॥ नर्मदेहर-स्तोत्रम् ॥
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तवदर्शनात् चित्तशान्तिः किमर्थं जगद्विभ्रमे ।
ते निमग्नतायां नित्यसुखं न वाञ्छे मोक्षं माते ॥1
हर-हृद्-निःसृता माते शिवस्वेदबिन्दुरूपा ।
तरंगभंगरञ्जितो सिन्धुः जगत्सृष्ट्या विस्तृते ॥2
अहं तु तव पुत्रो माते जीवरूपो सुखीदुःखी ।
संतप्तोऽस्मि व्याधेर्जगतः तव शरणं व्रजाम्यहम् ॥3
गुरोः श्रुत्वा महिमानं स्मरणं तवोद्भूते हृदये ।
स्वरूपं ते सुविज्ञाय आगतो सन्निधिं तव ॥4
"हृद्-देशे स्थितोऽस्मी’ति" विनिर्दिष्टेन गीतायाम् ।
"अहमीश्वर परमात्मा भूतात्मा सर्वभूतेषु" ॥5
यथा जीवे अहंवृत्तिः परमात्मनि शिवेऽपि सा ।
अहंस्फूर्तिः जायते नित्या स्वेदरूपा हृदः हरे ॥6
सावृत्तिरेव त्वं देवि नर्मदानाम परमेश्वरी ।
उद्धर्तुं जीवान् जगतः प्रकटीभूतासि शङ्करे ॥7
यदा हि जीववृत्तिर्सा प्रपश्येत्तामात्म्यस्फूर्तिम् ।
तदा तु प्राप्त्वा मुक्तिं नर्मदायाम् प्रविलीयते ॥8
अतो हि दर्शन-निमज्जनयोः जीवः सञ्चरन् मुक्त्वा ।
अत्रैव लभते नित्यं सुखशान्तिमोक्षमपि ॥9
इदं नर्मदेहरस्तोत्रं विनायकस्वामिकृतं ।
पठेद्यो भुक्तिं मुक्तिं आत्मभक्तिमपि विन्दति ॥10
--
(54, नावखेडीघाट ग्राम, बड़वाह, जिला खरगौन, पश्चिमी निमाड़)
22-03-2016.
--
अर्थ : तुम्हारे दर्शन से चित्तशान्ति होती है, फिर संसार के व्यर्थ विभ्रमों में भटकने से क्या प्रयोजन?
तुममें निमग्नता होने पर नित्यसुख होता है , हे माता, मुझे मोक्ष की चाह नहीं ॥1
भगवान् शिव के हृदय (तनु, स्वरूप) से निःसृत स्वेदबिन्दुरूप तुम हे माता! निःसृत हुई हो !
और उस स्वेदबिन्दु के तरंग के विस्तार के भंग होने से जगत्सृष्टि के रूप में विराट सिन्धु / समुद्र सी विस्तीर्ण हुई हो !॥2
हे माता ! मैं जीव तो तुम्हारा ही पुत्र हूँ जो कभी सुखी तो कभी दुःखी हुआ करता है ।
जगद्व्याधि से ग्रस्त मैं क्लेश से संतप्त रहता हूँ, इसलिए तुम्हारी शरण में आया हूँ ॥3
गुरु से तुम्हारी महिमा सुनकर मेरे हृदय में तुम्हारा स्मरण जागृत हुआ ।
और तुम्हारे यथार्थ तत्व को अच्छी तरह से जानने के लिए मैं तुम्हारे समीप आया हूँ ॥4
जैसा कि गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने निर्देश दिया है कि सर्वभूतों की आत्मा, मैं परमात्मा, (हे अर्जुन !),
मैं जीवमात्र के हृदय में ही बसा करता हूँ ॥5
(वैसे ही) जिस प्रकार हर जीव में अहंवृत्ति होती ही है, परमात्मा शिव में भी वह विद्यमान है ।
(किन्तु) भगवान् शिव के हृदय में वही शुद्ध अहंस्फूर्ति (चित्) के रूप नित्य स्व तथा इदं के रूप में नित्य भानमात्र की तरह अखंडित होती है ॥6
(जीव की अहं-वृत्ति खंडित और अनित्य भी होती है । यही अहंवृत्ति हृदय में अहंस्फूर्ति की तरह नित्य विद्यमान है, और उससे ही निःसृत होती है ।)
भगवान् शिव के हृदय में उठनेवाली वही अहंवृत्ति अर्थात् अहंस्फूर्ति हे देवि हे परमेश्वरि ! तुम्हीं हो जिसका नाम है नर्मदा ।
जो जगत् के जीवों का उद्धार करने हेतु भगवान् शङ्कर के स्वरूप से साक्षात् प्रकट रूप में अवतीर्ण हुई हो !॥7
जब जीव में उठने-विलीन होते रहनेवाली अहंवृत्ति अपने उद्गमस्वरूप उस आत्मस्फूर्ति का भली प्रकार से अवलोकन कर लेती है,
तब वही (अहंवृत्ति) मुक्त होकर नर्मदा अर्थात् आत्म-स्फूर्ति में विलीन हो जाती है, उससे एकात्म हो जाती है ॥8
इस प्रकार से हे माता! तुम्हारे दर्शन तथा तुम्हारे स्वरूप में निमग्नता होने पर जीवन्मुक्त होकर विचरण करता है ।
और तब उसे यहीं देह रहते हुए भी नित्य सुख, शान्ति तथा मोक्ष भी प्राप्त हो जाता है ॥9
विनायकस्वामिकृत इस नर्मदेहरस्तोत्र का पाठ जो करता है, उसे भुक्ति, मुक्ति एवं आत्मभक्ति (अर्थात् ईश्वर / परमात्मा से ऐक्य) प्राप्त हो जाता है ॥10
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तवदर्शनात् चित्तशान्तिः किमर्थं जगद्विभ्रमे ।
ते निमग्नतायां नित्यसुखं न वाञ्छे मोक्षं माते ॥1
हर-हृद्-निःसृता माते शिवस्वेदबिन्दुरूपा ।
तरंगभंगरञ्जितो सिन्धुः जगत्सृष्ट्या विस्तृते ॥2
अहं तु तव पुत्रो माते जीवरूपो सुखीदुःखी ।
संतप्तोऽस्मि व्याधेर्जगतः तव शरणं व्रजाम्यहम् ॥3
गुरोः श्रुत्वा महिमानं स्मरणं तवोद्भूते हृदये ।
स्वरूपं ते सुविज्ञाय आगतो सन्निधिं तव ॥4
"हृद्-देशे स्थितोऽस्मी’ति" विनिर्दिष्टेन गीतायाम् ।
"अहमीश्वर परमात्मा भूतात्मा सर्वभूतेषु" ॥5
यथा जीवे अहंवृत्तिः परमात्मनि शिवेऽपि सा ।
अहंस्फूर्तिः जायते नित्या स्वेदरूपा हृदः हरे ॥6
सावृत्तिरेव त्वं देवि नर्मदानाम परमेश्वरी ।
उद्धर्तुं जीवान् जगतः प्रकटीभूतासि शङ्करे ॥7
यदा हि जीववृत्तिर्सा प्रपश्येत्तामात्म्यस्फूर्तिम् ।
तदा तु प्राप्त्वा मुक्तिं नर्मदायाम् प्रविलीयते ॥8
अतो हि दर्शन-निमज्जनयोः जीवः सञ्चरन् मुक्त्वा ।
अत्रैव लभते नित्यं सुखशान्तिमोक्षमपि ॥9
इदं नर्मदेहरस्तोत्रं विनायकस्वामिकृतं ।
पठेद्यो भुक्तिं मुक्तिं आत्मभक्तिमपि विन्दति ॥10
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(54, नावखेडीघाट ग्राम, बड़वाह, जिला खरगौन, पश्चिमी निमाड़)
22-03-2016.
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अर्थ : तुम्हारे दर्शन से चित्तशान्ति होती है, फिर संसार के व्यर्थ विभ्रमों में भटकने से क्या प्रयोजन?
तुममें निमग्नता होने पर नित्यसुख होता है , हे माता, मुझे मोक्ष की चाह नहीं ॥1
भगवान् शिव के हृदय (तनु, स्वरूप) से निःसृत स्वेदबिन्दुरूप तुम हे माता! निःसृत हुई हो !
और उस स्वेदबिन्दु के तरंग के विस्तार के भंग होने से जगत्सृष्टि के रूप में विराट सिन्धु / समुद्र सी विस्तीर्ण हुई हो !॥2
हे माता ! मैं जीव तो तुम्हारा ही पुत्र हूँ जो कभी सुखी तो कभी दुःखी हुआ करता है ।
जगद्व्याधि से ग्रस्त मैं क्लेश से संतप्त रहता हूँ, इसलिए तुम्हारी शरण में आया हूँ ॥3
गुरु से तुम्हारी महिमा सुनकर मेरे हृदय में तुम्हारा स्मरण जागृत हुआ ।
और तुम्हारे यथार्थ तत्व को अच्छी तरह से जानने के लिए मैं तुम्हारे समीप आया हूँ ॥4
जैसा कि गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने निर्देश दिया है कि सर्वभूतों की आत्मा, मैं परमात्मा, (हे अर्जुन !),
मैं जीवमात्र के हृदय में ही बसा करता हूँ ॥5
(वैसे ही) जिस प्रकार हर जीव में अहंवृत्ति होती ही है, परमात्मा शिव में भी वह विद्यमान है ।
(किन्तु) भगवान् शिव के हृदय में वही शुद्ध अहंस्फूर्ति (चित्) के रूप नित्य स्व तथा इदं के रूप में नित्य भानमात्र की तरह अखंडित होती है ॥6
(जीव की अहं-वृत्ति खंडित और अनित्य भी होती है । यही अहंवृत्ति हृदय में अहंस्फूर्ति की तरह नित्य विद्यमान है, और उससे ही निःसृत होती है ।)
भगवान् शिव के हृदय में उठनेवाली वही अहंवृत्ति अर्थात् अहंस्फूर्ति हे देवि हे परमेश्वरि ! तुम्हीं हो जिसका नाम है नर्मदा ।
जो जगत् के जीवों का उद्धार करने हेतु भगवान् शङ्कर के स्वरूप से साक्षात् प्रकट रूप में अवतीर्ण हुई हो !॥7
जब जीव में उठने-विलीन होते रहनेवाली अहंवृत्ति अपने उद्गमस्वरूप उस आत्मस्फूर्ति का भली प्रकार से अवलोकन कर लेती है,
तब वही (अहंवृत्ति) मुक्त होकर नर्मदा अर्थात् आत्म-स्फूर्ति में विलीन हो जाती है, उससे एकात्म हो जाती है ॥8
इस प्रकार से हे माता! तुम्हारे दर्शन तथा तुम्हारे स्वरूप में निमग्नता होने पर जीवन्मुक्त होकर विचरण करता है ।
और तब उसे यहीं देह रहते हुए भी नित्य सुख, शान्ति तथा मोक्ष भी प्राप्त हो जाता है ॥9
विनायकस्वामिकृत इस नर्मदेहरस्तोत्र का पाठ जो करता है, उसे भुक्ति, मुक्ति एवं आत्मभक्ति (अर्थात् ईश्वर / परमात्मा से ऐक्य) प्राप्त हो जाता है ॥10
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॥ narmadehara-stotram ॥
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tavadarśanāt cittaśāntiḥ kimarthaṃ jagadvibhrame |
te nimagnatāyāṃ nityasukhaṃ na vāñche mokṣaṃ māte ||1
hara-hṛd-niḥsṛtā māte śivasvedabindurūpā |
taraṃgabhaṃgarañjito sindhuḥ jagatsṛṣṭyā vistṛte ||2
ahaṃ tu tava putro māte jīvarūpo sukhīduḥkhī |
saṃtapto:'smi vyādherjagataḥ tava śaraṇaṃ vrajāmyaham ||3
guroḥ śrutvā mahimānaṃ tava smaraṇaṃ tavodbhūte hṛdaye |
svarūpaṃ te suvijñāya āgato sannidhiṃ tava ||4
"hṛd-deśe sthito:'smī’ti" vinirdiṣṭena gītāyām |
"ahamīśvara paramātmā bhūtātmā sarvabhūteṣu" ||5
yathā jīve ahaṃvṛttiḥ paramātmani śive:'pi sā |
ahaṃsphūrtiḥ jāyate nityā svedarūpā hṛdaḥ hare ||6
sāvṛttireva tvaṃ devi narmadānāma parameśvarī |
uddhartuṃ jīvān jagataḥ prakaṭībhūtāsi śaṅkare ||7
yadā hi jīvavṛttirsā prapaśyettāmātmyasphūrtim |
tadā tu prāptvā muktiṃ narmadāyām pravilīyate ||8
ato hi darśana-nimajjanayoḥ jīvaḥ sañcaran muktvā |
atraiva labhate nityaṃ sukhaśāntimokṣamapi ||9
idaṃ narmadeharastotraṃ vināyakasvāmikṛtaṃ |
paṭhedyo bhuktiṃ muktiṃ ātmabhaktimapi vindati ||10
--
(54, nāvakheḍīghāṭa grāma, baḍavāha, jilā kharagauna, paścimī nimāḍa)
composed on 22-03-2016.
--
Narmadeyam
--
Looking at you the makes the mind cool and tranquil,
Why then should one wander through the illusions of the world? 1.
O Mother Divine! From the very heart of Shiva,
You descended down in the form of a drop of sweat,
And the drop took the form of a great wave,
The wave soon split into a great ocean,
The ocean, that became the whole world. 2.
O Mother Divine! I am but your child,
The soul who is always, happy or sad ,
Tormented by the misery of the world,
Came unto You for relief from pain. 3.
Having heard of your Glory,
Through the mouth of The Guru,
I have come to You O Mother,
To grasp the essence of the same,
Just as is told in The Gita,
By the Lord, by Shri Krishna Himself,
“I reside in the heart of all beings “ O Arjuna!
“The heart is my very abode!
I’m the very being of creatures all,
I’m ever there in the heart of all.” 5.
Just as, there is the I-sense in every being,
There is such a one there in The Being Supreme.
Though the I-sense in beings is transient,
The One in The Supreme is undivided,
Steady, stable, Ever so resplendent,
That pure awareness (Cit) in the Lord,
Makes Him ever the Self (Sat) vigilant.
The drop of sweat (sw-et) that is I-sense,
In Beings common, or one Supreme,
Is Art Though, I know for well. 6.
(This I-sense ever pulsating in the heart of all beings and in the heart of the Lord is essentially one and the same. Though in beings it is unsteady, flickering, while in the Lord’s Heart as awareness of the Self, it is ever-shining without break.)
O Mother Divine, O Blessed Goddess !
I-sense that shines in the Heart of the Lord,
Is your true form I know for well,
And you have assumed this form,
To emancipate and liberate the souls,
From the very heart of the Lord.
In your compassion, for the whole world.
You have come down on this earth,
To remove the sorrow, misery of the souls.7
When the I-sense that is the life of the soul,
Looks at the I-sense that is your form,
The I-sense is dissolved for good,
Ultimately leaving no trace.
When the I-sense of the person,
Is there no more, is lost,
One becomes one with You,
With the Lord O Mother! 8.
Therefore O Mother Divine Beloved!
Looking at you and getting merged in You,
Is the way to attain happiness, the peace,
And liberation too! Lasting, That abides for ever. 9.
One who chants this hymn,
To Mother narmadA and the Lord Shiva,
Attains all happiness, Liberation,
And the devotion to the Self. 10
--
Note : स्वेद in संस्कृत could be derived in two ways :
स्व + इदं > self + this > ego + Id .
2 : स्व + इतः > 'This' that is from 'self '
--
There is yet another meaning in vogue.
Because the 'sweat' emerges out from one-self, it is called स्वेदं / स्वेदः in Sanskrit.
This gives us yet another clue how the word 'sweat' in English has originated from the Sanskrit word स्वेदं / स्वेदः ....
--
नर्मदेहर !!!
--
Looking at you the makes the mind cool and tranquil,
Why then should one wander through the illusions of the world? 1.
O Mother Divine! From the very heart of Shiva,
You descended down in the form of a drop of sweat,
And the drop took the form of a great wave,
The wave soon split into a great ocean,
The ocean, that became the whole world. 2.
O Mother Divine! I am but your child,
The soul who is always, happy or sad ,
Tormented by the misery of the world,
Came unto You for relief from pain. 3.
Having heard of your Glory,
Through the mouth of The Guru,
I have come to You O Mother,
To grasp the essence of the same,
Just as is told in The Gita,
By the Lord, by Shri Krishna Himself,
“I reside in the heart of all beings “ O Arjuna!
“The heart is my very abode!
I’m the very being of creatures all,
I’m ever there in the heart of all.” 5.
Just as, there is the I-sense in every being,
There is such a one there in The Being Supreme.
Though the I-sense in beings is transient,
The One in The Supreme is undivided,
Steady, stable, Ever so resplendent,
That pure awareness (Cit) in the Lord,
Makes Him ever the Self (Sat) vigilant.
The drop of sweat (sw-et) that is I-sense,
In Beings common, or one Supreme,
Is Art Though, I know for well. 6.
(This I-sense ever pulsating in the heart of all beings and in the heart of the Lord is essentially one and the same. Though in beings it is unsteady, flickering, while in the Lord’s Heart as awareness of the Self, it is ever-shining without break.)
O Mother Divine, O Blessed Goddess !
I-sense that shines in the Heart of the Lord,
Is your true form I know for well,
And you have assumed this form,
To emancipate and liberate the souls,
From the very heart of the Lord.
In your compassion, for the whole world.
You have come down on this earth,
To remove the sorrow, misery of the souls.7
When the I-sense that is the life of the soul,
Looks at the I-sense that is your form,
The I-sense is dissolved for good,
Ultimately leaving no trace.
When the I-sense of the person,
Is there no more, is lost,
One becomes one with You,
With the Lord O Mother! 8.
Therefore O Mother Divine Beloved!
Looking at you and getting merged in You,
Is the way to attain happiness, the peace,
And liberation too! Lasting, That abides for ever. 9.
One who chants this hymn,
To Mother narmadA and the Lord Shiva,
Attains all happiness, Liberation,
And the devotion to the Self. 10
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Note : स्वेद in संस्कृत could be derived in two ways :
स्व + इदं > self + this > ego + Id .
2 : स्व + इतः > 'This' that is from 'self '
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There is yet another meaning in vogue.
Because the 'sweat' emerges out from one-self, it is called स्वेदं / स्वेदः in Sanskrit.
This gives us yet another clue how the word 'sweat' in English has originated from the Sanskrit word स्वेदं / स्वेदः ....
--
नर्मदेहर !!!