
अधिक सूक्ष्म विवेचना करें तो 'मत्परः' का 'मेरा परायण' ही अधिक सरल और अनायास सुग्राह्य सीधा अर्थ भी  है। क्योंकि यदि यहाँ 'मत्परः' का अर्थ 'अपने और जगत का स्वामी' कोई 'ईश्वर' किया जाए, तो वह विचार भी पुनः मन / बुद्धि तक सीमित होगा और आत्मा तथा परमात्मा में भिन्नता का द्योतक होने से अपरोक्षतः ही आत्मा / परमात्मा का वास्तविक तात्पर्य होगा।  वैसे भी यदि 'ईश्वर' सर्वभूतात्मात्मा है, अर्थात् यदि 'ईश्वर' सभी भूतों (जीवों) की आत्मा का भी अंतरात्मा परमात्मा है, तो वह मुझमें और मुझसे अभिन्न ही है। किन्तु भिन्न भिन्न मनुष्यों में 'ईश्वर' से अपनी अभिन्नता / अनन्यता की निष्ठा होना तो दुर्लभ ही होता है। कुछ मनुष्य तो 'ईश्वर' को अत्यंत शक्तिशाली और असीम सामर्थ्यशील मानते हुए उससे अपनी तुलना करने तक में उसकी अवमानना देख सकते हैं। ऐसे किसी मनुष्य के लिए यही उचित होगा कि वह 'मत्परः' का अर्थ 'ईश्वर-परायणता' समझे। इस प्रकार 'मत्परः' 'आत्म-परायणता' और 'ईश्वर-परायणता' मूलतः तो एक ही अर्थ रखते हैं। अपना जैसा भी दृष्टिकोण हो उसके अनुसार मनुष्य की परमात्मा के प्रति निष्ठा हो सकती है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।62
अर्थ :
(प्रश्न यह है कि पुरुष की इन्द्रियाँ वश में क्यों नहीं होती?) ऐसा इसलिए है क्योंकि जब पुरुष (प्रमादवश) विषयों पर ध्यान देता है तो तत्काल ही चित्त का उन विषयों से सङ्ग / जुड़ाव हो जाता है। जुड़ाव होते ही उन विषयों से संबंधित कामना जाग्रत हो जाती है। कामना उन विषयों में सुख अथवा दुःख की प्रतीति अर्थात् राग या द्वेष (विराग) हो सकता है। तब विषयों के प्रति आकर्षण या विकर्षण हो सकता है। यदि किसी विषय में सुख या दुःख की प्रतीति ही न हो तो चित्त को उससे वैराग्य होता है, और चित्त उससे उदासीन हो सकता है, किन्तु और किसी दूसरे विषय से जुड़ सकता है। इस प्रकार कामना के उठते ही राग-द्वेष पैदा होता है और राग-द्वेष होने से उस-उस विषय के भोग या उससे दूर रहने की प्रवृत्ति होती है। उस विषय (में प्रतीत होनेवाले सुख) की प्राप्ति न हो पाने की स्थिति में क्रोध होता है।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।63
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अर्थ :  (राग तथा) द्वेष से क्रोध पैदा होता है क्रोध से बुद्धि अति-मोहग्रस्त हो जाती है जिससे स्मृति (उचित अनुचित की स्वाभाविक समझ) भ्रमित हो जाती है। स्मृति के भ्रष्ट होते ही सम्यक् बुद्धि का नाश हो जाता है और दुर्बुद्धि उसका स्थान ले लेती है। दुर्बुद्धि के हावी होते ही पुरुष पूरी तरह से विनष्ट (बर्बाद) हो जाता है। 
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टिप्पणी :
'पुरुष' शब्द से यहाँ अर्थ है वह चेतना जो समस्त भूतों में 'मैं' के ज्ञान की तरह प्रकट और विलुप्त होती है और जिसे क्षर (विनाशशील) कहा जाता है। इस प्रकार समस्त भूत नित्य प्रकट और विलुप्त होते हैं।  इसकी तुलना में वह 'पुरुष' जो इस लोक का स्वामी तथा एकमात्र आश्रय है, अक्षर (अविनाशी) आधार है। 
अध्याय 15 में इसे ही स्पष्ट किया गया है :        
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।16
अर्थ :
लोक (संसार) में दिखाई देनेवाले ये जो क्षर और अक्षर दो पुरुष हैं इनमें से क्षर (विनाशशील) तो वह है जो सभी भूतों में 'मैं' की तरह विद्यमान होकर ऐसे दूसरे भूतों से अपनी अलग पहचान रखता है, और अक्षर (अविनाशी) वह है जो सब भूतों में कूटस्थ रूप से, -प्रच्छन्नतः अवस्थित है।
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Sunday, 24 March 2019

Evolution in Consciousness.

What is Maturity ?
 Question :
Vinay, I would also like to ask for your help with my problem. In recent times I feel uninterested in the outside world. My passions are only intellectual ones: I read books, listen to conferences on You-tube, above all on psychological topics or related to tarot cards. But I feel that I have no interests outside, I have no passions in the outside world, even work is rather heavy. I often sleep, I sleep too much sometimes. And I eat to much! At the same time, my dreams, instead, indicate a positive inner experience. Like the ones I told you. I don't understand how is possible that inside me there is that laugh and at the same time my daytime life is boring and I feel tired. I also feel that I have too many mental contents. I have also colored many mandalas in an attempt to increase my creativity and to bring order to chaos, but I'm not sure if it is  good thing, because often I feel my head too heavy after coloring mandalas  Do you have any ideas about this problem? I would like to be more active, more full of life and interested about the world around me.
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Me :
Very Intelligent indeed!
I'm sorry I forgot to say about the second dream. But that was rather more important.
Really, maturity of the mind is important.
The man is basically animal.
So there are basic compulsions of being the animal.
How-so-ever isolated one can live, an animal can't live all alone.
The stage of 'spiritual' evolution of man begins with the dawn of intellect.
Intellect means ideas that associate things in the cause and effect framework.
So there are multiple causes and effects / consequences and of these, only a few are of concern at a time.
Thought is the tool that helps in analyzing the situation and the need of the moment.
When you have a work to do only the most important and the relevant thought comes up in the mind. All other thoughts that form the total memory go to abeyance. Then, at times there may be multiple needs and multiple choices as well, and there is a conflict of interest. The one that is stronger takes hold and one is captivated by the same. Even then sometimes compulsions force one to opt for an alternative.
All thought is limited to Intellect. Intellect may or may not be a result of wisdom.
So how-so-ever great be the Intellect, wisdom keeps forcing it to move in the framework of cause and effect. The most important is taken care of while the lesser ones are just forgotten. They come up only when there is a threat to life.
When the attention to the 'outward' things has done its work, one begins to realize the absurdity and chaos in the 'outer'.
Then while looking for the purpose and the goal, questioning the utility of all these 'outward' activities, one may soon 'laugh at' this whole phenomenon that is 'life'.
Your 'Laugh' may be indicative of the Reality that lies hidden at the core.
In usual phraseology this means the Ship has cast off the anchor that had stopped  its movement in the violent streams and weather.
Now, you can perhaps understand this even better.
The state of evolution of 'Thought' / Intellect is maturity of the mind.
This is awareness / Intelligence, that could not be classified in terms of personal or collective, though perhaps could be said individual.
But why name it?
Naming soon arrests the object and makes it a part of memory and the knowledge / known.
The level of 'Thought' / Intellect soon attains the state of conflict and confusion and in the process the glimpse that came as awakening of Intelligence is lost.
You can capture and do whatever you would with the 'Thought' / Intellect, but that is not 'Wisdom' as it remains confined within the field of 'knowledge' / 'known'.
This 'knowledge' / 'known'. is truly the barrier but we just fail to understand this fact and keep hoping against hope for some achievement in imaginary future, that is but an intellectual trap again.
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LOVE. 
रंगपञ्चमी  (होली) की शुभकामनाएँ !
Festival of Holi Greetings! 
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Dream interpreted.

An e-mail sent to some-one.
I tried to add another part to the last few posts which had 14 image-files.
Then some-one asked my interpretation of her dream.
And instead I responded in the following words.
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Truly, saved much of my time and labor.
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Good Morning Dear!
You know its about 'occult'.
And I've worked out a long cherished dream that explains and closely corresponds to your first dream though to second one as well to some extent.
Since some 12 years I was working upon a project to discover how the three religions of the west emerged in the first stance from the original and the only true 'Dharma'.
And here is something very authentic, though I've no proof because this is not historical or physical only.
The first part I have posted through 14 picture-files in my http://swaadhyaaya.blogspot.com/ while the second and the final part is yet to be written.
But here is just a 'summary' for you:
There was a sage of Veda namely Angi, अंगि  who had a disciple Angiraa अंगिरा / अंगिरस . The two were 'ArSha' आर्ष / synonymous of ऋषि / RShi - sage  (elevated sages of the highest order).
Together they were called 'ArSha Angiras' / आर्ष अंगिरस /
Arch-Angel is but cognate of the same.
Meanwhile, the Supreme knowledge (say wisdom / Intelligence, in contrast to 'Intellect')  that the sages 'realized' was conferred upon a future-sage 'Jabala' / 'Jabali'
(जाबाल ऋषि) जाबालृ (Jabalr or Jabal too).
The same was The Prophet named in terms of Arch-Angel Gabriel.
Who instructed 'Moses', to Jesus and finally to Mohammed.
Though the pure and the genuine teaching was the same the three 'Moses', 'Jesus' and 'Mohammed' mixed and somehow changed it according to their own interpretation and how they 'grasped' the teaching.
Though I have also written about Lord Buddha who was a re-incarnation of 'Kahoda', who in turn was again an re-incarnation of  'Jabala' / 'Jabali' (जाबाल ऋषि) जाबालृ (Jabalr or Jabal too), who was the सिद्धार्थ / 'Siddhartha' (The Prince of  कपिलवस्तु / Kapilavastu) , son of the King Shuddhodhana and Queen Maya), when performed great penance and as is said; became 'Enlightened'. Before that He was offered a porridge / misk-shake (?) by one सुजाता / Sujata, who was but his own wife in the past birth when he was born a 'Kahoda' / 'KahoLa' कहोड . 'Ashtavakra  the famous sage was the son of 'Kahoda' / 'KahoLa' कहोड  and सुजाता / Sujata, in that birth of the couple.
However when again  'Kahoda' / 'KahoLa' / कहोड, who was frustrated and fed-up with Veda and the religion of Veda, could not find 'Nirvana' in that birth, he was again born as सिद्धार्थ  'Siddhartha', the prince of कपिलवस्तु / Kapilavastu.
Again, There is a place 'Kahuta' in Pakistan where the nuclear research is done. I find that 'Kahuta' has great resemblence with 'Kahoda'.
I can understand How 'Jabala' / 'Jabali' (जाबाल ऋषि) जाबालृ (Jabalr or Jabal too) / Gabriel professed his teachings to the 3 Prophets of the West, namely Moses, Jesus and Mohammed,tells us something about how the World-War 3, could start from Pakistan / Kahuta.
And yesterday only I read about how Italy agreed to join China in building one-road-one belt, that forms a big dragon-like serpent around the Earth.
And that because of 'Italy-connection', I thought of you.
I think this whole story makes a story for 5-F; namely Fact, Fancy, Fiction, Fear and Farce.
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As is your dream, there is certainly a parallel.
And during past 1 month I have also propounded my own theory about the Reality.
This proposes that man is but a sequence of events and there is neither right nor wrong, no good or bad, no evil or good too, no liberation nor bondage, and one can see this. "There is only life and no one who lives a life!" (You can see this in the beginning lines of a chapter in "I AM THAT"
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Do you still expect a commentary from me on your dream?
Love.             

Sunday, 17 March 2019

'शमन-धर्म' (Shamanic and Semitic)

क्या यह मुमकिन है?
यह रोचक विडिओ देखते हुए ख़याल आया :
"स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति"
(गीता अध्याय 2, श्लोक 63)
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ज्ञात-अज्ञात तरीकों से हमारी सामूहिक स्मृति को इस प्रकार से नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया है कि हमें यह भी नहीं दिखलाई देता कि 'पारसी' धर्म मूलतः सनातन-धर्म की ही शाखा है । इस भूल से हम 'पारसी' धर्म को हिन्दू धर्म से भिन्न समझने लगे हैं । इस्लाम और ईसाइयत यद्यपि हिन्दू धर्म तथा इसलिए सनातन-धर्म से अवश्य ही बहुत दूर; -लगभग विपरीत दिशा में चले गए हैं, और यहूदी धर्म की भी ऐतिहासिक कारणों से सनातन-धर्म से बहुत दूरी हो गई  है, फिर भी पर्याप्त खोज-बीन से यह देखना बहुत कठिन नहीं है कि यहूदी धर्म का उद्गम तो सनातन-धर्म से ही हुआ है ।
संक्षेप में स्वर्गीय श्री फ़ीरोज़ गाँधी पारसी होते हुए भी वंश से हिन्दू ही माने जाने चाहिए ।
और इसलिए श्री राहुल गाँधी को भी हिन्दू कहा जा सकता है ।
सवाल सिर्फ 'लाभ से जुडी दुविधा' (Conflict of Interest) का है ।
सत्ता का लाभ पाने के लिए श्री राहुल गाँधी और कांग्रेस कभी स्पष्टता से हिंदुत्व से भी खुले और प्रकट रूप से  जुड़ना नहीं चाहेंगे । क्योंकि तब उन्हें अपने गैर-हिन्दू वोट-बैंक को खोने का डर लगता है । पहले हमें यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि 'हिन्दू' होने का अर्थ वास्तव में धर्म-निरपेक्ष होना है या नहीं । पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी अपने काश्मीरी ब्राह्मण होने की पहचान इसीलिए बनाए रखी, ताकि काश्मीरी पंडित समुदाय को, और पूरे देश को भी इस बारे में भ्रमित रखा जाए कि वे 'हिन्दू' और 'धर्म-निरपेक्ष' कांग्रेसी हैं । सत्ता की लालसा और 'लाभ की दुविधा' का इससे बेहतर संतुलन और क्या हो सकता था ?  
(... रिन्द के रिन्द रहे हाथ से जन्नत (Zenith) न गई  ....  ।)
यदि हिंदुत्व को संस्कृति-विशेष तक सीमित कर दिया जाए तो भी यह धर्म-निरपेक्ष है ही । और यदि इसे सनातन-धर्म से जोड़कर, सेमेटिक-धर्म से भिन्न माना जाए तो भी पारसी धर्म तथा हिन्दू धर्म सजातीय और सनातन-धर्म की ही अलग अलग शाखाएँ हैं ।
'संस्कृति' का अनुवाद 'culture' किया जाता है, जो अत्यंत भ्रामक है । 'culture' cult से बना है और cult; -'kill' (किल - मारना - culling) से । संस्कृति संस्कार द्वारा मन-बुद्धि को शुद्ध और शिक्षित करने से बनती और सतत बनी रहती है, जबकि culture (परंपरा, रूढ़ि) है जो समाज के सामूहिक आचरण से बनता और बदलता रहता है ।
इसी प्रकार 'धर्म' का अनुवाद 'Religion' किया जाता है और वह भी इसी प्रकार अत्यंत भ्रामक है । 'धर्म' वह स्वाभाविक निष्ठा है जो अटल अचल है और यद्यपि मनुष्य उससे भ्रष्ट अवश्य हो सकता है, या उसे कर दिया जा सकता है, उसकी खोज से उसे पुनः पा सकता है, -पुनर्जीवित कर सकता है ; जबकि 'Religion' वह मान्यता और मान्यता पर आधारित विश्वास होते हैं  जिन्हें हर मनुष्य अपने परिवेश, वातावरण और समाज से सीख लिया करता है । इसलिए धर्म खोज की जाने की चीज़ है जबकि 'Religion' परिस्थितियों से तालमेल करने का तरीका है । यह तालमेल कर पाना किसी के लिए आसान होता है तो किसी के लिए कठिन भी हो सकता है । इसलिए 'Religion' का 'धर्म' से प्रायः दूर-दूर तक का कोई संबंध नहीं हुआ करता ।  पिछले सौ वर्षों में Theosophy, गोरे और काले अंग्रेज़ों की कृपा / कुटिलता से 'धर्म-निरपेक्षता' (जिसे अंग्रेज़ी में 'Secularism' कहा जाता है,) नामक एक नया 'Religion' पैदा हुआ और पनपते हुए फल-फूल रहा है  । एक विस्मयकारी बात यह भी है कि आप अपनी सुविधा के अनुसार 'धर्म-निरपेक्षता' का अनुवाद करने के लिए 'Secular' शब्द का प्रयोग तो कर सकते हैं, किन्तु इस 'Secular' शब्द का ठीक-ठीक तात्पर्य (और इसलिए अनुवाद भी) क्या होगा यह शायद ही किसी को पता हो !
इसी प्रकार का एक शब्द है -'शामी'; आपने 'शामी-क़बाब' के बारे में सुना होगा ।
यह 'शाम' उसी 'सीरिया' का अरबी नाम है जिसे असीरिया भी कहा जाता है । बीबीसी उर्दू सीरिया के लिए 'शाम' शब्द का ही प्रयोग करता है । सीरिया एक तरफ़ प्राचीनतः 'असुर', तो दूसरी ओर 'अव-सुर' संस्कृति का स्थान रहा है जहाँ 'इस्लाम' के आगमन से पहले 'शमन-धर्म' (Shamanic) प्रचलित था । यह जो शमन / शामनिक जो 'शैव' (शं - शंकर) का ही प्रकार था, बाद में 'Semitic' कहा जाने लगा और इसलिए Semitic शब्द स्वयं भी इतना विवादास्पद और भिन्न-भिन्न अर्थों का पर्याय हो गया कि जहाँ ईसाइयत को माननेवाले यहूदी (हिब्रू) तथा अरबी को 'Semitic' मानते हैं, वहीँ इस्लाम के माननेवाले इसका अर्थ सिर्फ और सिर्फ यहूदी / हिब्रू मानते हैं । 'मूर्तिपूजा' को 'पाप' माननेवाले तीनों 'Religion' (इस्लाम, यहूदी तथा ईसाइयत), मूर्तिपूजा को 'sin' / कुफ़्र / पाप मानते हैं हैं, जबकि प्राचीन  'शमन-धर्म' (Shamanic) में शंकर की पूजा 'लिंग-स्वरूप' में की जाती थी । यद्यपि यह सत्य है कि शमन-धर्म के तत्व वेद से भिन्न इसलिए विपरीत भी हैं (क्योंकि एक ही स्थान की ओर जानेवाले दो भिन्न मार्गों से एक साथ कोई कैसे जा सकता है?) लेकिन शमन-धर्म या शैव-धर्म सनातन-धर्म का ही एक प्रकार है इसमें संदेह नहीं, और यह केवल मार्ग (और उपासना-पद्धति) की दुविधा ही है जिससे इन दोनों में विरोधाभास प्रतीत होता है ।
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Wednesday, 13 March 2019

ज़मीर / Conscience

Cancer : of the brain.
ज़मीर
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अपने अध्ययन के दौरान मैंने अपने लिए भाषाशास्त्र की जिस तकनीक का आविष्कार किया वह था भाषा के उद्गम का वैदिक सन्दर्भ । विस्तार से देखने के लिए आप मेरे इस ब्लॉग के 'अदिति' से संबंधित तथा दूसरे पोस्ट्स देख सकते हैं।  इसी तकनीक पर आधारित एक छोटा सा उदाहरण इस प्रकार है :
'ज़मीर' शब्द जिसका अंग्रेज़ी समतुल्य (equivalent) 'conscience' हो सकता है, अवश्य ही संस्कृत 'समीर' का सज्ञाति / cognate है ।  इसे इस प्रकार देखा जा सकता है :
सं + ईर् के दो पदों 'सं' और 'ईर्' में से प्रथम 'सं' उपसर्ग है, जो सम्यक् या संक्षिप्त, सारतत्व के अर्थ को दर्शाने के लिए प्रयुक्त होता है । इसी प्रकार 'ईर्' धातु ('ईर्' -- ईर्यते) का प्रयोग प्रेरणा के अर्थ में होता है । 'प्रेरणा' भी पुनः  'प्र' उपसर्ग और 'ईरणा' के संयोग से बनता है ।
वर्ण-साम्य (figurative transform) और ध्वनि-साम्य (Onomatopoeia) के द्वारा समीर (जिसका एक अर्थ बहती हुई पवन भी होता है) का रूपांतर होने से 'ज़मीर' प्राप्त होता है । संस्कृत में इसके लिए अधिक उपयुक्त शब्द है 'विवेक'; -विवेक भी पुनः उसी 'विवेच्य', 'विवेचना' का समानार्थी है, जिसका अंग्रेज़ी समतुल्य discrimination between the true and the false; good and evil, right and wrong   होता है । विवेक और विचार में से विवेक Intelligence  के समतुल्य है जबकि विचार  'thought' का समानार्थी है । विचार से हमें कोई परिणाम (conclusion) प्राप्त होता है जबकि विवेक से हमें निर्णय (decision). निर्णय ('नि' उपसर्ग के साथ 'नी - नयति' - ले जाता है) का अर्थ है "जहाँ से अन्यत्र नहीं जाया जा सकता"। इसी प्रकार 'निष्ठा' और 'निगम' शब्द की संरचना को भी समझा जा सकता है । 'decision' भी पुनः संस्कृत के दो पदों 'द्वि' तथा 'छिद्' धातु का संयोग है। 'द्वि' से हमें 'di' प्राप्त होता है जिसे carbon-dioxide जैसे शब्दों में यथावत देखा जा सकता है।  'छिद्' से ही हमें इसके समानार्थी अंग्रेज़ी 'cede' तथा 'cease' शब्द प्राप्त होते हैं ।
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चलते-चलते : मुझे नहीं पता कि सुप्रसिद्ध अभिनेता श्री अमिताभ बच्चन जी इस विडिओ को देखने के लिए समय निकाल सके होंगे । आकाशवाणी पर जितने भी विज्ञापन सुनाए जाते हैं, -जिनमें आयोडीन-नमक या पोलियो तथा दूसरे रोगों के लिए 'पाँच-साल सात बार' का ज़िक्र होता है सुनते हुए मैं प्रायः सोचता हूँ कि 'लोभ पाप का मूल है' कितना बड़ा सत्य है ! वैसे अविवेकपूर्ण भय भी पाप का मूल है, यह भी इतना ही बड़ा सत्य है । ---       
                          

Sunday, 10 March 2019

A correction.

Regrets! 
sentiment or centiment !
There was a spelling-error in an earlier post. Corrected; -Note please !


कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है !

आस्था या न्याय ?
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न्याय आस्था पर आश्रित होना चाहिए, किन्तु क्या आस्था भी न्यायसम्मत नहीं होना चाहिए?
स्थापित न्याय-प्रणाली राज्य (State) के संविधान के दायरे (मर्यादा) में कार्य करती है ।
न्याय संविधान की विवेचना (interpretation) के माध्यम से तय किया जाता है । 
विवेचना अर्थात् विवेक (conscience) से प्राप्त किया गया निष्कर्ष ।
विवेक (conscience) का प्रयोग, -क्या किसी धर्मग्रंथ को बीच में लाए बिना भी किया जा सकता है? 
इस प्रक्रिया में धर्म और आस्था की क्या भूमिका हो सकती है?
किसी 'प्रकरण' (the matter before the judiciary) के सारे पहलुओं को ध्यान में रखते हुए, इसकी विवेचना करना भी, कि धर्म और आस्था क्या है; न्याय-पालिका (judiciary) के लिए क्या इतना ही आवश्यक नहीं है ?
यदि "धर्म और आस्था क्या है?" इस प्रश्न पर विचार, और इसकी विवेचना नहीं की गई है, तो श्रेष्ठ न्याय के लिए क्या यह पर्याप्त और उचित आधार होगा ?
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क्या राजनीति ऐसे किसी प्रकरण में एक पक्षकार हो सकती है?
क्या समाज ऐसे किसी प्रकरण में एक पक्षकार हो सकता है?
क्या मीडिआ (संवाद-तंत्र) ऐसे किसी प्रकरण में एक पक्षकार हो सकता है?
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बस कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है !
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प्रसंगवश 

The Sacred Thread // यज्ञोपवीत

।।  सत्यं वद् धर्मं चर ।।  




Friday, 8 March 2019

नियति, भाग्य, दुर्भाग्य, और सौभाग्य

विचार, विचारधारा और सिद्धांत 
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मनुष्य और पशु में बुनियादी फर्क यह है कि मनुष्य के पास विचार होता है । मनुष्य को विचार उसके समाज से प्राप्त होता है । समाज जितना अधिक विचारसंपन्न होगा मनुष्य भी उतना अधिक विचारशील हो सकता है । किन्तु जैसे साधनों और उपभोग की वस्तुओं के बहुत होने से उनका दुरुपयोग भी बढ़ जाता है या वे बेकार पडी नष्ट भी हो जाया करती हैं, वैसे ही वैचारिक संपन्नता भी विपन्नता बन सकती हैं । इसमें संदेह नहीं कि विचार का विकास (ramification and enhancement) विज्ञान के विकास में सहायक है और वह जीवन के दूसरे भी अनेक क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है लेकिन क्या युद्ध के साधनों के आश्चर्यजनक आविष्कारों और उनकी प्रोन्नत तकनालाजी से नित नए भीषण शस्त्रास्त्रों का विकास और हर राष्ट्र द्वारा उन्हें अपनी 'रक्षा' के लिए ज़रूरी समझने के बाद भी उनका एक बड़ा हिस्सा अंततः 'बेकार', तिथिबाह्य, पुराना (obsolete, redundant, outdated) हो जाता है, और इसी तरह युद्ध के लिए तैयार की गयी कुशल मनुष्यों की पंक्तियाँ भी इसी तरह अंततः 'बेकार', तिथिबाह्य, पुरानी (obsolete, redundant, outdated) हो जाती हैं । हाँ, हम उनके जीते-जी या उनके मरणोपरांत उनका सम्मान अवश्य कर सकते हैं लेकिन इससे उनका जीवन लौटता है क्या ?
यंत्रों और यांत्रिक साधनों का 'बेकार', तिथिबाह्य, पुराना (obsolete, redundant, outdated) हो जाना तो फिर भी ठीक है लेकिन जो मानव युद्ध के संसाधन (human resources) होते हैं उनमें से बहुत से तो न जाने कितने युद्धों के दौरान अपाहिज, बीमार, भिन्न भिन्न मानसिक रोगों से रुग्ण हो जाते हैं, क्या यह आज के 'विकसित', सभ्य कहे जानेवाले मनुष्य के मुँह पर एक करारी थप्पड़ से कुछ कम है ?
इसी तरह कुछ लोगों के द्वारा भावनात्मक और बौद्धिक दिवालिएपन की हद यह कि उन्हें यह तक नहीं पता होता कि उनके पास कितनी दौलत है जिसमें से अधिकाँश सड़ रही होती है । दूसरी ओर कितने ही लोग, लाखों और करोड़ों, जिनके पास न तो कोई आजीविका है, न दो वक्त का भोजन, न रहने के लिए छोटा-सा मकान और न जिन्हें शिक्षा या रोज़गार के अवसर ही प्राप्त होते हैं, किस तरह गुज़र-बसर करते हैं इसकी किसी को फ़िक्र नहीं होती।  संपन्न भी कभी कभी अपराधी बन जाते हैं और गरीब, अशिक्षित, बेरोज़गार भी कभी कभी अपराध के रास्ते पर चल पड़ते हैं।
'वैचारिक सम्पन्नता' भी इसका अपवाद नहीं है । किसी विचार / विचारों से मोहित होना एक बात है और किसी विचारधारा से अभिभूत होकर उसके प्रति समर्पित होने की हद तक उसके कायल हो जाना ज़रा और बात है । विचारधाराएँ 'सिद्धांत' का रूप लेकर मनुष्य को विभिन्न वर्गों में संगठित करती हैं और इस प्रकार से सिद्धांत  राजनीति का आधार बनकर राजनीतिक रूप से चतुर, महत्वाकांक्षी, नेतृत्वकुशल लोगों के लिए सफलता की सीढ़ी जिस पर चढ़कर वे प्रतिष्ठ, पद तथा धन-दौलत बटोरते हैं । उनमें से भी कुछ केवल भोलेपन से इसका शिकार होते हैं, तो दूसरे इतने धूर्त और दुष्ट, असंवेदनशील होते हैं कि निष्ठुरतापूर्वक सबका शोषण निर्दयता से करते रहते हैं । इसलिए आश्चर्य नहीं कि संसार के किसी भी हिस्से में कोई ऐसा शासन-तंत्र कहीं नहीं स्थापित हो सका जो ईमानदारी से जनता की सेवा कर सके ।
और ऐसी राजनीति का सर्वाधिक क्रूर, वीभत्स रूप वह है जो धर्म के आधार पर लोगों को संगठित करता है । 
विचार मनुष्य की नियति है, विचारधारा उसका भाग्य, किसी विचारधारा से प्रभावित होकर उसके लिए समर्पित होकर काम करते रहना उसका दुर्भाग्य, और विचारधारा से अभिभूत हुए बिना मनुष्यमात्र में विद्यमान मानवीय चेतना की पहचान कर पाना उसका सौभाग्य है ।
यही सर्वाधिक स्वाभाविक तरीका है जिससे समाज और संसार किसी हद तक सुखी और शांतिपूर्ण स्थिति में रह सकता है । किसी आंदोलन, क्रान्ति, परिवर्तन या उपद्रव से, किसी धर्म या सिद्धांत का आग्रह करने से हम निरंतर दुविधा में रहते हुए अंततः लड़ते-झगड़ते हुए बस समाप्त हो जाते हैं ।
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विचार-निर्विचार

ग्रन्थि और ग्रन्थिभेद 
जडचिन्मध्ये ग्रन्थिर्घटिता ।
यद्यपि मृषा मुच्यते कठिनया।।
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जड-चेतन महँ ग्रन्थि परि जाई ।
जदपि मृषा छूटै कठिनाई ।।
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(मुझे पता नहीं कि मेरा इसे संस्कृत में रूपांतरित करने का प्रयास कितना सही-गलत, शुद्ध अशुद्ध है ! विद्वज्जन कृपया शुद्ध कर लें ।)
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विचार-निर्विचार 
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स्पष्ट ही है कि जड (विषय) / object और चेतन (विषयी) / subject . मूलतः और स्वरूपतः भी परस्पर अत्यंत विपरीत और विलक्षण हैं । इसलिए उनके बीच ग्रन्थि (गाँठ) पड़ जाना असंभव सा है । इसलिए यदि ऐसा प्रतीत होता भी है तो वह इसलिए क्योंकि 'विचार' नामक पर्दा उनके बीच अस्तित्व में आकर उन दोनों का दो भिन्न प्रकार के तत्वों के रूप में कृत्रिम और आभासी विभाजन पैदा कर देता है ।
'विचार' रूपी यह विभाजन भाषा की भूल से पैदा होता है ।
'मैं सोचता हूँ', 'मैं नहीं सोचता' आदि विचार आते हैं और चले जाते हैं। इसके साथ ही 'मैं सोच रहा था', 'मैं नहीं सोच रहा था', जैसा विचार भी इस वर्तमान के क्षण में पैदा होता है । विचार के दो आयाम होते हैं एक, -वह भौतिक समय जिसे घड़ी से सेकण्ड या सेकण्ड के किसी हिस्से में नापा जा सकता है । समय के इस पैमाने से, कोई भी विचार वस्तुतः बहुत अल्पकालिक होता है । किन्तु विचार के इस पहलू पर हमारा ध्यान शायद ही कभी जाता हो । वह; -जो है हमारा 'ध्यान', -वह काल / समय के किसी पैमाने से नितान्त अछूता है । उस पर काल / समय का कोई पैमाना लागू नहीं होता।  वह सतत, शाश्वत, सनातन और अविच्छिन्न है ।            
'मैं सोचता हूँ', 'मैं नहीं सोचता' आदि विचार आना और जाना जिस परिप्रेक्ष्य में होता है वह परिप्रेक्ष्य स्वयं न तो आता है न जाता है ।
किन्तु भाषा की भूल का अगला चरण यह होता है कि 'विचार' द्वारा ही पुनः 'मैं' परिभाषित किया जाकर उसे स्वयं (विषयी) से भिन्न कोई ऐसी सत्ता मान लिया जाता है जो स्थिर और अविकारी (immutable) है । और जो स्वयं से भी भिन्न हो । इससे बड़ा विरोधाभास और क्या हो सकता है ?
'विचार' विषय तथा विषयी के बीच अस्तित्व में आता है, और चला भी जाता है और इसलिए 'विचार' को कभी तो 'विषय', और कभी 'विषयी' मान लिया जाता है ।   
'विचार' इस प्रकार स्वयं ही अपने सृष्टा को कल्पना से सृजित कर लेता है।  
इस प्रकार 'मैं' के एक ऐसी एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में होने का 'विचार' घटित हो जाता है, जो किसी वास्तविक अस्तित्वमान वस्तु का सूचक नहीं, फिर भी उसे वास्तविक वस्तु की तरह ग्रहण कर लिया जाता है ।
इसलिए यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि  'मैं सोचता हूँ', 'मैं नहीं सोचता' इत्यादि प्रकार के वाक्य व्यवहार में  भले ही प्रयोग किए जाएँ मूलतः वे यह भ्रम पैदा करते हैं कि 'मैं' नामक व्यक्ति की स्वतंत्र सत्ता है । शरीर, मन, बुद्धि आदि विशेषताएँ अवश्य ही मस्तिष्क में स्थित स्मृति का विषय हैं किन्तु स्मृति इन सब तत्वों को जिस सूत्र में ग्रथित करती है, वह सूत्र स्वयं नित्य बनता-मिटता रहता है और स्मृति की निरन्तरता से ही यह भ्रम पैदा होता है कि 'मैं' नामक व्यक्ति की स्वतंत्र सत्ता है ।
विचार का जन्म और विचार का अन्त, निरन्तर अनेक विचारों से जिस विचार-शृँखला को बनाता है वह विचार-शृँखला किसी कल्पित संसार का आधार होती है । ऐसे असंख्य संसार क्षण-क्षण प्रतीति की तरह प्रकट और विलुप्त होते रहते हैं और यदि उनकी सत्यता की परीक्षा की जाए तो उनमें से कोई भी न तो इन्द्रियग्राह्य होता है, न बुद्धिग्राह्य ।
विचार-शृंखलाओं के इस खेल में चेतन (विषयी) इतना मग्न हो जाता है कि चेतना के स्वरुप का विस्मरण हो जाता है और इसी समय वह चेतना की बजाय उस स्वतंत्र संसार को सत्य मान लेता है, जिसमें उसे अपने जैसे ही असंख्य व्यक्ति दिखाई पड़ते हैं । जबकि 'चेतना' / consciousness विषय-विषयी के इस विभाजन से सर्वथा अछूती है।
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Tuesday, 5 March 2019

'भूख' की रिंगटोन

तथ्य, प्रश्न और समस्या
'बोरियत' शायद हर किसी के लिए एक महत्वपूर्ण विषय है । कोई भी विषय (मुद्दा) तभी महत्वपूर्ण होता है, जब वह हमसे बहुत गहराई से जुड़ा होता है, -हमसे बहुत घनिष्ठ होता है; एक तरह की 'love-hate-relationship', -जिसमें हम तय नहीं कर पाते कि हम उससे छुटकारा चाहते हैं या छुटकारा बिलकुल भी नहीं चाहते । तब हम उसे 'जी' रहे होते हैं ।  लेकिन जब कोई मुद्दा हमारे लिए अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण, यहाँ तक कि इतना व्यर्थ होता है कि उससे ऊब होने लगती है, तो यह ऊब हमारे लिए 'बोरियत' हो जाती है । और फिर भी बोरियत भी किसी एक ही या दूसरे विषय के संबंध में होती हो, ऐसा भी नहीं है । अलग अलग वक्त पर हमें अलग अलग चीज़ों से बोरियत होती है । कभी कोई नया गाना हमें इतना अच्छा लगता है कि उसे हम अपनी रिंगटोन बना लेते हैं और थोड़ी देर बाद ही उससे ऊब जाते हैं ।  फिर हमें कोई दूसरा गाना इतना अच्छा लगता है कि उसे हम रिंगटोन बना लेते हैं। इस तरह गाने बदलते रहना भी न तो प्रश्न है न समस्या और किसी गाने से ऊब जाना भी न तो प्रश्न है, न समस्या । कोई स्थिति प्रश्न या समस्या कब बनती है ? एक उदाहरण लें 'भूख' का। जब हमें 'भूख' लगती है तो भोजन हमारी ज़रूरत होता है और वह न मिल पाए तो कुछ देर हम अपना ध्यान किसी दूसरी ओर लगा सकते हैं या दूसरी ओर ध्यान लगाया जाना अधिक ज़रूरी होता है । लेकिन एक हद के बाद जब 'भूख' बर्दाश्त से बाहर हो जाती है तो जिस दूसरी ओर हमने ध्यान दिया था उससे हमारा ध्यान हटने लगता है और 'भूख' से निपटने की ओर अनायास एकाग्र हो जाता है । तब 'भूख' की रिंगटोन कैसी है हमारे लिए इस बारे में सोचना तक मुमकिन नहीं रह जाता, और 'रिंगटोन' उबाऊ है या पसंद है यह मुद्दा तो हमारे लिए उपेक्षणीय हो जाता है । लेकिन जब 'भूख' शांत हो चुकी होती है तब 'भूख' के तथ्य का सामना हम उसका सामना 'समस्या' की तरह नहीं बल्कि उसे एक प्रश्न समझ कर करते हैं । तब मुझे यह तथ्य / मुद्दा मेरे अपने भूखे होने की तरह कचोटता नहीं, बल्कि वह समाज के दूसरे लोगों की 'भूख' के बारे में होता है जो मुझे केवल तभी और इतना ही कचोटता है जब इससे मेरा सीधा सरोकार हो, जब यह मेरी व्यक्तिगत ज़रूरतों, इच्छाओं, शुभ-अशुभ, पवित्र-अपवित्र लालसाओं पर कुठाराघात करने लगता है । और यह भी हो सकता है कि यह मुझमें विद्यमान मेरी स्वाभाविक मानवीय-संवेदना के कारण भी मेरे लिए महत्वपूर्ण होता हो, जिसका विस्तार प्राणिमात्र तक होता हो । 'भूख' जैसे अनेक ऐसे तथ्य / मुद्दे हैं जो मेरे जीवन से अभिन्नतः जुड़े होते हैं और यह तो मेरी संवेदनशीलता ही है जिसका विस्तार होने पर वे मुझमें स्वाभाविक मानवीय संवेदनाएँ पैदा होने का कारण हो सकते हैं । लेकिन इस संवेदनशीलता की कमी या इसके अभाव से ही मैं बहुत मूर्ख और इसलिए चालाक, धूर्त, छल-कपटपूर्ण भी होता हूँ क्योंकि तब मैं केवल 'अपने' सुख के लोभ या वह सुख खोने की आशंका से ग्रस्त होकर इस सुख को सुरक्षित करना तथा और-और बढ़ाते रहना चाहता हूँ । और मजे की बात यह भी है कि तब मैं अपने-आपको बहुत चतुर या स्मार्ट भी समझ सकता हूँ।  हो सकता है कि मैं 'भूख' के विरुद्ध अपने जैसे (?) लोगों का एक संगठन बना लूँ । इस 'सुख-लिप्सा' को मैं 'सांसारिक-धरातल' की  'तुच्छ-वस्तु' कहकर उसकी भर्त्सना भी कर सकता हूँ, इस 'सुख-लिप्सा' को किसी काल्पनिक 'ईश्वर', 'स्वर्ग' या 'मुक्ति' की प्राप्ति का नाम देकर मैं अपने आपको दूसरों से श्रेष्ठ समझने का भ्रम भी पाल सकता हूँ, और इस तरह जाने-अनजाने दुर्भाग्यवश प्रकृति-प्रदत्त स्वाभाविक संवेदनशीलता से भी स्वयं को वंचित कर सकता हूँ, जो मेरी असंवेदनशीलता, मूर्खता आदि ही होगा । यह संगठन भी पुनः मुझे अत्यंत व्यस्त किए रह सकता है और मैं 'मिशन-भावना' से इसके प्रति समर्पित भी हो सकता हूँ । लेकिन क्या इससे 'बोरियत' के तथ्य का समाधान होता है ? या वह तथ्य बस आँखों से ओझल भर हो जाता है ? हाँ, किसी 'आदर्श' के लिए समर्पित होकर कार्य करने में मुझे गौरव और अभिमान भी महसूस हो सकता है, जो बिलकुल वैसा ही एक 'तथ्य' है जो किसी भी कट्टर और धर्मान्ध व्यक्ति में अपने 'धर्म' के लिए खुद को और दूसरों को भी मिटा-मार डालने में महसूस होता है ।
'भूख', 'बोरियत', 'समाज' 'देश' जैसे और भी अनेक तथ्य / मुद्दे हैं और अधिक महत्वपूर्ण यह है कि मैं उन्हें समस्या की तरह देखता हूँ या प्रश्न की तरह । मैं उनका निदान (diagnosis) करता हूँ और कोई समाधान (उपाय) कर उन्हें हल करता हूँ, या बस ऊब से ऊब तक गुज़रता रहता हूँ ।
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Monday, 4 March 2019

आधिभौतिक / आधिदैविक - कसौटी

विज्ञान की कसौटी / मर्यादा
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श्री राजीव दीक्षितजी का एक विडिओ यू-ट्यूब पर देखा ।
स्त्रियाँ सदा पवित्र (और निष्पाप भी) होती हैं, -यह अवश्य ही बिलकुल सत्य है चाहे इसे कोई धर्मग्रंथ माने या न माने । केवल पुरुष ही प्रायः अपवित्र और पापयुक्त होते हैं किन्तु बुद्धि तो किसी की भी शुद्ध या मलिन, निर्दोष या दूषित हो सकती है यह भी सत्य है । और इसलिए स्त्री पतित भी प्रायः तभी होती है जब कोई पुरुष उसके  पतित होने के लिए कारण होता है ।
श्री राजीव दीक्षितजी की बात पूर्णतः तर्कसंगत और न्यायसंगत भी है । और जब वे कहते हैं कि वह ख़ास समय, जब स्त्री रजस्वला होती है तब भी वह पवित्र होती है इतना ही सत्य है । वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो भी इसे स्वीकार किया जा सकता है । वे यह भी कहते हैं कि किसी भी वेद में स्त्री के लिए उस समय भी मन्त्रों का, यहां तक कि धीमे स्वर में प्रणव का जप करना भी निषिद्ध नहीं है ।
वास्तव में यहाँ वे यह भूल जाते हैं कि यद्यपि स्कन्द-पुराण में स्त्री के लिए सामान्य अवस्था में भी प्रणवसहित षडाक्षर या द्वादशाक्षर मन्त्र का उच्चारण निषिद्ध है, जब साधना में उसकी पर्याप्त प्रगति हो जाती है तब वह प्रणवसहित इन मन्त्रों का जप कर सकती है । स्कन्द-पुराण में तो स्वयं भगवान शंकर ने पार्वती से यही कहा था ।
याद आता है "श्री रमण महर्षि से बातचीत" का एक प्रसंग जब यह स्पष्ट किया जाता है कि पानी में डूबा हुआ व्यक्ति बोल क्यों नहीं पाता ? सामान्य बुद्धि से कहा जाता है कि तब चूँकि मुँह खोलते ही पानी उसके मुख में चला जाएगा और वह साँस न ले सकने से मर भी सकता है । किन्तु शास्त्र पर तर्क-वितर्क करनेवाले विद्वान् यह तर्क देते हैं कि वाणी अग्नि तत्व है और पानी जलतत्व, और पानी में आग बुझ जाती है इसलिए पानी में डूबा व्यक्ति बोल नहीं सकता ।
वास्तव में जो बात सामान्य तर्क से भी समझी / समझाई जा सकती है उसके लिए कोई गंभीर तर्क दिए जाने को तो बुद्धि का दुरुपयोग ही कहा जाना चाहिए ।
इसी विडिओ में श्री राजीव दीक्षितजी कहते हैं, चूँकि ऋतुकाल के समय अग्नि तत्व बढ़ जाने से रक्तचाप भी बढ़ जाता है इसलिए भी स्त्री को उस दौरान उच्च स्वर में मन्त्र आदि का उच्चारण नहीं करना चाहिए । किन्तु जब वाणी स्वयं ही अग्नि तत्व है और विशेष रूप से मन्त्र तो वाणी से ही होते हैं, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या तब उनके धीमे या उच्च स्वरों में उच्चारण करने से अग्नितत्व का प्रभाव नहीं बढ़ेगा । वास्तव में विज्ञान की अपनी मर्यादा और कसौटी है । जब तक अग्नि (और वायु, जल, पृथ्वी तथा आकाश आदि) को एक आधिभौतिक सत्य के रूप में देखा और उस दृष्टि से उसका अध्ययन और उससे व्यवहार किया जाता है, तब तक उस कसौटी पर उसके प्रभाव और गुणों के बारे में कहा जाना ठीक ही है, किन्तु जैसे ही उसके आधि-दैविक स्वरूप को सत्य मानकर उस दृष्टि से उसका अध्ययन और उससे व्यवहार किया जाता है तो उस पर आधिभौतिक के नियम और सिद्धांत कितने और कैसे लागू होंगे कहना कठिन है ।
पाप और पुण्य, पवित्रता और अपवित्रता, आधिदैविक अर्थात् अधिमानसिक (मन से जुड़ी स्थूल अथवा सूक्ष्म) स्थितियाँ होती हैं, और वे सामाजिक, परंपरागत मान्यताओं से, तो दूसरी ओर स्वयं व्यक्ति के अपने विवेक / दृष्टिकोण से भी गहराई से जुड़ी होती हैं, वहीं 'धर्म' से उनका क्या संबंध हो सकता है इसका कोई सर्वसम्मत उत्तर शायद ही किसी के पास हो ।
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Orthography / अर्थग्राही

भाषा-विन्यास 
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इससे पहले की पोस्ट "पाण्डुलिपि / The Manuscript" लिखते समय दरअसल मैं यह कहना चाहता था कि किस प्रकार इस पुस्तक "I AM THAT" का हिंदी अनुवाद "अहं ब्रह्मास्मि" करते समय मेरा समान्तर प्रयास यह था कि भाषा की संरचना (Orthography) के बारे में अनुसंधान भी साथ-साथ चलता रहे ।
"वर्णानामर्थसंघानां ..." के सन्दर्भ पर तब मेरा ध्यान नहीं था किन्तु मुझे यह अवश्य प्रतीत हुआ कि यदि संस्कृत भाषा की संरचना की समझ स्पष्ट हो तो दुनिया की किसी भी भाषा की संरचना को अच्छी तरह समझा जा सकता है, जबकि संस्कृत के अलावा किसी भी अन्य भाषा की संरचना की कितनी भी अच्छी समझ हो, और वह समझ संस्कृत की संरचना को समझने में सहायक भले ही हो, हमेशा सहायक होती ही हो यह ज़रूरी नहीं है । वैसे मैंने आज के प्रचलित भाषाशास्त्र का गंभीर अध्ययन कभी नहीं किया, इसलिए उस बारे में कुछ कहने का मेरा अधिकार शायद नहीं है, लेकिन संस्कृत (की संरचना) का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से मुझे यही अनुभव हुआ ।
शब्द-साम्य (रूपिम), वर्ण-साम्य (स्वनिम), ध्वनि-साम्य (Onomatopoeia), लिपि-साम्य (?) तथा अर्थ-साम्य (?) इन पाँच कारकों से किसी भी भाषा की संरचना और इस आधार पर उसके व्याकरण को भी इसी प्रकार बेहतर समझा जा सकता है ।
मेरा कोई दावा नहीं कि भाषा-विज्ञान की अधुनातन खोजें भ्रामक या त्रुटिपूर्ण हैं, किन्तु संस्कृत के दस व्याकरणों के बारे में मैं जितना समझ सका उसके आधार पर यह कह सकता हूँ कि भाषा तथा व्याकरण का उद्भव और प्रचलन दो प्रकार से हुआ । पहला, जो बाह्य-स्तर पर मनुष्य के द्वारा प्रयोग में लाए जानेवाले ध्वनि-संकेत (Onomatopoeia) पर आधारित कामचलाऊ भाषा के उद्भव के रूप में हुआ, दूसरा आतंरिक (मनोगत) स्तर पर मनुष्य के हृदय से उत्स्फूर्त हुए वर्णों के क्रमबद्ध संयोजन द्वारा ।
इस निष्कर्ष पर पहुँचने में मुझे लगभग बीस वर्षों से भी अधिक का समय लगा क्योंकि मैंने अपनी अंतःप्रेरणा / intuition को इस बारे में चिंतन का आधार बनाया। स्पष्ट है कि अंतःप्रेरणा से होनेवाली प्रतीति की पुष्टि बाहरी तर्कों से हो यह ज़रूरी नहीं, इसलिए भी मुझे एक सुनिश्चित सिद्धांत तय करने के लिए बहुत समय लगा । चूँकि मैं उच्चतर गणित और विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ और संस्कृत भाषा का मेरा अध्ययन सिर्फ इस हेतु से प्रेरित हुआ कि मैं धर्म तथा अध्यात्म के उन भारतीय ग्रंथों को पढ़ना चाहता था जो मूलतः संस्कृत में लिखे गए हैं । अंतःप्रेरणा से ही मुझे सदा यही लगता रहा है कि किसी भी धर्मग्रन्थ का किसी भी दूसरी भाषा में प्रामाणिक अनुवाद केवल वही कर सकता है जिसका मूल ग्रन्थ की भाषा पर इतना अधिकार हो मानों वह उसकी मातृभाषा ही हो । इसलिए भारत या सनातन-धर्म के मूल संस्कृत भाषा (या पालि प्राकृत इत्यादि भी,) में लिखे गए जितने भी विभिन्न अनुवाद हैं, उनका मैंने न तो कभी मूल्यांकन किया और न उनकी प्रामाणिकता की परीक्षा ही की । और चूँकि मैं उन्हें उनकी मूल भाषा (संस्कृत, पालि) में ही अधिक अच्छी तरह पढ़ और समझ सकता था इसलिए भी इस सबकी ज़रूरत तक मुझे कभी महसूस नहीं हुई । दूसरी ओर जब मैंने इन ग्रंथों के उन तथाकथित लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों के द्वारा किए गए अंग्रेज़ी अनुवादों को पढ़ा तो मुझे प्रायः हँसी आती रही कि किस प्रकार उनके पास मूल संस्कृत शब्दों के भाव / अर्थ को अंग्रेज़ी में व्यक्त करने के लिए ऐसे शब्द ही नहीं हैं, और वे केवल जिस किसी तरह संभव हो उनके तात्पर्य को खींच-तान कर कोई अर्थ निकालने में लगे रहे । इसके मूल में यद्यपि एक कारण यह भी है कि जहाँ एक ओर संस्कृत का व्याकरण इतना सुगठित (compact), इतना सुनियत ( meticulous) और इतना अर्थग्राही (Orthographic) है कि उसके सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य में उसका अर्थ निर्विवादतः स्पष्ट हो जाता है, वहीं दूसरी ओर संस्कृत में लिखे ग्रन्थ प्रायः 'छन्द' अर्थात् कविता के रूप में लिखे गए हैं । और किसी कविता का शाब्दिक अर्थ और भावगत अर्थ वैसे भी परस्पर अत्यंत और बहुत भिन्न होते हैं इसलिए किसी 'विचार' की तरह उनका अनुवाद करना एक अत्यंत जोखिम भरा कार्य है जो मूल के तात्पर्य को न सिर्फ बदल देता है बल्कि प्रायः विकृत तक कर सकता है ।
अभी तीन-चार दिनों पहले मैं श्री राजीव मल्होत्रा और श्री नित्यानंद मिश्राजी का एक विडिओ यू-ट्यूब पर देख रहा था । चूँकि मैंने वाल्मीकि-रामायण के गीता-प्रेस के हिंदी अनुवाद के संस्करण को ध्यान से पढ़ा था, और मुझे उसके अंग्रेज़ी अनुवाद को पढ़ने की ज़रूरत कभी महसूस तक नहीं हुई इसलिए भी यह विडिओ मुझे इसका एक श्रेष्ठ उदाहरण प्रतीत हुआ, कि किस प्रकार विभिन्न विदेशी भाषाविदों ने (जिनकी मातृभाषा संस्कृत नहीं रही), केवल बौद्धिक और साहित्यिक तर्कों से यथासंभव श्रमपूर्वक भी इन ग्रंथों का अपनी भाषा में अनुवाद करते समय उसके तात्पर्य को न केवल इतना तोड़-मरोड़ दिया कि उससे मूल भाव और तात्पर्य विरूपित हुआ, बल्कि वह हास्यास्पद होने की सीमा तक जा पहुँचा । जब वाल्मीकि रामायण जैसे ग्रंथों (के अनुवाद) की यह हालत है तो वेद तथा गीता जैसे ग्रंथों के (अनुवाद के) बारे में तो बस अनुमान लगाना ही काफी होगा । वास्तव में यह हमारा अपनी विरासत के प्रति घोर प्रमाद ही है कि विदेशी जिसका अनुचित लाभ लेकर न सिर्फ हमारे ग्रंथों के मनमाने तात्पर्य तय और व्यक्त करते हैं बल्कि इसके लिए वाहवाही भी लूट लेते हैं । और उनमें से कुछ अवश्य ही येन-केन-प्रकारेण हमारी संस्कृति, भाषा, इतिहास को नीचा दिखाना तथा उसका मज़ाक उड़ाना भी चाहते हैं ताकि इस बहाने उनकी अपनी हीनता-ग्रंथि को छुपा भी सकें। 
उक्त विडिओ देखते समय मैंने उन प्रथम पाँच श्लोकों सहित वाल्मीकि रामायण के गीताप्रेस के उस संस्करण को सामने रखा जिसके बारे में इसमें विवेचना की गई है । इसी प्रसंग में जैसा कि जर्मन लेखक Wilhelm Von Pochhammer ने अपनी पुस्तक India's Road to Nationhood में लिखा था :
"यदि आपको किसी राष्ट्र को नष्ट करना है तो उसके इतिहास को नष्ट कर दो",
इन विदेशी भाषा के विद्वानों ने हमारे इतिहास को न सिर्फ नष्ट किया है बल्कि उसे अनुवाद तथा अध्ययन के बहाने से इतना अधिक विकृत भी कर दिया है कि हम इन ग्रंथों को "Mythology" समझने लगे हैं और विद्वत्ता के अपने ग़रूर में अंग्रेज़ीदां होने में गौरव महसूस करने लगे हैं ।
यद्यपि मेरे इस पोस्ट का उद्देश्य था Orthography की विवेचना करना, -किन्तु वह काम फिर कभी ।
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Sunday, 3 March 2019

The Manuscript पांडुलिपि

अहं ब्रह्मास्मि / I AM THAT (Hindi) 
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In the year 1990 I was determined I didn't need a livelihood, because that meant I had to yield to many kinds of pressures, fears, apprehensions, compromises and the most important; to remain a slave to the 'Psychological Dependency'.
I had my hard-earned money in the form of my bank-balance that helped me in meeting the urgent and essential needs at that time.
So one fine day on 4th April 1990 I overcome my apprehensions and fears about the future-course of my life and just decided to quit the job. The job that I was pursuing was just eating into my life and had nothing to offer me in return except a blind hope to survive and 'enjoy' the life of a man with worldly desires and ambitions; -duties and responsibilities to be performed in order to 'achieve' some 'goals' or 'ideals'.
Summarily I went into retreat for good. That meant I had enough time to ponder over and think about my life and the life as a whole.
A year passed and on 11th February 1991, I arrived at the bank of the River Narmada, namely at the place Onkareshvar. Living upon a high place, some 50 feet away and 50 feet higher too above the bank, I lived in an Ashram beside Sri Ramkrishna devotee's place then known as 'safed-kuti'. This place was upon the 'parikrama-path' that encircled the 'Mandhata Hill'. This Hill is thought of as much sacred as the 'Arunachala-Hill' in the South-India. [In Skanda-PurANa, we find a narrative about both these places]. This 'parikrama-path' that winds along and inside the river which has the 'Mandhata Hill' as an island in its waters circumvents around the hill also. For me, this is very auspicious a confluence of the two rivers at two points which form a loop in this way. The rivers Narmada and Kaveri meet at some point about 4 k.m. away from the hill, merge into one where the two distinct streams in two shades run all over, and finally reaching the hill bifurcate again into two. This way, the bifurcation looks like as if there were two different rivers which met again at the next confluence.
Thus there are 2 confluences of the same two rivers.
The two rivers merge, bifurcate and re-merge.
This also forms what is called 'Somatirth / सोमतीर्थ' / जलाधारी', which is the path around a traditional Shiva-lingam in any Shiva-temple.
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I had the great fortune of living in that place all alone. Often I didn't even speak to a man for days together. I used to go to local market beside the main temple 2 k.m. away from my place.
On a very hot day in April 1991, I was gripped by an urgent inspiration that the Book :
"I AM THAT" of Sri Nisrgadatta Maharaj ; 
needs to be translated into Hindi.
I went to the market in the evening and bought a rough-paper note-book (price : Rs. 4/-) and meant for students who could not afford the costly stationery. I took to do the translation-work myself and soon realized it was a hard and very difficult job for me. Then I bought 2 pencils and erasure, because the alterations and corrections in ink made the whole thing rather clumsy and incomprehensible too.
I did this work there and then I finished the translation of some 10-12 chapters of the book.
Then I left that place and my work came to a temporary halt.
After some 6 months I took a place on rent (43 Bhaktinagar Ujjain) and started the work again afresh. During the next few years I kept translating at a regular pace but with no proper order. I would take-up whatever chapter came before me and do the same.
This way I had done some 46 chapters when I had to take a brief break for about 6 months when I lived at No. 427 in a Colony in Sethinagar, Ujjain.
Then in 1995 I changed my residence and was living at *LIG II, A-18/15, Mahanandanagar Ujjain, which I finally left for good on February 5, 2000. Here I completed the whole text and neatly wrote down in pencil, edited once more and finally copied-down in ink once again.
This was a great period when I completed the manuscript, and God knows how it went to the publishers, and was subsequently brought to light in 2001 by chetana.com .
The first edition of the book mentions my address as given here, but I never lived there afterwards, after February 5, 2000, nor had any contact whatsoever with that place.
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Saturday, 2 March 2019

An old dream.

A Dream Revisited.


परा-विद्या और अपरा विद्या

मुण्डकोपनिषत् -प्रथम मुण्डक,
प्रथम खण्ड,
ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता ।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥१
अर्थ :

ब्रह्मा (आ+ब्रह्मन्) देवताओं में सर्वप्रथम हुए ।
वे ही सर्वविश्व के कर्ता और समस्त लोकों के संरक्षणकर्ता हैं ।
जो विद्या समस्त विद्याओं का आधार एवं अधिष्ठान है, उस विद्या का उपदेश ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को प्रदान किया ।
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अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माथर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम् ।
स भारद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम् ॥२
अर्थ :
अथर्वा को जिस विद्या का उपदेश ब्रह्मा ने किया, उसी पूर्वकृत ब्रह्मविद्या का उपदेश अथर्वा ने अङ्गिरा (अङ्गी) को किया । अङ्गिरा द्वारा वही उपदेश पुनः भारद्वाज (भरद्वाज गोत्र से संबद्ध) सत्यवह नामक ऋषि को दिया गया । इस प्रकार पूर्व से पश्चात्क्रम से दी जानेवाली इस विद्या का उपदेश सत्यवह द्वारा अङ्गिरस् (अङ्गिरा) नामक ऋषि को दिया गया ।   
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शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ ।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं भवतीति ॥३
अर्थ :
शौनक नामक एक ऋषि (जिनके महाविद्यालय में 88000 शिष्य अध्ययन करते थे) विधि-विधानपूर्वक अङ्गिरा से दीक्षित हुए और उनसे प्रश्न पूछा :
भगवन् ! वह क्या है जिसे जान लिए जाने पर यह सब जान लिया जाता है?
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तस्मै स होवाच । द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ॥४
अर्थ :
(तब) उन शौनक ऋषि से अङ्गिरा ने कहा :
जिसे ब्रह्मविद् जाननेयोग्य विद्याएँ कहते हैं वे दो हैं - परा-विद्या और अपरा विद्या ।
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तत्रपरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तो छन्दो ज्योतिषमिति । अथ परा यदक्षरमधिगम्यते ॥५
अर्थ :
उपरोक्त दो विद्याओं में से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष को अपरा विद्या कहा जाता है ।
एवं जिस विद्या के द्वारा अक्षर (अविनाशि-तत्व) को जाना जाता है, उसे परा विद्या कहते हैं ।
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टिप्पणी :
अपरा विद्या वह है जिसे इन्द्रियों, मन, बुद्धि, स्मृति तथा संकल्प से जाना जाता है और इसलिए यह 'ज्ञाता-ज्ञात-ज्ञेय' इन तीन में विभक्त होता है, अर्थात् ये तीनों परस्पर भिन्न-भिन्न होते हैं । तात्पर्य यह कि स्मृति के ही द्वारा ज्ञाता को भ्रमवश ज्ञात तथा ज्ञेय से भिन्न और स्वतंत्र मान लिया जाता है जबकि ज्ञात तथा ज्ञेय की ही तरह ज्ञाता भी क्षण-क्षण प्रस्तुत और विलीन होता रहता है । 
परा-विद्या वह है जिसे इन्द्रियों, मन, बुद्धि, स्मृति तथा संकल्प से नहीं जाना जा सकता और इसमें 'ज्ञाता-ज्ञात-ज्ञेय' परस्पर अभिन्न होते हैं । ब्रह्मविद् ब्रह्म भवति ।
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यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमचक्षुःश्रोत्रं तदपाणिपादम् ।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तदव्ययम् ।।६
अर्थ :
वह जो दृष्टि का विषय नहीं हो सकता, इन्द्रियों, मन, बुद्धि, स्मृति तथा संकल्प की पकड़ में नहीं आ सकता, जो गोत्र, (कुल, वंश, जाति) तथा वर्ण से रहित है, जो नेत्र अथवा कान से ग्रहण किया जा सकनेवाला विषय नहीं है, जो हाथों-पैरों इत्यादि अंगों से भी रहित है । जो नित्य, विभु, सबमें है तथा सर्वत्र है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है और वही अविनाशी है, उसे धीर ब्रह्मविद् 'ज्ञाता-ज्ञात-ज्ञान' के परस्पर अभेद को जानकर से जान लेते हैं ।
टिप्पणी :
चूँकि ब्रह्म सजातीय, विजातीय तथा स्वागत तीनों प्रकार के भेदों से रहित है ।
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यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति ।
यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि तथाक्षरात्सम्भवन्तीह विश्वम् ।।७
अर्थ :
जैसे मकड़ी अपने भीतर से ही सूत्र उगलकर जाल को निर्मित और धारण करती है, जैसे पृथिवी से वनस्पतियाँ और ओषधियाँ उत्पन्न होकर पुनः पृथिवी में ही लीन हो जाती हैं, जैसे पुरुष में उसके शरीर से ही रोएँ तथा केश आदि उत्पन्न होते हैं, वैसे ही अविनाशी अक्षर-ब्रह्म से ही सम्पूर्ण विश्व व्यक्त होता है ।
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तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते ।
अन्नात्प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसु चामृतम् ।।८
अर्थ :
ब्रह्म को जिस तप के द्वारा जाना जाता है, फिर जिस तप के द्वारा अन्न की सृष्टि होती है, अन्न से ही प्राण, मन तथा सत्य आदि लोक होते हैं, वह तपरूपी कर्म अमृतस्वरूप है अर्थात् जन्म-मृत्यु रहित अविनाशी है ।   
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यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तपः ।
तस्मादेतद्ब्रह्म नाम रूपमन्नं च जायते ।।९
अर्थ :
यह जो 'ज्ञाता-ज्ञात-ज्ञान' के परस्पर अभेदरूपी सबको जाननेवाला, सर्वत्र ज्ञानस्वरूप ज्ञानमय ब्रह्मरूपी तप है, उस तप से ही नाम-रूपात्मक अन्न उत्पन्न होता है (और पुनः उसी में विलीन हो जाता है ।)
।। प्रथम खण्ड समाप्त ।।
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Hunger brings the food, and disease brings the medicine.
But Who exactly brings the hunger and Who exactly brings the disease ?
The knowledge (consciousness) of the hunger brings the hunger and the knowledge (consciousness) of the disease brings the medicine.
This knowledge (consciousness) that manifests and disappears is imperishable Brahman (ब्रह्मन्), that keeps illuminating its manifestation and disappearance, though essentially परब्रह्म / Immanent and अपर-ब्रह्म / Expression accordingly whenever manifest or prior to manifestation.
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Though the body may feed itself or die starving, the body may survive through the medicine or may die in the absence of the same, The imperishable परब्रह्म / Immanent and the अपर-ब्रह्म / Expression are in no way affected.
Though the name and form may take and reject a hundred expressions, The Self remains unaffected.
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