Thursday, 31 March 2016

नर्मदेहर-स्तोत्रम्

॥ नर्मदेहर-स्तोत्रम् ॥
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तवदर्शनात् चित्तशान्तिः किमर्थं जगद्विभ्रमे ।
ते निमग्नतायां नित्यसुखं न वाञ्छे मोक्षं माते ॥1
हर-हृद्-निःसृता माते शिवस्वेदबिन्दुरूपा ।
तरंगभंगरञ्जितो सिन्धुः जगत्सृष्ट्या विस्तृते ॥2
अहं तु तव पुत्रो माते जीवरूपो सुखीदुःखी ।
संतप्तोऽस्मि व्याधेर्जगतः तव शरणं व्रजाम्यहम् ॥3
गुरोः श्रुत्वा महिमानं स्मरणं तवोद्भूते हृदये ।
स्वरूपं ते सुविज्ञाय आगतो सन्निधिं तव ॥4
"हृद्-देशे स्थितोऽस्मी’ति" विनिर्दिष्टेन गीतायाम् ।
"अहमीश्वर परमात्मा भूतात्मा सर्वभूतेषु" ॥5
यथा जीवे अहंवृत्तिः परमात्मनि शिवेऽपि सा ।
अहंस्फूर्तिः जायते नित्या स्वेदरूपा हृदः हरे ॥6
सावृत्तिरेव त्वं देवि नर्मदानाम परमेश्वरी ।
उद्धर्तुं जीवान् जगतः प्रकटीभूतासि शङ्करे ॥7
यदा हि जीववृत्तिर्सा प्रपश्येत्तामात्म्यस्फूर्तिम् ।
तदा तु प्राप्त्वा मुक्तिं नर्मदायाम् प्रविलीयते ॥8
अतो हि दर्शन-निमज्जनयोः जीवः सञ्चरन् मुक्त्वा ।
अत्रैव लभते नित्यं सुखशान्तिमोक्षमपि ॥9
इदं नर्मदेहरस्तोत्रं विनायकस्वामिकृतं ।
पठेद्यो भुक्तिं मुक्तिं आत्मभक्तिमपि विन्दति ॥10
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(54, नावखेडीघाट ग्राम, बड़वाह, जिला खरगौन, पश्चिमी निमाड़)
22-03-2016.
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अर्थ : तुम्हारे दर्शन से चित्तशान्ति होती है, फिर संसार के व्यर्थ विभ्रमों में भटकने से क्या प्रयोजन?
तुममें निमग्नता होने पर नित्यसुख होता है , हे माता, मुझे मोक्ष की चाह नहीं ॥1
भगवान् शिव के हृदय (तनु, स्वरूप) से निःसृत स्वेदबिन्दुरूप तुम हे माता! निःसृत हुई हो !
और उस स्वेदबिन्दु के तरंग के विस्तार के भंग होने से जगत्सृष्टि के रूप में विराट सिन्धु / समुद्र सी विस्तीर्ण हुई हो !॥2
हे माता ! मैं जीव तो तुम्हारा ही पुत्र हूँ जो कभी सुखी तो कभी दुःखी हुआ करता है ।
जगद्व्याधि से ग्रस्त मैं क्लेश से संतप्त रहता हूँ, इसलिए तुम्हारी शरण में आया हूँ ॥3
गुरु से तुम्हारी महिमा सुनकर  मेरे हृदय में तुम्हारा स्मरण जागृत हुआ ।
और तुम्हारे यथार्थ तत्व को अच्छी तरह से जानने के लिए मैं तुम्हारे समीप आया हूँ ॥4
जैसा कि गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने निर्देश दिया है कि सर्वभूतों की आत्मा, मैं परमात्मा, (हे अर्जुन !),
मैं जीवमात्र के हृदय में ही बसा करता हूँ ॥5
(वैसे ही) जिस प्रकार हर जीव में अहंवृत्ति होती ही है, परमात्मा शिव में भी वह विद्यमान है ।
(किन्तु) भगवान् शिव के हृदय में वही शुद्ध अहंस्फूर्ति (चित्) के रूप नित्य स्व तथा इदं के रूप में नित्य भानमात्र की तरह अखंडित होती है ॥6
(जीव की अहं-वृत्ति खंडित और अनित्य भी होती है । यही अहंवृत्ति हृदय में अहंस्फूर्ति की तरह नित्य विद्यमान है, और उससे ही निःसृत होती है ।)
भगवान् शिव के हृदय में उठनेवाली वही अहंवृत्ति अर्थात् अहंस्फूर्ति हे देवि हे परमेश्वरि ! तुम्हीं हो जिसका नाम है नर्मदा ।
जो जगत् के जीवों का उद्धार करने हेतु भगवान् शङ्कर के स्वरूप से साक्षात् प्रकट रूप में अवतीर्ण हुई हो !॥7
जब जीव में उठने-विलीन होते रहनेवाली अहंवृत्ति अपने उद्गमस्वरूप उस आत्मस्फूर्ति का भली प्रकार से अवलोकन कर लेती है,
तब वही (अहंवृत्ति) मुक्त होकर नर्मदा अर्थात् आत्म-स्फूर्ति में विलीन हो जाती है, उससे एकात्म हो जाती है ॥8
इस प्रकार से हे माता! तुम्हारे दर्शन तथा तुम्हारे स्वरूप में निमग्नता होने पर जीवन्मुक्त होकर विचरण करता है ।
और तब उसे यहीं देह रहते हुए भी नित्य सुख, शान्ति तथा मोक्ष भी प्राप्त हो जाता है ॥9
विनायकस्वामिकृत इस नर्मदेहरस्तोत्र का पाठ जो करता है, उसे भुक्ति, मुक्ति एवं आत्मभक्ति (अर्थात् ईश्वर / परमात्मा से ऐक्य) प्राप्त हो जाता है ॥10
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॥ narmadehara-stotram ॥
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tavadarśanāt cittaśāntiḥ kimarthaṃ jagadvibhrame |
te nimagnatāyāṃ nityasukhaṃ na vāñche mokṣaṃ māte ||1
hara-hṛd-niḥsṛtā māte śivasvedabindurūpā |
taraṃgabhaṃgarañjito sindhuḥ jagatsṛṣṭyā vistṛte ||2
ahaṃ tu tava putro māte jīvarūpo sukhīduḥkhī |
saṃtapto:'smi vyādherjagataḥ tava śaraṇaṃ vrajāmyaham ||3
guroḥ śrutvā mahimānaṃ tava smaraṇaṃ tavodbhūte hṛdaye |
svarūpaṃ te suvijñāya āgato sannidhiṃ tava ||4
"hṛd-deśe sthito:'smī’ti" vinirdiṣṭena gītāyām |
"ahamīśvara paramātmā bhūtātmā sarvabhūteṣu" ||5
yathā jīve ahaṃvṛttiḥ paramātmani śive:'pi sā |
ahaṃsphūrtiḥ jāyate nityā svedarūpā hṛdaḥ hare ||6
sāvṛttireva tvaṃ devi narmadānāma parameśvarī |
uddhartuṃ jīvān jagataḥ prakaṭībhūtāsi śaṅkare ||7
yadā hi jīvavṛttirsā prapaśyettāmātmyasphūrtim |
tadā tu prāptvā muktiṃ narmadāyām pravilīyate ||8
ato hi darśana-nimajjanayoḥ jīvaḥ sañcaran muktvā |
atraiva labhate nityaṃ sukhaśāntimokṣamapi ||9
idaṃ narmadeharastotraṃ vināyakasvāmikṛtaṃ |
paṭhedyo bhuktiṃ muktiṃ ātmabhaktimapi vindati ||10
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(54, nāvakheḍīghāṭa grāma, baḍavāha, jilā kharagauna, paścimī nimāḍa)
composed on 22-03-2016.
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Narmadeyam
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Looking at you the makes the mind cool and tranquil,
Why then should one wander through the illusions of the world? 1.
O Mother Divine! From the very heart of Shiva,
You descended down in the form of a drop of sweat,
And the drop took the form of a great wave,
The wave soon split into a great ocean,
The ocean, that became the whole world. 2.
 O Mother Divine! I am but your child,
The soul who is always, happy or sad ,
Tormented by the misery of the world,
Came unto You for relief from pain. 3.
Having heard of your Glory,
Through the mouth of The Guru,
I have come to You O Mother,
To grasp the essence of the same,
Just as is told in The Gita,
By the Lord, by Shri Krishna Himself,
“I reside in the heart of all beings “ O Arjuna!
“The heart is my very abode!
I’m the very being of creatures all,
I’m ever there in the heart of all.” 5.
Just as, there is the I-sense in every being,
There is such a one there in The Being Supreme.
Though the I-sense in beings is transient,
The One in The Supreme is undivided,
Steady, stable, Ever so resplendent,
That pure awareness (Cit) in the Lord,
Makes Him ever the Self (Sat) vigilant.
The drop of sweat (sw-et) that is I-sense,
In Beings common, or one Supreme,
Is Art Though, I know for well. 6.
(This I-sense ever pulsating in the heart of all beings and in the heart of the Lord is essentially one and the same. Though in beings it is unsteady, flickering, while in the Lord’s Heart as awareness of the Self, it is ever-shining without break.)
O Mother Divine, O Blessed Goddess !
 I-sense that shines in the Heart of the Lord,
Is your true form I know for well,
And you have assumed this form,
To emancipate and liberate the souls,
From the very heart of the Lord.
In your compassion, for the whole world.
You have come down on this earth,
To remove the sorrow, misery of the souls.7
When the I-sense that is the life of the soul,
Looks at the I-sense that is your form,
The I-sense is dissolved for good,
Ultimately leaving no trace.
When the I-sense of the person,
Is there no more, is lost,
One becomes one with You,
With the Lord O Mother! 8.
Therefore O Mother Divine Beloved!
Looking at you and getting merged in You,
Is the way to attain happiness, the peace,
And liberation too! Lasting, That abides for ever. 9.
One who chants this hymn,
To Mother narmadA and the Lord Shiva,
Attains all happiness, Liberation,
And the devotion to the Self. 10
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Note : स्वेद in संस्कृत could be derived in two ways :
स्व + इदं > self + this > ego + Id .
2 : स्व + इतः > 'This' that is from 'self '
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There is yet another meaning in vogue.
Because the 'sweat' emerges out from one-self, it is called स्वेदं / स्वेदः in Sanskrit.
This gives us yet another clue how the word 'sweat' in English has originated from the Sanskrit word स्वेदं / स्वेदः ....
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 नर्मदेहर !!!


Tuesday, 15 March 2016

प्रगुणितंभ्रमं

प्रगुणितंभ्रमं
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मूलं
अलक्षणासितो भावः मनसि भृशमागतः ।
अहंकर धृतिः नष्टा कस्य चेन्न मतं मम ॥*
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(*tweet by Marcello_Meli @marcello_meli Mar.15, 2016)
परिष्कृतेन मया विवेचनार्थं, 
अलक्षणासितो भावः मनसि भृशमागतः ।
अहङ्कार धृतिः नष्टा कस्य चेन्न मतं मम ॥
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अलक्षण असितः भावः मनसि भृशं आगतः ।
अहङ्कारधृतिः नष्टा कस्य चेन्न मतं मम ॥
व्याख्या / विवेचना  :
मेरे मन में लक्षणरहित यह तमोगुणयुक्त भाव /अहङ्कारधृति (मैं-वृत्ति) व्यर्थ ही व्याप्त हो उठा है ।
अलक्षण इसलिए क्योंकि यह वृत्ति किसी अन्य वृत्ति के आश्रय से ही अस्तित्व पाती है, इसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता इसलिए इसका कोई ’लक्षण’ / चिह्न नहीं होता ।
यह अहङ्कारधृति विनष्ट होने से पूर्व या पश्चात् ’किसकी’ है, मुझे स्पष्ट नहीं हो रहा ।
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My Interpretation :
In (my) mind emerges this dark (inexplicable, evil) absurd feeling, which should not be there.
inexplicable, because this has no express sign that could help recognizing / identifying it, this feeling exists only when is associated with some other feeling. This feeling has no independent existence of its own without being supported by another feeling of any kind. I can't understand 'who' is there that gives rise to this feeling, 'who' is exactly that causes this feeling.
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praguṇitaṃbhramaṃ
[Confusion multiplied]
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mūlaṃ
alakṣaṇāsito bhāvaḥ manasi bhṛśamāgataḥ |
ahaṃkara dhṛtiḥ naṣṭā kasya cenna mataṃ mama ||
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pariṣkṛtena mayā vivecanārthaṃ, 
alakṣaṇāsito bhāvaḥ manasi bhṛśamāgataḥ |
ahaṅkāra dhṛtiḥ naṣṭā kasya cenna mataṃ mama ||
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alakṣaṇa asitaḥ bhāvaḥ manasi bhṛśaṃ āgataḥ |
ahaṅkāradhṛtiḥ naṣṭā kasya cenna mataṃ mama ||
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मूलं
इन्द्रियाणां मनो भागः स्वभोधेर्भृदहंकृतिः ।
असति यद्यहंकारे को मतिकृन्न विद्यते ॥*
--
(*tweet by Marcello_Meli @marcello_meli Mar.15, 2016)
परिष्कृतेन मया विवेचनार्थं, 
इन्द्रियाणां मनो भागः स्वबोधेर्भृदहङ्कृतिः ।
असति यद्यहङ्कारे को मतिकृन्न विद्यते ॥
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इन्द्रियाणां मनः भागः स्व-बोधे: भृत्-अहङ्कृतिः ।
असति यदि-अहङ्कारे कः मतिकृत् न विद्यते ॥
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व्याख्या / विवेचना  :
[’स्व-बोधे:’ संभवतः त्रुटियुक्त है । ’स्व-बोधे’ होना चाहिए ऐसा मुझे लगता है ।]
’मन’ इन्द्रियों का परिणाम है, अहंकृति / अहङ्कारधृति / अहं-मति अपने (होने के तथ्य का भान) की उत्पत्ति है ।
अहंकृति / अहङ्कारधृति / अहं-मति के अभाव / अनुपस्थिति में इस  अहंकृति / अहङ्कारधृति / अहं-मति जिसकी उत्पत्ति है वह कौन (है?), अर्थात् इस मति को उत्पन्न करनेवाला भी नहीं पाया जाता ।
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यह विवेचना उक्त श्लोकों के रचयिता की भावना है, और मैं केवल संभावित अर्थ समझने का यत्न कर रहा हूँ ।
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mūlaṃ
indriyāṇāṃ mano bhāgaḥ svabhodherbhṛdahaṃkṛtiḥ |
asati yadyahaṃkāre ko matikṛnna vidyate ||
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pariṣkṛtena mayā vivecanārthaṃ,
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indriyāṇāṃ mano bhāgaḥ svabodherbhṛdahaṅkṛtiḥ |
asati yadyahaṅkāre ko matikṛnna vidyate ||
--
indriyāṇāṃ manaḥ bhāgaḥ sva-bodhe: bhṛt-ahaṅkṛtiḥ |
asati yadi-ahaṅkāre kaḥ matikṛt na vidyate ||
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My Interpretation :
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'the mind' is because of the senses, 'the I-sense' is because of the 'Self'.
Who is the one that causes the 'I-sense'? Because the one that causes I-sense, is not found.
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Monday, 14 March 2016

Education, Intelligence and Intellect.

Education, Intelligence and intellect.
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If we go by etymology, try to find out the origin of the word ‘education’, understanding about other such words may give us some hint.
Edit, edict, and educate are obviously words from the same origin.
If we compare the Sanskrit word, we see :
इ > एति > ईयते (कर्मवाच्य)
अधि-इ > अधीते > अधीयते (कर्मवाच्य)      
i > eti > īyate (karmavācya)
adhi-i > adhīte > adhīyate (karmavācya)
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The prefix [प्रविष्ट / praviṣṭa] अधि / adhi takes the form ad / ed
We could perhaps consider the possibility that ‘edit’ has origin in अधीते >  adhīte.
We may also take a glance at
दिश् / दिक् / diś / dik > Direction, to give direction / to direct / अव-दिश् > av-diś > edict >edit.
We could discover the rules that govern etymology and be convinced how the ‘word’ is an expression of ‘meaning’. But that would amount a drift from the present topic.
Here I mentioned this just by way of reference.
Education thus comprises of learning, discovering and not kind of imitation or getting trained in performing something by repeating only.
A child ‘learns’ understands by own intelligence that the teacher / parent is trying to elicit a definite response from the child. So either by luring the child the teacher attempts evoking the same in various ways, or coerces, forces, cajoles the child directly or indirectly to do this. In the process, though the child learns the habit of repeating a word or even a sentence, this virtually kills the simple delicate tender normal intelligence that was there in the child from the very beginning. The child becomes a repeating mechanism only. He could memorize a lot of ‘words’ and verbal garbage but the light of intelligence gets crushed under this acquisition of ‘information’ and ‘knowledge’. The 'words' are mutually related in a framework of thought but have lose the 'meaning' / 'sense' the word is an expression of.
This framework of ‘information’ is apparently a key to success in the daily life of the child and though he may be enthusiastic about it, he nevertheless becomes a stereotype only.
If the teacher understands how he could let the flame of intelligence in the child / student keep burning and let not smothered, learning a new word does not hinder or block the spontaneous intelligence.
Unfortunately almost every-one of us has to go through this ordeal, trauma. And we instill more and more words and knowledge in the simple delicate tender minds of the coming generations.
We teach them through play and games, through ways of entertainment. That puts off even the least possibility of awakening of their natural spontaneous intelligence.
We teach them imitation, - not the discovery.
In teaching, teacher and student both learn. And there is no such thing as authority in teaching / learning, though there may be a formal one because teacher could help the child / student with affection and attention. This attention is the only real teacher.
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Intelligence, Intellect and Creativity.

Intelligence, Intellect and Creativity.
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The spider was spinning the web in the corner.
You could see them if you go on the morning walk in the open fields.
They keep swinging, hanging with a gossamer-thread upon some branch.
Eventually they sometimes land down upon you, on your face, head or on the shirt. You can take them on hand and leave back there on the branch. Winds help them reach far-ends of the tree. They repeatedly descend down the new spot and return to some spot to the old one.
Following a jig-jag pattern they slowly create a beautiful network of threads and then spin secondary threads inside the outermost hectogram.
You can check they usually spin out a cob-web having 5 sides, but that is not a strict rule.
If you catch a cock-roach or a moth in a plastic / glass bottle and release it in the air from a height, it negotiates the way to ground in its own stride. See the birds of different kinds. The fly-catcher or the other tiny birds never fly in a straight line. They have their own defense-mechanism to protect them from the predators.
There is this visible inborn tendency which all creatures have naturally without exception. They instantly respond to the challenges life presents before them. They don’t have a thought-out detailed strategy or planning for survival.
In comparison we humans have this faculty of ‘thought’ and ‘intellect’. This seems to help us in living in the society in a better way.
Really?
Thought has its own rewards in terms of dealing with the things of the technical kind. And this sure gives kind of satisfaction too. We can forget our realities of the fact. Thought gives us limitless ground to play upon. Intellectual mind can ‘study’, ‘practice’ and ‘acquire’ ‘knowledge’ and skill. Can perform formidable feats. So what?
Does intellect really face and understand the essential character of pain, sorrow, anxiety, despair, fear, worry? Could intellect help you in attaining peace of mind? Intellect as skill can carve out great sculptures, paint and invent kinds of entertainment. But could intellect see and understand what entertainment does to our psyche? All entertainment is basically an escape from the fact. One has some essential bodily needs, roti kapada makan, and security. But why after all do we need entertainment? We have been so infatuated with this idea of need for entertainment that we hardly come across this query. I am not saying you should eschew all entertainment. I am just asking why do we have made it into a need? Is it because there is a psychological vacuum inside us that is forgotten for the time being? No doubt entertainment is never an emergency. Only the moment we come across that vacuum of being in our-self, we attempt to hide it behind some-thing that we call entertainment. The same thing turns into habit and when we get used to one form of entertainment we jump onto another form which looks new and more thrilling, enchanting.
We all know intuitively there is simple unalloyed joy we experience when we learn something. Like riding a bicycle, driving a bike or car or even flying an air-plane. What makes learning a joy? Just because we are far more alert, alive and open. Open to risks, dangers as well. In sports, in swimming or competing in some activity. Often painting a picture or molding clay into a piece of art begins with this vacuum that is there inside us. And we unknowingly give it a chance to let it express its own tremendous enormous potential. And basically we are not even conscious about what we are going to ‘create’. There may be a slight inkling, imagination, but when the activity is over only then we may discover the vacuum within our-self has rewarded us with immense bliss.
If we engage in the same activity and try to achieve a great result, mostly we are denied the same. Just because intellect / thought interfere in the smooth functioning of intelligence that this vacuum is.
There is a way of thought and there is a way of intelligence. They nowhere meet but could work together. In synchronization. When we learn, intellect is mostly a disturbance. When you learn swimming or horse-riding, when you learn how to attend a pet, intellect helps to understand the fundamentals. Once you have grasped those things intellect should take the back-seat.
Again, about entertainment.
The entertainment keeps the mind active. The thought keeps agitating. There is no growth. There is no improvement in the kind of the mind that undergoes entertainment. Most often it becomes even dull, more insensitive. Though thought may reach its peak, intelligence dips down to the lowest. It is not co-incidence that as much are there the forms and ways of entertainment, one gets used to some kind of addiction. This addiction is helpful in making the mind more insensitive and keeping one the attention fixed one one object, -of entertainment. This could be the simple foot-ball or cricket match, or the brain-storming of the ideologues of various political hues.
Entertainment does not let you have a peep inside your very being. And an intellectual always loves to ignore that place within oneself. That vacuum is not just a big blank, but is the cradle of intelligence that is creativity, sensitivity and the only thing attainable and worth attaining.
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Saturday, 12 March 2016

लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् - गुणः

लघुसिद्धान्तकौमुद्याम्
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अच्सन्धिप्रकरणम्
25. अदेङ्‍गुणसंज्ञः ।
(अष्टाध्यायी 1/1/2 ॥)
अत् एङ् च गुणसंज्ञः स्यात् ।
तपरवर्णानां यथोक्तग्राहकत्वनियामकं सूत्रम्
26. तत्परस्तत्कालस्य ।
(अष्टाध्यायी  1/1/70 ॥)
तः परो यस्मात्स च, तात्परश्चोच्चर्यमणसमकालस्यैव संज्ञा स्यात् ।
गुणविधायकसूत्रम्
27. आद् गुणः ।
अवर्णादचि परे पूर्वपरयोरेको गुण आदेशः स्यात् ।
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laghusiddhāntakaumudyām
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acsandhiprakaraṇam
25. adeṅ-guṇasaṃjñaḥ |
(aṣṭādhyāyī 1/1/2 ||)
at eṅ ca guṇasaṃjñaḥ syāt |
taparavarṇānāṃ yathoktagrāhakatvaniyāmakaṃ sūtram
26. tatparastatkālasya |
(aṣṭādhyāyī  1/1/70 ||)
taḥ paro yasmātsa ca, tātparaścoccaryamaṇasamakālasyaiva saṃjñā syāt |
guṇavidhāyakasūtram
27. ād guṇaḥ |
avarṇādaci pare pūrvaparayoreko guṇa ādeśaḥ syāt |
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Notes :
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These three aphorisms in Laghu-Siddhāntakaumudī explain How Prakrit and Arabic, Roman and Greek evolved from the same Grammatical rules that aṣṭādhyāyī enumerates.
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'Alef' > Arabic turns into 'ye', 'u' in 'o' or even 'v', u-u into w (double-u),
क्रमसाम > chromosome > सोम  > Soma (Moon) is the Governing Spirit that helps ओषधी / oShadhI .
thereby helping evolve Prakrit, Pali, and other spoken languages.
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क़ ख़ इति कखाभ्याम् प्रागर्द्धविसर्गसदृशो जिह्वामूलीय ।
प / प’ फ / फ’ इति पफाभ्याम् प्रागर्द्धविसर्गसदृशो उपध्मानीय ।
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यहाँ ध्यातव्य है कि क तथा ख के दो रूपों क़ तथा ख़ तथा प और के दो रूपों का उल्लेख पाया जाता है ।
सँस्कृत में ’ध्वनि-शास्त्र’ यही स्पष्ट करता है कि जहाँ क, ख, ग, के कण्ठ्य और जिह्वामूलीय रूप पाये जाते हैं (यद्यपि जिह्वामूलीय क़ , ख़ का प्रयोग प्रचलन में नहीं है), वहीं मुख बंद हो और खोलते समय, या खुला हो तो बंद करते हुए, इस प्रकार से प तथा फ का उच्चारण दो प्रकार से संभव है ।  तात्पर्य यह कि क, ख, प तथा फ, प्रत्येक के दो रूप हुए ।
लैटिन भाषा में फ़ 'f' का कोई स्थान नहीं है । इसी प्रकार अरबी भाषा में (तथा संभवतः फ़ारसी में भी) ’प’ / 'p' का स्थान नहीं है ।
पार्षदः > फ़रिश्तः जिसका अर्थ वही है जो सँस्कृत में और सँस्कृत-व्याकरण से व्युत्पत्ति से भी अवगम्य है ।
इसका एक कारण यह है कि उक्त भाषाओं का उद्गम्, प्रचलन और व्याकरण क्रमशः व्यावहारिक आधार पर तय हुए ।
किन्तु उपसर्ग तथा प्रत्यय का चलन उन्हीं नियमों से समझाया जा सकता है जिनसे संस्कृत में उनका व्याकरण-सम्मत प्रयोग है ।
अंग्रेज़ी और जर्मन भाषा के प्रत्यय तथा उपसर्ग स्पष्ट रूप से सँस्कृत के प्रत्ययों तथा उपसर्गों के अपभ्रंश हैं ।
तात्पर्य यह, कि भाषा कोई भी हो, ध्वनि-शास्त्र और परिस्थितियाँ ’व्याकरण’ सुनिश्चित करती हैं ।
संस्कृत का व्याकरण चूँकि मूलतः ध्वनि-शास्त्र का ही विकास और विस्तार है इसलिए संस्कृत एक ओर जहाँ साहित्य तथा व्यवहार की ’भाषा’ है, वहीं ’भाषा-शास्त्र’ / Philology भी है ।
’भार्या’> ’बाई’> ’बीवी’> वाइफ़ > wife,  वाइब्लिश (जर्मन) weib-lish > ’त-वाइफ़ / ’त’वायफ़’ के क्रम से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कैसे उन सबका आधार ’ध्वनि-शास्त्र’ / ’फ़ोनेटिक्स’ है ।
इसे विलोम-क्रम से नहीं समझाया जा सकता क्योंकि ’भार्या’ शब्द की व्युत्पत्ति की संस्कृत के व्याकरण से पुष्टि की जा सकती है ।
संक्षेप में यही कि पी.आय.ई. / PIE नामक भाषा के प्रायोजित काल्पनिक सिद्धान्त की स्थापना / ’निर्माण’ इसी ध्येय से किया गया कि सँस्कृत को प्राचीन / मृत भाषा कहकर उसे मिटा ही दिया जाए ।
दुर्भाग्य या प्रमाद से हमारे सँस्कृत के अनेक विद्वान भी इस सिद्धान्त से अभिभूत हैं ।  
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Thursday, 10 March 2016

विवेकचूडामणि श्लोक 2 viveka cūḍāmaṇi, śloka 2

विवेकचूडामणि  श्लोक 2
viveka cūḍāmaṇi, śloka 2
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श्री शङ्कराचार्य कृतं निर्वाणषटकम् / आत्मषटकम् ॥

श्री शङ्कराचार्य कृतं निर्वाणषटकम् / आत्मषटकम् ॥   
This one is elaborated well and explains the essence of this Sanskrit composition.
The only difficulty is about the translation of the word 'अहं' /'Aham'.
In Sanskrit the word 'अहं' / 'Aham' is applied in two ways :
1. In the sense of 'The Self' / आत्मन् / 'Atman',  subject-matter of  वेदान्त / VedAnta . ब्रह्मन् / Brahman , The Ultimate / Supreme / Only / indescribable Reality.
2. In the sense of 'I' as the first-person pronoun.
If this point is clear, the composition could be grasped even in a far better way.
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Wednesday, 9 March 2016

What is creativity?

What is creativity?
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He wanted to invite ‘creative ideas’.
Let us see if there are any such ideas?
First we should be very clear what do we mean by creativity?
We use habitually many words and hardly note that we know the simple dictionary meaning only which is useful in day-to-day things of life, but there are other meanings of the words which convey different sense to different people.
For example if we think about the word ‘creativity’, this may refer to a sense where we produce or make something useful. Cooking out a good recipe is also a kind of creativity like writing a poem or a composing a musical theme.
Thus creativity may refer to bringing out a thing which is of some use or another. This may be only a skill, a routine job as one is supposed to do in a factory or in an office.
There is yet another kind of creativity when one is sensitive to life in its many forms. May be, about humans, animals, trees, mountains, rivers or oceans. When one attentively looks at these things, not with a purpose of studying their behavior but because one feels a kind of intimacy with them. Just as one feels to a new-born baby. When this activity turns into a ‘study’, a purpose is attached and the observation narrows to a limited field and within a set context. Is this creativity?
When one is open to the life around oneself, and there is no purpose, but just because one loves the life as such, there is thrill of discovery.
Like a child caressing a puppy, or looking at the bird. There is no comparison. There is only attention. One need not crave for getting information or knowledge about what one was connected with.
In the same way one may sketch or draw a picture, in pencil or in color, on paper or a wall, or board. The activity may be aimed at a purpose or the activity defines the purpose. In the former case the activity is restricted in a limited sense. There is another way of sketching / drawing a picture, when one starts without having a pre-notion, no set purpose. One may though have a purpose in mind like drawing a sparrow sitting on the window-sill. That is just a nominal purpose and helps one greatly no doubt. But when one has an idea, it is utterly difficult to draw or sketch the picture until the idea is not a ‘visible’ one.
In the same way when a musician composes a theme or a song, the song comes to him from within and any ‘idea’ that is not in audible form will only impede his creation.
We see in this way, one truly creates when one is utterly devoid of a pre-notion / premise or idea about what one is going to create.
Then there is the ‘medium’. The music, the poetry, the sculpture, A kitchen recipe, or a piece of Art in metal, stone or wood. Ask an artist.
Of course he has an idea in very preliminary form and he could even indicate what is his idea. But the creativity leads him by hand and when the creativity is over what he has created hardly resembles with the idea he had in the beginning. Occasionally one tries to create something and quite another thing comes out in the form of the creation.
I was quite unaware what I was going to write and this piece (good or bad whatever) happened.
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This Dipawali while returning to home one evening, I saw an old man with his grand-daughter. He said : “Today is 18 th of the month, tomorrow ?” “19 th” she responded. Then this counting went till the ‘next month’ and then… It was difficult for the child to understand what his grand-father was driving at. Then He said : Then there will be October 1… then so on till a date was arrived which he announced will be ‘Dipawali’…
Ha-Ha-Ha He laughed aloud. She too had to join the joy.
Is this creativity?
A concept of ‘time’ was being instilled in her tender infant mind.
We teach our children such concepts of time, places and things. We associate a ‘word’ and the ‘word’ becomes the master. Our mind gets crowded with empty words and we tend to believe we have great knowledge.
‘Creativity’ is one such word.
‘Love’ is another.
We have use for the words like chair, table, milk, tea or water, road, street, day, night and season.
But when it comes to naming the feelings do we really know what sense we convey / have in mind when we say ‘creativity’ or ‘love’, 'faith', 'belief', 'Truth', 'Reality', 'religion', 'God',  ?
We no doubt readily understand what we mean when we say ‘hatred’, ‘violence’, ‘fear’, ‘anxiety’, ‘sorrow’, ‘envy’, ‘desire’, ‘bad’ and ‘ugly’, but do we, with this much clarity understand the words ‘creativity’, ‘Love’, ‘affection’, ‘peace’, ‘beauty’, 'faith', 'belief', 'Truth', 'Reality', 'religion', 'God', ? We sure have a vague / dismal / clumsy / obscure feeling of these words but that feeling keeps changing all the time, whereas the feeling associated with the former set of words namely ‘hatred’, ‘violence’, ‘fear’ ‘anxiety’, ‘sorrow’, ‘envy’, ‘desire’, ‘bad’ and ‘ugly’, remains comparatively the same.
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Ideals are brutal things -2.

Ideals are brutal things -2.
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Ignorant or intellectual, stupidity is either crude or polished, and the insidious fear, doubt, hope, envy, jealousy, violence, despair, say 'arrogance' keeps lurking underneath the cloak of humility.
When intellectual, this shows up in the form of politeness, just another name for politics, which feigns to consider the interests of people at large but even if it talks of a group of people, it divides them as ‘we’ and ‘they’. Made of many fragments that have few common interests and few in contradiction. So the society remains divided in many ways. Thus with reference to ‘my’ religion there is a group of people who practice a different religion from other such group. With reference to ‘my’ language, culture, ethnicity, beliefs, nationality, traditions, there are many such groups and ‘I’ as an individual am always a split person with reference to ‘my’ people. Politics and politicians gain disadvantage of ‘my’ situation and profit by keeping me ignorantly or arrogantly stupid. 
Idea and ideas generate both kinds of stupidity. Ideals are but the artistic presentation of those stupid ideas.
True humility could not be learnt, taught, cultivated nor practiced.
True humility is observed when ‘I’ see the whole gamut of ‘idea’, ideology and ‘thought’. It need not be stressed that in matters of purely physical, scientific or technical matters ‘idea’, ‘thought’ have their respective role but when we deal with the tremendous ‘life’, ‘idea’, ‘thought’ become a block in understanding, obstruct the vision.
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Tuesday, 8 March 2016

Ideals are brutal things...

Ideals are brutal things ...
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There is the stupid ignorance and there is the intellectual ignorance. There is the stupid humility and there is the intellectual humility. All these flow from the common back-ground of pride, self-assertion, self-aggrandizement. 
Intelligence is a bird of quite a different feather. Rather a state of understanding and not a mental thought. Understanding this whole pattern of thought, which is but thought with its many expressions. What is intelligence could not be pointed out, but what it is not could be perhaps. All these disappear as soon as one carefully with due and keen attention understands their full purport. Where-as the above-mentioned four idealists kind of mind-sets are the obstacles in coming across such an attention.
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नाडी-सूत्र -6.

नाडी-सूत्र -6.
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द्युम्न, आम्न, हव्य और कव्य
(धौम्यदेव / द्युम्न देव, / Duamotef , आम्नदेव, Amset, हव्यदेव, Hapi, कव्यदेव  Kebhsenuf)
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गुरुकुल में कुछ सहपाठी लौकिक-धर्म के पालन के लिए सहायक वेद-विहित कर्म-काण्ड की शिक्षा भी ग्रहण करते थे और प्रायः आचार्य की आज्ञा / आदेश होने पर उसे गुरुकुल से शिक्षा पूर्ण कर घर जाने के बाद कुल परंपरा के अनुसार प्राप्त पौरोहित्य कर्म करते हुए गृहस्थ-धर्म का सुचारु निर्वाह के लिए सहायक आजीविका के रूप में भी करते थे । गुरुकुल में उनके पिता उन्हें इसी उद्देश्य से भेजते थे कि श्रुति और स्मृति में कुछ विशिष्ट यज्ञों आदि का अनुष्ठान विधिपूर्वक कैसे किया जाए इस विषय में वे दक्ष और प्रवीण हो जाएँ । उनमें से भी जब कोई देवताओं के आह्वान में पर्याप्त कुशल हो जाता था तो आचार्य प्रायः उसे गृहस्थ आश्रम से उसके शीघ्र निवृत्त हो जाने की संभावना पर विचार करते थे । और तब वे उसके जन्म-समय का चक्र निर्माण कर उसके चंद्र के उस चक्र में राशि तथा नक्षत्र के भयात् और भभोग का निर्धारण कर उसके भावी जीवन (प्रारब्ध) को देखकर उसए पिता को इस विषय में अनुकूल संमति देते थे । प्रायः उसके पिता आचार्य की संमति को मान्य कर लेते थे, किंतु कुछ ऐसे भी थे जो विनम्रतापूर्वक आचार्य की संमति को स्वीकार करने में अपनी असमर्थता अनुभव करते थे । तब आचार्य किसी दूसरे आचार्य से मंत्रणा कर इस बारे में अपना अंतिम विचार उस पिता के समक्ष रखते ।
इस कर्म-काण्ड की शिक्षा में उन सभी आवश्यक वेद-मंत्रों के सस्वर शुद्ध पाठ सहित सिद्धान्त का भी अध्ययन किया जाता था ।
जब वह किसी ऐसी कक्षा को संचालित होते देखता तो उसके मनोनेत्रों के समक्ष अपने उस पूर्व जन्म की स्मृति साकार हो उठती जब वह इसी या शायद किसी अन्य भू-लोक (भव्यलोकं / Babylon ) में रहा करता था । किसी राजा के परिवार में किसी की मृत्यु होनेवाली हो तो कुछ पुरोहित वहाँ जाते ताकि राजा के परिवार के उस व्यक्ति के सुखी मरणोत्तर जीवन के लिए अनुष्ठान कर सकें । अब उसे लगता था कि वे सब यद्यपि तंत्रसंमत स्थूल से सूक्ष्म तक के मार्ग को प्रकाशित करनेवाले कर्म-काण्ड थे, किंतु ’उस’ लोक में रहनेवालों के लिए यही वेद-विहित भी था । उन अवर्णों के लिए संभव नहीं था कि वे वेद-भाषा को सुन-समझ सकें किंतु मरणोत्तर जीवन और स्वर्ग की कामना से वे अपने मृतकों के लिए ऐसे कर्म-काण्ड का यथाशक्ति अनुष्ठान करते थे । वे विभिन्न वैदिक देवताओं से अविधिपूर्वक भी इस हेतु पुरोहितों द्वारा की जानेवाली प्रार्थना आदि के लिए उन्हें पर्याप्त द्रव्य-दक्षिणा देते थे । पुरोहित भी प्रायः लोभरहित होकर निष्काम भाव से इन कर्म-काण्डों का अनुष्ठान करते थे, क्योंकि उन्हें इस बारे में कोई संदेह नहीं होता था ।
मृतक की देह को स्वच्छ कर उसकी देह से नासिका के छिद्रों से नली के द्वारा उसके मस्तिष्क का वह अंश जो मृत्यु के बाद सड़-गल जाता है, निकाल लिया जाता था । उसके फ़ुफ़्फ़ुसों, यकृत, आंत्र-तंत्र, प्लीहा, इन चारों को सावधानीपूर्वक बाहर निकालकर अलग अलग मृद्भाण्डों (मर्तबान) में रखा जाता था, जिस पर मिट्टी का ही ढक्कन होता था । उस पात्र पर मनुष्य (Human), कपि (Baboon), शृगाल (jackal) या गरुड (Falcon) का चिह्न या आकृति उत्कीर्ण होती थी । ये उन चार सुरपुत्रों के नाम थे जिन्हें वे ’होरुस’ के पुत्र कहते थे । ये चार सुरपुत्र क्रमशः द्युम्नदेव, आम्नदेव, हव्यदेव और कव्यदेव के नाम से जाने जाते थे । उनकी शक्तियाँ भी चार थीं और इस प्रकार वे ’उस’ लोक की आठ दिशाओं के लोकपाल थे । यह सब उन लोगों को विस्तार से नहीं ज्ञात था इसलिए उस लोक को अवज्ञप्ति (Egypt) भी कहा जाता था ।
उसे यह सब सोचकर आश्चर्य होता था कि यह सब उसकी कल्पना है, या वास्तव में ऐसा किसी काल में कहीं होता है?
पुरा-कथा और पुराणकथाएँ असंख्य हैं उसे इस बारे में संशय न था । असंख्य जीवों का अपना एक ’लोक’, एक पुरा-कथा और एक पुराण कथा होती है । कोई अपने ही अस्तित्व के किसी काल-खण्ड में किसी भी दूसरे काल-खण्ड का, उसमें स्थित अनंत लोक-व्यवहार, घटनाओं का विस्तार से अवलोकन कर सकता है किंतु कोई यह कभी नहीं जान सकता कि उन काल-खण्डों में जिन्हें वह देख रहा है, उनकी अपनी पुरा या पुराण-कथा क्या है ! वह निश्चयपूर्वक इस जगत् के किसी भी काल-खण्ड का ऐसा चित्र नहीं बना सकता जो ’सबके लिए’ समान रूप से उनका अपना अनुभव हो ।
यह सब सोचकर उसे विस्मय तो होता था किंतु वह इनसे मोहित या प्रभावित कदापि नहीं होता था ।
वे उस मृतक के शरीर को पूरी तरह सुखाकर उसमें नृप्त्र-सार (नाइटर-कार्ब / niter-carbonate ) भर देते, देह पर मोम की परतें चढ़ा देते और मुख पर एक मुखावरण ताकि उसकी उस वैयक्तिक पहचान को सुरक्षित रखा जा सके, जिसकी स्मृति उसके मस्तिष्क-सार के साथ बाहर यथासंभव बहुत दूर फेंक दी गई थी, -प्रायः समुद्र में जहाँ से अन्ततः वह नृप्त्र-सार (नाइटर-कार्ब / niter -carbonate ) लाया गया था । इस प्रकार यह सुनिश्चित हो जाता था कि वे देवता उसे स्वर्गारोहण में सहायक होंगे । इसके बाद बहुत से शकुन-चिह्न, मृतक के शव के साथ रख दिये जाते थे । कुछ राजा यद्यपि अपने मृतक के साथ दास-दासियों को भी उस पितृभूमि / प्रेतभूमि (पिरामिड / pyramid) में उसके साथ बंद कर देते थे जो संभवतः उन दास-दासियों के लिए भी एक सर्वोत्तम विकल्प होता था ।
अंतिम समय में पुरोहित अभिमंत्रित कज्जल अपनी आँखों में आँजता और फिर शेष सब भी क्रमशः अपनी-अपनी आँखों में । तब वह होरुसपुत्र (Son of Horus) उस देवता का आवाहन करता और देवता अपने वाहन पर दृश्य-रूप में अवतरित होते दिखलाई देते । एक सीढ़ी धरती से उठती हुई ऊपर आकाश में जाकर अदृश्य होती हुई दिखलाई देती, जिस पर मृतक एक-एक कदम चढ़ता हुआ अन्ततः अदृश्य हो जाता,  उसके आगे-पीछे वे दास-दासी भी । वह देवता, वह सीढ़ी, वे दास-दासी, वह मृतक सब किसी स्वप्न से विलीन हो जाते । तब पुरोहित और सभी अन्य उस पितृभूमि / प्रेतभूमि (पिरामिड / pyramid ) के एकमात्र द्वार से बाहर आ जाते, पितृभूमि / प्रेतभूमि (पिरामिड / pyramid ) का द्वार दृढ शिला से बंद कर दिया जाता । हाँ वे दास-दासी अवश्य ही मृतक के साथ वहाँ रह जाते, जिन्होंने इससे पहले कितनी ही बार दूसरे मृतकों के अंतिम संस्कार को देखा था और यह भी देखा था कि साथ जानेवाले दास-दासी सीढ़ी चढ़ते समय कितने असहाय किंतु सहज दिखलाई देते थे ।
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Saturday, 5 March 2016

नाडी-सूत्र -5.

नाडी-सूत्र -5.
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चतुष्टयः
आज की कक्षा में आचार्य किस विषय का पाठ देंगे, उसे कल्पना न थी । किंतु उसे ऐसी अन्तःप्रेरणा हुई कि वह कक्षा में प्रविष्ट हो । आचार्य की कक्षाएँ ऐसी ही हुआ करती थीं । जिस दिन कक्षा होती, कक्षा से दो घडी पहले उसका सहपाठी तीन बार शंखनाद करता जिससे आसपास इधर-उधर गोत्र (गव्यूति) के क्षेत्र में जो भी छात्र हों जान सकें । शंखनाद के आह्वान को सुनकर उसे लगा कि उसे जाना होगा ।
जब वह पहुँचा तो आचार्य उसकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे । चरण-स्पर्श कर वह अपने लिए स्थिर किए गए स्थान पर शान्तिपूर्वक सावधान बैठ गया ।
"नाड्याः तिस्रः ।... यथा हि पञ्चीकरणे पञ्चमहाभूतानि पञ्चसूक्ष्मभूतानि जनयन्ति तथा च तिस्रः ताः चत्वारि वर्णान्, प्रवृत्तीन्, पुरुषार्थान् च ।"
"नाडियाँ तीन होती हैं । जैसे पञ्चीकरण के प्रसंग में पाँच महाभूत पाँच स्थूल / सूक्ष्म भूतों की सृष्टि करते हैं अर्थात् जैसे प्रत्येक का एकार्ध अन्य चार के चतुर्थाँश से युक्त होकर क्रमशः स्थूल-सूक्ष्म जगत् की सृष्टि करता है, वैसे ही तीन (आदि, मध्य और अन्त्य) नाडी के स्पन्दन प्रत्येक का अर्ध शेष दो के चतुर्थाँश से युक्त होकर तीन वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य) की सृष्टि करता है । पर्याय से इन तीन वर्णों के विषम संयोजन से ही मनुष्य पूर्व जन्म के अर्जित संस्कारों से अवर्ण तथा शूद्र वर्ण लेकर जन्म लेता है । किंतु जन्मान्तर में जहाँ कोई मनुष्य अपनी प्रवृत्तियों और संस्कारों से किसी अन्य वर्ण में जन्म ले सकता है, वहीं इस जन्म में अवर्ण अथा शूद्र माता-पिता से जिसका जन्म हुआ हो वह भी अपने प्रारब्ध से द्विज वर्ण प्राप्त कर सकता है किंतु ऐसा द्विवर्ण द्विज वैदिक-धर्म से अनभिज्ञ होने से न तो उसके आचरण का अधिकारी होता है, न उसके लिए यह कर्तव्य या उत्तरदायित्व होता है ।...वास्तव में वेद उसके लिए इस विषय में कोई निर्देश नहीं देते ।"
मनुष्य की तीन मूल प्रवृत्तियाँ आहार, निद्रा तथा भय भी क्रमशः इसी प्रकार उत्पन्न होते हैं और आत्म-रक्षा रूपी प्रवृत्ति, - मृत्युभय के पुनः दो रूप होते हैं जो मूलतः तो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए होता है किंतु व्यवहार में धन, यश तथा पुत्र की कामना का रूप ले लेता है । अपने अस्तित्व को मनुष्य प्रत्यक्षतः भोग, निद्रा तथा नाम अर्थात् यश के रूप में अनुभव करता है और उनकी प्राप्ति और संवर्धन के लिए प्राण तक देने के लिए प्रवृत्त हो जाता है । किंतु शरीर जिस प्रक्रिया से अस्तित्व में आता है, अर्थात् माता-पिता के कामोपभोग के परिणाम से वह भी वस्तुतः संतानोत्पत्ति का कारक होने से अपने अस्तित्व की रक्षा और उसके विस्तार की एक अप्रत्यक्ष चेष्टा ही है जो मूलतः शरीर में ही नियोजित है । इस प्रकार प्रत्यक्षतः जीव / मनुष्य को आभास तो नहीं होता कि किस वास्तविक प्रयोजन के लिए उसका शरीर विपरीतलिंगीय सजातीय अपने जैसे किसी स्त्री या पुरुष की ओर आकर्षित होता है ।
इस तरह आहार (भोग), निद्रा तथा भय तीन ही शक्तियाँ मनुष्य को जीवन के लिए पर्याप्त होती हैं ।
किंतु किसी किसी मनुष्य में यह विचार होता है कि क्या मनुष्य जीवन का यही एकमात्र अर्थ है?
दूसरे शब्दों में वह ’पुरुषार्थ’ जिज्ञासु होता है । पुनः ’पुरुषार्थ’ चार होते हैं :
धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष ।
धर्म वह स्वाभाविक प्रवृत्ति है जिससे जीवन असंख्य रूपों आकृतियों में संचालित और गतिशील रहता है । अर्थात् वह ’बल’ आदि-नाडी जिससे सृष्टि का व्यापार प्रारंभ होता है ।
अर्थ और काम वह प्रवृत्ति है जो मध्य-नाडी से उद्भूत होती है ।
मोक्ष वह मुमुक्षा की प्रवृत्ति है जो आहार, निद्रा तथा भय की वृत्ति की व्यर्थता अनुभव होने पर, उनसे मन उचट जने पर किसी किसी में जागृत होती है । प्रायः आत्म-रक्षा अर्थात् पर्याय से काम-सुख या संतान के प्रति मोह का रूप ले लेने से अधिकाँश मनुष्य इतने परिपक्व नहीं होते और उनमें ऐसी मुमुक्षा की कल्पना तक नहीं होती । तीसरी अन्त्या नामक नाडी मनुष्य का इस अशाश्वत दुःखमय रोग-शोक-जरा-चिन्ता से पूर्ण व्यक्तिगत जीवन से उद्धार करती है और (संभवतः) वह एक नई यात्रा पर प्रस्थान करता है ।
प्रारब्धवश मनुष्य का जन्म यद्यपि किसी भी वर्ण में हुआ हो, माता-पिता के कुल से प्राप्त वर्ण एक औपचारिक प्राथमिकता होती है किंतु यदि मनुष्य के (सत्व, रज तथा तम) गुण तथा कर्म उस वर्ण के अनुकूल न हों या विपरीत हों तो भी उसमें विवेक, वैराग्य की न्यूनता होने से मुमुक्षा नहीं उठती ।    
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Friday, 4 March 2016

नाडी-सूत्र -4. umbra / penumbra.

नाडी-सूत्र -4.
umbra / penumbra.
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प्रातः के सूर्य को अर्घ्य देते समय उसने सुना :
"सूर्यो आत्मा जगतस्थः ॥"
क्षितिज पर उदित हो रहे सूर्य का अरुणाभ सिंदूरी प्रकाश पूर्व में संचरित हो रहा था ।
पूर्व दिशा भी है, काल भी है अर्थात् समग्र ’दिक्काल’ ।
सूर्य से पूर्व है । पूर्व से दिवस, रात्रि, याम और यामिनी / यमुना ।
याम दिवस का तथा रात्रि के कालमान का अष्टमांश अर्थात् प्रहर हुआ ।
यह अनुमेय ’काल’ है जो स्थान की तरह सापेक्ष है ।
यह उस चेतना के सन्दर्भ में है जो किसी देहधारी में प्राणों के संचरित होने पर व्यक्त हो उठती है ।
यह भी उतना ही सत्य है जितना कि इस चेतना के स्फुरण से ही प्राणों का संचार देह में होता है ।
जैसे दीपक के समक्ष रखी वस्तु की दीवाल पर पड़ रही छाया वस्तु और दीपक के आकार के अनुपात के अनुसार केवल छाया अथवा छाया और उपच्छाया इन दो रूपों में दिखाई देती है, वैसे ही चंद्र पर पड़नेवाला सूर्य का प्रकाश भूमि द्वारा बाधित किए जाने से चंद्र-ग्रहण होने के समय ग्रहण के दिखाई देनेवाले ’स्पर्श’ से पहले ही उपच्छाया (पेनम्ब्रा) चंद्र को ग्रस चुकी होती है । और छाया के द्वारा चंद्र को ’स्पर्श’ से छोड़े जाने के समय के बाद भी उसे ग्रस्त किए रहती है, वैसे ही मनुष्य के भीतर संचरित चेतना / प्राण उपच्छाया की भाँति मनुष्य को पूरे जीवन भर ग्रस्त रखते हैं ।
यदि सूर्य (आत्मा) बहुत बड़ा दीपक है, पृथ्वी (देह) उसके समक्ष रखी वस्तु और चंद्र (मन / बुद्धि/ चित्त / अहं) वह भित्ति / पर्दा है जिस पर प्रकाश (संज्ञा) और छाया (स्मृति) चंद्र-ग्रहण के द्योतक समझे जाएँ तो मनुष्य स्वरूपतः वही है जो सूर्य है ।
(योऽसावसौ पुरुषो सोऽहमस्मि... -ईशावास्य उपनिषद् )
उसे यह तुलना रुचिकर प्रतीत हुई । हाँ कवित्वपूर्ण भी अवश्य थी किंतु कल्पना मात्र न थी ।
गुरुत्वाकर्षण-तरंगों के संदर्भ में उसके चिंतन के अगले क्रम का सूत्र था वह रज्जु जिसमें उसने कुछ पत्थर बाँधकर कोई प्रयोग बचपन में कभी किया था ।
वे तो बस पत्थर थे । अगर (अग्रे) यदि सूर्य जगदात्मा है, और पृथ्वी की तरह गोलाकार खगोलीय आकाशीय पिण्ड है, तो अवश्य ही सारे अन्य पिण्ड सूर्य के चतुर्दिक् वैसे ही परिमण करते होंगे जैसे उस रज्जु में बँधे पत्थर रज्जु को घुमाने से करते हैं । तात्पर्यतः भ-चक्र में ऐसे अनेक सौर-मंडल होंगे. -शायद असंख्य!
अर्थात् यह भूमि अवश्य ही इस सूर्य के चारों ओर गोलीय कक्षा में परिभ्रमण करती है । यही कारण है कि ऋतुएँ क्रमशः सूर्य की भ-चक्रीय गति के साथ-साथ परिवर्तित होती हैं । और दिन-रात्रि तो इसलिए होते हैं क्योंकि पृथ्वी स्वयं भी अपने अक्ष के चारों ओर परिक्रमण कर रही है । उसे आश्चर्य हो रहा था कि क्या यह सब उसकी कल्पना-मात्र है? किंतु उसने इस विषय में कभी किसी से कुछ नहीं कहा ।
वह फिर छाया-उपछाच्या अम्बर / प्र-अम्बर (umbra / penumbra) के बारे में चिंतन करता हुआ इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि वे सभी ग्रह-पिण्ड जो गुरुत्वाकर्षण रूपी रज्जु में बँधे सूर्य के चारों ओर प्रदक्षिणा / परिक्रमा करते हैं अपने प्रभाव से जिन तरंगों को आकाश में फैलाते होंगे वे समस्त चर-अचर जगत के प्राणिमात्र की मन-बुद्धि को अनेक रीतियों से अवश्य ही प्रभावित करते होंगे !
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Thursday, 3 March 2016

नाडी-सूत्र -3. 'Nibiru'

नाडी-सूत्र -3.
(Nibiru / निभृस्)
रहसि राहुः कुतः केतु...
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सूर्य के जिस पिण्ड के पीछे चले जाने से ही सूर्य-ग्रहण घटित होता है, गणना द्वारा जिस अदृश्य आकाशीय खगोलीय पिन्ड की उपस्थिति का आभास और अनुमान उसे हुआ था, उसके चरित्र के बारे में उसे कुछ पता न होने से वह उसे रहस्यपूर्ण प्रतीत हो रहा था । प्रथमतः उसका चंद्र से कोई संबंध अवश्य था क्योंकि सूर्य-ग्रहण सदा अमावास्या की तिथि पर ही होता है । और उसकी गणना के अनुसार जिस पिण्ड द्वारा सूर्य को आवरित किए जाने से यह खगोलीय घटना होती है, उसकी गति की दिशा राशि-परिभ्रमण के उसके कल्पित मार्ग पर सूर्य और चंद्र तथा बुध, बृहस्पति, शुक्र, मङ्गल और शनि जैसे तारकों से विपरीत दिशा में है । पुनः वह पिण्ड चंद्र नहीं है, क्योंकि चंद्र-ग्रहण क्यों होता है इस बारे में उसे अच्छी तरह ज्ञात था कि चंद्र-ग्रहण संभवतः चंद्र पर पड़नेवाले सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी के द्वारा बाधित किए जाने से होता है ।
उस कल्पित ग्रह को उसने ’राहु’ नाम दिया क्योंकि वह उसके लिए रहस्य था । उसकी गति वैसी ही वक्री थी जैसी बुध, बृहस्पति, शुक्र, मङ्गल और शनि जैसे पिण्डों की आभासी गति कभी-कभी जान पड़ती है, अर्थात् वे अपने नियमित मार्ग से विपरीत दिशा में गतिमान प्रतीत होते हैं ।
छाया ? सूर्य की पत्नी तो संज्ञा है / थी, छाया से तो सूर्य के पुत्र शनि हुए ।
क्या ’राहु’ का भी जन्म हुआ ?
राहु राक्षसो...
राक्षस-कुलोत्पन्न राहु  क्या यही है?
आकाश से गिरते उल्का-पिण्डों meteorites को भी उसने कदाचित् देखा था और कुछ ऐसे पिण्डों को भी जिनकी चमकीली पूँछ होती है । जैसे पताका हो ।
उसे यह स्पष्ट था कि वे अनियमित गति वाले केतु (कैतवः केतुः) comets थे जिनके मार्ग-परिभ्रमण का आकलन करना उसके लिए कठिन है । वह अनुमान लगा सकता था कि संभवतः वे यदृच्छया गतिमान छोटे-बड़े भिन्न-भिन्न आकार के स्थूल-खण्ड हैं जो वाष्प या शिला जैसे पदार्थ से बने होते हैं । संभवतः हिम या जल से भी बने हो सकते हैं । वे ज्वलनशील होते हैं, जो नहीं होते ऐसे भी कुछ हो सकते हैं । शायद उनमें से ही कुछ धरती पर चले आते हैं । उन्हें हम उल्का कह सकते हैं । किंतु ’राहु’ शनि नहीं है, चंद्र भी नहीं है ।
जो राक्षस सूर्य को ग्रसता प्रतीत होता है भू-चक्र के उस अक्ष पर जिस पिण्ड का आगमन होने से सूर्य-ग्रहण घटित होता है वह केवल पृथ्वी की चंद्र द्वारा सूर्य के मार्ग पर आने से बननेवाली छाया है  । किंतु अमावस्या के कारण चंद्र के न दिखलाई देने से इस सूक्ष्म तथ्य पर उसका ध्यान ही नहीं गया ।
संज्ञा से उत्पन्न हुए सूर्य के एक दूसरे पुत्र यम के बारे में उसे कोई संदेह न था ।
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नाडी-सूत्र -2.

नाडी-सूत्र -2.
Gravitational-Vibrations  / Waves, 
String-Theory,  Vector,

भयात् और भभोग
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उसने बहुत यत्न किया स्मरण करने का किंतु विगत कई जन्मों की स्मृति जैसे धुल चुकी थी ।
"अवगन्तव्यं त्रिकालदर्शिभिः ।"
एक सूत्र उसे याद आया और वह उसे दुहराता रहा ।
जिनके लिए तीनों काल दृश्य हैं वे समझ सकते हैं ।
उसने अपनी नाडी की परीक्षा की यद्यपि नाडी-परीक्षा के सिद्धान्त के अनुसार इससे उसका कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता था । क्योंकि अपनी नाडी का परीक्षण प्रत्यक्षतः किया जाना असंभव ही तो है ।और वह इस यत्न में असफल ही रहा ।
वह पुनः ’बल’ के तत्व को समझने का यत्न कर रहा था ।
’बल’ अर्थात् ’वल्’ अर्थात् ’वलय’ । ’वल्’ से ’वलय’ और ’वलय’ से तरंग की उत्पत्ति उसे दृष्टिगत हुई । उसने देखा कि आकाशीय पिण्ड इसी प्रकार से परस्पर बँधे हुए हैं । वह ’बल’ जो उन्हें परस्पर ’स्थानगत’ दूरी में नियमित कक्षा में बाँधे रखता है,  ’बल’ अर्थात् गुरुत्वाकर्षण (ग्रेविटेशनल-फ़ोर्स / Gravitational Force) है जो दो पिण्डों के अपने अपने द्रव्यमान के अनुसार परस्पर एक दूसरे को बाँधे रखता है । यह ’बल’ वास्तव में ’वल्’ अर्थात् व्याप्ति के लक्षणयुक्त तरंगस्वरूप है । (व्याप्तिलक्षणं बलं) क्योंकि यदि यह रज्जुवत् दूसरे को नहीं बाँधता तो आकाशीय पिण्डों की पारस्परिक अवस्थिति सुस्थिर नहीं रह सकती । उसे अपने चिंतन पर आश्चर्य हुआ । उसका निष्कर्ष था कि ’बल’ / गुरुत्वाकर्षण बल इसी प्रकार के रज्जु-सूत्रों के स्वरूप का है । जैसे एक रज्जु (फ़ैब्रिक / fabric) मूलतः कई महीन रज्जुओं (स्ट्रिंग्स / strings) के संयुक्त होने से बनती है और प्रत्येक महीन रज्जु और भी अधिक सूक्ष्मतर रज्जुओं से, वैसे ही आकाशीय गुरुत्वाकर्षण बल  (कॉस्मिक-फ़ोर्स / Cosmic Force) मूलतः वलयाकार गतिविधि (वेक्टर / vector) है जो पदार्थ / शक्ति की ही स्थान तथा काल से सीमित अभिव्यक्ति है ।
तब उसे याद आया कि कभी बचपन में उसने एक प्रयोग किया था । उसने एक रज्जु में कुछ पत्थर उनके बीच कम-अधिक दूरी पर बाँधे थे और वह रज्जु को घुमाने लगा । उसने देखा कि चूँकि सब एक ही रज्जु में बँधे हैं इसलिए रज्जु को गोल गोल घुमाने पर उसके एक निश्चित वेग प्राप्त कर लेने पर सभी पत्थर एक ही सीध में और एक ही ज्यामितीय समतल पर गति करते हैं ।
उसे जब यह स्मरण हुआ तो उसे तुरंत ही स्पष्ट हो गया कि (चंद्र तथा सूर्य सहित) जो आकाशीय पिण्ड राशियों का परिभ्रमण करते हैं वे उन तारकों से विलक्षण हैं जो किसी राशि-समूह में अपने सापेक्ष स्थान पर अत्यन्त स्थिर होते हैं अर्थात् राशि-परिभ्रमण नहीं करते । तब उसे प्रतीत हुआ कि सूर्य और चंद्र जो यद्यपि उदित और अस्त होते दिखलाई पड़ते हैं वस्तुतः बहुत दूर होने के कारण बहुत छोटे जान पड़ते हैं । क्षितिज के गोल होने से उसे बहुत पहले से ज्ञात ही था कि भूमि भी एक गोलाकार आकाशीय पिण्ड है ।
सूर्य-ग्रहण और चंद्र ग्रहण का अवलोकन करने पर उसने अनुमान लगाया कि भ-चक्र के उस अक्ष पर, सूर्य जिसके उत्तर की ओर जाने लगता है और लौटकर दक्षिण की ओर, और इस प्रकार दोलायमान रहता है, एक आकाशीय पिण्ड अवस्थित है जो दिखलाई नहीं देता किन्तु जब सूर्य उस अक्ष पर आता है तो सूर्य के उस पिण्ड के पीछे चले जाने से ही सूर्य-ग्रहण घटित होता है । गणना के द्वारा उसने आगामी सूर्य-ग्रहण की तिथि का अनुमान किया किंतु ऐसे कई अनुमान विभिन्न कारणों से सत्य / असत्य सिद्ध न कर पाया । किंतु जब उसने आगामी चंद्र-ग्रहण कब होगा इसका अनुमान लगाया तो उसे शीघ्र ही सफलता मिली । कई वर्षों के निरंतर परिश्रम से उसे स्पष्ट हुआ कि ऋग्वेद-वर्णित अनेक मंत्र इन सब खगोलीय घटनाओं को अधिक अच्छी तरह वर्णित करते हैं ।
इसलिए राशि-चक्र में या नक्षत्र में चन्द्र के आँशिक परिक्रमण को भ-यात् तथा शेष भावी को भ-भोग कहा जाता है ।
क्या इसका कोई संबंध मनुष्य के जन्म के समय आकाशीय पिण्डों की खगोलीय स्थिति से होता है?
आदि मध्य और अन्त्य नाडी का महत्व उसे तत्क्षण स्पष्ट हुआ और यह भी कि जैसे चंद्र का भ-यात् और भ-भोग उसका प्रारब्ध है, वैसे ही नाडी के आदि, मध्य और अन्त्य होने का संबंध मनुष्य के जीवन में घटित होनेवाली घटनाओं से ।
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Wednesday, 2 March 2016

नाडी-सूत्र / Gravitational-Vibrations / Waves.

नाडी-सूत्र
(Gravitational-Vibrations / Waves).
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गुरुकुल में रहते हुए उसे आश्चर्य होता था कि कोई भी छात्र किसी भी कक्षा में कभी भी जाकर बैठ सकता था, कितु इसके लिए उसे आचार्य से आज्ञा लेनी होती थी और कक्षा प्रारंभ होने से संपन्न हो जाने तक वह कक्षा छोड़ नहीं सकता था ।
हाँ आचार्य ही अगर कह दें तो उसे न चाहते हुए भी कक्षा छोडनी होती थी । ऐसे ही एक दिन उसने उस कक्षा में बैठना चाहा जिसमें नाडी-विज्ञान (Science of Pulse) की शिक्षा दी जाती थी ।
"नाड्यः तिस्रः।
आद्या मध्या अन्त्या च ।"
आचार्य ने प्रारंभ किया ।
"यथा हि पुरुषे तथा हि जीवे, यथा हि जीवे तथा च स्थूले, सूक्ष्मे वा कारणेऽपि ॥"
नाडियाँ तीन होती हैं, आदि, मध्य और अन्त्य ।
जैसे मनुष्य में वैसे ही अन्य सभी जीवों में, जैसे अन्य सभी जीवों में वैसे ही स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण जगत् में ।
"कारणे ब्रह्मा विष्णु शङ्कररूपाः ।
सूक्ष्मे सत्व-रज-तमसा गुणरूपा ।
स्थूले व्यक्ते जगति स्पन्दरूपाः ।"
कारणरूप जगत् में वे ब्रह्मा विष्णु तथा शङ्करात्मक हैं ।
सूक्ष्मजगत् में मनो-चित्त-बुद्धि-अहं के जगत् में गुणरूप में, तथा व्यक्त स्थूल जगत् में स्पन्दन के रूप में होती हैं ।
यह स्पन्दन पुनः द्रव्य-रूप (material), आवेश-रूप (electric-charge)तथा बलरूप (force) में होता है ।
द्रव्य-रूप में यह इन्द्रियगम्य है, आवेश-रूप में बुद्धिगम्य है और बलरूप में कार्यगम्य है ।
आकाश द्रव्य होने से इन्द्रियगम्य है, विद्युत् आवेश-रूप होने से बुद्धिगम्य तथा कार्य बलरूप होने से प्रभावगम्य है ।
काल का निश्चय परिणाम से होता है इसलिए काल अनुमेय / अनुमानगम्य है ।
नाडी के तीनों प्रकार इन विभिन्न रूपों में व्यक्त-अव्यक्त, अव्यक्त-व्यक्त होकर स्पन्द में रहते हैं ।
काल के अन्तर्गत उनका आदि और अन्त नहीं जाना जा सकता किंतु मध्य अर्थात् वर्तमान क्षण जिसे मापा भी नहीं जा सकता उस बल-युग्म की तरह व्यक्त हो रहे स्पन्द का संतुलन-केन्द्र (fulcrum) और घूर्णन-अक्ष होता है ।
यह चूँकि एक ही ज्यामितीय समतल तल पर अवस्थित होता है इसलिए नाडी-यन्त्र / घटिका-यन्त्र (clock) के संतुलन-चक्र (balancing-wheel) की तरह अपने लोक की संपूर्ण गतिविधि को प्रारंभ, नियंत्रित, संचालित, और गतिशील या स्थिर करता है ।
व्यक्त तारा, सूर्य, चंद्र तथा नक्षत्र मंडल में इसी से आवृत्ति / अनुवृत्ति निर्धारित होते हैं । भूमि पर स्थित किसी स्थान से देखने पर अन्य ग्रह जो दृक्-ज्योतिष में भ-चक्र या राशि-चक्र में परिभ्रमण करते दिखाई देते हैं, इसी स्पन्द की मूल आवृत्ति के अनुसार आदि मध्य और अन्त्य नाडी की गति से भिन्न-भिन्न गतियाँ प्राप्त करते हैं ।
आज का अध्याय पूर्ण हुआ ।
जैसा कि पूर्वनिर्धारित क्रम था,  सभी छात्रों ने मिलकर परस्पर एक-दूसरे की सहायता से संपूर्ण अध्याय को यथावत् अपनी अपनी पञ्जिका में यथावत् लिख लिया ।
उस दिन इसके बाद कक्षा समाप्त हो गई ।
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रात्रि में वह आकाश में देखकर विभिन्न राशियों को पहचानने का यत्न कर रहा था । अब उसे स्पष्ट हो गया था कि भ-चक्र में चंद्र का उसकी गति से एक परिभ्रमण लगभग चार सप्ताह में पूर्ण होता है । कुछ दिनों बाद उसे कुछ ऐसे आकाशीय पिण्ड दृष्टिगोचर हुए जो चंद्र की ही तरह भचक्र में तारों की राशि के समूह को एक-एक कर क्रमशः पार करते हुए अन्ततः पुनः पहले राशि-समूह पर आ जाते थे । उसे ऐसा भी प्रतीत हुआ कि तारों की राशि-समूह में स्थित ज्योति-पुञ्ज उस एक ही आकृति-विशेष में स्थिर थे जिससे न तो आकृति में और न उनकी स्थिति में ही कोई परिवर्तन होता हुआ दिखाई देता था । लगभग प्रतिदिन ही वह इस प्रकार से रात्रि के आकाश का निरीक्षण करने लगा था । सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय भी वह संध्योपासन के पूर्व या पश्चात् सूर्य किस राशि-समूह में है इसका अनुमान लगाने लगा था । चंद्र के बारह परिभ्रमण हो जाने के बाद उसने देखा कि सूर्य पुनः उस राशि पर आ गया है । किन्तु अब उसने अनुमान लगाया कि चन्द्र के भ-चक्र के एक पूर्ण परिभ्रमण में सूर्य केवल एक ही राशि को लाँघता है । क्या इसका अर्थ यह हुआ कि उन राशि समूहों की कुल गणना बारह ही है? और क्या चन्द्र, सूर्य और राशियाँ सदा इसी क्रम से गतिशील रहते हैं ? तब उसने यह पता लगाने का यत्न किया कि क्या राशियाँ भी चन्द्र और सूर्य की तरह उदित और अस्त होती हैं ऐसा कहा जा सकता है?
कुछ मास बीत जाने पर उसे अनुभव हुआ कि समूचा भ-चक्र वस्तुतः उस बल-युग्म से स्पन्दित है जिसके कारण भ-चक्र (Zodiac) एक अक्ष के दोनों ओर दोलायमान (oscillating) रहता है । जब सूर्य उस अक्ष के उत्तर में एक सीमा तक जाकर लौट आता है और इसके पश्चात् उस अक्ष के दक्षिण में एक सीमा तक जाकर इसी प्रकार लौट आता है । जैसा कि स्वाभाविक भी था, उसे यह समझने में वर्षों लग गए कि यह सारा क्रम इतना सुनिश्चित है कि इसके बारे में गणना द्वारा पूर्वानुमान लगाया जा सकता है और उसकी सत्यता की परीक्षा भी की जा सकती है ।
इस सारे अन्तराल में उसने अनेक सूर्य-ग्रहण और चंद्र-ग्रहण भी आकाश में देखे और उस ’अक्ष’ का स्थान आकाश में कल्पित किया जिसके दोनों ओर भ-चक्र दोलायमान रहता है । किन्तु उसे चंद्र-ग्रहण और सूर्य-ग्रहण क्या है, क्यों और कैसे होता है इस बारे में बतलानेवाला कोई न था ।
आचार्य ने इसके बाद इस ज्ञान की शिक्षा कभी न दी ।
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(Gravitational-Vibrations / Waves) 
भयात् और भभोग
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