Monday, 7 March 2022

जीव-भाव क्या है?

चेतना और भावना 
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नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।१६।।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २)
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।२४।।
(श्रीमद्भगवद्गीता,अध्याय ७)
जिसे सत् कहा जाता है, वह अव्यक्त तत्त्व अविद्यमान नहीं है, और जिसे असत् कहा जाता है, उसका अस्तित्व नहीं है। इस प्रकार से सत् और असत् उन दोनों ही का तत्त्व तत्त्वदर्शियों के द्वारा देखा जाता है।
वह अव्यक्त सत् स्वसंवेद्य भी है क्योंकि यदि वह स्वयं के भान से रहित हो, तो उसके अस्तित्व का क्या प्रमाण होगा! और इस भान का अस्तित्व तो स्पष्ट ही है। अर्थात् सत् स्वसंवेद्य है, किन्तु वह एकमेव अद्वितीय है, और जिसका भान है वह उससे अन्य कोई और नहीं है। तात्पर्य यह कि सत् नामक वह परमतत्त्व या परमेश्वर चैतन्यघन है, न कि किसी शरीर विशेष में सीमित कोई व्यक्तिरूपी चेतन अस्तित्व, जो कि जन्म तथा मृत्यु का भोक्ता, ज्ञाता और शरीर के ही अपने होने की बुद्धि से मोहित है।
इसी देहबद्ध चेतन व्यक्तिरूपी में अस्मिता नामक जिस भावना का उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १० में :
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।२२।।
जिस श्लोक के माध्यम से किया गया है, उस श्लोक में मन को इन्द्रिय, और चेतन को अस्मि-चेतना अर्थात् अस्मिता कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि चेतना नामक एक ही तत्त्व, परमात्मा और जीव दोनों में ही उभयनिष्ठ सत्य वस्तु है।
अतः जीव-भाव -- वह आभासी अज्ञान है जिससे ग्रस्त हुए, देह से संबद्ध बुद्धिवाले मोहित होते हैं और जिनकी बुद्धि अज्ञान से आवरित है। मुझ अव्यक्त चैतन्य पर, बुद्धि से रहित ऐसे मनुष्य व्यक्ति-भाव आरोपित कर मुझे व्यक्ति मान बैठते हैं, क्योंकि वे मेरे अव्यय, अविनाशी, सर्वोत्तम परम भाव को नहीं जानते।
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ईशजीवयोर्वेषधीभिदा ।।
सत्स्वभावतो वस्तु केवलम् ।।२४।।
(श्रीरमण महर्षि कृत उपदेश-सार)

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गीता 2/16, 7/24, 10/22,


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