Thursday, 24 March 2022

ब्लॉग-सार

स्वाध्याय-सार
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विगत दस-ग्यारह वर्षों से ब्लॉग लिख रहा हूँ।
जब ब्लॉग लिखना शुरु किया था तो उद्देश्य यही था कि किसी प्रकार से थोड़ा बहुत समय के साथ चल सकूँ। वैसे तो यह बहुत जरूरी नहीं था, लेकिन व्यवस्था और सुविधा उपलब्ध होने से यह कार्य सरलता से होने लगा।
एक और ध्येय था हिन्दी-भाषियों को उन तीन विभूतियों के बारे में जानकारी देना, जिनके साहित्य का अध्ययन मैं हमेशा करता रहा हूँ । मेरे ब्लॉग्स के पाठकों को यह अनुमान तो होगा ही कि मेरे सौभाग्य से मुझे मुख्यतः श्री रमण महर्षि, श्री जे. कृष्णमूर्ति और श्री निसर्गदत्त महाराज के साहित्य के कुछ अंशों को हिन्दी भाषा में प्रस्तुत करने का अवसर मिला है।
निश्चित ही यह अनुवाद-कार्य मेरे लिए व्यवसाय या आजीविका का साधन न होकर बल्कि मेरी हार्दिक अभिलाषा, आध्यात्मिक उत्कंठा और अपने ही निज स्वाध्याय करने की भावना से प्रेरित था।
इस सब से मुझे क्या मिला?
मैं क्या प्राप्त करना चाहता था? 
जिस समय वर्ष 1990 में मैंने अपने जीवन का लक्ष्य स्पष्ट रूप से निर्धारित कर लिया था, उस समय भी मेरे मन में यही प्रश्न था कि अन्ततः मैं जीवन में क्या प्राप्त करना चाहता था?
तब मेरे कार्यालय के एक सहयोगी मित्र ने मुझसे ठीक यही प्रश्न पूछा था। क्योंकि उसे यह समझने में कठिनाई हो रही थी कि मैं अच्छी-भली नौकरी छोड़कर ऐसा कौन सा बड़ा तीर मारने जा रहा हूँ जिससे मेरा जीवन अत्यन्त सफल और सार्थक हो जाता! तब मैंने उससे बात करते हुए उससे पूछा था :
"लोग महात्माओं, संतों, तथाकथित वास्तविक या अवास्तविक आध्यात्मिक गुरुओं के पास आखिर किसलिए जाते हैं?"
उसने कहा था :
"मेरी श्रद्धा तो सबमें है, लेकिन मैं तो सिर्फ इसलिए उनके पास जाता रहता हूँ, कि पता नहीं किसके आशीर्वाद से मेरे और मेरे परिवार के जीवन में सुख, धन-संपत्ति, समृद्धि आएगी। मैं इससे अधिक कुछ नहीं सोचता।"
"भगवान और उन सब महापुरुषों का आशीर्वाद सदैव तुम पर बना रहे। पहले मैं भी यही सोचता था। फिर एक बार जब एक  महात्मा ने मुझसे पूछा कि मैं किसलिए उनके पास जाता हूँ? तो मैंने उनसे यही कहा था। तब उन्होंने मुझसे कहा :
"मान लो, तुम्हें वह सब मिल भी जाता है, तो भी क्या वह सब सदैव वैसा ही बना रहेगा?"
"यह तो मैंने सोचा ही नहीं!"
"तो अब सोचो!"
-वे बोले। 
"इसे ही शास्त्रों की भारी-भरकम, और कठिन भाषा में 'नित्य-अनित्य चिन्तन' कहा जाता है। यह चिन्तन करने से तुममें यह विवेक जागृत होगा कि 'नित्य' क्या है और 'अनित्य' क्या है!  और वैसे भी चूँकि तुम सुख, समृद्धि, सफलता आदि को प्राप्त करना चाहते हो, अतः यह भी सोचो कि क्या वे, या संसार की दूसरी भी कोई भी वस्तु, तुम्हारे संबंध, तुम्हारी संपत्ति, यहाँ तक कि पसंदगी-नापसंदगी, विचार, बुद्धि, और यहाँ तक कि तुम्हारी याददाश्त आदि में से कौन सी चीज़ हमेशा रहनेवाली है!"
"भगवान!"
मैंने उत्साहपूर्वक कहा। 
"क्या तुम वाकई भगवान जैसी किसी वस्तु को जानते हो, या सिर्फ तुम्हें ऐसा लगता है, कि भगवान हमेशा होता है?"
"तो क्या भगवान नहीं है?"
"अगर तुम सोचते हो कि भगवान हमेशा होता है, तो यह पता लगाओ, और मुझे बताओ कि ऐसी किस वस्तु को तुम जानते हो, जो हमेशा होती है? या फिर उस वस्तु को जानने का प्रयत्न करो जो हमेशा होती हो! केवल भगवान को मानने भर से तुम्हें वह वस्तु कैसे मिल सकेगी! क्या सारा सोच-विचार, मन, और मान्यता, याददाश्त होने तक ही नहीं हुआ करती! और, उसका भी एक जैसा रहना तो बाद की बात है, पहले यह बताओ कि याददाश्त भी क्या हमेशा बनी रह सकती है? और चलो, यह भी मान लिया, कि भगवान हमेशा होता है, तो ऐसी वस्तु को ठीक से जान लो, जो हमेशा होती हो!"
"वाह!
मेरा सहयोगी मित्र बोला।
"... तो तुम ऐसी ही कोई वस्तु को खोजने के लिए नौकरी छोड़ देना और शायद संसार को भी त्याग देना चाहते हो। शायद तुम बुद्ध होना चाहते हो!"
मैं कुछ नहीं बोला।
"मैं तो दुनियादार आदमी हूँ, मैं यह सब कैसे कर सकता हूँ!"
-उसने कहा। 
"ठीक है! जैसी तुम्हारी मरजी वैसा तुम करो, जैसी मेरी मरजी मैं वैसा करूँगा!"
सार यह, कि स्वाध्याय और दूसरे ब्लॉग्स लिखने से मुझे शान्ति प्राप्त होती है । मुझे नहीं पता कि कौन सा पाठक मेरे पोस्ट्स को किस दृष्टि से पढ़ता होगा!
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