प्रश्नोपनिषद्
तृतीय प्रश्न :
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अथ हैनं कौसल्याश्चाश्वलायनः पप्रच्छ :
भगवन्कुत एष प्राणो जायते कथमायात्यस्मिञ्शरीर आत्मानं वा प्रविभज्य कथं प्रातिष्ठते केनोत्क्रमते कथं बाह्यमभिधत्ते कथ-मध्यात्ममिति ।। १ ।।
तस्मै स होवाचातिप्रश्नान्पृच्छसि ब्रह्मिष्ठोऽसीति तस्मात्तेऽहं ब्रवीमि।। २ ।।
आत्मन एष प्राणो जायते यथैषा पुरुषे छायैतस्मिन्नेतदाततं मनोकृतेनायात्यस्मिञ्शरीरे।। ३ ।।
[अथ ह एनम् कौसल्यः च आश्वलायनः पप्रच्छ :
भगवन्! कुतः एषः प्राणः जायते कथं आयाति अस्मिन् शरीरे आत्मानं वा प्रविभज्य कथं प्रातिष्ठते केन उत्क्रमते कथं बाह्यं अभिधत्ते कथं अध्यात्मं इति ... १
तस्मै सः ह उवाच :
अतिप्रश्नान् पृच्छसि ब्रह्मिष्ठः असि तस्मात् ते अहं ब्रवीमि ... २
आत्मनः एषः प्राणः जायते यथा एषा पुरुषे छाया एतस्मिन् एतत् आततं मनोकृतेन आयाति अस्मिन् शरीरे. ... ३ ]
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तब कौसल्य आश्वलायन ने प्रश्न पूछा :
भगवान्! यह प्राण कहाँ से उत्पन्न होता है, इस शरीर में कहाँ से आता है अथवा अपने-आपको प्रविभक्त कर कैसे उस तरह से स्थापित करता है, किससे निर्देशित होकर (शरीर से) उत्क्रमण करता है, किस प्रकार से (आत्मा / अपने) से बाहर (प्रतीत होनेवाले) तथा (अपने भीतर के) अन्तःकरण आदि को धारण करता है?... (यह मेरा प्रश्न है।)
उसे अर्थात् कौसल्य आश्वलायन से महर्षि पिप्पलाद ने कहा:
तुम अतिप्रश्न (मर्यादा से बाहर का प्रश्न) पूछ रहे हो।
किन्तु चूँकि तुम्हारी ब्रह्म में निष्ठा है अतः मैं तुमसे कहता हूँ।
आत्मा / (अहंकार) से ही यह प्राण उत्पन्न होता है, जैसे मनुष्य की छाया उस मनुष्य (के प्रकाश को अवरुद्ध किए जाने) से ही उत्पन्न होती है और वस्तुतः जिसका अपना, मनुष्य से स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता, और जो केवल अभावात्मक होती है, उसी प्रकार से इस शरीर में मन के द्वारा किए गए संकल्प से यह प्रतीत होता है।
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दोपहर 01:00 बजे उस छात्र का कॉल आया था :
"सर, आप फ्री हैं?"
वह उपरोक्त उपनिषद् का अध्ययन कर रहा है ।
इन तीन मंत्रों का पाठ हम कर चुके हैं।
उस समय मैं व्यस्त था । अतः उससे कहा कि एक घंटे के बाद शायद फ्री हो सकूँगा। किन्तु साढ़े तीन-चार बजे तक व्यस्त रहा। फिर उसे मेसेज किया कि मैं अब फ्री हूँ।
उक्त उपनिषद् और एक अन्य ग्रन्थ पास रखकर उसके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। (जैसा कि) प्रमाद और अनवधानता से अभ्यास हो जाता है, -मन में विचार उत्पन्न हुआ कि बैठे बैठे क्या करूँ?
मन इसी प्रकार कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व तथा ज्ञातृत्व इन चारों प्रकार से सतत अहंकार के रूप में अस्तित्वमान (प्रतीत) होता है।
यही, मन / अपने-आप को निरंतर बनाए रखने की अहंकार की रणनीति (strategy) होती है।
अवधान इस रणनीति को ध्वस्त कर देता है।
यह पोस्ट लिखे जाने तक मेरे मेसेज का कोई उत्तर नहीं आया है। किन्तु इस बहाने से बैठे बैठे समय का सदुपयोग हो गया!
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