उन दिनों / अविज्नान
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क्या अपने-आपको ’खुली क़िताब’ की तरह रख पाना मुमक़िन भी है?
दूसरों के लिए तो बाद की बात है, ख़ुद अपने लिए भी?
क्योंकि हम अपने-ख़ुद के लिए भी खुली किताब कहाँ होते हैं?
बहुत सी चीज़ें हम जाने-अनजाने सीख लेते हैं या मज़बूरी में हमें करना पड़ती हैं, हम झूठी प्रतिष्ठा पाकर गौरवान्वित दिखलाई देने की क़ोशिश करते हैं, और फ़िर वह हमारा ’दूसरा चरित्र’ हो जाता है । इसलिए मुझे लगता है कि इतना भी काफ़ी है कि यदि हम अपने-आप के लिए एक”खुली क़िताब’ हो सकें !
और जब हम अपने-ख़ुद को ही खुली क़िताब की तरह नहीं देख पाते / देखना चाहते, तो फ़िर दूसरों के लिए कोई कैसे खुली क़िताब हो सकता है ?
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शुभ रात्रि !
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face-book पर कल यह प्रतिक्रिया टिप्पणी के रूप में लिखते समय 'हिन्दी का ब्लॉग' में लिखी मेरी पोस्ट्स 'उपन्यास उन दिनों' का एक पात्र 'अविज्नान' याद आ रहा था।
सेतु-सोपान-सूत्र उसकी ही कहानी थी।
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'खुली क़िताब'?
वह ठठाकर हँस पड़ा।
"किसी की जिंदगी अगर खुद उसके लिए ही खुली क़िताब हो जाए तो 'मुक्ति' दूर नहीं रह जाती। "
मैं चुपचाप मुस्कुराते हुए उसे देखता रहा।
"देखिए सर ! आपने तो शास्त्रों का गहन अध्ययन किया है!"
मैं उसकी किसी भी बात को बहुत धैर्य शान्ति और ध्यान से सुनता था।
"?"
"आप तो जानते हैं कि शास्त्रों में तीन 'एषणाओं' की बात कही जाती है। "
"हाँ, …"
"पुत्रैषणा , वित्तैषणा, और कीर्ति / यश-एषणा, …"
"…"
"जो मनुष्य अपने आपको खुली क़िताब की तरह देख सकता है उसे बख़ूबी पता होता है कि ये तीनों एषणाएँ 'अपने-लिए' होती हैं और 'मेरे भविष्य' के काल्पनिक विचार पर आधारित होती हैं। ऐसा मनुष्य यह भी देख लेता है कि 'जिस भविष्य' के बारे में यह एषणाएँ होती है वह आकाशकुसुम है।"
अब मेरा मुस्कुराना बंद हो गया था और कान ज्यादा सतर्क हो गए थे।
"चलिए शास्त्रों को जाने दें, पहले यह देख लें की क्या ये तीनों एषणाएँ मूलतः 'लोभ' के ही कारण नहीं जन्म लेतीं ?"
"हाँ।"
"और क्या लोभ एक सम्मोहन नहीं है जो मुझे 'मैं जो / जैसा हूँ" उसे तथ्य अर्थात् 'खुली क़िताब' की तरह देखने /पढ़ने से न सिर्फ रोकता है, बल्कि उस क़िताब के अस्तित्व तक से मेरा ध्यान बलपूर्वक हटाता है?"
अब मैं फिर से मुस्कुराने लगा था।
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क्या अपने-आपको ’खुली क़िताब’ की तरह रख पाना मुमक़िन भी है?
दूसरों के लिए तो बाद की बात है, ख़ुद अपने लिए भी?
क्योंकि हम अपने-ख़ुद के लिए भी खुली किताब कहाँ होते हैं?
बहुत सी चीज़ें हम जाने-अनजाने सीख लेते हैं या मज़बूरी में हमें करना पड़ती हैं, हम झूठी प्रतिष्ठा पाकर गौरवान्वित दिखलाई देने की क़ोशिश करते हैं, और फ़िर वह हमारा ’दूसरा चरित्र’ हो जाता है । इसलिए मुझे लगता है कि इतना भी काफ़ी है कि यदि हम अपने-आप के लिए एक”खुली क़िताब’ हो सकें !
और जब हम अपने-ख़ुद को ही खुली क़िताब की तरह नहीं देख पाते / देखना चाहते, तो फ़िर दूसरों के लिए कोई कैसे खुली क़िताब हो सकता है ?
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शुभ रात्रि !
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face-book पर कल यह प्रतिक्रिया टिप्पणी के रूप में लिखते समय 'हिन्दी का ब्लॉग' में लिखी मेरी पोस्ट्स 'उपन्यास उन दिनों' का एक पात्र 'अविज्नान' याद आ रहा था।
सेतु-सोपान-सूत्र उसकी ही कहानी थी।
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'खुली क़िताब'?
वह ठठाकर हँस पड़ा।
"किसी की जिंदगी अगर खुद उसके लिए ही खुली क़िताब हो जाए तो 'मुक्ति' दूर नहीं रह जाती। "
मैं चुपचाप मुस्कुराते हुए उसे देखता रहा।
"देखिए सर ! आपने तो शास्त्रों का गहन अध्ययन किया है!"
मैं उसकी किसी भी बात को बहुत धैर्य शान्ति और ध्यान से सुनता था।
"?"
"आप तो जानते हैं कि शास्त्रों में तीन 'एषणाओं' की बात कही जाती है। "
"हाँ, …"
"पुत्रैषणा , वित्तैषणा, और कीर्ति / यश-एषणा, …"
"…"
"जो मनुष्य अपने आपको खुली क़िताब की तरह देख सकता है उसे बख़ूबी पता होता है कि ये तीनों एषणाएँ 'अपने-लिए' होती हैं और 'मेरे भविष्य' के काल्पनिक विचार पर आधारित होती हैं। ऐसा मनुष्य यह भी देख लेता है कि 'जिस भविष्य' के बारे में यह एषणाएँ होती है वह आकाशकुसुम है।"
अब मेरा मुस्कुराना बंद हो गया था और कान ज्यादा सतर्क हो गए थे।
"चलिए शास्त्रों को जाने दें, पहले यह देख लें की क्या ये तीनों एषणाएँ मूलतः 'लोभ' के ही कारण नहीं जन्म लेतीं ?"
"हाँ।"
"और क्या लोभ एक सम्मोहन नहीं है जो मुझे 'मैं जो / जैसा हूँ" उसे तथ्य अर्थात् 'खुली क़िताब' की तरह देखने /पढ़ने से न सिर्फ रोकता है, बल्कि उस क़िताब के अस्तित्व तक से मेरा ध्यान बलपूर्वक हटाता है?"
अब मैं फिर से मुस्कुराने लगा था।
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