श्रीमदभगवद्गीता 2/17
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संकल्प - संकल्प का अर्थ है किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए मन में उठी प्रेरणा। यह संकल्प शुभ-अशुभ, मिश्रित हो सकता है । यह प्रेरणा या उत्साह भी प्रबल, तीव्र या क्षीण, नाममात्र का हो सकता है। इसे ही इच्छा या अनिच्छा, बाध्यता, आवश्यकता या कर्तव्य आदि रूपों में देखा जा सकता है। यह लोभ, भय, मोह, भ्रम, राग, क्रोध, ईर्ष्या, आदि भावनाओं से प्रभावित हो सकता है ।
कर्म - जब कोई संकल्प आचरण के रूप में सक्रिय हो जाता है तो इसके फलस्वरूप होनेवाला कार्य / घटना-क्रम को कर्म कहा जाता है।
ज्ञान - किसी भी संकल्प के साथ साथ तत्क्षण उसका भान भी होता ही है। यह भान ही उसका स्वाभाविक किन्तु निःशब्द ज्ञान है। इस भान के ही साथ प्रच्छन्न रूप में अवस्थित अपने होने का भान तो होता ही है किन्तु पुनः इस प्रच्छन्न भान में अपने विशिष्ट कुछ या विशेष कोई होने के विचार, भावना, संकल्प आदि का अस्तित्व नहीं होता। इस प्रकार होने-मात्र के इस शुद्ध भान में जब संकल्प या कर्म की प्रेरणा का उद्भव होता है, तो तत्काल ही उस कर्म के कर्ता के रूप में अपनी स्वीकृति भी उत्पन्न होती है । यह स्वीकृति मिथ्या कल्पना या संकल्प की प्रतिक्रिया होती है। इसी स्वीकृति के कर्ता से अतिरिक्त अन्य तीन रूप क्रमशः भोक्ता, ज्ञाता तथा स्वामी की तरह अभिव्यक्त होते हैं और इसी का कुल परिणाम अहंकार का रूप लेता है । अहंकार इस तरह मूलतः मन की कल्पना है और इसलिए यद्यपि अमूर्त धारणा ही होता है, किन्तु वह स्वयं को मिटा भी नहीं सकता क्योंकि ऐसा प्रयास भी उस धारणा को और अधिक दृढ ही करता है ।
अभ्यास - संकल्प किसी न किसी तात्कालिक, अल्पकालिक या दीर्घ-कालिक लक्ष्य से संबद्ध होता है।
समय या काल - यह लक्ष्य जिसे सन्निकट / तात्कालिक, अल्प-कालिक, दीर्घ-कालिक कहा जाता है, उस काल अथवा समय की अवधारणा का जनक है, जो कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी की ही तरह एक कल्पना है, -न कि कोई वास्तविकता । कल्पना से ही काल की व्यापकता की और भी नई कल्पना प्रकट होती है जिसे स्थान / आकाश (Time-Space) कहा जाता है।
(इसकी पुष्टि शिव-अथर्वशीर्ष के इस मन्त्र से भी होती है : अक्षरात्संजायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते.... व्यापकः हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो.... यदा शेते रुद्रो संहार्यते प्रजाः ... पुनः उस अविनाशी तत्व के उच्छ्वास से ही तम / अन्धकार या जड-तत्त्व के उद्भव के पश्चात् क्रमशः सृष्टि की अभिव्यक्ति होती है। उच्छ्वसिते तमो भवति तमस आपोऽप्स्वङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरे मथ्यमानं फेनं भवति ... फेनादण्डं भवत्यण्डाद् ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोरोङ्कार .... ॐकारात् सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति।)
रुद्र ही अक्षर और अविनाशी तत्त्व है, जिसका श्रीमदभगवद्गीता में उल्लेख :
अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।१७।।
(अध्याय २)
के रूप में किया गया है । इसकी तुलना भौतिकीविदों के द्वारा स्थापित :
(Law of Conservation and indestructibility)
से करना प्रासंगिक होगा।
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