Sunday, 30 October 2016

वामावर्त-स्वस्तिक -2.

वामावर्त-स्वस्तिक -2.
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दक्षिण और वाम मार्ग
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विक्रमार्क ने हठ नहीं त्यागा । वह श्मशान की ओर चल पड़ा । निर्जन अंधकारपूर्ण वन में तारों का प्रकाश ही उसका मार्ग आलोकित कर रहा था और वह निर्भयचित्त पग-पग धैर्यपूर्वक चला जा रहा था । उल्लुओं की हू-हू, चर्मगात्रों (चमगादड़ों) की उड़ान उसे रोमांचित तो करते थे किंतु वह इनका अभ्यस्त था । कहीं दूर सिंह या व्याघ्र की दहाड़ या हाथियों की चिंघाड़ उसे क्षण भर को विचलित कर देते थे किंतु वह सतर्क भी था ।
जब वह पेड़ के समीप पहुँचा तो उसने वेताल को और उस शव को देखा, और बिना कोई प्रतिक्रिया किए शव को कंधे पर लादकर लौट पड़ा ।
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दो-चार कदम चलने बाद शव में स्थित बेताल का कंठस्वर फूटा :
"राजन् !! पिछले दिनों में तुमने मिलने का अवसर नहीं दिया ठीक ही तो है! तुम राज्य के संचालन में इतने व्यस्त रहते हो किंतु मैं तो प्रायः हवा के साथ मरुद्गणों सा उड़ता रहता हूँ । कभी किसी वृक्ष पर तो कभी किसी सुनसान स्थान पर । महल या कुटिया, उजाड़ स्थान मुझे शान्ति हैं और कोलाहल से मुझे कष्ट होने लगता है । श्मशान का सन्नाटा मुझे सर्वाधिक प्रिय है किंतु वहाँ प्रतिदिन कुछ चिताएँ जलती हैं और उन ज्वालाओं के आसपास जब मृतक के परिजन प्यासे होते हैं तो भी मुझे बहुत वेदना होती है । और मैं चाहकर भी उनके मुख से पानी नहीं पी सकता । और वे कभी कभी उनकी परंपरा के अनुसार उनके मृतक के बहाने अनजाने ही मुझे भी जल अर्पित कर देते हैं तो मुझे अथाह तृप्ति अनुभव होती है । यह उनका स्नेह ही होता है जो तिल के माध्यम से जल के साथ मृतक की दिवंगत आत्मा को प्राप्त होता है किंतु मैं भी अनायास उस स्नेह का भागी हो हूँ और उन्हें आशीष हूँ । पर ऐसा बहुत कम ही होता है । मेरे दुर्भाग्य से मेरे राज्य में वैसे भी जल के स्रोत कम ही थे कुभा के जल पर गंधर्वों का आधिपत्य था और हम उन्हें कभी देख तक नहीं पाते थे । शायद इसीलिए हमारे राज्य की एक राजकुमारी ने हस्तिनापुर के कुरु राजकुमार से विवाह हो जाने पर आँखों पर सदा के लिए पट्टी बांधने का व्रत ले लिया था ।
बौद्ध-भिक्षुओं आगमन बाद मेरे दोनों राजकुमारों ने भी बौद्ध-धर्म स्वीकार कर लिया किंतु उन्होंने प्रव्रज्या  हुए भगवान के अनुयायियों की सेवा करने का व्रत लिया । पाटलिपुत्र, श्रावस्ती, कौशल से कारीगर, मूर्तिकार  शिल्पियों को निमंत्रित किया जिन्होंने भगवान (बुद्ध) की अनेक प्रतिमाएँ बनाईं । यहाँ आनेवाले पारिव्राजक भिक्षुओं ने भी पर्वत की भित्तियों पर चित्र उकेरे किंतु मुझे यह सोचकर पीड़ा होती है कि कालक्रम में वे सब ध्वस्त हो जानेवाले हैं । मरुद्गण उन्हें तोड़ देंगे । गंधर्व भी उन्हें ऐसा करने से नहीं रोक सकेंगे ।
तुम्हें लग रहा होगा कि बौद्ध-धर्म के अनुयायी हो जाने के कारण मैं पलायनवादी गया हूँ, किंतु ऐसा नहीं है । मेरे इस विचार के मूल में दो कारण हैं । हमने अपने अति-उत्साह में वेदविहित स्वस्तिक को विपरीत रूप देकर दक्षिणावर्त से वामावर्त कर दिया, जो संभवतः हमारी संस्कृति, सभ्यता साथ-साथ पूरे विश्व ही के विनाश का कारण बनेगा । भगवान (बुद्ध) के पादतल पर देखे गए दशलक्षणों में से एक दक्षिणावर्ती और संभवतः दूसरा वामावर्त था इस तथ्य की ओर ध्यान न देते हुए, परीक्षा किए बिना ही हमारे मूर्तिकारों ने भगवान की प्रतिमाओं के वक्ष पर विपरीत स्वस्तिक अंकित कर दिया, जो आध्यात्मिक दृष्टि से तो आत्माभिमुखी वृत्ति का संकेतक है किन्तु लौकिक दृष्टि से यह वेद-विरोधी होने से धर्म की हानि का भी द्योतक है ।
राजन् ! वैसे तो यह वैदिक-तंत्र का विषय है और मैंने इसका प्रयोग भी किया है इसलिए इस बारे में अधिकारपूर्वक कह सकता हूँ । मुझे अपनी मुक्ति या निर्वाण की इतनी चिंता नहीं है जितनी कि आनेवाले समय में मेरे तथा मनुष्य के वंशजों की मुक्ति और सुखद जीवन जी सकने की चिंता है । "
एक साँस में इतना कहकर वेताल तेजी से राजा के कंधे को छुड़ाकर उड़ गया ।
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अनुग्रह, अवग्रह(ऽ), संग्रह / परिग्रह (∫)

अनुग्रह, अवग्रह(ऽ), संग्रह / परिग्रह (∫)
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(short-key 222B, Alt+X)
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जब संस्कृत-प्रेमी गणितज्ञ ने संधि-प्रकरण में अवग्रह का चिह्न (ऽ) देखा तो उसे स्पष्ट हुआ कि समेकन / इन्टिग्रेशन / अन्तःग्रसन / integration (in Calculus) की गणितीय धारणा और अभिव्यक्ति वैदिक ऋषियों को प्राप्त थी इसलिए उसने समेकन / इन्टिग्रेशन / अन्तःग्रसन (integration in Calculus) के संकेतक के रूप में अपने गणितीय शोध में उसे यथावत् अपना लिया जो अंग्रेज़ी के अवलंबित - (एलॉङ्गेटेड्) एस्  ∫ के रूप में पहले से ही उसे उसकी भाषा में उपलब्ध था ।
संस्कृत (saṃskṛta) के प्रति यह उसके अनुग्रह का द्योतक भी था ।
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Saturday, 29 October 2016

वामावर्त-स्वस्तिक

वामावर्त-स्वस्तिक
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श्रुति और स्मृति
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विक्रमार्क ने हठ नहीं त्यागा । वह श्मशान की ओर चल पड़ा । निर्जन अंधकारपूर्ण वन में तारों का प्रकाश ही उसका मार्ग आलोकित कर रहा था और वह निर्भयचित्त पग-पग धैर्यपूर्वक चला जा रहा था । उल्लुओं की हू-हू, चर्मगात्रों (चमगादड़ों) की उड़ान उसे रोमांचित तो करते थे किंतु वह इनका अभ्यस्त था । कहीं दूर सिंह या व्याघ्र की दहाड़ या हाथियों की चिंघाड़ उसे क्षण भर को विचलित कर देते थे किंतु वह सतर्क भी था । 
जब वह पेड़ के समीप पहुँचा तो उसने वेताल को और उस शव को देखा, और बिना कोई प्रतिक्रिया किए शव को कंधे पर लादकर लौट पड़ा ।
जैसी कि उसे अपेक्षा थी, दो-चार कदम चला ही था कि शव में स्थित वेताल बोला :
"राजन् ! तुम्हारे अद्भुत् शौर्य और पराक्रम, निर्भयता और साहस प्रशंसनीय हैं । किंतु इन सद्गुणों के होते हुए भी दुर्बुद्धि होने पर मनुष्य अपने लक्ष्य से चूक जाता है । तुम्हारे श्रम के परिहार के लिए मैं तुम्हें अपनी कथा सुनाता हूँ ।
राजन् मैं स्वयं पह्लवन् नरेश के रूप में किसी काल में आर्यावर्त के पश्चिमी दिगंत पर स्थित उस राज्य का स्वामी था जिसकी सीमा कुरु-गांधार और सिन्धुकुश* (वर्तमान में हिन्दूकुश) से भी लगती थी । वैसे मैं क्षात्र-धर्म का पालन करता था, किंतु यज्ञों के अनुष्ठान और गौ-ब्राह्मणों के लिए दान करना मेरे प्रिय कर्म थे । मेरी सभा में कभी-कभी ब्राह्मण अतिथि भी आते थे और कभी-कभी वे परस्पर शास्त्र-चर्चा भी करते थे । ऐसे ही एक प्रसंग में वे वेदों में पशु-बलि के औचित्य पर परस्पर अपने-अपने पक्ष प्रस्तुत कर रहे थे ।
एक ब्राह्मण ने प्रश्न उठाया कि स्मृतियों और श्रुतियों के मत में परस्पर विरोधाभास पाए जाने पर उनकी व्याख्या और सामञ्जस्य कैसे किया जाए ?
उस दिन वह चर्चा अधूरी ही रही और सभा  की समाप्ति का समय हो गया ।
दूसरे-तीसरे दिन सभा तो प्रतिदिन की तरह हुई किंतु वे ब्राह्मण फिर सभा में नहीं उपस्थित हुए ।
किंतु उसके बहुत समय बाद दो बौद्ध भिक्षु देशाटन (विहार) करते हुए कुभा (The Kabul River पश्तो Pashto: کابل سیند‎, फ़ारसी, Persian: دریای کابل‎‎; उर्दू, Urdu: دریائے کابل‎ Sanskrit: कुभा ),वर्तमान काबुल नदी के तट पर आए । उस काल में  उसे कुभा नाम से जाना जाता था । सिंधुकुश (वर्तमान हिन्दुकुश) की संघलक्ष (Sanglakh) पर्वतश्रेणी में वे नित्य भिक्षा ग्रहण करते और कुछ दिन ठहरकर आगे बढ़ जाते । उनके बारे में सभा में चर्चा हुई तो जिज्ञासावश मैंने उन्हें आमंत्रित किया । उनके पास गांधारी धर्मपद (The Gāndhārī Dharmapada) नामक ग्रन्थ था, जिसकी प्रतिलिपि प्राप्त करने के लिए मैंने उनसे प्रार्थना की । चूंकि मेरी सभा में विद्वान् ब्राह्मण भी थे इसलिए उस संस्कृत ग्रन्थ की प्रतिलिपि करने में उन्हें कठिनाई नहीं हुई । चार-पांच पंडितों ने दो-तीन दिनों में उस ग्रन्थ की शुद्ध प्रतिलिपि बना दी । उन भिक्षुओं ने उसका ठीक से निरीक्षण किया और संतुष्ट होकर चले गए । तब कुछ और काल बीतने पर जब वे पुनः वहाँ आए तो उन ब्राह्मणों को अपने साथ बोधगया और वाराणसी की यात्रा पर ले गए । लौटने पर उन्होंने भगवान बुद्ध के मंदिरों के निर्माण का विचार मेरे समक्ष रखा ।
वैसे तो मेरी रुचि यज्ञों के अनुष्ठान में अधिक थी किंतु उन यज्ञों में पशु-बलि दी जाती थी जिससे ब्राह्मण किसी प्रकार भी राज़ी नहीं थे । यद्यपि क्षत्रिय के लिए पशु-बलि संभवतः वेद-विरुद्ध नहीं थी किंतु ब्राह्मणों के द्वारा इसके लिए असमर्थता व्यक्त करने पर धीरे-धीरे मेरी रुचि भी समाप्त हो गयी । ये वही ब्राह्मण थे जो श्रुतियों और स्मृतियों के परस्पर विरोधाभास पर मेरी सभा में उस दिन इस बारे में चर्चा कर रहे थे । इन बौद्ध-भिक्षुओं से प्रभावित होकर वे उनके मत के अनुयायी हो गए और उन्होंने बौद्ध-मत के 'हीनयान' तथा 'महायान' के समकक्ष अपने ब्राह्मी-यान (बामियान) नामक मत स्थापना की ।  सिंधु-कुश की गांधार पर्वत-श्रेणी में फिर तो बौद्ध-धर्म का ऐसा विस्तार हुआ की वेद-धर्म लुप्तप्राय होने लगा । आर्यान (ईरान) में, मेरे अपने राज्य में भी इसके प्रभाव से क्षत्रियों ने हिंसा त्याग दी और दुष्टों और शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करनेवाला कोई न रहा ।
उधर भारत में भी क्षत्रियों द्वारा भगवान बुद्ध का मत ग्रहण कर लिए जाने से उनकी रानियों और अन्य स्त्रियों में भिक्षुणी के रूप में प्रव्रज्या लेने का आग्रह प्रबल हुआ । वह एक दूसरी कथा है कि किस प्रकार पूरे समाज का ताना-बाना इन सबके सम्मिलित प्रभाव से टूटकर बिखर गया । स्त्री की स्थिति में सर्वाधिक अंतर आया, और जहाँ स्त्री परिवार और समाज को एक सूत्र में बाँधती थी, वहीँ उसे नगरवधू तक होना पड़ा । उस कथा को भी तुमसे अवश्य कहूँगा, किंतु कल या जब अगले अवसर पर तुमसे मिलूँगा । और इसलिए आज मैं न तो तुमसे कोई प्रश्न करूँगा, न तुमसे उत्तर पाने की अपेक्षा करूँगा, और न इसके लिए तुम्हें कोई धमकी दूँगा ।
अच्छा, विदा ... .. ! "
इतना कहकर वेताल उड़ चला और राजा भी विस्मित और कुछ उदास सा अपने गुरु की कुटिया  की ओर चल  दिया ।
--क्रमशः--
(कल्पित )
नेक्स्ट पोस्ट
वामावर्त-स्वस्तिक -2 
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Monday, 24 October 2016

ध्यान / मेडिटेशन / Meditation

ध्यान / मेडिटेशन / Meditation.
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ध्यान / मेडिटेशन / Meditation आजकल ऐसा एक बहुत प्रचलित शब्द हो चुका है जिसके अर्थ और प्रयोजन का अनुमान प्रत्येक व्यक्ति अपने ढंग से करता है । और ’ध्यान’ के उस अर्थ और प्रयोजन की अपनी समझ के आधार पर अपने लिए उसकी आवश्यकता और तथा उपयोगिता की ओर ध्यान दिए बिना ही, उसके पक्ष या विपक्ष में, या उसे ’कैसे’ किया जाए या न किया जाए, इस बारे में अपनी कोई मान्यता बना लेता है । ऐसे ही कुछ दूसरे शब्द ’ईश्वर’, ’धर्म’, ’संप्रदाय’, ’आस्तिकता’, ’दर्शन’, ’देवता’ तथा ’मन’ आदि भी हैं।
किंतु अभी तो हमें इस बारे में गौर करना है कि ध्यान मन की एक गतिविधि है और मन की अन्य कई गतिविधियों की तरह इसे अर्थात् ’ध्यान’ को भी दो प्रमुख रूपों में देखा-समझा जा सकता है । एक तरीका तो है अनैच्छिक, दूसरा है स्वैच्छिक । इन दो रूपों के बारे में और विस्तार से देखें तो ध्यान बाध्यतापूर्वक या स्वतंत्रतापूर्वक भी हो सकता है । जैसे, जब इच्छा, चिन्ता या भय हमें होते हैं, जैसे क्रोध या भय, भावुकता या कामावेग, निद्रा, उत्साह या अवसाद उत्साह आदि हममें आते हैं और परिस्थितियों या संस्कारों के कारण मन उनसे छूटने, उन्हें दूर कर पाने या उनका संतोषजनक समाधान पाने में असमर्थ होता है और उनसे प्रेरित हुई गतिविधि में संलग्न हो जाता है और इस प्रयास में कभी सफल तो कभी असफल होता है, तो मन उस समय अनचाहे ही उनका ध्यान करता है । और ’मन’ की इस प्रकार की गतिविधि भी ध्यान का ही एक प्रकार है, जो चाहने या न चाहने के बावज़ूद ’होता’ है, या होता हुआ प्रतीत होता है ।
इस प्रकार जिसे ’मन’ कहा जा रहा है, चूँकि वह स्वयं ही स्वयं की गतिविधि है, इसलिए इस प्रकार का अनैच्छिक ध्यान / यह गतिविधि ही वस्तुतः 'ध्यानकर्ता' / 'मन' भी होता है । अनैच्छिक को involuntary भी कहा जा सकता है ।
यही मन जब ’संकल्पपूर्वक’ (voluntarily) किसी ऐसी विशिष्ट गतिविधि में संलग्न होता है जिसे उसके द्वारा ध्यान कहा-समझा जाता है और वह किसी विधि या प्रक्रिया के रूप में उसे पूर्ण करने का प्रयास करता है, तो उसे ’स्वैच्छिक’ (voluntary) ध्यान कह सकते हैं ।
फिर, जैसा कि जब ’मेरा ध्यान नहीं लग रहा’, ’मेरा ध्यान बँट गया’ आदि कहा जाता है, तब ’ध्यान’ से हमारा तात्पर्य होता है : मन का उस ओर, उस दिशा में जाना और उस पर स्थिर रहना जिसके बारे में ध्यान दिया जाना आवश्यकता प्रतीत होता है । इस प्रकार ’ध्यान’ अर्थात् ’मन की गतिविधि’ के दो तात्पर्य हुए । पहला ऐसी एक गतिविधि जो कि यद्यपि मन के अन्तर्गत और मन के द्वारा ही संचालित होती है, फिर भी मन ’स्वयं’ को उस गतिविधि का ’करनेवाला’ / कर्ता समझकर उससे अपने-आपको बँधा या अलग या मुक्त भी समझ बैठता है । दूसरा ऐसी एक गतिविधि ’जो होती है या नहीं होती, या बँटी हुई होती है’ - अर्थात् मन का उस ओर, उस दिशा में जाना और उस पर स्थिर रहना जिसके बारे में ध्यान दिया जाना आवश्यकता प्रतीत होता है ।
ये दोनों गतिविधियाँ किसी चेतन सत्ता / (consciousness ) / मन में ही हो सकती हैं, किसी जड वस्तु में होती हैं या नहीं इस बारे में हमारे पास कोई सुनिश्चित और अकाट्य प्रमाण कभी नहीं हो सकता ।
किंतु चूँकि सामान्य तर्क और अनुभव से भी सिद्ध है कि ऐसा कोई नहीं है जो अपने अस्तित्व को अस्वीकार कर सके या उसका निषेध कर सके, और चूँकि सामान्य तर्क और अनुभव से ही यह भी सिद्ध है कि ’अपने’ अस्तित्व का बोध / भान और उसकी स्वीकृति किसी प्रकार की 'प्राप्त की गई' जानकारी / acquired knowledge / शाब्दिक ज्ञान या स्मृति (memory) नहीं है, इसलिए इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि ’मन’ की ये उपरोक्त दोनों गतिविधियाँ इस ’चेतनता’ (consciousness ) के आधार से ही प्रारंभ होती हैं, उसी ’चेतनता’ के अन्तर्गत व्यक्त और विलीन होती हैं ।
इसलिए प्रश्न यह नहीं है कि ध्यान कैसे करें? या ध्यान कैसे होता है? एकमात्र प्रश्न यह है कि जो ’किया जाता है’ उसे ’करनेवाला’ ऐसा कोई स्वतन्त्र मन (या ’मैं’) वास्तव में है भी या नहीं? और ’जो होता है’ क्या उसे ’जाननेवाला’ ही उसके होने या न-होने का प्रमाण या एकमात्र साक्षी नहीं होता? किन्तु, ’एकमात्र’ में जिसे ’एक’ कहा जा रहा है, क्या वह ’एक’ भी केवल गणितीय या वैचारिक धारणा / मान्यता अर्थात् विचारमात्र ही नहीं है? क्या उस चेतनता / साक्षी को ’जाननेवाला’ कोई दूसरा, उससे अन्य चेतनता / साक्षी होता है? इसलिए उसे एक अथवा अनेक कहना ही दोषपूर्ण है ।
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Friday, 21 October 2016

To be or not to be -1

To be or not to be -1
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In relation, or simply being related with persons, thoughts, feelings, things purely physical and / or mental, we hardly care to see that all relationship is in time and place which is thus a conditional state, happens or exists in certain conditions. So all relationship is always conditional and is restricted by those conditions. In a way it is always well-defined, even perfectly defined, if we can see.
For example the place where we live, where we work for our livelihood or just learn something. This living, working and learning too is subject to conditions and under those conditions we are connected and in harmony with those persons, thoughts, feelings, things purely physical and / or mental.
But at any moment we are faced with several such persons, thoughts, feelings, things purely physical and / or mental.
Intellect is one such thing that keeps suggesting us how to deal with a relation, that is how to be related with persons, thoughts, feelings, things purely physical and / or mental at any moment. And to see the imperfections of intellect is far more important than to follow or doubt intellect.
After all, intellect is but conditioned responses of memory, while memory is a prism through which we see this moment which has no continuity with so-called 'past' and / or the so-called  'future' which is but the projection of imagination onto the screen of present moment.
Relatedness is a fact, a Reality alive moment to moment though 'moment' itself is but in imagination.
Anyhow, we are always related with the circumstances and have to respond with them in the most appropriate way, if we want to connect with them in harmony.
In dealing with things of purely physical nature, memory helps to a great extent. But in dealing with the things related to mind, intellect is the only tool that explains, evaluates, estimates the things we are in contact with.
Where-from the intellect gets prompted to function? Either we stick to 'past' experience which is but a thread of memory of something which is no more now, or we look the things totally anew, afresh, without letting the memory interfere.
Once I'm related to a person who I came in contact with, my intellect at once begins formulating my feelings about that person, -he or she. And after a meeting for a short or comparatively longer time, when I see him / her again, the prism of memory stands between me and him or her.
The tool-brush of memory paints a picture of past or future in imagination or in words, and this picture is superimposed on the present moment and the person I am presently in contact with is obliterated and his or her image takes his place.
This is the beginning of what we call a 'relationship'.
Then we are no more related, though tend to think and believe this thing which we call 'relationship'.
Repeated meetings puts loads of layers on this image .
I feel certain sense of duty, commitment, faithfulness, fidelity, trust, security in any such a relationship and at the same time fear, doubt, uncertainty, betrayal, insecurity too lurk inside there in my mind. I am gripped with conflict, hope, even envy and jealousy because of many such relationships are there, and I compare. I don't see how to free myself from this whole thing, -namely,
"the relationship".
Then again there are so many other newer or older relationships and I keep toggling over from one to another.
This is my acquired behavior.
Memory becomes my 'second nature'.
Is it possible for me to see this whole phenomenon, this 'relationship', discard this false, fake thing and yet stay related to people, persons, thoughts, feelings, things purely physical and / or mental, which I come across everyday, every moment?
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Wednesday, 19 October 2016

Megalomaniac

Megalomaniac 
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पाणिनि / pāṇini
भारद्वाजः / bhāradvājaḥ
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ऋग्वेद मंडलं 2, सूक्तं 24 मंत्र 8, 9
स संनयः स विनयः पुरोहितः स सुष्टुतः स युधि ब्रह्मणस्पतिः ।
चाक्ष्मो यद्वाजं भरते मती धनादित्सूर्यस्तप्यतुर्वृथा ॥
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ṛgveda maṃḍalaṃ 2, sūktaṃ 24 maṃtra 8, 9
sa saṃnayaḥ sa vinayaḥ purohitaḥ sa suṣṭutaḥ sa yudhi brahmaṇaspatiḥ |
cākṣmo yadvājaṃ bharate matī dhanāditsūryastapyaturvṛthā ||
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अष्टाध्यायी 7/2/63
aṣṭādhyāyī 7/2/63
ऋतो भारद्वाजस्य ॥
ṛto bhāradvājasya ||
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From the very beginning when I was in school-years, I had a deep fascination / inclination for reading संस्कृत / saṃskṛta texts. And I never bothered about grammar.
And I always felt संस्कृत / saṃskṛta is my mother-tongue.
I always believed अष्टाध्यायी / aṣṭādhyāyī of पाणिनि / pāṇini was वेद / veda but I also thought it a
वेदाङ्ग / vedāṅga, secondary to वेदत्रयी / vedatrayī.
And I tried to compose poetry in संस्कृत / saṃskṛta which followed no व्याकरणम् / vyākaraṇam
 / छन्दशास्त्र / chandaśāstra.
And I never worried.
I had and still have a firm conviction, whatever I wrote / composed was o.k. even if not in strict compliance with the rules of  व्याकरणम् / vyākaraṇam
 / छन्दशास्त्र / chandaśāstra.
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Then I came across these 2 references which seem to speak of भारद्वाजः / bhāradvājaḥ .
पाणिनि / pāṇini also asserts that भारद्वाजः / bhāradvājaḥ was prior to Him (earlier to पाणिनि / pāṇini).
And when I saw my name विनयः / vinayaḥ and भारद्वाजः / bhāradvājaḥ authenticated in
ऋग्वेद / ṛgveda and अष्टाध्यायी 7/2/63 aṣṭādhyāyī 7/2/63, I was just humbled.
And I felt I do have great blessings of
महर्षि / maharṣi पाणिनि / pāṇini
and
महर्षि / maharṣi भारद्वाजः / bhāradvājaḥ
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Though I have a different, other interpretation of
अष्टाध्यायी 7/2/63
aṣṭādhyāyī 7/2/63
ऋतो भारद्वाजस्य ॥
ṛto bhāradvājasya ||
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I rather, hold onto the direct meaning of the (सूत्र) /aphorism .
ऋतः भारद्वाजस्य / ṛtaḥ bhāradvājasya 
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लङ्घ / Launch

प्रश्न :
हनुमान् ने समुद्र को तैरकर पार किया था या उड़कर ?
वाल्मीकि रामायणे
सुन्दरकाण्डे प्रथमे सर्गे
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श्लोक 10
प्लवगप्रवरैः दृष्टः प्लवने कृतनिश्चयः ।
ववृधे रामवृद्ध्यर्तं समुद्र इव पर्वसु ॥
श्लोक 11
निष्प्रमाणशरीरः सँल्लिङ्घयिषुरर्णवम् ।
बाहुभ्यां पीडयामास चरणाभ्यां च पर्वतम् ॥
...
śloka 10
plavagapravaraiḥ dṛṣṭaḥ plavane kṛtaniścayaḥ |
vavṛdhe rāmavṛddhyartaṃ samudra iva parvasu ||
śloka 11
niṣpramāṇaśarīraḥ sam̐lliṅghayiṣurarṇavam |
bāhubhyāṃ pīḍayāmāsa caraṇābhyāṃ ca parvatam ||
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’लङ्घ’ से स्पष्ट है कि हनुमान् ने छलांग लगाकर, लाँघकर समुद्र पार किया था, समुद्र में उठनेवाले ज्वार की तरह फैलकर (प्लव) । न तो तैरकर, न उड़कर ।
"Launch
in English is
but a cognate (अपभ्रंश / abberation) of 
the संस्कृत / saṃskṛta word
"लङ्घ" . 
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टिप्पणी :
अपि च -
उड्डीयमानसदृशः भूत्वा हनुमता मरुद्वेगेन ।
समुद्रोल्लङ्घनं कृतं पुनरवस्थलितेन तेन ॥
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uḍḍīyamānasadṛśaḥ bhūtvā hanumatā marudvegena |
samudrollaṅghanaṃ kṛtaṃ punaravasthalitena tena ||
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और इस प्रकार ज्ञात इतिहास में हनुमान ने ऊँची-कूद और लंबी कूद का जो कीर्तिमान स्थापित किया उसे आज तक कोई नहीं ध्वस्त कर सका !
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अवस्थलित > Athlete तुल्य हैं ।
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Note :
Thus historically, HanumAna created history by making a record in high-jump and long-jump at the same time which no one could have even touched so far !
Athlete is cognate of अवस्थलित / Athlete.
अवस्थलित > jumped-over and landed down.
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Monday, 17 October 2016

प्रसंगवश / अदृश्य, अदृष्ट और अज्ञात

प्रसंगवश / अदृश्य, अदृष्ट और अज्ञात
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जीवन के इन तीन रूपों पर तब अनायास ही ध्यान गया जब जे. कृष्णमूर्ति के प्रशंसक एक मित्र ने पूछा कि जे. कृष्णमूर्ति को गुरु क्यों नहीं कहा जा सकता? मैं कृष्णमूर्ति के मंत्र को जपना चाहता हूँ । मुझे कृष्णमूर्ति से प्रेम है ।
मांधाता पर्वत की प्रदक्षिणा का वह मार्ग, पौराणिक दृष्टि से भी पर्वत की प्रदक्षिणा का मार्ग तो है ही, पता नहीं कितने काल से तीर्थयात्री उस मार्ग पर प्रायः अमावस्या, पूर्णिमा और दूसरी महत्वपूर्ण तिथियों पर प्रदक्षिणा करते आ रहे हैं, किन्तु इसे नर्मदा की 'आँतरिक प्रदक्षिणा' भी कहा जा सकता है । इसी का एक दूसरा रूप है नर्मदा नदी की प्रदक्षिणा / परिक्रमा । यह परिक्रमा उस वर्तुल मार्ग पर की जाती है जिस पर नर्मदा के चारों ओर ओर ऋषि-मुनि, आध्यात्मिक साधक और तपस्वी और तीर्थयात्री भ्रमण करते रहे हैं । वेद के अनुसार समस्त चर अचर व्यक्त जगत् परम-चेतन परमात्मा का ही आवर्त है और इसका प्रत्येक कण उसी की प्रदक्षिणा / परिक्रमा करता है । यह नित्य-सत्य है । व्यक्त जगत् में हम ग्रह-नक्षत्रों से लेकर भौतिक-विज्ञान के मूल-कणों में भी इसी सत्य का अनुकरण करने की प्रवृत्ति देखते हैं । कोई प्रश्न कर सकता है कि वे तो जड़ वस्तुएँ हैं उनमें ’प्रवृत्ति’ कैसे हो सकती है? हाँ इसीलिए वे मनुष्य की तरह प्रवृत्ति से प्रेरित होने के बजाय अपनी प्रकृति / स्वभाव से ही ऐसा अनायास करते हैं । इसलिए वे ’करते’ हैं ऐसा कहना भी सही न होगा । क्योंकि यह उनका ’धर्म’ है, न कि प्रवृत्ति । ’धर्म’ अर्थात् प्रकृति का वह विधान जो अदृश्य है किन्तु जिसे मनुष्य ने विज्ञान की सहायता से किसी सीमा तक आविष्कृत कर लिया है, -ऐसा वैज्ञानिकों और विचारकों का अनुमान है । यह ’विधान’ यद्यपि कहीं लिखित रूप में भी है या नहीं इस बारे में कहना भी अभी संभवतः एक हास्यास्पद विचार होगा ।
वे ग्रह-नक्षत्र और भौतिक-विज्ञानियों द्वारा खोजे गए पदार्थ के मूल-कण ’स्थान’ के अन्तर्गत अपने वर्तुल पथ पर सतत् गतिशील हैं यह गति उनका शील है, यह गति उनका ’धर्म’ है और वे भौतिक शास्त्र के मोमेन्ट ऑफ़ इनर्शिया (Moment of  inertia) के सिद्धान्त की सत्यता का प्रदर्शन करते हुए तब तक ’धर्म’ का आचरण करते रहते हैं, जब तक कि कोई बाह्य-शक्ति उनके इस आचरण में हस्तक्षेप नहीं करती । (भौतिक-विज्ञान के इस नियम के अनुसार, संक्षेप में, जो वस्तु गतिशील है वह तब तक गति की अवस्था में तथा जो वस्तु स्थिर है वह तब तक स्थिरता की अवस्था में रहती है जब तक उस पर कोई बाह्य बल नहीं आरोपित किया जाता । इसे जडत्व-आघूर्ण भी कहा जाता है ।)
यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि जैसा हमें मनुष्यों और ’जीवों’ के बारे में लगता है, क्या ’जड’ समझी जानेवाली वस्तुओं में भी अपनी स्वतंत्र इच्छा या क्रिया शक्ति हो सकती है? इस अनुमान की सत्यता जाँचे बिना ही हम प्रायः इसे ’तथ्य’ की तरह स्वीकार कर लेते हैं । किंतु तब यह हमारा वैज्ञानिक-अंधविश्वास ही होगा इससे हम इनकार भी नहीं कर सकते । क्योंकि जिस ’चेतना’ में इच्छा और क्रिया शक्ति का उन्मेष होता है उसका स्वरूप क्या है, इस ओर तो हमारा कभी ध्यान ही कहाँ जाता है ? हमें लगता है कि ’मैं’ चेतन हूँ, और हमारा ध्यान इस सरल स्वतःप्रमाणित / स्वयंसिद्ध तथ्य की ओर नहीं जाता कि शरीर में चेतनता / जीवन होने से ही ’मैं’ का विचार, कल्पना हमें उठती / जन्म लेती है । इस प्रकार चेतना / चेतनता विचार की गतिविधि नहीं, बल्कि वह आधार / अधिष्ठान है जिसमें विचार की गतिविधि अदृश्य, अदृष्ट और अज्ञात रूप में अवस्थित होती है । जब यही व्यक्त रूप लेती है तभी हमें लगता है कि मैं ’चेतन’ हूँ । किन्तु इस ’मैं’ / विचार के आगमन के पश्चात ’तुम’ / ’यह’ / ’वह’ भी ’मेरे लिए’ व्यक्त रूप लेता है । क्या विचार की गतिविधि कभी उस चेतन / चेतना के स्वरूप के बारे में जानने / कहने में सक्षम हो सकती है, जहाँ से उसका आविर्भाव होता है? संक्षेप में, क्या बुद्धि / विचार अपने मूल को जान-समझ सकती है? क्या वह अधिष्ठान विचार के आगमन से पहले से ही विद्यमान नहीं है? क्या उसे विचार के माध्यम से जाना जा सकता है? उसका भान / दर्शन तो तभी होगा जब विचार शांत हो और उसे जानने की रुचि / तीव्र अभीप्सा हो । इनमें से एक भी कम हो तो उसका आविष्कार / दर्शन न तो होगा, और न मन की 'ज्ञात से मुक्ति' (Freedom from the known) हो सकेगी  ।
विचार (ज्ञात) ध्यान में बाधक है, और इस ज्ञात-रूपी बाधा का निवारण ध्यान से ही होता है *।    
जे.कृष्णमूर्ति इसी चेतन / चेतना के बारे में बात करते हैं न कि उस चेतन / चेतना के बारे में जिसे मनोविज्ञान परिभाषित करने का प्रयास करता है ।
दूसरी तरह से देखें तो वे ’धर्म’ के संबंध में चर्चा करते हैं, ’धर्म’ जो वस्तु-स्वभाव है, जड-चेतन सभी वस्तुओं का, जो नित्य, अविकारी, सनातन है, जिससे परंपराएँ उद्भूत होती हैं, और एक दिन विलीन हो जाती हैं । परंपराएँ ’धर्म’ नहीं हो सकतीं क्योंकि धर्म अविनाशी, जन्म-मृत्यु से रहित है ।
इसलिए 'धर्म' परंपरा का रूप नहीं ले सकता, परम्पराओं को ही 'धर्म' के अनुसार ढलना /  होना होगा ।
जब मैं 'कृष्णमूर्ति' के बारे में 'मंत्र' बनाता या रचता हूँ तो यह मेरे अज्ञान का ही विस्तार होगा और मन को 'विचार' से परे नहीं ले जा सकता । किन्तु यदि मैं मंत्र को 'उद्घाटित' कर सकता हूँ तो ऐसा उद्घाटन (दर्शन) मन से परे के उस अज्ञात की प्रेरणा से ही होगा जिसमें 'मैं' और मेरा ज्ञात जगत् सनातन काल से नित्य प्रकट और अप्रकट होता रहता है । किन्तु क्या मैं यह मंत्र, इस 'मंत्र' (की दीक्षा) दूसरों को 'दे' सकता हूँ? क्या यही उचित और अधिक अच्छा नहीं होगा कि वे स्वयं ही उनका अपना मंत्र खोज लें । वे स्वयं ही तय करें कि यह उनके मन की कल्पना है या उन्हें अज्ञात से प्राप्त हुआ अमूल्य उपहार है ! किन्तु इस आधार पर नए संप्रदाय / आश्रम / संगठन / मिशन / स्थापित करना मनोविलास ही होगा न कि मन से परे :
'गरुड़ की उड़ान' / "The Flight of The Eagle"!
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*जे.कृष्णमूर्ति की पुस्तक "Krishnamoorti's Note-book" से  ।

Friday, 14 October 2016

My Hindi Poetry : Translation.

आज की कविता
अभाव
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चेतना में देह, देह में चेतना  है प्रतिबिंबित यह,
चेतना-प्रतिबिंब में पुनः फिर, देह का प्रतिबिंब,
देह के उस प्रतिबिंब में, प्राण के हैं पवन-झोंके,
पवन-झोंके उठाते हैं अस्मिता की तरंगें जो,
उत्पन्न करते आभासी निरंतरता अस्मि की,
अस्मि बनता और मिटता जन्म देता काल को,
काल पल या युगों सा, केवल कल्पित अस्तित्व,
विचारों की आँधियाँ, विचारों के चक्रवात,
पवन-झोंके प्राण के परस्पर करते आघात,
विचारों के वर्तुल में विचारक का केन्द्र जो,
एक कल्पित वह विचार, सातत्य देता अस्मि को,
अस्मि जो अनुमान है, अस्मि जो अलगाव है,
चेतना की अखंडता में एक कृत्रिम भाव है ।
पुनः उठता पुनः गिरता पुनः मिटता पुनः खोता,
पर न पाता स्वयं को वह क्योंकि वह अभाव है ।
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In Consciousness appears the body,
In this reflected consciousness then,
Appears the reflected image of the body.
In this reflected image move breezes,
Of that airs that is called the vital-breath.
Breezes that give rise to the waves of 'me',
The false sense that is called ego.
An apparent continuity of that 'me'.
The 'me' that causes the sense of  'Time'.
The time though a moment or of eons,
Is but a tiny thread of fancy, -imagination,
Wind-storms, cyclones of thought-waves,
Vital airs keep on hitting the shores,
At the center of the cyclone stands,
The eye of the storm unwavering,
And Lo! is the thinker born there!
Thinker who is but a thought,
Transitory like all such others.
But this transitory thought keeps,
The idea of the 'me' intact.
'Me' that is but in an idea,
'Me' that is but in isolation,
And is but the artificial sense of 'I',
Keeps on rising, keeps on falling,
Keeps standing up and dissolving,
When one goes to see and grasp,
Could only find, it is non-existent.
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Wednesday, 12 October 2016

God / ईषिता / īṣitā / ईश्वर / īśvara.

If God Created everything, Who created God?
God / ईषिता / īṣitā / ईश्वर / īśvara.
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हु > जुहोति, ह्वे > (आ), आह्वयति > हूति, आहूत (बुलाया गया) > (to invoke) is the Sanskrit root of the English word 'Who' that Becomes 'Gothic' in old German. Just as ''north" becomes 'Nordic', 'forth' becomes 'ford', Gothic becomes 'God', But Vedika God has 2 forms. One is the Spiritual Cosmic entity आधिभौतिक / ādhibhautika That is prior to manifest bhautika. 'Agni' is the Prime 'God', ऋग्वेद / ṛgveda begins with. The idea / concept of creation, preservation and destruction is not there in Veda. The word 'Creation' comes from Sanskrit सृति / sṛti, कृति / kṛti . सृति / sṛti tells about forming / 'making into' (from something) while कृति / kṛti tells about effecting a change in something that is already सृष्ट / sṛṣṭa, is there at hand. 'Who' creates? Veda tells us 'What is' सत् / sat, only appears to undergo through, expression, play and dissolution / revert back to सत् / sat. And there is no one, no individual / agent of this whole action, who could be thought of to see this activity. But Manifest Existence happens at 3 levels > namely : आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक ( ādhibhautika, ādhidaivika, ādhyātmika). But during all this, the existence of the 'one' who talks about the world could not be denied / refuted. Nether by logic, nor by experience or even 'reasoning'. This 'one' is the 'Ultimate Reality'. In simple terms, this is 'Consciousness' which is different from the 'consciousness' that is defined as 'mind' in the 'Psychology'. 'Psychology' talks about individual personal consciousness, but this 'personal-consciousness' is always in a flux, while The Supreme Consciousness is unchanging without division of 'the observed' and the ' the observer'. If we accepted the notion 'God created everything' then the question 'Who created God?' is the obvious logical consequence. And we inevitably fall into the groove of argumentum ad absurdum. That is how and why 'Intellect' / 'Thought' is an imperfect tool in explaining existential questions. More so is Psychology, Philosophy or Science. So Veda never insists for one / more than one 'God' in any form. At the same time Veda is not also atheist. Though Veda asserts : 'There is an Intelligence Principle' ईषिता / īṣitā which could be acceptable in different forms to people of different kinds of mental orientation. This ईषिता / īṣitā / ईश्वर / īśvara could be loosely translated into English as 'Governance'.
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Saturday, 8 October 2016

विचार के होने / न होने का विचार !

विचार का अतिक्रमण
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Duality is in thought,
Like-wise non-duality too.
When the thought was not,
When the thought is no more,
When the thought is not,
When thought just ceases,
Reality seems to shines forth,
Which was obscured by thought,
Though never absent nor lost.
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आता है मन में कई बार
विचार के न होने का विचार !
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प्रश्न विचार के ’होने’ या ’न-होने’ का नहीं, चेतना में विचार की भूमिका क्या है यह है । स्पष्ट है कि जो चेतना इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं है कि विचार आता और जाता है, विचार से भिन्न प्रकार की कोई वस्तु है । विचार के आने-जाने से एक नई कल्पना ’स्व’ की पैदा होती है जिसे स्वतन्त्र ’विचारकर्ता’ मान लिया जाता है । जबकि यह कल्पना भी मूलतः विचार का ही विशिष्ट प्रकार मात्र है । और इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं जाता कि विचार मस्तिष्क में चलनेवाली स्मृति-आधारित और पहचान-आधारित एक गतिविधि है । इसलिए ’मैं सोचता हूँ’ यह वक्तव्य मूलतः त्रुटिपूर्ण है, क्योंकि ’मैं’ नामक ऐसी किसी स्वतन्त्र सत्ता का अस्तित्व नहीं है ।
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यह चेतना न तो विचार है न ही व्यक्ति और न 'स्व' / मैं ।
यह चेतना विचार के ’होने’ या ’न-होने’को अनायास जानती है किन्तु उसे ऐसा बोध  विचार-रूप में 'जानकारी ' के रूप में नहीं होता ।  इस सरल तथ्य की ओर ध्यान जाना विचार अतिक्रमण है तब विचार कोलाहल या उत्तेजना नहीं आवश्यकता अनुसार इस्तेमाल किया जानेवाला उपकरण भर होता है ।
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Friday, 7 October 2016

संवेदनशीलता, भावनाएँ और अनुभूतियाँ

संवेदनशीलता, भावनाएँ और अनुभूतियाँ
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सामान्य मनुष्य ’धारणाओं’ को हक़ीकत (यथार्थ) की तरह ग्रहण कर लेता है । हक़ीकत क्या है इसे जान पाना तो बहुत मुश्किल है क्योंकि जिसे हम हक़ीकत समझते हैं वह अवश्य ही किसी न किसी वस्तु, व्यक्ति, विषय, विचार, घटना या समय के परिप्रेक्ष्य में हुआ करती है । और वस्तु, व्यक्ति, विषय, स्थान, विचार, घटना या समय इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है । इसलिए हम हक़ीकत (यथार्थ) को नहीं, बल्कि इन सबके संबंध में प्राप्त जानकारी और राय को हक़ीकत समझ बैठते हैं ।
’वस्तुएँ’ शुद्धतः वे इन्द्रियगम्य भौतिक तथ्य होते हैं, जिनके बारे में भिन्न-भिन्न लोगों के बीच मतभेद नहीं होते । उनका भौतिक-सत्यापन भी किया जा सकता है । वे अनुकूल, प्रतिकूल, सुखद या दुःखद भी हो सकते हैं । किंतु वह गौण है । दूसरी ओर ’व्यक्ति’, ’विषय’, ’स्थान’, ’विचार’, ’घटना’ या ’समय’ अमूर्त धारणा होते हैं जो बुद्धि के कार्यशील होने के बाद ही महत्वपूर्ण होते हैं । बुद्धिहीन मनुष्य को पशु कहने पर शायद ही किसी को आपत्ति हो । किंतु बुद्धि के सक्रिय होने पर बुद्धि दोषरहित और त्रुटिरहित हो यह न तो सबके लिए संभव है न स्वाभाविक ही है । प्रायः व्यक्ति का वातावरण, परिवार, समाज, व्यवहार करने तथा सोचने की परंपराएँ बुद्धि को उसके अपने स्वाभाविक ढंग से विकसित नहीं होने देते । बुद्धि को हम ’मन’ भी कह सकते हैं, और यह बुद्धि या मन हमारे लिए एक अमूर्त धारणा के सिवा और क्या हो सकता है? क्या इस बुद्धि या मन की प्रामाणिकता हमारे लिए किसी भौतिक तथ्य की तरह निर्विवाद और सुनिश्चित हो सकती है? किंतु जिसे बुद्धि / मन कहा जाता है उसके व्यावहारिक प्रयोग से इनकार भी नहीं किया जा सकता । संक्षेप में जैसे ज्ञानेन्द्रियाँ संवेदन के स्थूल यन्त्र होती हैं, वैसे ही बुद्धि / मन संवेदन के सूक्ष्म तल पर कार्य करनेवाले उपकरण होते हैं । बुद्धि / मन से जुड़ी हमारी प्रतिक्रियाओं को हम भावना (इमोशन) और अनुभूति (फ़ीलिंग) कह सकते हैं । भावना और अनुभूति के बीच एक बारीक अन्तर यह किया जा सकता है कि भावना हमारे हृदय में स्वाभाविक रूप से उठती और विलीन होती रहती है, जबकि अनुभूति किसी बाह्य क्रिया का संवेदन तथा उसके प्रति हमारी प्रतिक्रिया होती है । यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होनेवाली बोधजन्य प्रक्रिया भी हो सकती है  या हमारे पूर्व अनुभवों की स्मृति से जुड़ी कोई जटिल प्रक्रिया भी हो सकती है । संचित अनुभव हमारी भावनाओं को विरूपित कर सकता है और यदि हम इस बारे में सतर्क / सावधान नहीं हैं तो प्रायः कर ही देता है । इस प्रकार हमारी भावनाओं और अनुभूतियों का पारस्परिक व्यवहार हमारे बुद्धि / मन को और भी असंतुलित / अस्वस्थ कर देता है । जिसका हमें अनुभव न हो उसके प्रति हममें कोई अच्छी या बुरी, सही या गलत भावना नहीं हो सकती । किसी वस्तु के संपर्क में आने पर, उसकी सुखद, दुःखद, प्रिय-अप्रिय अनुभूति ही हममें कोई भावना जगाती है । फिर इस अनुभूति की स्मृति और पुनरावृत्ति हमारे बुद्धि / मन में उस वस्तु के बारे में कोई पूर्वाग्रह स्थापित कर देते हैं । ऐसे असंख्य पूर्वाग्रह हमारे बुद्धि / मन को अत्यंत अस्थिर और विरूपित कर देते हैं और तब प्रतिक्रिया-स्वरूप असुरक्षा और भय की भावना हममें जन्म लेती है । तब हम अपने-जैसे’ प्रतीत होनेवाले लोगों में सुरक्षा और आशा की किरण देखते हैं । किंतु इसी आधार पर क्या ऐसे अनेक समुदाय भी अस्तित्व में नहीं आ जाते जिनके अनेक हित परस्पर विपरीत और विरोधी भी होते हैं ? परंपराएँ मनुष्य को वास्तव में क्या ऐसा ही कोई सुरक्षा-कवच प्रदान करती हैं या वे केवल एक और नया विभ्रम भर होती हैं ?
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Thursday, 6 October 2016

स्थायी भ्रम

स्थायी भ्रम
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मेरी एक फ़ेस-बुक मित्र ने अपना पुराना फ़ेस-बुक अकाउन्ट बन्द कर नया फ़ेस-बुक अकाउन्ट नए नाम से खोला ।
मैंने उससे पूछा :
"यह नया नाम क्यों?"
उसने ज़वाब दिया :
"ताकि कुछ पुराने फ़ेस-बुक दोस्तों से दूर रह सकूँ ।
बाय द वे, वह पुराना नाम भी मेरा असली नाम नहीं था ।"
"तो तुम्हारा असली नाम क्या है / था?"
"असली नाम तो मेरा कभी कुछ था ही कहाँ?
हम सभी बिना किसी नाम के ही तो जन्म लेते हैं,
नाम तो हमें दुनिया देती है जिसे हम असली समझ बैठते हैं ।"
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क्या हमारे सभी संबंध भी ऐसे ही ओढ़े हुए नाम भर नहीं होते?
ऐसे ही हम अपना कोई चेहरा लेकर पैदा नहीं होते,
हमारा (असली) चेहरा भी बस ऐसा ही हमारा एक स्थायी भ्रम है,
वास्तव में हमारा कोई चेहरा नहीं हो सकता, यही हमारी सच्ची पहचान है ।
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बाय द वे एक प्रश्न ;
क्या बिना किसी चेहरे के जीना सचमुच बहुत मुश्किल है?
चेहरे की तलाश / ज़रूरत क्यों ?  
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Wednesday, 5 October 2016

उच्छिष्ट-सेवन / नई वेताल-कथा

उच्छिष्ट-सेवन / नई वेताल-कथा
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विक्रमार्क ने हठ न छोड़ा । गुरु के आदेश का पालन करने के लिए वह उस घोर महाकाल-वन में थोड़ी दूर अवस्थित श्मशान की ओर चल पड़ा । नदी के तट पर कुछ चिताएँ अब भी जल रही थीं । उसे यह सोचकर कौतूहल नहीं हुआ कि एक साथ इतने लोगों की मृत्यु क्यों हुई होगी । प्रायः तो एक या कभी-कभी दो ही चिताएँ उस श्मशान में जलती दिखाई देतीं थी । उसने क्रम से जलती छः चिताओं पर एक दृष्टि डाली और सातवीं के समीप जा पहुँचा जिसे किसी कारणवश अभी अग्नि भी नहीं दी गई थी । फिर वहाँ से और आगे जाने पर उसे उस वृक्ष पर स्थित शव के दर्शन हुए जिसे केवल वही देख पाता था । गुरु के दिए हुए अञ्जन को नेत्रों में आञ्जकर ही वह सदैव इस या किसी दूसरे वृक्ष के समीप जाता, जिस पर स्थित शव और उसमें स्थित वेताल उस अञ्जन के न लगाने पर उसे भी नहीं दिखाई देते थे । किंतु इससे भी अधिक आश्चर्य उसे यह देखकर होता था कि जब वह शव को कंधे पर लादता तो वह किसी सद्यमृत मनुष्य जैसा ही भारी अनुभव होता था । और इसके बाद उस शव में स्थित वेताल की वाणी सुनने का साहस संपूर्ण पृथ्वी पर यदि किसी में हो सकता था तो वह बस एकमात्र राजा विक्रमार्क ही था । किंतु अब तक राजा विक्रमार्क कितने ही शवों को कंधे पर लादकर गुरु के समीप ले जा चुका था इसलिए उसके लिए यह कोई विशेष घटना कदापि नहीं थी । हाँ उसे विस्मय अब भी कभी-कभी होता था किंतु इस विलक्षण, रहस्यमय और भयानक प्रसंग को उसने अभी तक गुप्त ही रखा था ।
अभी उसने शव को कंधे पर रखा ही था कि शव में स्थित वेताल बोल उठा :
"राजन् तुम्हारे अध्यवसाय पर तो मुझे आश्चर्य होता ही है किंतु उससे भी अधिक आश्चर्य इस पर होता है कि तुम कितने समय तक इस कार्य में संलग्न रहोगे! क्या संसार के अन्य अत्यावश्यक कार्य और प्रलोभन, भय या उत्तेजनाएँ तुम्हें कभी इससे विरत नहीं कर देंगी? संसार में नित्य क्या है? मनुष्य जो भी कार्य करता है, सुख-दुःख भोगता है, संपत्ति, राज्य, वैभव, यहाँ तक कि दुर्लभ सिद्धियाँ भी पा लेता है, क्या सभी अनित्य नहीं होतीं? मेरा बात अच्छी तरह समझने के लिए ध्यान देकर यह कथा सुनो :
"अभी तुमने जिन सात चिताओं को जलते देखा वे अभी मृत हुए व्यक्तियों की नहीं बल्कि सैकड़ों वर्ष पहले मर चुके मनुष्यों की हैं जिनकी चिता अभी न तो पूरी तरह जल सकी है, न जलकर समाप्त हो सकी है । इनमें से दो तो मेरे दो भाई हैं और तीसरा मैं स्वयं हूँ । शेष चार हमारे मित्र हैं । हम सभी की मृत्यु भिन्न-भिन्न समय पर हुई और हमारे परिजनों ने उनकी मति के अनुसार हमारी अन्त्येष्टि भी कर दी किंतु हममें से कोई भी न तो उस देह से मुक्त हुआ न उसके कर्मों से । अधिक विस्तार में न जाते हुए मैं बस इतना कहूँगा कि हम सब शास्त्रवेत्ता कर्मकाण्ड में दक्ष ब्राह्मण थे किंतु हमारे शास्त्र-निषिद्ध आचरण के कारण हम इस दुर्दशा के भागी हुए ।
सोमदत्त, हममें से सबसे बड़ा लोभवश यज्ञकर्मों का अनुष्ठान करता था ।
इंद्रदत्त, निष्काम-भाव से प्राप्त कर्तव्य समझकर, यज्ञकर्मों का अनुष्ठान करता था ।
इसी प्रकार शेष सब भी भिन्न-भिन्न भावनाओं और बुद्धि से यज्ञकर्मों का अनुष्ठान करते थे ।
कुछ द्रव्य-यज्ञ, कुछ जप-यज्ञ, कुछ तप-यज्ञ, कुछ दान-यज्ञ आदि वेद के मुख से कहे गए भिन्न-भिन्न यज्ञों का अनुष्ठान करते थे । इन यज्ञों से उन्हें पुण्य-फल तो मिलने ही थे, परंतु कुछ वेद-अविहित कर्मों से, कुछ त्रुटियों से, वे सभी शुभ-कर्म अशुभ प्रभाव से युक्त होते थे । संक्षेप में प्रमादसहित किए जाने वाले कर्म । नित्य-अनित्य के विवेक का पर्याप्त अभ्यास न करना एक ओर प्रमाद का कारण था, तो प्रमाद के कारण उन्हें इस अभ्यास में रुचि नहीं थी । और विवेक के अभाव में वैराग्य का प्रश्न ही नहीं उठता था । वैसे तो सभी को अनेक शास्त्र कंठस्थ थे, किंतु जागतिक इन्द्रिय-विषयों के प्रति भोग-बुद्धि और भोग-बुद्धि होने से उनमें स्थित सुखों की अनित्यता की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता था । और वे इसलिए अभक्ष्य-भक्ष्य, अगम्या-गमन, और अनधिकारयुक्त धन-संपत्ति के संग्रह तथा उपभोग जैसी कुप्रवृत्तियों से लुब्ध और उनमें लिप्त भी हो जाते थे । उन्हें कभी-कभी इसकी ग्लानि भी होती थी किंतु विषयों के सम्मुख होने पर उनकी विवेक-बुद्धि मानों कुंठित हो जाती थी । और परिणाम-स्वरूप उनकी यह दशा हुई ।
राजन् हमारी मुक्ति कैसे होगी यदि जानते हुए भी तुमने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया तो ...."
तब राजा विक्रमार्क ने वेताल के प्रश्न का सावधान होकर यह उत्तर दिया :
वेताल, सुनो! एक शब्द में कहूँ तो यह उच्छिष्ट-सेवन का दोष है । पर-धन, पर-स्त्री और पर-भूमि को भोग की दृष्टि से देखना ही अपने-आपमें मनुष्य के पतन के लिए पर्याप्त होता है किंतु भोग करना तो उच्छिष्ट-सेवन के तुल्य महान् अनिष्ट है । और मनुष्य को इसके अशुभ फल का भोग मृत्यु के बाद भी दीर्घकाल तक भोगना पड़ता है । मैं नहीं कह सकता कि तुम सबकी मुक्ति कब और कैसे होगी । यद्यपि यह भी सत्य है कि केवल शास्त्र का अध्ययन कर लेने से ही इस दोष का निवारण नहीं हो पाता । क्योंकि शास्त्र-निष्ठा के अभाव में मनुष्य अपनी तर्क-प्रवृत्ति और द्वेषबुद्धि के कारण शास्त्रों का दोषपूर्ण मूल्यांकन और त्रुटियुक्त विवेचना करने लगता है जो उसके पतन का एक और बड़ा कारण बन जाता है । किंतु ऐसा मनुष्य भी अपने दोष को जानकर शास्त्र से द्वेष न करता हुआ शुद्ध हृदय से यदि श्रवण-मात्र भी करे तो उसकी मुक्ति सुनिश्चित है । तुम्हारी मुक्ति के लिए मैं शीघ्र ही श्रीमद्भागवत-कथा का आयोजन करूँगा । वेद यद्यपि धर्म-अधर्म की विवेचना करते हैं, किंतु वह केवल अधिकारी के लिए ही, जबकि पुराण मनुष्य-मात्र के लिए कल्याणकारी हैं, उसकी श्रद्धा हो या न हो तो भी, किंतु  यह तो आवश्यक है ही कि उनके प्रति उसमें द्वेष या शंका भी न हो । तुम यहाँ-वहाँ न भटकते हुए अपने भाइयों और मित्रों सहित वहाँ आकर इसका लाभ ले सकते हो । मुझे ऐसा कोई और दूसरा उपाय नहीं दिखाई देता जिससे तुम्हारी मुक्ति सुनिश्चित हो सके ।"
राजा की बात पूर्ण होते ही वेताल ने सम्मान सहित उसे प्रणाम किया और शव को लेकर आकाश-मार्ग से जाते हुए शीघ्र ही दृष्टि से ओझल हो गया ।
(कल्पित)
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टिप्पणी : 
जर, (जड वस्तुएँ), जोरू / योषिता (नारी) और जमीन / ज्या (जमीन) नहीं बल्कि झगड़े की असली जड़ है मनुष्य की लोभ और भोग-वृत्ति जो उसके अपने और समस्त संसार के लिए भी विकट विपत्ति बन जाती है ।
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Sunday, 2 October 2016

'मुद्रा / mudrā' and Meditation.

Is Meditation a 'technique?'
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I can't say what is the inspiration behind this, but to me this is a 'MudrA' 
The index-finger denotes 'Guru' / 'Jupitar' / जीव-पितृ / jīva-pitṛ , 'Zeus-Peter', while the thumb denotes 'the Self'. Joining them together symbolizes the 'meditation' on 'Self'. Again when this sign is formed with the help of right hand this denotes a spiritual level, while with the left denotes the worldly (physical / physiological-anatomical) achievements.
Again, if the fore-finger is pressed against the thumb, it denotes a failure in spiritual practice, but if the thumb is pressed against the fore-finger, it denotes success and blessings.
Q. : यानि दबाव अंगूठे पर पड़ना चाहिए?
(does it mean, the fore-finger should press the thumb?)
A. : Yes. but before knowing this is better.
Q. : Here thumb is pressed against index and middle finger. This is called three finger technique, one of the Silva Techniques to make the right brain active and to relax the brain at alpha level.
A. : So my interpretation has some-where near Silva ! Or rather Silva's technique has a truth behind it.
Q. : I don't know. Nobody ever told about the benefit or symbolism of 'मुद्रा / mudrā'mudraas. But it works.
A. : alpha is the meditation level. But the main thing is, by forming these 'मुद्रा / mudrā' one can not activate the 'alpha-level, but when 'meditation' happens, this 'मुद्रा / mudrā' may help to some extent.
Q. : Yes you are correct.
It is the consciousness (or Guru-Consciousness) that regulates and controls the physical-consciousness, brain, heart and senses of the individual.. The body-chemicals give rise to body-electricity and conversely, the body-electricity gives rise to chemical reactions in the body. Thus (remember Voltaic cell and electrolysis?) the two 'happen' in the presence of a silent observer.
That Silent Observer is the Ultimate Reality.
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