किसी स्थिति, प्रश्न या समस्या का सामना करने पर प्रायः हर कोई बहुत गंभीरता से उसके सभी कारणों पर चिन्तन कर सकता है। फिर भी संभव है कि बहुत से कारणों की उसे कल्पना तक नहीं होती या वह उन कारणों के संबंध में जान बूझकर अनभिज्ञ दिखाई देने का प्रयास करता है।
सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है संप्रेषणीयता का अभाव या "communication gap",
जिसके कारण यद्यपि हम सौहार्दपूर्वक परस्पर किसी विषय पर बातचीत तो करते हैं, किन्तु हमारे मन मूल समस्या की उपेक्षा करते रहते हैं। हमें अपने अज्ञान का आभास भी नहीं होता, इसलिए सारी बातचीत व्यर्थ और समय का अपव्यय होती है।
एक उदाहरण के लिए, भय के विषय में चिन्तन करें, तो बड़े बड़े विद्वान
'भय दूर कैसे किया जाए?'
इस पर बहुत तर्कपूर्ण ढंग से समझाते हैं।
मनोवैज्ञानिक "fobia" के अनेक प्रकारों की विस्तारपूर्वक विवेचना और विश्लेषण करते हैं।
Claustrophobia, -fear of closed spaces,
or fear of open spaces,
भय का एक रूप है।
तथाकथित शास्त्रवेत्ता 'मृत्यु-भय' पर इसी प्रकार से विवेचना करते हैं। नास्तिक या आस्तिक भी मृत्यु क्या है और मृत्यु के बाद हमारा क्या होता है इस बारे में बहुत अध्ययन और परस्पर वैचारिक संवाद इत्यादि करते हैं ।
'कठोपनिषद्' या 'गरुडपुराण' तो अत्यन्त रोचक तरीके से इस विषय में उपदेश / शिक्षा प्रदान करते हैं।
सभी विद्वान इस प्रकार 'भय' के बड़े बड़े विशेषज्ञ होते हैं किन्तु क्या फिर भी वे संशयरहित हो पाते हैं?
वे निरन्तर भय के बारे में किन्हीं मान्यताओं से बन्धे होते हैं। 'भय' के इस प्रश्न पर चिन्तन करने के हमारे तरीके में मूलतः ही तो कहीं त्रुटि नहीं है?
स्पष्ट है कि जिन विषयों में हम भयभीत होते हैं वे अनेक होते हैं। किसी को कुत्तों से डर लगता है तो किसी को बिल्ली से, किसी को अंधेरे से डर लगता है तो किसी को भीड़ से। किसी को समाज से डर लगता है तो किसी को निर्धन हो जाने से। किसी को दूसरों से डर लगता है तो किसी को नाते-रिश्तों से। किसी को भविष्य से डर लगता है तो किसी को भूत से! किसी को कल्पना से डर लगता है तो किसी को वास्तविकता से। सभी के अपने अपने डर होते हैं। किसी को सपने से डर लगता है तो किसी को सोने से। कभी इस बात या कारण से डर लगता है तो कभी उस बात से।
बहुत से लोग हत्या करने की कल्पना तक करने से डरते हैं तो बहुत से आत्महत्या करने तक के बारे में सोचने से नहीं डरते।
क्या इन सब भयों (से मुक्ति) के संबंध में क्या किया जाना चाहिए या किया जा सकता है, इसका कोई सुनिश्चित तय उत्तर हो सकता है?
फिर भी यह प्रश्न कि यह प्रश्न कि
'भय किसे है?'
शायद हमें इस बारे में कोई उपयोगी सूत्र या संकेत अवश्य दे सकता है।
हाँ शायद आपको हँसी आ रही होगी!
किन्तु थोड़ा ध्यान दें तो दिखलाई देगा कि भय 'मुझे' ही तो लगता है!
"यह भी कोई उत्तर हुआ?"
किन्तु और भी अधिक ध्यान से देखें तो यह समझना रोचक भी हो सकता है कि भय का उद्गम और अभिव्यक्ति हमारे अपने ही भीतर, और भीतर से है।
तात्पर्य है वह 'चेतना' जो हम हैं।
'चेतना' को हम 'मन' मान लेते हैं, जो मूलतः हमारी एक भ्रामक कल्पना / मान्यता ही तो है!
एक ओर तो हम अपने आपको 'मन' कहते-समझते हैं, तो दूसरी ओर अपने इसी 'मन' को अकसर ही 'मेरा मन' भी कहते और समझ बैठते हैं।
थोड़ा ध्यान से देखें तो यह समझना आसान है कि हम 'मन' नहीं, जो कि सतत बदलता रहता है । इसी 'मन' की पृष्ठभूमि में जो चेतना अथवा अपने 'होने-मात्र' का सहज और स्वाभाविक भान है, जिसे हमने कहीं और से प्राप्त नहीं किया, वही हमारी वास्तविकता है।
यदि इस तरह से देखें तो यह तो 'मन' ही है जो बदलती स्थितियों के साथ बदलता हुआ कभी भयभीत तो कभी निर्भय, कभी उत्साहित तो कभी अवसादयुक्त होता रहता है। कभी चिन्तित, कभी व्याकुल, कभी जडवत, कभी 'सफल' या 'असफल' होता है।
क्या वह पृष्ठभूमि, जिसमें यह सतत बदलता 'मन' सतत ही भिन्न भिन्न रूप ग्रहण करता है, 'मन' के इन अनेक रूपों से रंचमात्र भी प्रभावित होती है?
--
No comments:
Post a Comment