भाषा का विरोधाभास
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कभी कभी और प्रायः ही कोई न कोई समस्या, प्रश्न, दुविधा या उलझन हमारे सामने होती है। यह किसी विशेष क्षेत्र के संबंध में हो सकती है या सामान्य जीवन जीने के दौरान सामने आ खड़ी हो सकती है -- जैसे स्वास्थ्य ठीक न होना, बीच रास्ते बाइक या कार खराब हो जाना, पैसे न होना, आदि। ऐसी सभी स्थितियाँ वास्तव में चिन्ताजनक होती हैं और कोई समाधान निकल आता है, या कुछ हानि आदि भी हो जाती है। किन्तु जब मनुष्य किसी प्रकार की अनावश्यक इच्छा की पूर्ति इस उद्देश्य से करता है कि समय बिताया जा सके, मनोरंजन किया जा सके, खालीपन को किसी प्रकार भुलाया जा सके, तो यद्यपि नींद एक अच्छा उपाय हो सकता है, किन्तु वह भी स्थान और परिस्थिति के अनुसार ही संभव हो पाता है। इस प्रकार मनुष्य एक सीमा तक तो स्वयं को निरंतर किसी विषय में संलग्न कर सकता है या मनोरंजन आदि कर सकता है किन्तु अंततः एक समय वह उस सब से ऊब भी जाता है । यदि शरीर स्वस्थ और फिट हो तो मनुष्य आजकल की अनेक गतिविधियों में से जो उसे प्रिय हो उसमें भाग लेकर अपना विकास कर सकता है, किन्तु इस विकास की भी कोई सीमा होती है और उसे छू लेने के बाद उसे सतत बनाए रखने का मानसिक दबाव भी तनाव पैदा करता है। क्या इस सब का कहीं कोई अन्त है? इस दौड़ में वस्तुतः क्या कुछ ऐसा प्राप्त हो सकता है जिसके बाद मनुष्य निश्चिन्ततापूर्वक शेष जीवन बिता सके? क्या मनुष्य के इस जीवन में चिन्ताओं के क्रम का अन्त हो पाता है? क्या जीवन इतना ही है, या कि इससे भी अधिक और परे, शायद और भी कुछ हो सकता है?
किन्तु सतत व्यस्त रहना, कुछ न कुछ करते ही रहना, इसे ही जीवन की एकमात्र सार्थकता समझा जाता है और कभी कभी तो इसे परोपकार, समाजसेवा, किसी श्रेष्ठ लक्ष्य, ध्येय, आदर्श या भगवान की प्राप्ति आदि से जोड़कर गौरवान्वित भी किया जाता है । किसी ऐसे ही महान कहे जानेवाले व्यक्ति की मृत्यु को भी इसी प्रकार से महिमामण्डित किया जाता है, जबकि हमें शायद ही पता होता है कि महान कहे जानेवाले उस व्यक्ति को अंततः ऐसा क्या प्राप्त हुआ होगा जिसे जीवन की सार्थकता या परिपूर्णता कहा जा सके!
'चिन्ता' एक विधेयात्मक शब्द है। चिन्ता किसी विषय में होती है, और चिन्ता के दूर हो जाने या मिट जाने पर मन में एक तरह की राहत / निश्चिन्ततता पैदा होती है ।
क्या 'निश्चिन्तता' भी चिन्ता की तरह की ऐसी कोई विधेयात्मक वस्तु या शब्द है जिसमें हम लगातार डूबे रह सकें?
किन्तु सतत चिन्ताग्रस्त रहना हमारी आदत हो गया है। शायद यही जीवन की विडम्बना है!
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