Monday, 8 March 2021

चिदाभास और चित्

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आविः संनिहितं गुहाचरं नाम महत्पदमत्रैतत्समर्पितम्। 

एजत्प्राणन्निमिषच्च यदेतज्जानथ सदसद्वरेण्यं परं विज्ञानाद्वरिष्ठं प्रजानाम्।। १ ।।

(मुण्डकोपनिषद् २/२)

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आविः संनिहितं गुहाचरं नाम महत्पदं अत्र एतत् समर्पितम्।

एजत् प्राणन् निमिषत् च यत् एतत् जानथ सत् असत् वरेण्यं परं विज्ञानात् यत् वरिष्ठं प्रजानाम्।। 

आवि: = प्रत्यक्ष (जैसा कि 'आविर्भूतः' में इसका अर्थ है),

संनिहितं = सूक्ष्म रूप से अन्तर्निहित, 

(नपुं. प्रथमा, पुं.द्वितीया एकवचन) 

गुहाचरं नाम = जिसका नाम गुहाचर है,

(गुहाचरं > पुं. द्वितीया एकवचन, नाम नपुं. प्रथमा / द्वितीया एकवचन)

महत्पदं = जो वह उच्च पद / स्थान है,

(प्रथमा / द्वितीया एकवचन) 

अत्र = यहाँ,

एतत् = यह / इसको,  (प्रथमा,  द्वितीया एकवचन) 

समर्पितम् = दिया गया है। 

अर्थ :

हृदय में जो संनिहित अन्तरात्मा है, इस श्रेष्ठ / सर्वोपरि स्थान पर विराजमान उस (पुरुष) आत्मा को "गुहाचर" नाम प्रदान किया गया है।

इसे गतिशील, प्राणों से युक्त हुआ तथा नेत्र बंद करने / खोलनेवाले की तरह जानो।

यह सत् एवं असत् दोनों ही से अन्य, उनसे पूर्व से ही विद्यमान होने से इसे प्रथम, उनसे वरिष्ठ जानो।

इस प्रकार  यह वैयक्तिक आत्मा (individual self) अन्य सभी से अधिक महत्वपूर्ण है। 

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यहाँ तक की विवेचना से स्पष्ट हुआ कि यह पुरुष "मिथ्या अहं" अर्थात् "चिदाभास" है। इसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हो सकता ओर यह किसी स्वतंत्र स्रोत से सतत प्रकट और अप्रकट होते रहकर अपने आपको एक स्वतंत्र सत्ता मान लेता है। इस प्रकार से इसके स्वरूप को जानकर इसके स्रोत पर दृढ रहने पर अंततः यह विलीन हो जाता है और आत्मा का सत्य अपने पूर्ण प्रकाश से ज्योतित होकर एकमेव सत् की तरह आत्मा में ही रमण करता है। 

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