Monday, 21 March 2022

विचार की पृष्ठभूमि

ज्ञान, अज्ञान और विज्ञान

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विचार, - ज्ञान है । ज्ञान, - अज्ञान की उत्पत्ति है, और अज्ञान है, - ज्ञान का अभाव । अतः विचार अज्ञान का ही वह रूप है जिसे ज्ञान समझा जाता है।

अर्थात् विचार के माध्यम से जिस ज्ञान की प्राप्ति की जाती है, वह ज्ञान, वस्तुतः अज्ञान का ही प्रकार है। और चूँकि, विचार को विचार में रूपान्तरित कर देने मात्र से ज्ञान का अभाव दूर नहीं होता, किन्तु ज्ञान (होने) का भ्रम अवश्य हो जाता है, इसलिए ऐसा ज्ञान वस्तुतः पुराने विचार का नवीनीकरण मात्र होता है, न कि वह बोध, जिसमें विचार शान्त होकर शान्ति की तरह प्राप्त हो। भौतिक विज्ञान (science) को भी विज्ञान कहा जाता है क्योंकि 'साइंस' / science इस शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से संस्कृत भाषा की दो धातुओं 'संश्' तथा 'शंस्' (शंसयति / संशयति) से की जा सकती है। यद्यपि अपने पहले के ब्लॉग्स में मैं यह लिख चुका हूँ, कि किसी भी भाषा की उत्पत्ति किसी दूसरी भाषा से हुई हो, किन्तु यह अवश्य ही विचारणीय, संभव और ग्राह्य भी है, कि संस्कृत भाषा इसका एकमात्र अपवाद है। और इसलिए, जैसा कहा जाता है कि संस्कृत समस्त भाषाओं की जननी है, वह आंशिक सत्य है, न कि पूर्णतः सत्य। हाँ, यह अवश्य ही सत्य है कि किसी भी भाषा का कोई भी शब्द चूँकि वाणी का ही एक रूप होता है, और संस्कृत भाषा अवश्य ही मनुष्य के द्वारा बोली जानेवाली ध्वनि / वाणी -phonetics फ़ोनेटिक्स का ही सूक्ष्म, सुव्यवस्थित तथा सुचारु अध्ययन है, इसलिए किसी भी भाषा की शब्दों / संरचना को किसी सीमा तक संस्कृत से संबद्ध किया जा सकता है।

इसलिए शाब्दिक विचार, और जिस पृष्ठभूमि में विचार का कार्य / गतिविधि होती है, स्वरूपतः वे दोनों बिलकुल भिन्न प्रकार की वस्तुएँ हैं । विचार की यह मूल पृष्ठभूमि बोध है, और यह बोध पुनः ज्ञान, अज्ञान अथवा विचार नहीं, बल्कि निर्विचार जागृति / अवधान है। यह अवधान वैयक्तिक अथवा सामूहिक नहीं बल्कि वह तत्व है, जो सब कुछ है, जो सबमें है, और जिसमें सब कुछ है। इसलिए जब भी कोई उसे जानने के लिए कोई प्रयास करता है तो उस जानने में ही विचार विलीन हो जाता है, और वह 'मैं' भी, जो कि व्यक्ति में अपनी पहचान की तरह स्थापित होता है। 

विचार की इसी पृष्ठभूमि (बोध) को प्रज्ञा, प्रज्ञान या विज्ञान भी कहा जाता है।

... तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २, श्लोक संख्या -५७,५८)

प्रज्ञानं ब्रह्म।। 

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