Sunday, 30 January 2022

Manifest / Un-manifest.

The Dance of Nataraja.

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Stimulation and Simulation.

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One That thinks, never knows. 

One That knows, never thinks.

One Who thinks, never knows, 

One Who knows, never thinks.

Knowing is Consciousness,

Consciousness is Life,

Life is Knowing. 

Knowing, Consciousness, Life, - Never thinks. 

Thinking, Thought, - Never knows.

Man is the confluence of knowing and thinking.

Knowing is the underlying Un-manifest Principle.

Thinking is the Manifest one.

Thinking happenes in terms of a language. 

Be a spoken, vernacular one, or the one that is invented and used in computer programming.

A language is essentially made of words, that are again made of phonemes and syllables.

A meaningful sentence is made of a set of words that convey a sense.

So therefore, Language is thought, and thought is language only. Thought, how-so-ever perfect or imperfect, is therefore an expression, useful in communicating a sense to someone.

The 5 R-s that give us a word or sentence are :

Reading, Writing, Remembering, Reflecting and Repeating. This could further be rhythmatic or arithmetic.

But all such expressions, be it poetry, prose, theory or principle, are statements made up of words and though seem to help us the purport, remain useful to those who are familiar with the language.

But what stimulates the thought and thinking is beyond the reach of all.

So, the thought is simulation while the thing that stimulates the sense is beyond the grasp of the thought. 

Mind functions in these two modes.

So there is the superficial mind that acquires and keeps the information / knowledge in the store-house of the memory.

And there is another Mind that knows how this takes place. 

This another mind is always silent and in silence knows only.

In between appears a bridge,  -another thought that is a complex of knowing and thinking, of consciousness and thought, described as 'I', and the illusion 'I think' assumes apparent reality.

This apparent reality is neither clearly manifest, nor it is Un-manifest as well.

But it can't be denied that it has a tone, flavor and sense of the notion of 'I' or of the 'self'.

In Vedantika parlance this is termed as the Rudra Principle. The same as the Shiva or the Father-Principle.

Another way of looking at this phenomenon is the knowing or the 'Consciousness' or the Mother Principle. 

The two are two aspects of the same and the unique Reality. 

Yet another is the Intelligence or Child Principle, that is again though Un-manifest, manifests as the intellect. Together the two form the wisdom. This is again referred to as the :

GaNesha-Principle.

The underlying Consciousness-principle is the only fact common to both the Manifest, and in Un-manifest substratum. But it is in the Manifest only, it is called the "Witness-Peinciple".

Because as is said in the Gita, chapter 2,

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोः तत्त्वदर्शिभिः ।।१६।।

And again in श्रीदेवी अथर्वशीर्षम् :

मन्त्राणां मातृकादेवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी ।।

ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी ।।

यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ।।२४।।

This Manifest and the Un-manifest Principle that is ever as the express and the latent also isn't a void but the ever-shining ever-abiding Reality only.

Therefore the same Consciousness-Principle in the Manifest and the Un-manifest is but the साक्षी inherent always.

The same Principle therefore could be termed as the Shiva, Devi or the GaNesha also.

The same is the timeless dance of Nataraja.

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Monday, 24 January 2022

पुराकथा

पुरा-तत्व-कथा

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पुनः एक पुराकथा ।

भगवान् महर्षि वेदव्यास की धर्मपत्नी थी क्षिति। 

उनकी दो संतानों थीं। 

पुत्र का नाम था क्षितिज और पुत्री का नाम था परिधि। 

इस कथा का एक रूप पहले कभी "नासदीयसूक्तम्" के सन्दर्भ के साथ इस ब्लॉग में प्रस्तुत किया जा चुका है। 

अब इसी प्रसंग से जुड़ी एक और कथा :

एक बार पुत्री और पुत्र के बीच इस बारे में विचार किया जा रहा था कि उनके नाम का क्या तात्पर्य है! 

तब भाई-बहन पिता के पास पहुँचे और उनसे अपनी जिज्ञासा का समाधान करने का निवेदन किया। 

"बेटा! तुम्हारा नम है क्षितिज । वैसे इसका एक कारण यह है कि तुम क्षिति की और नभ की भी सन्तान हो, किन्तु इसका दूसरा एक कारण यह भी है कि तुम धर्म अर्थात् यम हो। जबकि परिधि जो तुम्हारी बहन है, यमुना अर्थात् पृथ्वी से ही उत्पन्न संसार का यम-यातना से उद्धार करनेवाली तपस्विनी है। चूँकि तुम सूर्यपुत्र हो अतः तुम्हारा स्वरूप अग्नितत्व-प्रधान है। इसलिए तुम कठोर हो और तुम्हारे विधान और न्याय का उल्लंघन कोई भी नहीं कर सकता, फिर भी जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी बहन की स्तुति, दर्शन और उसके जल में स्नान करते हैं, और इस प्रकार उसको प्रसन्न कर लेते हैं, वे समस्त पापों से मुक्त होकर सद्गति प्राप्त करते हैं।"

सभी नदियाँ समान रूप से पावनकारी हैं, चाहे फिर वह गंगा हो, यमुना, सरस्वती, सरयू, शिप्रा, नर्मदा, गोदावरी अथवा फल्गु ही क्यों न हो। 

परिधि का एक तात्पर्य है मर्यादा । पृथिवी पर धर्म नित्य ही एक और सनातन है, क्षितिज की तरह, जबकि स्थान स्थान पर उस धर्म की मर्यादा अर्थात् परंपरा अलग अलग है। जब पृथिवी के किसी भाग पर धर्म की उस मर्यादा का उल्लंघन होने लगता है, तो वह अधर्म हो जाता है।"

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Sunday, 23 January 2022

संकल्प-साधना

संकल्प और पुनर्संकल्प

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पिछले एक-दो पोस्ट्स में आध्यात्मिक साधना के तीन प्रकारों अर्थात् संकल्प, समर्पण और अनुसंधान के बारे मे लिखा था। अब उसे विस्तारपूर्वक लिखा जा सकता है। 

किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक साधना अर्थात् अभ्यास का प्रारम्भ अज्ञान ही से होता है। मन, बुद्धि, चित्त तथा स्मृति का अभी उन्मेष ही हुआ होता है जब प्रायः हर मनुष्य ही अज्ञान से ग्रस्त होकर जीवन और संसार क्या है, वह स्वयं क्या है, इन सब प्रश्नों तक से अनभिज्ञ होता है, वह केवल जीवन की तात्कालिक आवश्यकताओं से प्रेरित होकर जीवन में विकसित होता है, जैसे कोई वनस्पति या कोई नवजात शिशु। किसी भी जीवित इकाई (live, living organism) में प्रकृति से अभिन्नता अनायास ही होती है और प्रकृति और अपने बीच विभाजन की कोई भेदरेखा यदि होती भी हो तो वह अत्यन्त ही क्षीण होती है। अपने स्वयं के अस्तित्व का भान किसी जैव इकाई (organism) में जब भी उत्पन्न होता है, तो वह भान उस जैव इकाई में उस चेतना के व्यक्त होने के बाद ही उत्पन्न होता है जो मूलतः अव्यक्त चेतना अर्थात् चैतन्य अर्थात् चित् तत्व है, जो उस जैव इकाई की रचना के पूर्व से ही सर्वत्र और सदा विद्यमान है और काल और स्थान का उद्भव जिससे होता है। क्योंकि काल और स्थान की सत्ता का प्रमाण भी अवश्य ही कोई ऐसी सत्ता है जो चैतन्य है, अर्थात् जो काल तथा स्थान का आधारभूत तत्व है। जानना और होना (knowing and being) उस आधारभूत तत्व के आवश्यक और अन्तर्निहित अंश (essential and inherent parts) हैं। इस प्रकार जानना और होना, दोनों ही काल और स्थान से भी पूर्व की सत्यता है क्योंकि काल-स्थान स्वयं अपना प्रमाण न होकर उस चैतन्य के माध्यम से अस्तित्व में आते हैं। 

इस प्रकार चैतन्य अर्थात् 'जानना और होना' किसी जैव इकाई को जब प्रकाशित करता है और वह प्रकाश जब उस इकाई तक सीमित हो जाता है, तो उस जैव इकाई में विद्यमान 'जानना और होना' स्वयं को उस प्रकाश के रूप में जीव-भाव के रूप में सत्य की भाँति स्वीकार कर लेता है।

सत् और चित् ही अस्तित्व है, और सत् और चित् ही अस्तित्व के दो पक्ष (aspects) हैं क्योंकि सत् (होना) तथा चित् (जानना), एक ही सत्यता के दो नाम हैं जो है, उसे जाननेवाला भी कोई अवश्य है, नहीं तो उस होने का क्या प्रमाण होगा?  इसी प्रकार  जानना भी है, अर्थात् जानने का भी अस्तित्व स्वयंसिद्ध ही है, अर्थात् जानना भी सत् ही है क्योंकि यदि जानना अस्तित्वमान न हो तो कोई अन्य वस्तु अस्तित्वमान है या नहीं इसका प्रमाण क्या होगा। किन्तु जैव इकाई में प्रकाशित जीव-भाव, जो जानने होने का एक सूक्ष्मतम अंश है, उस जैव इकाई अर्थात् उस शरीर की भौतिक सीमा के भीतर स्थित स्नायुप्रणाली के माध्यम से स्वयं को उस शरीर तक ही जान और स्वीकार कर सकता है। यही जीव-भाव स्वयं और स्वयं के संसार को दोनों को परस्पर भिन्न भिन्न दो वस्तुओं की भाँति ग्रहण कर स्वयं को सत्य और  नित्य विद्यमान तथा संसार से अनभिज्ञ अनुभव करता है। यही जीव-भाव तब देह-भाव से घुल-मिलकर एक हो जाने पर स्वयं की सांसारिक पहचान अर्थात् अस्मिता होता है। 

इस प्रकार हर मनुष्य जन्म से ही इच्छा और द्वेष के साथ संसार में जन्म लेता है। 

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत ।।

सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप ।।२७।।

(गीता, अध्याय ७)

संकल्प का उद्भव इच्छा तथा द्वेष की द्वन्द्व-बुद्धि से ही होता है और तब मनुष्य अपने संसार में प्रेय अथवा श्रेय की प्राप्ति का निश्चय कर लेता है। यह निश्चय ही संकल्प कहलाता है। निश्चय ही संकल्प भी है और यही संकल्पकर्ता (अहंकार) भी है ।

इस प्रकार जब कोई मनुष्य संकल्प से प्रेरित होकर किसी लक्ष्य, जैसे ईश्वर की प्राप्ति के ध्येय से तप या भक्ति करने लगता है तो उसकी उत्कंठा (urge) की तीव्रता के अनुसार उसे विलम्ब से या शीघ्र ही सफलता मिल जाती है :

तीव्रसंवेगानामासन्नः ।।२१।।

मृदुमध्यादिमात्रत्वात् ततोऽपि विशेषः।।२२।।

ईश्वरप्रणिधानाद्वा ।।२३।।

(पातञ्जल योगसूत्र, समाधिपाद)

यह संकल्प का मार्ग है ।

उस इष्ट ईश्वर की अनुभूति हो जाने पर उसमें सहज स्वाभाविक निष्ठा उत्पन्न हो जाती है जो अन्ततः परम श्रेयस् की उपलब्धि हो जाती है।

यह वही निष्ठा है जिसका वर्णन गीता के अध्याय ३ में इस प्रकार से किया गया है :

लोकेऽस्मिन्द्विविधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।।

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।३।।

इससे पूर्व अध्याय २ में साङ्ख्य योग की शिक्षा दी गई है। 

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Saturday, 22 January 2022

अव्यक्त से व्यक्त

ऐतरेयोपनिषद् 

प्रथम अध्याय

प्रथम खण्ड 

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(*सृष्टि-क्रम या क्रम-सृष्टि) 

ॐ आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत् ।

नान्यत्किञ्चन मिषत् ।

स ईक्षत लोकान्नु प्रजाः सृजा इति ।।१।।

अन्वय :

ॐ आत्मा वा इदं एकः एव अग्रे आसीत् । न अन्यत् किञ्चन मिषत् । सः ईक्षतः लोकान् नु प्रजाः सृजै इति ।।१।।

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स इमाँल्लोकानसृजत । 

अब्धोमरीचिर्मरमापोऽदोऽम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं मरीचयः पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः ।।२।।

अन्वय :

सः इमान् लोकान् असृजत । अब्धः मरीचिः मरम् आपः अदः अम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठा अन्तरिक्षं मरीचयः पृथिवी मरः याः अधस्तात् ताः आपः।।२।।

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स ईक्षतेमे नु लोका लोकपालान्नु सृजा इति सोऽद्भ्य एव पुरुषं समुद्धृत्यामूर्च्छयत् ।।३।।

अन्वय :

सः ईक्षत इमे नु लोकाः लोकपालानु नु सृजै इति सः अद्भ्यः एव पुरुषं समुद्धृत्य अमूर्च्छयत् ।।३।।

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तमभ्यतपत्तस्याभितप्तस्य मुखं निरभिद्यत यथाण्डं मुखाद्वाग् वाचोऽग्निर्नासिके निरभिद्येतां नासिकाभ्यां प्राणः प्राणाद्वायुरक्षिणी निरभिद्येतामक्षिभ्यां चक्षुश्चक्षुष आदित्यः कर्णौ निरभिद्येतां कर्णाभ्यां श्रौत्रं श्रोत्राद्दिशस्त्वङ् निरभिद्यत त्वचो लोमानि लोमभ्य ओषधिवनस्पतयो हृदयं निरभिद्यत् हृदयान्मनो मनसश्चन्द्रमा नाभिर्निरभिद्यत नाभ्या अपानोऽपानान्मृत्युः शिश्नं निरभिद्यत शिश्नाद्रेतो रेतस आपः ।। ४।।

अन्वय :

तं अभ्यतपत् तस्य अभितप्तस्य मुखं निरभिद्यत यथाण्डं अण्डं, मुखात् वाक्,  वाचः अग्निः नासिके निरभिद्येतां नासिकाभ्यां प्राणः, प्राणात् वायुः अक्षिणी निरभिद्येतां, अक्षिभ्यां चक्षुः चक्षुषः  आदित्यः कर्णौ निरभिद्येतां, कर्णाभ्यां श्रोत्रं श्रोत्रात् दिशः त्वक् निरभिद्यत, त्वचः लोमानि, लोमभ्यः ओषधिवनस्पतयः हृदयं निरभिद्यत हृदयात् मनः, मनसः चन्द्रमा, नाभिः निरभिद्यत, नाभ्या अपानः अपानात् मृत्युः शिश्नं निरभिद्यत, शिश्नात् रेतः रेतसः आपः ।।३।।

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* यहाँ 'आसीत्' पद से उसी एकमेव अक्षर पुरुषोत्तम परमात्मा का परोक्षतः संकेत है जिससे काल का उद्भव हुआ क्योंकि काल परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है और काल की अभिव्यक्ति होने पर ही उस काल को भूतकाल, वर्तमान तथा भविष्य-काल के रूप में कल्पित किया जाता है । इस प्रकार से, अतीत, भूत-काल एवं आगामी भविष्य-काल इसी प्रस्तुत अर्थात् वर्तमान, सद्य और नित्य, शाश्वत्, अचल, अविनाशी अक्षर काल के ही कल्पित रूप मात्र हैं, न कि वास्तविकता।

इसे ही शिव-अथर्वशीर्ष में :

अक्षरात्संजायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते... 

से वर्णित किया गया है। यह काल (और स्थान -Time and Space) दोनों ही व्यापक और अन्योन्याश्रित हैं।

उपनिषद् में वर्णित आकाश पञ्चमहाभूतों में से एक है और यह स्थूल आकाश भौतिक पदार्थ (material-space) है, - न कि वह सूक्ष्म आकाश (subtle cosmic space), जो भू, भुवः तथा स्वः इन तीन रूपों में स्थूल जगत्, मनो-जगत्, और जीव-जगत् है। जीव-जगत् ही चित्ताकाश है, जबकि वह चैतन्य (चित्) जो कि परमेश्वर परमात्मा है, चिदाकाश (चित्-आकाश) है । वह चिदाकाश ही परमात्मा का नित्यधाम है इसलिए उसे और उसके धाम को काशी कहा जाता है।

ऐतरेय उपनिषद् में इसलिए सृष्टि-क्रम और क्रम-सृष्टि को काल के अन्तर्गत पुनः पुनः अव्यक्त से व्यक्त, और व्यक्त से अव्यक्त होते रहनेवाली गतिविधि के रूप में, औपचारिक रूप से ही सत्य मानते हुए यहाँ 'आसीत्' क्रियापद का प्रयोग किया गया है।

'सृज्' (विसर्गे) धातु को दिवादिगण तथा तुदादिगण की धातु के रूप में, अपने भीतर से पूर्व-विद्यमान किसी पदार्थ के उत्सर्जन (विकिरण, radiation) के अर्थ में प्रयोग किए जाने के सन्दर्भ में भी यही स्पष्ट होता है, कि उसी एक तत्व को जो कि काल से अबाधित है, काल के रूप में ग्रहण किए जाने पर, व्यक्त स्वरूप में सृष्टि का रूप ग्रहण करता है। 

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Friday, 21 January 2022

संकल्प का उद्भव

सृष्टि-क्रम / क्रमिक सृष्टि

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जगत्, जीव एवं उनमें व्याप्त चेतन, और उस चेतन (चित्) में व्याप्त जगत्, एवं जीव जिस अव्यक्त सत्ता की अभिव्यक्ति हैं वह सत् यद्यपि अविकारी है, और चित् ही उसका प्रमाण है, किन्तु पुनः चित् भी अस्तित्वमान (existential) होने से असत् (non-existent) न होकर सत्-मात्र है।

इसे ही सत्-चित् परमात्मा कहा जाता है।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।।१६।।

(गीता, अध्याय २)

चूँकि सत् का कभी अभाव नहीं है, असत् कभी अस्तित्वमान ही नहीं है इसलिए जगत् जीव और ईश्वर केवल विचार या कल्पना मात्र है। 

किन्तु इस जगत् का अस्तित्व फिर भी यदि इतना सत्य प्रतीत होता है, तो वह भी केवल इसीलिए क्योंकि उसका अधिष्ठान जिस नित्य वस्त में है, वह सत् और चित् अर्थात् सत्-चित् है। 

वह सत्-चित् अधिष्ठान इस जगत्प्रपञ्च का मूल होते हुए भी, अविकारी और नाम-रूप से अछूता पारमार्थिक सत्य है :

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।।१।।

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।।

अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।।२।।

(गीता, अध्याय १५)

मनुष्य की बुद्धि अन्य सभी वस्तुओं के संबंध में जिस प्रकार से कार्य-कारण का क्रम कल्पित कर लेती है, उसी प्रकार से जगत् के भी किसी कारण की कल्पना कर उसके प्रारंभ को भी किसी अतीत के अन्तर्गत सत्य की तरह ग्रहण कर समय की कल्पना कर लेती है । यह समय, यदि यह मान भी लिया जाये कि कभी प्रारंभ हुआ, तो उससे पहले क्या समय था ही नहीं! इस प्रकार सृष्टि का प्रारंभ होने की कल्पना ही नितान्त विसंगतिपूर्ण और हास्यास्पद भी है। क्या 'प्रारंभ' समय के बाहर का तथ्य है?

ऐसे ही किसी ऐसे मनुष्य को जो कि कार्य-कारण के आधार पर सृष्टि के किसी प्रारंभ को सत्यता प्रदान करता है, उसकी अपनी तर्क-बुद्धि के माध्यम से पारमार्थिक सत्य की शिक्षा देने के लिए उपनिषदों में क्रम-सृष्टि को स्वीकार किया जाता है। 

ऐतरेय उपनिषद् में इसी युक्ति से पारमार्थिक सत्य का उपदेश क्रमबद्ध रीति से दिया गया है। 

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Thursday, 20 January 2022

योगानुशासन

संकल्प, समर्पण और अनुसंधान

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संकल्प उठते ही संकल्पकर्ता भी उसकी छाया की भाँति पृथक् रूप से अस्तित्व में आया हुआ प्रतीत होता है, और इससे पहले जो अवधान (attention) अपने स्रोत से अभिन्न था, वही अब संकल्प उठने पर संकल्पकर्ता के रूप में व्यक्त हो जाता है।

(अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत, गीता 2/28)

संकल्प का उठना ही स्रोत से अनवधानता (inattention) का प्रारंभ है। यह अवधानरहित होना ही विषय और विषयी का विभाजन है। तब विषय को विषयी से भिन्न एक स्वतंत्र सत्ता की तरह मान लिया जाता है। अनवधानता ही संकल्पकर्ता है। 

विषयी का विषय में विलय हो जाना ही उनका परस्पर तादात्म्य (identification) होता है।

स्वरूप मूलतः एकमेव अविभाज्य और अविभाजित पूर्ण सत्ता अर्थात् सत्-मात्र, सन्मात्र है। यही चित् / चिति अर्थात् अवधान भी है। इस प्रकार सत् और चित् परस्पर अभिन्न एकमेव सत्यता है । चित् का ही विभाजन विषय-विषयी रूपी द्वैत है, और इस विभाजन से ही संकल्प और संकल्पकर्ता को एक दूसरे से अन्य मान लिया जाता है। मान्यता बुद्धि के सक्रिय होने पर ही फलित होती है। बुद्धि का उद्भव स्रोत के अनवधानता व विषय अर्थात् आभासी संसार के भान और उसे तथा अपने स्वरूप को भिन्न भिन्न की तरह देखने का परिणाम है। यह 'देखना' वही 'प्रत्यय' है, जिसके बारे में पातञ्जल योग-सूत्र में कहा है :

दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः ।।२०।।

(साधनपाद) 

चूँकि जगत्, जीव तथा ईश्वर एक ही त्रयी के तीन और परस्पर अभिन्न प्रकार हैं, इसलिए जगत् के स्वामी के रूप में ईश्वर की अनुभूति जिसे होती है, वह अपने अनुभव के उस विशिष्ट विषय अर्थात् ईश्वर अर्थात् परमात्मा के प्रति अपनी बुद्धि को अनायास ही समर्पित कर देता है । यही समर्पण, ईश्वर-प्रणिधान, अर्थात् भक्ति है :

तीव्रसंवेगानामासन्नः ।।२२।।

ईश्वर-प्रणिधानाद्वा ।।२३।।

(समाधिपाद)

आध्यात्मिक अनुशासन का तीसरा प्रकार है अनुसंधान, जिसमें यह जानने का यत्न होता / किया जाता है कि क्या विषय और विषयी परस्पर भिन्न हैं?

यह यत्न करनेवाला ही विचार (thought) और विचारकर्ता (thinker) भी है।

सम्यक अनुसंधान किए जाने पर विचार (thought) अर्थात् वृत्तिमात्र, एवं विचारकर्ता अर्थात् अहंकार (thinker, ego) दोनों ही विलुप्त हो जाते हैं।

संकल्प-मात्र के उठते ही यह प्रश्न अर्थात् यह त्वरित जिज्ञासा होना, कि संकल्प कहाँ से आता है और पुनः कहाँ लौट जाता है, और इसके उस स्रोत पर अवधान (attention) का चले जाना ही यह अनुसंधान है, कि संकल्प का उद्भव कहाँ से होता है। 

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भूमिका ऐतरेयोपनिषद् की,

कथावस्तु ऐतरेय उपनिषद् की ।

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पिछले पोस्ट में ऐतरेय उपनिषद् का शान्तिपाठ और उसका सरल अर्थ प्रस्तुत किया। इस पोस्ट में कथावस्तु प्रस्तुत है।

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।।

अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।२८।।

(श्रीमदभगवद्गीता, अध्याय २)

सर्वैर्निदानं जगतोऽहमश्च

वाच्यः प्रभुः कश्चिदपारशक्तिः ।।

चित्रेऽत्र लोक्यं च विलोकिता च

पटः प्रकाशोऽप्यभवत्स एकः ।।१।।

(भगवान् श्री रमण महर्षि कृत सद्दर्शनम्)

अस्तित्व और सत् यद्यपि एकमेव वास्तविकता है, किन्तु यह वास्तविकता जो चित्-स्वरूप अर्थात् चैतन्य-हृदय भी है, यही सत् तथा चित् ही, अव्यक्त तथा व्यक्त के रूप में नित्य स्पन्दित हो रहे हैं। जब सत् व्यक्त रूप ग्रहण करता है, तो एक ही अपार शक्ति जगत्, जीव तथा परमात्मा के रूप में प्रकट और प्रतीत होती है। चूँकि आभासी रूप से ये तीनों ही तत्व (elements) अन्योन्याश्रित सत्यताएँ हैं, इसलिए उनमें से किसी एक का भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हो सकता।

वही तत्व जो अव्यक्त है, व्यक्त होने पर जगत्, जीव तथा ईश्वर के रूप में तीन प्रकार से देखा जाता है। 

इस प्रकार तीनों की सत्ता स्वीकार किए जाने पर यद्यपि जीव और जगत् के नियन्ता ईश्वर को ही व्यक्त जगत् के तथा जीव के भी अस्तित्व का एकमात्र कारण और अधिष्ठान कहा जाता है, किन्तु यह लौकिक तथा औपचारिक सत्य है, न कि पारमार्थिक सत्य। 

ऐतरेय उपनिषद् की कथावस्तु इसी आधार पर अव्यक्त से व्यक्त के उद्भव का वर्णन है। जगत् जड सत्ता है, जीव उसकी अपेक्षा चेतन शक्ति है। वही चेतन शक्ति, जो कि किसी शरीर-विशेष से संबद्ध और सीमित होने, तथा जड बुद्धि से अपना संयोग होने से अपने आपको जन्म-मृत्यु से युक्त कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता एवं स्वामी की मान्यता से बद्ध होकर स्वतंत्र जीव की तरह व्यक्त रूप लेती है, मनुष्य का सीमित अहंकार है। अहंकार यद्यपि सत्-असत् से विलक्षण है, फिर भी अधिष्ठान की सत्ता के बल पर एक सतत अस्तित्वमान व्यक्ति का रूप ग्रहण कर लेता है।

जगत् और जीव (अहंकार) की सृष्टि ही ऐतरेय उपनिषद् की कथावस्तु का विषय है।

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Tuesday, 18 January 2022

Juxtaposed / क्रमानुक्रमेय

ऐतरेय उपनिषद् 

शान्तिपाठः

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ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता।  

मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि। 

वेदस्थ म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीः।

अनेनाधीतेनाहोरात्रान्संदधाम्यृतं वदिष्यामि।

सत्यं वदिष्यामि तन्मामववतु। 

तद्वक्तारमवतु। 

अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम्।।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।

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अन्वय :

ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता। मनः मे वाचि प्रतिष्ठितम् आविः आवीः एधि। वेदस्य मे आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीः। अनेन  अधीतेन अहोरात्रान् संदधामि ऋतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि। तत् माम् अवतु। तत् वक्तारम् अवतु। अवतु माम् अवतु वक्तारम् अवतु वक्तारम्।। 

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।। 

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अर्थ :

मनुष्य का शरीर ही उसकी वाणी है। वाणी अर्थात् स्थूल प्राण, जिसे वह मुख से कहता है। मेरी वाणी के और मेरे मन के बीच सामञ्जस्य हो - वाणी का मन से, और मन का वाणी से, दोनों की परस्पर सुसंगति हो। हे तेज! तुम आकर मुझमें प्रकट होकर अभिव्यक्त हो जाओ। मेरे लिए वेद के तत्व को प्रकट करो, मेरा सुना हुआ यह तत्व मेरा त्याग न करे। इसका अध्ययन करते हुए मैं दिन-रात एक कर दूँ, मैं श्रेयस्कर ही कहूँगा । मैं सत्यभाषण ही करूँगा। वह (सत्य) मेरी रक्षा करे। वह (इस वेद की) वाणी का प्रयोग करनेवाले की रक्षा करे। वह रक्षा करे, मेरी रक्षा करे, वाणी का प्रयोग करने़वाले वक्ता की रक्षा करे, वक्ता की रक्षा करे। 

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शरीर, मन, बुद्धि और चित्त यही चारों वैयक्तिक अहंकार (ego, individual) हैं। इन चारों के समन्वय (integration) से ही किसी में अपने व्यक्तिगत अस्तित्व का, और उसके सापेक्ष उस जगत् का भान उत्पन्न होता है जिसे बुद्धि की सहायता से अपने से भिन्न मान लिया जाता है, जबकि निश्चय ही जिन तत्वों से इस जगत् की रचना हुई है, उन्हीं तत्वों से शरीर भी बना है ।

फिर बाह्य दृष्टि से, शरीर स्त्री अथवा पुरुष हो सकता है, मन भी स्त्री अथवा पुरुष, बुद्धि भी स्त्री अथवा पुरुष एवं इसी प्रकार से चित्त भी पुनः स्त्री अथवा पुरुष हो सकता है, क्योंकि ये सभी ही मूलतः प्रकृति-पुरुषात्मक सृष्टि से उत्पन्न होते हैं। 

जब स्थूल (भौतिक) शरीर पुरुष होता है, तो सूक्ष्म शरीर अर्थात् मानसिक शरीर अर्थात् मन, -स्त्री होता है, फिर बुद्धि पुरुष, तथा चित्त (चित्त की सतत परिवर्तित होती रहनेवाली वृत्ति) स्त्री होता है।

इसी प्रकार जब स्थूल (भौतिक) शरीर स्त्री होता है, तब सूक्ष्म शरीर अर्थात् मानसिक शरीर या मन, पुरुष होता है, फिर बुद्धि स्त्री, तथा चित्त (चित्त की सतत परिवर्तित होती रहनेवाली वृत्ति) पुरुष होती है। 

यहाँ स्त्री और पुरुष का तात्पर्य है, सृष्टि के प्रकृति-पुरुषात्मक मूल तत्व।

उपरोक्त विवेचना इस दृष्टि से उपयोगी है कि इस आधार पर हमें मनुष्य के अन्तर्द्वन्दों को समझने के लिए एक आधार प्राप्त हो सकता है ।

इसी दृष्टि से वेद के उपाङ्ग ज्यौतिष शास्त्र में नक्षत्र के आधार पर विवाह के लिए वर-कन्या के गुणों की तुलना उनके जन्म-नक्षत्र के विचार से की जाती है, क्योंकि जन्म-नक्षत्र ही किसी मनुष्य के जीवन का दर्पण होता है। 

किन्तु इस विवेचना का एक और उपयोग यह भी हो सकता है कि मनुष्य अपने-आपको समझकर अपने ही भीतर सामञ्जस्य और शान्ति की प्राप्ति कर सके। 

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यह उदाहरण (analogy) क्यों?

क्योंकि संसार को शरीर की इन्द्रियों के माध्यम से जाना जाता है, इन्द्रियों को मन के माध्यम से जाना जाता है, मन को बुद्धि के माध्यम से जाना जाता है और बुद्धि का आगमन जहाँ से होता है तथा इसी प्रकार बुद्धि जहाँ पुनः लौट जाती है वह तत्व इन सभी से स्वतन्त्र है। वही अविकारी (immutable) आत्मा है ।

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Monday, 10 January 2022

विशुद्धं परं

विवेकचूडामणि 225

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सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म विशुद्धं परं स्वतःसिद्धम् ।।

नित्यानन्दैकरसं प्रत्यगभिन्नं निरन्तरं जयति ।।२२५।।

अन्वय :

सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म विशुद्धं परं स्वतःसिद्धम् । नित्य-आनन्द-एकरसं प्रत्यक्-अभिन्नं निरन्तरं जयति।।

अर्थ : आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म, सत्य, ज्ञान, अनन्त, विशुद्ध, परम, स्वतःसिद्ध, एकरस, तथा प्रत्यक् (चेतनता) से सतत अपृथक्, ही अस्तित्व है। 

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Sunday, 9 January 2022

The Religion of Relationship.

Why Relationships Are Inexorably Exorbitant?

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Is it because,

Religion is also, so much,

Inexorably Exorbitant?

And Relationship is, 

No doubt,

Religion only.

A Relationship essentially involves Two.

A Religion likewise involves Two or more than One.

The Consciousness that is essentially beyond one or two, beyond parts and fragments is so split into parts.

The Consciousness that is Unique, assumes the form of the mind and the superficial entity that is called the world.

The innumerable individual entities assume and own their apparently independent existence, and thought gives rise to the idea of a world that is assumed as another common and independent truth.

In this world relationships begin, develop and prosper and look as if they are real.

If there is urge, one can sure see at once, this whole phenomenon, know the truth and become free of thought and also with the identification with thought.

One can sure turn the attention to the underlying Consciousness that is impersonal and where all and everything manifests and unmanifests.

The Consciousness though is in no way affected by and with this changing phenomenal world. 

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सत्यं, ज्ञानं, अनन्तं, ब्रह्म,

मन, बुद्धि, चित्त, अहम् 

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मन सत्य है,

बुद्धि ज्ञान है,

चित्त अनन्त है,

और, 

अहम् (आत्मा)  ब्रह्म है ।

जैसे मन, बुद्धि, चित्त और अहं एक दूसरे के पर्याय हैं, वैसे ही सत्य, ज्ञान, अनन्त और ब्रह्म भी एक दूसरे के पर्याय हैं। 

यह आठ परमात्मा का प्रकट स्वरूप (मूर्ति-अष्टक)है।

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Thursday, 6 January 2022

छन्द और लय

।। भवप्रत्ययो विदेह प्रकृतिलयानाम् ।।१९।।

(समाधिपाद, पातञ्जल योग-सूत्र)

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वैदिक ज्ञान की दो परंपराओं में से प्रथम है पाठ, जो कि केवल बीजमन्त्र का, नाममन्त्र का, या स्तवन हो सकता है। दूसरा है : जिज्ञासा अर्थात् चित्त में प्रश्न का उठना, जो कि कौतूहल या तीव्र उत्कण्ठा भी हो सकता है। इन दोनों ही स्थितियों में अभ्यास या प्रयास को ही छन्द अथवा लय कहा जाता है।

उल्लेखनीय है कि स्तवन रूपी पाठ करते हुए, जब तक मन में अन्य विचार आते-जाते रहते हैं, तब तक छन्दोवस्था की प्राप्ति नहीं होती। किन्तु जब पाठ करते हुए पातञ्जल-योग में वर्णित निरोध-परिणाम, एकाग्रता-परिणाम और समाधि-परिणाम सिद्ध हो जाते हैं, तो ही चित्त छन्दोवस्था में प्रविष्ट हो पाता है। इसी स्थिति को लय भी कहा जाता है।

।। तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ।।२।।

(विभूतिपाद, पातञ्जल योग-सूत्र)

स्पष्ट है कि एकतानता ही छन्द अथवा लय का पर्याय है। और इस प्रकार से पाठ में एकातानता के प्रकार-विशेष को ही छन्द कहा जाता है। अतः वैदिक स्तवन के छन्द में मात्रा का विस्तार सुनिश्चित नहीं होता। या कहें, वैदिक पाठ में छन्द विषम-मात्रिक भी होते हैं, जैसे उद्गात, गाथा या उद्गीथ।

वैदिक स्तवन में देवता को ही वर्ण, मंत्र, बीजाक्षर, कीलक, शक्ति और छन्द के साथ संयुक्त किया जाता है और तब देवता-विशेष से सम्पर्क किया जाता है। पौराणिक या लोक-प्रचलित स्थानीय विश्वासों और मान्यताओं में भी यही होता है, किन्तु व्यावहारिक रूप से वह अनिश्चितप्राय होता है। 

छन्द > 'छाद्' > आच्छादयति से व्युत्पन्न है। 

साहित्य और संस्कृत भाषा में जहाँ छन्द का तात्पर्य सामान्यतः आशय या 'प्रभाव-विशेष' होता है, वहीं वैदिक सन्दर्भ में देवता और देवता का लोक-विशेष होता है।

'लय' का अर्थ एक अवस्था का लोप होकर किसी दूसरी अवस्था का प्रकट होना है। जैसे जागृति का लोप होने पर स्वप्नावस्था का प्रकट होना, और इसी तरह, स्वप्नावस्था का लोप होने पर गहरी स्वप्नरहित सुषुप्ति का प्रकट होना। स्मृति के सातत्य के कारण मनुष्य इन्हीं तीनों अवस्थाओं को अपना अस्तित्व मान लेता है। उसे इसकी कल्पना भी नहीं होती कि शरीर की मृत्यु हो जाने पर वह चेतना, जो कि उसका जीवन थी, जो इन तीनों अवस्थाओं में सतत अपरिवर्तित रहती थी, इस शरीर को त्यागकर किसी नये लोक में प्रकट हो सकती है। यह भी संभव है कि तब यह चेतना किसी अन्य शरीर का आश्रय लेकर उस स्तर का जीवन जीने में सक्षम हो जाए। इसे ही पुनर्भव या पुनर्जन्म कहा जा सकता है। यह आकस्मिक हो सकता है, या मनुष्य की अपनी दृढ मान्यता के आधार पर भी घटित हो सकता है । श्री रमण महर्षि के द्वारा  रचित 'उपदेश सार' ग्रन्थ में कहा गया है :

चित्त वायवश्चित्क्रियायुता ।

शाखयोर्द्वयी शक्तिमूलका ।।

लयविनाशने उभयरोधने ।

लयगतं पुनर्भवति नो मृतम् ।।

इस प्रकार जीव-मात्र जब तक आत्मा के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है, जीवन भर ही एक अवस्था से अन्य अवस्था में आता-जाता रहता है, किन्तु मृत्यु हो जाने, और शरीर के नष्ट हो जाने पर वह किसी अन्य शरीर का आश्रय ले लेता है। साधारण मनुष्य शायद ही कभी इन सूक्ष्मताओं को जान-समझ पाता है। और जान-समझ भी ले तो भी यह सब केवल बौद्धिक ही होता है ।

सामान्य, सर्वसाधारण मनुष्य अपनी परंपरा, परिस्थिति, कुल के अनुसार प्राप्त हुई पद्धति पर ही चल सकता है, और अंततः उस स्थिति को प्राप्त करता है, जिसमें वह या तो पुनर्भव (पुनः जन्म ग्रहण करने) के रूप में प्रकृति में लौट जाता है, अर्थात् लीनता / लय में चला जाता है, मिट्टी, पानी, वायु, आकाश अथवा वायु में उस प्रकार का होकर उससे एक हो जाता है, या अपने आराध्य के उस प्रकार से एकाकार हो जाता है जिस रूप में उसने अपने जीवित रहते समय उसकी आराधना की हुई होती है ।

अपनी अपनी निष्ठा के अनुसार जिसने देवताओं की आराधना की हुई होती है, वह देवताओं और उनके विशिष्ट लोकों को प्राप्त करता है, और इसी प्रकार से यक्ष, राक्षस, पिशाच, सिद्ध, पितर, ऋषि आदि की आराधना करनेवाले उन उन लोकों को प्राप्त हो जाते हैं ।

वहाँ वे अपनी निष्ठा के अनुसार प्राप्त हुए उस लोक में सीमित समय तक रहते हैं क्योंकि कोई भी लोक या अवस्था अनित्य ही होती है।

वे मनुष्य जिनका यह दृढ विश्वास होता है कि मृत्यु ही जीवन का अन्त है, वे भी अपने अन्त समय में अपने मन की वृत्ति-विशेष से एकाकार होकर वृत्ति-रूप होकर उस वृत्ति के आश्रय से किसी नये शरीर से अपना संबंध स्थापित कर लेते हैं, क्योंकि अहंवृत्ति ही समस्त वृत्तियों का मूल है।

कुछ मनुष्य संकल्पयुक्त ध्यान या भक्ति के माध्यम से, ध्यान के विषय (object) में लीन हो जाते हैं, और एक निश्चित समय के बीत जाने पर पुनः किसी नये शरीर में अपने आपको पाते हैं। जो मनुष्य किसी देवता आदि का ध्यान करते हैं वे तो उस देवता के लोक को प्राप्त होकर सायुज्य, सान्निध्य, सामीप्य या सारूप्य के माध्यम से उस लोक को अनुभव करते हैं किन्तु जो केवल आत्मा / परमात्मा का अनुसंधान करते हैं वे उस आत्मा अर्थात् परमात्मा में निमग्न होकर जन्म-मृत्यु के आवागमन से मुक्त हो जाते हैं।

इसे ही 

।। भवप्रत्ययो विदेह प्रकृतिलयानाम् ।।

से समझा जा सकता है ।

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