काल से परे,
(10-03-2022)
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शरीर कष्ट नहीं है।
शरीर को कोई कष्ट नहीं है।
जिसे कष्ट है, वह शरीर नहीं है ।
जिसे कष्ट है वह मन है, जो चेतना की केवल अवस्था-विशेष है, -अर्थात् जागृति-काल के समय की स्थिति, जब इस अवस्था में संसार का, और अपना भान होता है । यदि ऐसी अवस्था में मन विचार से रहित हो, तो मैं और मेरा संसार, इस प्रकार का कोई विभाजन भी कहाँ होता है!
मन, जो केवल अवस्था (phenomenon) या दशा-विशेष (phase) है, क्रमशः जागृति, स्वप्न तथा निद्रा की दशाओं से गुजरता रहता है। जागृति और स्वप्न में ही मैं और मेरा संसार इन दोनों का दो भिन्न भिन्न रूपों का अनुभव घटित होता है। निद्रा के समय जो भी है, केवल अपने की ही तरह प्रतीत होता है, पर वह अपना अस्तित्व क्या और किस प्रकार का है इसे व्यक्त कर पाना बहुत कठिन है। फिर भी मेरा अस्तित्व और मेरे अस्तित्व को मेरे द्वारा जाना जाना एक अकाट्यतः असंदिग्ध ऐसा सत्य है, जिसका भान / पता हर किसी को अनायास होता ही है।
तीनों अवस्थाएँ आती और जाती भी रहती हैं, किन्तु जिसकी ये अवस्थाएँ हैं, वह स्वयं भी मन नहीं, और मन की पृष्ठभूमि में स्थित मेरी वह चेतना भी नहीं है, जो इन अवस्थाओं से और मन, दोनों से ही नितान्त अछूती और अप्रभावित होती है।
तो क्या कष्ट उसे होता है, जो कि इन सब अवस्थाओं में सदैव और निरंतर अपरिवर्तित और अप्रभावित होता है? स्पष्ट ही है कि यदि उसे कष्ट होता, तो वह कष्ट से परिवर्तित और प्रभावित होता । अतः चेतना ही संसार, शरीर, मन, और तीनों अवस्थाओं का वह अधिष्ठान है, जो कि जन्म तथा मृत्यु से, काल से भी परे है। इसी तरह से वह काल से भी अपरिचित और अनभिज्ञ है। काल मन है और मन काल है। एक के अभाव में दूसरा नहीं हो सकता।
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