वामावर्त-स्वस्तिक -2.
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दक्षिण और वाम मार्ग
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विक्रमार्क ने हठ नहीं त्यागा । वह श्मशान की ओर चल पड़ा । निर्जन अंधकारपूर्ण वन में तारों का प्रकाश ही उसका मार्ग आलोकित कर रहा था और वह निर्भयचित्त पग-पग धैर्यपूर्वक चला जा रहा था । उल्लुओं की हू-हू, चर्मगात्रों (चमगादड़ों) की उड़ान उसे रोमांचित तो करते थे किंतु वह इनका अभ्यस्त था । कहीं दूर सिंह या व्याघ्र की दहाड़ या हाथियों की चिंघाड़ उसे क्षण भर को विचलित कर देते थे किंतु वह सतर्क भी था ।
जब वह पेड़ के समीप पहुँचा तो उसने वेताल को और उस शव को देखा, और बिना कोई प्रतिक्रिया किए शव को कंधे पर लादकर लौट पड़ा ।
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दो-चार कदम चलने बाद शव में स्थित बेताल का कंठस्वर फूटा :
"राजन् !! पिछले दिनों में तुमने मिलने का अवसर नहीं दिया ठीक ही तो है! तुम राज्य के संचालन में इतने व्यस्त रहते हो किंतु मैं तो प्रायः हवा के साथ मरुद्गणों सा उड़ता रहता हूँ । कभी किसी वृक्ष पर तो कभी किसी सुनसान स्थान पर । महल या कुटिया, उजाड़ स्थान मुझे शान्ति हैं और कोलाहल से मुझे कष्ट होने लगता है । श्मशान का सन्नाटा मुझे सर्वाधिक प्रिय है किंतु वहाँ प्रतिदिन कुछ चिताएँ जलती हैं और उन ज्वालाओं के आसपास जब मृतक के परिजन प्यासे होते हैं तो भी मुझे बहुत वेदना होती है । और मैं चाहकर भी उनके मुख से पानी नहीं पी सकता । और वे कभी कभी उनकी परंपरा के अनुसार उनके मृतक के बहाने अनजाने ही मुझे भी जल अर्पित कर देते हैं तो मुझे अथाह तृप्ति अनुभव होती है । यह उनका स्नेह ही होता है जो तिल के माध्यम से जल के साथ मृतक की दिवंगत आत्मा को प्राप्त होता है किंतु मैं भी अनायास उस स्नेह का भागी हो हूँ और उन्हें आशीष हूँ । पर ऐसा बहुत कम ही होता है । मेरे दुर्भाग्य से मेरे राज्य में वैसे भी जल के स्रोत कम ही थे कुभा के जल पर गंधर्वों का आधिपत्य था और हम उन्हें कभी देख तक नहीं पाते थे । शायद इसीलिए हमारे राज्य की एक राजकुमारी ने हस्तिनापुर के कुरु राजकुमार से विवाह हो जाने पर आँखों पर सदा के लिए पट्टी बांधने का व्रत ले लिया था ।
बौद्ध-भिक्षुओं आगमन बाद मेरे दोनों राजकुमारों ने भी बौद्ध-धर्म स्वीकार कर लिया किंतु उन्होंने प्रव्रज्या हुए भगवान के अनुयायियों की सेवा करने का व्रत लिया । पाटलिपुत्र, श्रावस्ती, कौशल से कारीगर, मूर्तिकार शिल्पियों को निमंत्रित किया जिन्होंने भगवान (बुद्ध) की अनेक प्रतिमाएँ बनाईं । यहाँ आनेवाले पारिव्राजक भिक्षुओं ने भी पर्वत की भित्तियों पर चित्र उकेरे किंतु मुझे यह सोचकर पीड़ा होती है कि कालक्रम में वे सब ध्वस्त हो जानेवाले हैं । मरुद्गण उन्हें तोड़ देंगे । गंधर्व भी उन्हें ऐसा करने से नहीं रोक सकेंगे ।
तुम्हें लग रहा होगा कि बौद्ध-धर्म के अनुयायी हो जाने के कारण मैं पलायनवादी गया हूँ, किंतु ऐसा नहीं है । मेरे इस विचार के मूल में दो कारण हैं । हमने अपने अति-उत्साह में वेदविहित स्वस्तिक को विपरीत रूप देकर दक्षिणावर्त से वामावर्त कर दिया, जो संभवतः हमारी संस्कृति, सभ्यता साथ-साथ पूरे विश्व ही के विनाश का कारण बनेगा । भगवान (बुद्ध) के पादतल पर देखे गए दशलक्षणों में से एक दक्षिणावर्ती और संभवतः दूसरा वामावर्त था इस तथ्य की ओर ध्यान न देते हुए, परीक्षा किए बिना ही हमारे मूर्तिकारों ने भगवान की प्रतिमाओं के वक्ष पर विपरीत स्वस्तिक अंकित कर दिया, जो आध्यात्मिक दृष्टि से तो आत्माभिमुखी वृत्ति का संकेतक है किन्तु लौकिक दृष्टि से यह वेद-विरोधी होने से धर्म की हानि का भी द्योतक है ।
राजन् ! वैसे तो यह वैदिक-तंत्र का विषय है और मैंने इसका प्रयोग भी किया है इसलिए इस बारे में अधिकारपूर्वक कह सकता हूँ । मुझे अपनी मुक्ति या निर्वाण की इतनी चिंता नहीं है जितनी कि आनेवाले समय में मेरे तथा मनुष्य के वंशजों की मुक्ति और सुखद जीवन जी सकने की चिंता है । "
एक साँस में इतना कहकर वेताल तेजी से राजा के कंधे को छुड़ाकर उड़ गया ।
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दक्षिण और वाम मार्ग
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विक्रमार्क ने हठ नहीं त्यागा । वह श्मशान की ओर चल पड़ा । निर्जन अंधकारपूर्ण वन में तारों का प्रकाश ही उसका मार्ग आलोकित कर रहा था और वह निर्भयचित्त पग-पग धैर्यपूर्वक चला जा रहा था । उल्लुओं की हू-हू, चर्मगात्रों (चमगादड़ों) की उड़ान उसे रोमांचित तो करते थे किंतु वह इनका अभ्यस्त था । कहीं दूर सिंह या व्याघ्र की दहाड़ या हाथियों की चिंघाड़ उसे क्षण भर को विचलित कर देते थे किंतु वह सतर्क भी था ।
जब वह पेड़ के समीप पहुँचा तो उसने वेताल को और उस शव को देखा, और बिना कोई प्रतिक्रिया किए शव को कंधे पर लादकर लौट पड़ा ।
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दो-चार कदम चलने बाद शव में स्थित बेताल का कंठस्वर फूटा :
"राजन् !! पिछले दिनों में तुमने मिलने का अवसर नहीं दिया ठीक ही तो है! तुम राज्य के संचालन में इतने व्यस्त रहते हो किंतु मैं तो प्रायः हवा के साथ मरुद्गणों सा उड़ता रहता हूँ । कभी किसी वृक्ष पर तो कभी किसी सुनसान स्थान पर । महल या कुटिया, उजाड़ स्थान मुझे शान्ति हैं और कोलाहल से मुझे कष्ट होने लगता है । श्मशान का सन्नाटा मुझे सर्वाधिक प्रिय है किंतु वहाँ प्रतिदिन कुछ चिताएँ जलती हैं और उन ज्वालाओं के आसपास जब मृतक के परिजन प्यासे होते हैं तो भी मुझे बहुत वेदना होती है । और मैं चाहकर भी उनके मुख से पानी नहीं पी सकता । और वे कभी कभी उनकी परंपरा के अनुसार उनके मृतक के बहाने अनजाने ही मुझे भी जल अर्पित कर देते हैं तो मुझे अथाह तृप्ति अनुभव होती है । यह उनका स्नेह ही होता है जो तिल के माध्यम से जल के साथ मृतक की दिवंगत आत्मा को प्राप्त होता है किंतु मैं भी अनायास उस स्नेह का भागी हो हूँ और उन्हें आशीष हूँ । पर ऐसा बहुत कम ही होता है । मेरे दुर्भाग्य से मेरे राज्य में वैसे भी जल के स्रोत कम ही थे कुभा के जल पर गंधर्वों का आधिपत्य था और हम उन्हें कभी देख तक नहीं पाते थे । शायद इसीलिए हमारे राज्य की एक राजकुमारी ने हस्तिनापुर के कुरु राजकुमार से विवाह हो जाने पर आँखों पर सदा के लिए पट्टी बांधने का व्रत ले लिया था ।
बौद्ध-भिक्षुओं आगमन बाद मेरे दोनों राजकुमारों ने भी बौद्ध-धर्म स्वीकार कर लिया किंतु उन्होंने प्रव्रज्या हुए भगवान के अनुयायियों की सेवा करने का व्रत लिया । पाटलिपुत्र, श्रावस्ती, कौशल से कारीगर, मूर्तिकार शिल्पियों को निमंत्रित किया जिन्होंने भगवान (बुद्ध) की अनेक प्रतिमाएँ बनाईं । यहाँ आनेवाले पारिव्राजक भिक्षुओं ने भी पर्वत की भित्तियों पर चित्र उकेरे किंतु मुझे यह सोचकर पीड़ा होती है कि कालक्रम में वे सब ध्वस्त हो जानेवाले हैं । मरुद्गण उन्हें तोड़ देंगे । गंधर्व भी उन्हें ऐसा करने से नहीं रोक सकेंगे ।
तुम्हें लग रहा होगा कि बौद्ध-धर्म के अनुयायी हो जाने के कारण मैं पलायनवादी गया हूँ, किंतु ऐसा नहीं है । मेरे इस विचार के मूल में दो कारण हैं । हमने अपने अति-उत्साह में वेदविहित स्वस्तिक को विपरीत रूप देकर दक्षिणावर्त से वामावर्त कर दिया, जो संभवतः हमारी संस्कृति, सभ्यता साथ-साथ पूरे विश्व ही के विनाश का कारण बनेगा । भगवान (बुद्ध) के पादतल पर देखे गए दशलक्षणों में से एक दक्षिणावर्ती और संभवतः दूसरा वामावर्त था इस तथ्य की ओर ध्यान न देते हुए, परीक्षा किए बिना ही हमारे मूर्तिकारों ने भगवान की प्रतिमाओं के वक्ष पर विपरीत स्वस्तिक अंकित कर दिया, जो आध्यात्मिक दृष्टि से तो आत्माभिमुखी वृत्ति का संकेतक है किन्तु लौकिक दृष्टि से यह वेद-विरोधी होने से धर्म की हानि का भी द्योतक है ।
राजन् ! वैसे तो यह वैदिक-तंत्र का विषय है और मैंने इसका प्रयोग भी किया है इसलिए इस बारे में अधिकारपूर्वक कह सकता हूँ । मुझे अपनी मुक्ति या निर्वाण की इतनी चिंता नहीं है जितनी कि आनेवाले समय में मेरे तथा मनुष्य के वंशजों की मुक्ति और सुखद जीवन जी सकने की चिंता है । "
एक साँस में इतना कहकर वेताल तेजी से राजा के कंधे को छुड़ाकर उड़ गया ।
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