संन्यास-बुद्धि और संन्यास-धर्म
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प्रकृति हो, या सामाजिक वर्णाश्रम व्यवस्था, मनुष्यों के वंश या परंपरा से स्वतंत्र सार्वभौम धर्म है। जाति अवश्य ही जन्म और वंश से निर्धारित होती है, किन्तु वर्ण और आश्रम मनुष्यों के ही नहीं, प्राणिमात्र के जीवन-क्रम की स्वाभाविक गति है। इसीलिए सनातन-धर्म में सामञ्जस्य, सौहार्द और समरसतापूर्ण व्यवस्था के लिए यह आधारभूत निर्देशक सिद्धान्त के रूप में मान्य है।पशु से मनुष्य होने तक का उत्क्रमण 'मन' के उद्भव से ही घटित हुआ और 'मन' स्वयं मूलतः भाव तथा भावना का उन्मेष तथा विकास है, इसलिए भाषा के उद्भव से भी पहले से ही मनुष्य में भाव तथा भावना का चरम विकास हो चुका था। भाव / भावना की पूर्णता और परिपक्वता होने के बाद ही भाषाओं का उद्भव हुआ और फिर ध्वनि-समूह के संकेतों को भौतिक वस्तुओं तथा भावपरक संवेदनाओं से संबद्ध कर विभिन्न शब्दों के विशिष्ट एवं औपचारिक तात्पर्य सुनिश्चित हुए।
'मन' में भाषा के प्रविष्ट होने पर ही 'विचार' का आगमन हुआ। 'विचार' के बाद ही 'निष्कर्ष' की, अर्थात् निर्णय करने की कला उत्पन्न हुई। इसे ही बुद्धि कहा जाता है। बुद्धि की ही पराकाष्ठा के रूप में विवेचना का, और विवेक का प्रकाश प्रकट हुआ। इस विवेक का ही पर्याय है बुद्धत्व, जो किसी भी स्थापित परंपरा से स्वतंत्र एक उद्यम (talent, endeavor, enterprise) है, जिसका आविष्कार मनुष्य के उसी 'मन' के विकास में होता है, जिसमें प्रारंभ में 'भाव / भावना' का उन्मेष हुआ था और फिर जो भाषा से जुड़कर क्रमशः विचार तथा बुद्धि में परिणत हुआ। इस प्रकार विवेक / बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद ही उसमें वैराग्य या संन्यास-बुद्धि जागृत हुई, तथा अनित्य, क्षणभंगुर, लौकिक अस्तित्व (जीवन, संसार) की मर्यादा का भान उसे हुआ।
यही 'मन' जो न तो इस लौकिक अनित्यता अर्थात् जन्म-मृत्यु, व्याधि, रोग, जरा (वृद्धत्व) आदि के तथ्य को देखना तक नहीं चाहता था, इसी शरीर में रहते हुए अमरता, शक्ति और जीवन के अनेक असीमित भोगों के सुखों की अंतहीन आशा से भरा हुआ अपनी कल्पना के स्वप्नों में मोहित, मरना नहीं चाहता था।
प्रकृति के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि जिन चार आश्रमों की प्राप्ति हर किसी को जन्म से ही प्रकृति-प्रदत्त होती है, उनमें से प्रथम ब्रह्मचर्य है, जैसे किसी शिशु या बच्चे को अपने स्त्री या पुरुष होने का भी आभास नहीं होता, और वह काम-भावना से नितान्त अनभिज्ञ होता है। युवा होने पर ही उसमें काम-भावना जागृत होती है, और अनायास ही उसे गृहस्थ आश्रम की प्राप्ति हो जाती है। संपूर्ण परिवार और समाज इसी आश्रम पर निर्भर हैं। उसकी युवावस्था समाप्त होते-होते प्रकृति उसे गृहस्थ-धर्म के दायित्वों से मुक्त कर देती है, किन्तु तब भी उसमें जीवन एवं प्रकृति की स्वाभाविक गति को समझने और स्वीकार करने की न तो उत्सुकता और न ही बुद्धि होती है । समाज में भी ऐसे ही मनुष्य अधिक हैं जो कि सतत धन, व्यक्तिगत, राजनैतिक सत्ता के सुखों का सीमा से परे अनंतकाल तक उपभोग करते रहना चाहते हैं। यदि वे किसी ईश्वर, भगवान, आदि को मानते भी हैं, तो केवल इसीलिए, ताकि उन्हें जीवन के क्लेशों का सामना न करना पड़े, या मृत्यु के बाद उनकी 'सद्गति' हो।
सामाजिक मानवीय दृष्टिकोण से यद्यपि यह उचित है, कि वृद्ध मनुष्य को भी सुखपूर्वक जीवन जीने का पूरा पूरा अधिकार है, किन्तु किसी की भी असीमित, अपूरणीय लालसाओं की पूर्ति करते रहना संभव ही नहीं है ।
इसलिए जिस मनुष्य में सतत अंतहीन जीते रहने की कामना है, उसे उसके भाग्य पर ही छोड़ दिया जाए। यदि उसमें वैराग्य और संन्यास-बुद्धि पैदा ही नहीं हुई हो, तो समाज या व्यवस्था उसके लिए क्या कर सकता है? चाहे वह नास्तिक, आस्तिक या किसी भी परंपरा को माननेवाला हो।
हाँ समाज, परिवार और व्यवस्था उसकी स्वाभाविक मृत्यु होने तक उसकी देखभाल अवश्य कर सकता है और वृद्धाश्रम का यही महत्व है।
प्रकृति तो वैसे भी उसे इसी दिशा की ओर अनायास अग्रसर करती ही है।
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वृद्धाश्रम, old-age home.
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