Wednesday, 24 March 2021

गौण और प्रधान,

सापेक्ष और निरपेक्ष 

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भगवत्कृपा से पिछले छः माह से उपनिषद् का पाठ कर रहा हूँ। 

प्रसंगवश, गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित ईशादि नौ उपनिषद् (66) मेरे पास है । उसी क्रम में पाठ / अध्ययन करते हुए कल रात्रि लगभग साढ़े नौ बजे ऐतरेय उपनिषद् का पाठ पूरा हुआ। 

इस उपनिषद् का प्रारंभ :

"ॐ आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्। 

नान्यत् किञ्चन मिषत् ।

स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति। " 

से होता है। 

इसका अंतिम मंत्र इस प्रकार से है :

"स एतेन प्रज्ञेनात्मनास्माल्लोकादुत्क्रम्यामुष्मिन्स्वर्गे लोके सर्वान् कामानाप्त्वामृतः समभवत्समभवत्।।"

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इस उपनिषद् के आरंभ से ही सृष्टि के विधान का वर्णन है। 

औपनिषदिक और वैदिक सिद्धान्त के अनुसार, अस्तित्व की रचना अथवा नाश नहीं होता और न अस्तित्व से भिन्न और पृथक् कोई ऐसी विशिष्ट सत्ता है जो अस्तित्व की रचना या विनाश करती है। 

केवल संस्कृत भाषा के अध्ययन के विशिष्ट प्रयोजन से एक मित्र के साथ यह पाठ आरंभ हुआ था। यह अध्ययन करते हुए अनेक प्रश्न उसके द्वारा किए गए जिनका उत्तर मैं सन्तोषप्रद तरीके से नहीं दे सका। 

विशेषतः उस आत्मा का स्वरूप क्या है, इसे स्पष्ट करना मेरे लिए सामर्थ्य से परे था।

कल (23-03-2021) की रात्रि में कुछ ऐसी ही मनःस्थिति में सो गया। 

आज ब्रह्म-मुहूर्त में दो तीन अद्भुत् स्वप्न आए :

पहला वही जो बचपन से आता रहा है और मुझे नहीं पता, कि कब तक आता रहेगा। उसका उल्लेख बाद में। किन्तु उसका संबंध बाद के दो स्वप्नों से होने के कारण केवल अपने संदर्भ के लिए ही यहाँ संकेत है। 

दूसरे स्वप्न में मैं किसी विचित्र लोक में भ्रमण कर रहा था जहाँ दूर दूर तक कोई बस्ती, गाँव, नगर आदि नहीं थे। केवल शुष्क धरती थी, जिस पर कोई वनस्पति आदि भी नहीं थी। 

कुछ विचित्र पशु अवश्य यहाँ-वहाँ भटक रहे थे ।

वास्तव में मुझे वहाँ बेचैनी तो उतनी नहीं थी जितनी कि उदासी थी । वह स्वप्न बीत गया और (शायद) पाँच-दस मिनट बाद एक स्वप्न आया, जिसमें मैं पुनः उसी उदास सी मनःस्थिति में कहीं ऐसे ही स्थान पर घूम रहा था। मेरे आसपास वे ही पशु भी थे,  जो आपस में झगड़ रहे थे। उनका ध्यान मुझ पर गया, तो वे वहाँ से इधर उधर चले गए। उनमें से एक पशु डायनोसोर जैसा था जिसकी गर्दन पर दोनों तरफ तीन चार हाथी के कान जैसे थे, जो भूरे रंग का था।। वे सभी जल्दी ही मुझसे दूर चले गए और मैंने अपने आप को एक बस्ती में पाया जहाँ चार-पाँच छोटे छोटे बालक थे। मैंने एक बालक से कहा:

"तुम लोग बहुत असुरक्षित हो, अपनी रक्षा के लिए तलवार रखा करो और उसे चलाना भी सीख लो।"

मेरे यह कहने का कारण सिर्फ यह था कि मुझे लग रहा था कि मैं उस स्वप्न में किसी 'भविष्य' में चला गया था। 

वे बच्चे मानों किसी आदिम युग के थे। 

फिर वे मुझसे हिन्दी में कुछ बातें करने लगे। 

बड़ी मुश्किल से हमारी बातें हो पा रही थीं ।

वहाँ सब घर मिट्टी-पत्थर से बने थे और आपस में बहुत सटे हुए थे।  वहाँ सड़क जैसा कुछ नहीं था। तब मैंने उस बच्चे से कहा :

"तुमने कार देखी होगी?"

उसे कुछ समझ में नहीं आया। फिर मैंने उसे बताया :

"कुछ समय पहले यहाँ बहुत चौडी़ सड़केंं थीं जिन पर कारें चलती थीं। तीन चार इस लेन पर, और तीन चार उस लेन पर।"

उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। 

फिर मैंने उससे पूछा :

"तुमने पिक्चर देखी है कभी?"

उसे यह सब समझना मुश्किल था। 

फिर मैं वहीं पास के घर के सामने पहुँचा जहाँ भगवान रावण (जी, भगवान रावण!) के बारे में कुछ लिखा था। वहाँ मेरी आयु का एक आदमी बैठा था जिसने कपाल पर लाल-पीले रंग का लेप किया था। 

वह बोला :

"हाँ,  मैंने ऐसे डब्बे देखे हैं जिनमें कोई आदमी बैठ जाता था ओर वह डब्बा चलने लगता था। उसका नाम 'ड्राइवर' था।"

उस आदमी से बातें करते हुए मैं उसे बताने लगा कि सब कुछ एक ही आत्मा है, जो निरपेक्ष होते हुए भी असंख्य सापेक्ष रूपों में व्यक्त होती रहती है। उसे ही प्रधान आत्मा भी कहते हैं, और वही असंख्य गौण आत्माओंं के रूप में एक दूसरे को और अपने आपको अलग अलग भी मान लेती है। 

वह आदमी मुझे आश्चर्य और कौतूहल से देखने लगा। 

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सुबह जब उस मित्र को स्वप्न बताया तो उसने कहा :

"आत्मा के बारे में तुम जो बात मुझे अब तक नहीं समझा सके, वह तुम्हारे स्वप्न के चार शब्दों (निरपेक्ष-सापेक्ष, प्रधान-गौण) से मुझे पूरी तरह समझ में आ गई!"

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अब पुनः पहले स्वप्न के बारे में :

मुझे कभी कभी नींद में स्वप्न जैसा कुछ अनुभव होता है, जहाँ मुझे लगता है कि मेरी मृत्यु हो चुकी है,  किन्तु फिर जाग जाने पर समझ में आता है कि मैं अभी जीवित हूँ और यह स्वप्न ही था। 

इसलिए मुझे लगता है कि मृत्यु से पहले पता नहीं कितनी बार मुझे फिर फिर यह स्वप्न आता रहेगा। 

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