Saturday, 26 March 2022

संबंध, समय और स्वप्न

समय-शास्त्र / क्षण-शास्त्र  

CHRONOLOGY 

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स्वप्न संबंध है, और संबंध स्वप्न।

स्वप्न क्षण है, और क्षण समय। 

समय क्षण है, जो दो या अधिक स्वप्नों का सम-सामयिक (co-eval, concurrence) होना है। 

समय यूँ तो एक अविभाज्य, सतत और अखंड वास्तविकता है, परन्तु समय के बारे में विचार के पैदा होने के साथ ही साथ यह आभास भी घटित होता है कि समय क्षण है और इसलिए स्वप्न भी है जो युग भी है। क्षणों के क्रम का ही नाम युग है। क्षणों के बीच यदि क्रम की कल्पना न पैदा हो, तो समय के खंडित होने का आभास / स्वप्न भी नहीं हो सकता।

इस प्रकार समय स्वप्न है, और संबंध है।

जैसा पिछले पोस्ट में इंगित किया गया, संबंध समस्या है और समस्या संबंध है, और दोनों ही विचार (की गतिविधि) है। 

विचार से ही समय का विभाजन कर अतीत और भविष्य जन्म लेते हैं। अतीत (past) और भविष्य (future) इसलिए स्वप्न हैं, और वे जिस भूमि में जन्म लेते हैं वह है एकमेव और सतत, अखंड, अविभाज्य यह वर्तमान (present) समय, जो नित्य, शाश्वत, चिरंतन होने के ही कारण जिसे सनातन भी कहा और समझा जाता है। इसे ही क्षण अथवा युग के रूप में संकुचित / संकीर्ण या विस्तृत कर एक काल्पनिक समय स्वतंत्र रूप में हर किसी मनुष्य के लिए अस्तित्व में आता हुआ प्रतीत होता है। यह काल्पनिक समय ही मनुष्य का नितांत वैयक्तिक स्वप्न होता है, जिसे कोई किसी से साझा (share) नहीं कर सकता। यही मनुष्य का मनो-जगत है। किन्तु मनुष्य का शरीर केवल मनो-जगत नहीं, बल्कि स्थूल रूप में भौतिक पदार्थ से निर्मित वैसी एक वस्तु भी है, जिससे मनुष्य के मनो-जगत का संबंध होते ही, मनुष्य स्वयं को उसके भौतिक विश्व में अनुभव करता है, यद्यपि उसे यह स्पष्ट नहीं होता, कि वह स्वयं यह विश्व है, या आभासी विश्व से भिन्न और स्वतंत्र एक सत्ता। इस अनुभव को मनुष्य की जागृत अवस्था कहा जाता है। इस दृष्टि से मनुष्य भी अपने से भिन्न प्रकार के दूसरे जीवों के ही समान ही है, क्योंकि वे भी इस प्रकार, मनुष्य की ही तरह जागते, सोते और स्वप्न देखते हैं।

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Friday, 25 March 2022

This matter of 'Time'

Consciousness of 'Time'.

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The idea of 'Time' could be dealt with in terms of : 

The 'Time' --

Presumed, Assumed, Consumed and Resumed.

Is not 'Time' basically a thought only?

It's rather amusing to think : Who invented this idea?

Is not 'Time' basically subject to experience and feeling?

Is not time an inference completely and totally dependent on thought / intellect?

Does 'Time' really exist as matter or energy?

Is not matter and energy (subject to) sensory perception only?

A sensory perception is necessarily, no doubt an objective reality. Is 'Time' also an entity to be thought of as an objective reality? Again, is time also such a quantity that could be thought of as matter?

An objective reality / entity is subject to sensory experience and / or feeling, but isn't the duration of the same is in imagination, basically an idea?

How then, the duration of a perception could be  defined / determined?

We know 'Time' in two ways :

One is the 'Time' that moves not. 

Another is the 'Time' (as is said) that always keeps on moving.

Yet we can't catch hold of either of the two. Isn't there always inevitably something that could be described as the consciousness of 'Time'? Is not this way of looking at about 'Time' is rather a new, altogether a different approach towards understanding 'Time'?

'Time' is essentially a concept. And concept may or may not be fact. A Fact too could be either an appearance or Reality.

Reality too could not be described in terms of One (1), Many, Partial, Positive, Negative, or Fractional, though is Whole and Unique (Principle).

A concept is a description only.

Consciousness is neither the description nor the described. Consciousness is Reality and like the Reality, could not be categorized in terms of any of the One (1), Many, Partial, Partial, Positive, Negative or Fractional, and is Whole and Unique (Principle).

We could also see that though we really don't know what exactly is meant by the "Real" / Reality, we have no doubt whatsoever if we are not aware of consciousness.

Consciousness is such a self-evident truth, so  irrefutable and undeniable, that no logic, no experience, experience, or feeling can prove it otherwise.

At the same time, Consciousness could not be pointed out as an objective reality as well.

'Perception' is the only pointer, the bridge that we have, that connects the objects in  consciousness with the objective reality.

Isn't the perception an individual experience only?

The space / distance seem to have a definite form. The same could, again be measured with the help of such a means and a 'scale' that again seems to have some definite form.

Space is objective reality. 

The movement of an object in space causes the idea of speed / velocity, and the distance  traversed by the object in the Space.

This perception is then translated into the idea of 'Time'.

Science and Mathematics deal with the idea and concepts. This is confined and limited within the known, and while the known is a practical reality, remains in the periphery of the ignorance. 

Idea is not the whole picture.

It reveals the truth less and less and conceals the same more and more.  

Time thus denotes and serves as the virtual God. The Reality, Time, Life, God, Perception (not the noun, but the verb) are all the same and synonymous.

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Thursday, 24 March 2022

संबंध और समस्या

PROBLEMATICS
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समस्या-शास्त्र / प्रॉब्लमैटिक्स
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कुछ दिनों पहले इस विषय पर अंग्रेजी में दो-तीन पोस्ट्स लिखे थे। हिन्दी में लिखने का मन हुआ तो सोचा, यहाँ लिखा जाना उचित होगा।
संबंध समस्या होता है और समस्या संबंध। यद्यपि इस पर कभी ध्यान ही नहीं जाता। संबंध एक ऐसी चीज़ है जिसके आवश्यक रूप से दो सिरे होते हैं। और इसलिए किसी भी संबंध के बारे में यह सत्य है इन दो सिरों के बीच कोई न कोई दूरी सदैव होती है। कभी लगता है कि यह दूरी सिमटकर मिट गई है किन्तु थोड़े या कुछ अधिक लम्बे समय के बीत जाने पर लगता है कि यह दूरी ऐसी है जिसका मिट पाना लगभग असंभव है! 
'विचार' यही दूरी है!
क्या विचार मिट सकता है? क्या विचार अमर है? क्या विचार ही मन है? क्या मन अमर है? मन के अमर होने या न होने का प्रश्न भी, क्या विचार ही नहीं है? 
स्पष्ट है कि कुछ / कोई है, जिसका संबंध मन से है, और वह कुछ या कोई, अपने-आप को 'मन' कहता है। या शायद, यद्यपि ऐसा कुछ / कोई कहीं है ही नहीं, बल्कि यह केवल मन / विचार है।
तो क्या विचार करनेवाला मन से पृथक् है?
यही विचार और विचारक के बीच का संबंध है। और यह संबंध क्या कभी पूरी तरह समाप्त हो सकता है? फिर भी राहत की बात यह है कि विचारों के आने-जाने के क्रम की जागरूकता न तो विचार है, न व्यक्ति और न कोई तथाकथित 'मैंं'! क्योंकि 'मैं' का अस्तित्व विचार पर अवलंबित है तथा विचार का अस्तित्व 'मैं' पर। अर्थात् जब तक यह 'मैं' है, यह 'मैं' विचार के ही रूप में अस्तित्वमान (प्रतीत) होता है, और विचार-मात्र इस प्रतीति पर ही। अतः निष्कर्ष यह, कि प्रतीति स्वरूपतः न तो विचार है, और न ही विचार स्वरूपतः प्रतीति है! प्रतीति निर्वैयक्तिक सत्य है, जबकि विचार स्वरूपतः अपरिहार्य रूप से वैयक्तिक प्रकार की कोई वस्तु। इसलिए "मैं सोचता हूँ।" या "मेरा विचार है कि" जैसे वक्तव्य मूलतः विसंगतिपूर्ण और विरोधाभासयुक्त हैं। क्योंकि इससे विचार (thought) और विचारक (thinker) के एक दूसरे से दो भिन्न भिन्न और स्वतंत्र अस्तित्व होने का भ्रम पैदा होता है। 
फिर निर्विचार मन क्या है?
क्या निर्विचार जागरूकता ही वह वस्तु नहीं है जिसमें प्रतीति का आभास सतत क्रीडारत है? क्या यह निर्विचारता, निजता भी नहीं है जिसे जन्म, मृत्यु या काल छू भी नहीं सकते?
क्या विचार इस निजता को कभी जान और समझ सकता है? 
क्या विचार इसे कभी कह सकता है?
क्या इस बारे में कोई वक्तव्य दिया जा सकना संभव है?

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ब्लॉग-सार

स्वाध्याय-सार
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विगत दस-ग्यारह वर्षों से ब्लॉग लिख रहा हूँ।
जब ब्लॉग लिखना शुरु किया था तो उद्देश्य यही था कि किसी प्रकार से थोड़ा बहुत समय के साथ चल सकूँ। वैसे तो यह बहुत जरूरी नहीं था, लेकिन व्यवस्था और सुविधा उपलब्ध होने से यह कार्य सरलता से होने लगा।
एक और ध्येय था हिन्दी-भाषियों को उन तीन विभूतियों के बारे में जानकारी देना, जिनके साहित्य का अध्ययन मैं हमेशा करता रहा हूँ । मेरे ब्लॉग्स के पाठकों को यह अनुमान तो होगा ही कि मेरे सौभाग्य से मुझे मुख्यतः श्री रमण महर्षि, श्री जे. कृष्णमूर्ति और श्री निसर्गदत्त महाराज के साहित्य के कुछ अंशों को हिन्दी भाषा में प्रस्तुत करने का अवसर मिला है।
निश्चित ही यह अनुवाद-कार्य मेरे लिए व्यवसाय या आजीविका का साधन न होकर बल्कि मेरी हार्दिक अभिलाषा, आध्यात्मिक उत्कंठा और अपने ही निज स्वाध्याय करने की भावना से प्रेरित था।
इस सब से मुझे क्या मिला?
मैं क्या प्राप्त करना चाहता था? 
जिस समय वर्ष 1990 में मैंने अपने जीवन का लक्ष्य स्पष्ट रूप से निर्धारित कर लिया था, उस समय भी मेरे मन में यही प्रश्न था कि अन्ततः मैं जीवन में क्या प्राप्त करना चाहता था?
तब मेरे कार्यालय के एक सहयोगी मित्र ने मुझसे ठीक यही प्रश्न पूछा था। क्योंकि उसे यह समझने में कठिनाई हो रही थी कि मैं अच्छी-भली नौकरी छोड़कर ऐसा कौन सा बड़ा तीर मारने जा रहा हूँ जिससे मेरा जीवन अत्यन्त सफल और सार्थक हो जाता! तब मैंने उससे बात करते हुए उससे पूछा था :
"लोग महात्माओं, संतों, तथाकथित वास्तविक या अवास्तविक आध्यात्मिक गुरुओं के पास आखिर किसलिए जाते हैं?"
उसने कहा था :
"मेरी श्रद्धा तो सबमें है, लेकिन मैं तो सिर्फ इसलिए उनके पास जाता रहता हूँ, कि पता नहीं किसके आशीर्वाद से मेरे और मेरे परिवार के जीवन में सुख, धन-संपत्ति, समृद्धि आएगी। मैं इससे अधिक कुछ नहीं सोचता।"
"भगवान और उन सब महापुरुषों का आशीर्वाद सदैव तुम पर बना रहे। पहले मैं भी यही सोचता था। फिर एक बार जब एक  महात्मा ने मुझसे पूछा कि मैं किसलिए उनके पास जाता हूँ? तो मैंने उनसे यही कहा था। तब उन्होंने मुझसे कहा :
"मान लो, तुम्हें वह सब मिल भी जाता है, तो भी क्या वह सब सदैव वैसा ही बना रहेगा?"
"यह तो मैंने सोचा ही नहीं!"
"तो अब सोचो!"
-वे बोले। 
"इसे ही शास्त्रों की भारी-भरकम, और कठिन भाषा में 'नित्य-अनित्य चिन्तन' कहा जाता है। यह चिन्तन करने से तुममें यह विवेक जागृत होगा कि 'नित्य' क्या है और 'अनित्य' क्या है!  और वैसे भी चूँकि तुम सुख, समृद्धि, सफलता आदि को प्राप्त करना चाहते हो, अतः यह भी सोचो कि क्या वे, या संसार की दूसरी भी कोई भी वस्तु, तुम्हारे संबंध, तुम्हारी संपत्ति, यहाँ तक कि पसंदगी-नापसंदगी, विचार, बुद्धि, और यहाँ तक कि तुम्हारी याददाश्त आदि में से कौन सी चीज़ हमेशा रहनेवाली है!"
"भगवान!"
मैंने उत्साहपूर्वक कहा। 
"क्या तुम वाकई भगवान जैसी किसी वस्तु को जानते हो, या सिर्फ तुम्हें ऐसा लगता है, कि भगवान हमेशा होता है?"
"तो क्या भगवान नहीं है?"
"अगर तुम सोचते हो कि भगवान हमेशा होता है, तो यह पता लगाओ, और मुझे बताओ कि ऐसी किस वस्तु को तुम जानते हो, जो हमेशा होती है? या फिर उस वस्तु को जानने का प्रयत्न करो जो हमेशा होती हो! केवल भगवान को मानने भर से तुम्हें वह वस्तु कैसे मिल सकेगी! क्या सारा सोच-विचार, मन, और मान्यता, याददाश्त होने तक ही नहीं हुआ करती! और, उसका भी एक जैसा रहना तो बाद की बात है, पहले यह बताओ कि याददाश्त भी क्या हमेशा बनी रह सकती है? और चलो, यह भी मान लिया, कि भगवान हमेशा होता है, तो ऐसी वस्तु को ठीक से जान लो, जो हमेशा होती हो!"
"वाह!
मेरा सहयोगी मित्र बोला।
"... तो तुम ऐसी ही कोई वस्तु को खोजने के लिए नौकरी छोड़ देना और शायद संसार को भी त्याग देना चाहते हो। शायद तुम बुद्ध होना चाहते हो!"
मैं कुछ नहीं बोला।
"मैं तो दुनियादार आदमी हूँ, मैं यह सब कैसे कर सकता हूँ!"
-उसने कहा। 
"ठीक है! जैसी तुम्हारी मरजी वैसा तुम करो, जैसी मेरी मरजी मैं वैसा करूँगा!"
सार यह, कि स्वाध्याय और दूसरे ब्लॉग्स लिखने से मुझे शान्ति प्राप्त होती है । मुझे नहीं पता कि कौन सा पाठक मेरे पोस्ट्स को किस दृष्टि से पढ़ता होगा!
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Monday, 21 March 2022

विचार की पृष्ठभूमि

ज्ञान, अज्ञान और विज्ञान

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विचार, - ज्ञान है । ज्ञान, - अज्ञान की उत्पत्ति है, और अज्ञान है, - ज्ञान का अभाव । अतः विचार अज्ञान का ही वह रूप है जिसे ज्ञान समझा जाता है।

अर्थात् विचार के माध्यम से जिस ज्ञान की प्राप्ति की जाती है, वह ज्ञान, वस्तुतः अज्ञान का ही प्रकार है। और चूँकि, विचार को विचार में रूपान्तरित कर देने मात्र से ज्ञान का अभाव दूर नहीं होता, किन्तु ज्ञान (होने) का भ्रम अवश्य हो जाता है, इसलिए ऐसा ज्ञान वस्तुतः पुराने विचार का नवीनीकरण मात्र होता है, न कि वह बोध, जिसमें विचार शान्त होकर शान्ति की तरह प्राप्त हो। भौतिक विज्ञान (science) को भी विज्ञान कहा जाता है क्योंकि 'साइंस' / science इस शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से संस्कृत भाषा की दो धातुओं 'संश्' तथा 'शंस्' (शंसयति / संशयति) से की जा सकती है। यद्यपि अपने पहले के ब्लॉग्स में मैं यह लिख चुका हूँ, कि किसी भी भाषा की उत्पत्ति किसी दूसरी भाषा से हुई हो, किन्तु यह अवश्य ही विचारणीय, संभव और ग्राह्य भी है, कि संस्कृत भाषा इसका एकमात्र अपवाद है। और इसलिए, जैसा कहा जाता है कि संस्कृत समस्त भाषाओं की जननी है, वह आंशिक सत्य है, न कि पूर्णतः सत्य। हाँ, यह अवश्य ही सत्य है कि किसी भी भाषा का कोई भी शब्द चूँकि वाणी का ही एक रूप होता है, और संस्कृत भाषा अवश्य ही मनुष्य के द्वारा बोली जानेवाली ध्वनि / वाणी -phonetics फ़ोनेटिक्स का ही सूक्ष्म, सुव्यवस्थित तथा सुचारु अध्ययन है, इसलिए किसी भी भाषा की शब्दों / संरचना को किसी सीमा तक संस्कृत से संबद्ध किया जा सकता है।

इसलिए शाब्दिक विचार, और जिस पृष्ठभूमि में विचार का कार्य / गतिविधि होती है, स्वरूपतः वे दोनों बिलकुल भिन्न प्रकार की वस्तुएँ हैं । विचार की यह मूल पृष्ठभूमि बोध है, और यह बोध पुनः ज्ञान, अज्ञान अथवा विचार नहीं, बल्कि निर्विचार जागृति / अवधान है। यह अवधान वैयक्तिक अथवा सामूहिक नहीं बल्कि वह तत्व है, जो सब कुछ है, जो सबमें है, और जिसमें सब कुछ है। इसलिए जब भी कोई उसे जानने के लिए कोई प्रयास करता है तो उस जानने में ही विचार विलीन हो जाता है, और वह 'मैं' भी, जो कि व्यक्ति में अपनी पहचान की तरह स्थापित होता है। 

विचार की इसी पृष्ठभूमि (बोध) को प्रज्ञा, प्रज्ञान या विज्ञान भी कहा जाता है।

... तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २, श्लोक संख्या -५७,५८)

प्रज्ञानं ब्रह्म।। 

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Wednesday, 9 March 2022

डायरी से...

काल से परे, 

(10-03-2022)

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शरीर कष्ट नहीं है।

शरीर को कोई कष्ट नहीं है।

जिसे कष्ट है, वह शरीर नहीं है ।

जिसे कष्ट है वह मन है, जो चेतना की केवल अवस्था-विशेष है, -अर्थात् जागृति-काल के समय की स्थिति, जब इस अवस्था में संसार का, और अपना भान होता है । यदि ऐसी अवस्था में मन विचार से रहित हो, तो मैं और मेरा संसार, इस प्रकार का कोई विभाजन भी कहाँ होता है!

मन, जो केवल अवस्था (phenomenon) या दशा-विशेष (phase) है, क्रमशः जागृति, स्वप्न तथा निद्रा की दशाओं से गुजरता रहता है। जागृति और स्वप्न में ही मैं और मेरा संसार इन दोनों का दो भिन्न भिन्न रूपों का अनुभव घटित होता है। निद्रा के समय जो भी है, केवल अपने की ही तरह प्रतीत होता है, पर वह अपना अस्तित्व क्या और किस प्रकार का है इसे व्यक्त कर पाना बहुत कठिन है। फिर भी मेरा अस्तित्व और मेरे अस्तित्व को मेरे द्वारा जाना जाना एक अकाट्यतः असंदिग्ध ऐसा सत्य है, जिसका भान / पता हर किसी को अनायास होता ही है।

तीनों अवस्थाएँ आती और जाती भी रहती हैं, किन्तु जिसकी ये अवस्थाएँ हैं, वह स्वयं भी मन नहीं, और मन की पृष्ठभूमि में स्थित मेरी वह चेतना भी नहीं है, जो इन अवस्थाओं से और मन, दोनों से ही नितान्त अछूती और अप्रभावित होती है।

तो क्या कष्ट उसे होता है, जो कि इन सब अवस्थाओं में सदैव और निरंतर अपरिवर्तित और अप्रभावित होता है? स्पष्ट ही है कि यदि उसे कष्ट होता, तो वह कष्ट से परिवर्तित और प्रभावित होता । अतः चेतना ही संसार, शरीर, मन, और तीनों अवस्थाओं का वह अधिष्ठान है, जो कि जन्म तथा मृत्यु से, काल से भी परे है। इसी तरह से वह काल से भी अपरिचित और अनभिज्ञ है। काल मन है और मन काल है। एक के अभाव में दूसरा नहीं हो सकता। 

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निश्चिन्तता और ऊब

भाषा का विरोधाभास 

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कभी कभी और प्रायः ही कोई न कोई समस्या, प्रश्न, दुविधा या उलझन हमारे सामने होती है। यह किसी विशेष क्षेत्र के संबंध में हो सकती है या सामान्य जीवन जीने के दौरान सामने आ खड़ी हो सकती है -- जैसे स्वास्थ्य ठीक न होना, बीच रास्ते बाइक या कार खराब हो जाना, पैसे न होना, आदि। ऐसी सभी स्थितियाँ वास्तव में चिन्ताजनक होती हैं और कोई समाधान निकल आता है, या कुछ हानि आदि भी हो जाती है। किन्तु जब मनुष्य किसी प्रकार की अनावश्यक इच्छा की पूर्ति इस उद्देश्य से करता है कि समय बिताया जा सके, मनोरंजन किया जा सके, खालीपन को किसी प्रकार भुलाया जा सके, तो यद्यपि नींद एक अच्छा उपाय हो सकता है, किन्तु वह भी स्थान और परिस्थिति के अनुसार ही संभव हो पाता है। इस प्रकार मनुष्य एक सीमा तक तो स्वयं को निरंतर किसी विषय में संलग्न कर सकता है या मनोरंजन आदि कर सकता है किन्तु अंततः एक समय वह उस सब से ऊब भी जाता है । यदि शरीर स्वस्थ और फिट हो तो मनुष्य आजकल की अनेक गतिविधियों में से जो उसे प्रिय हो उसमें भाग लेकर अपना विकास कर सकता है, किन्तु इस विकास की भी कोई सीमा होती है और उसे छू लेने के बाद उसे सतत बनाए रखने का मानसिक दबाव भी तनाव पैदा करता है। क्या इस सब का कहीं कोई अन्त है? इस दौड़ में वस्तुतः क्या कुछ ऐसा प्राप्त हो सकता है जिसके बाद मनुष्य निश्चिन्ततापूर्वक शेष जीवन बिता सके? क्या मनुष्य के इस जीवन में चिन्ताओं के क्रम का अन्त हो पाता है? क्या जीवन इतना ही है, या कि इससे भी अधिक और परे, शायद और भी कुछ हो सकता है?

किन्तु सतत व्यस्त रहना, कुछ न कुछ करते ही रहना, इसे ही जीवन की एकमात्र सार्थकता समझा जाता है और कभी कभी तो इसे परोपकार, समाजसेवा, किसी श्रेष्ठ लक्ष्य, ध्येय, आदर्श या भगवान की प्राप्ति आदि से जोड़कर गौरवान्वित भी किया जाता है । किसी ऐसे ही महान कहे जानेवाले व्यक्ति की मृत्यु को भी इसी प्रकार से महिमामण्डित किया जाता है, जबकि हमें शायद ही पता होता है कि महान कहे जानेवाले उस व्यक्ति को अंततः ऐसा क्या प्राप्त हुआ होगा जिसे जीवन की सार्थकता या परिपूर्णता कहा जा सके!

'चिन्ता' एक विधेयात्मक शब्द है। चिन्ता किसी विषय में होती है, और चिन्ता के दूर हो जाने या मिट जाने पर मन में एक तरह की राहत / निश्चिन्ततता पैदा होती है ।

क्या 'निश्चिन्तता' भी चिन्ता की तरह की ऐसी कोई विधेयात्मक वस्तु या शब्द है जिसमें हम लगातार डूबे रह सकें?

किन्तु सतत चिन्ताग्रस्त रहना हमारी आदत हो गया है। शायद यही जीवन की विडम्बना है! 

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Monday, 7 March 2022

जीव-भाव क्या है?

चेतना और भावना 
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नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।१६।।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २)
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।२४।।
(श्रीमद्भगवद्गीता,अध्याय ७)
जिसे सत् कहा जाता है, वह अव्यक्त तत्त्व अविद्यमान नहीं है, और जिसे असत् कहा जाता है, उसका अस्तित्व नहीं है। इस प्रकार से सत् और असत् उन दोनों ही का तत्त्व तत्त्वदर्शियों के द्वारा देखा जाता है।
वह अव्यक्त सत् स्वसंवेद्य भी है क्योंकि यदि वह स्वयं के भान से रहित हो, तो उसके अस्तित्व का क्या प्रमाण होगा! और इस भान का अस्तित्व तो स्पष्ट ही है। अर्थात् सत् स्वसंवेद्य है, किन्तु वह एकमेव अद्वितीय है, और जिसका भान है वह उससे अन्य कोई और नहीं है। तात्पर्य यह कि सत् नामक वह परमतत्त्व या परमेश्वर चैतन्यघन है, न कि किसी शरीर विशेष में सीमित कोई व्यक्तिरूपी चेतन अस्तित्व, जो कि जन्म तथा मृत्यु का भोक्ता, ज्ञाता और शरीर के ही अपने होने की बुद्धि से मोहित है।
इसी देहबद्ध चेतन व्यक्तिरूपी में अस्मिता नामक जिस भावना का उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १० में :
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।२२।।
जिस श्लोक के माध्यम से किया गया है, उस श्लोक में मन को इन्द्रिय, और चेतन को अस्मि-चेतना अर्थात् अस्मिता कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि चेतना नामक एक ही तत्त्व, परमात्मा और जीव दोनों में ही उभयनिष्ठ सत्य वस्तु है।
अतः जीव-भाव -- वह आभासी अज्ञान है जिससे ग्रस्त हुए, देह से संबद्ध बुद्धिवाले मोहित होते हैं और जिनकी बुद्धि अज्ञान से आवरित है। मुझ अव्यक्त चैतन्य पर, बुद्धि से रहित ऐसे मनुष्य व्यक्ति-भाव आरोपित कर मुझे व्यक्ति मान बैठते हैं, क्योंकि वे मेरे अव्यय, अविनाशी, सर्वोत्तम परम भाव को नहीं जानते।
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ईशजीवयोर्वेषधीभिदा ।।
सत्स्वभावतो वस्तु केवलम् ।।२४।।
(श्रीरमण महर्षि कृत उपदेश-सार)

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गीता 2/16, 7/24, 10/22,


Sunday, 6 March 2022

लौकिक / अलौकिक

संन्यास-बुद्धि और संन्यास-धर्म

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प्रकृति हो, या सामाजिक वर्णाश्रम व्यवस्था, मनुष्यों के वंश या परंपरा से स्वतंत्र सार्वभौम धर्म है। जाति अवश्य ही जन्म और  वंश से निर्धारित होती है, किन्तु वर्ण और आश्रम मनुष्यों के ही नहीं, प्राणिमात्र के जीवन-क्रम की स्वाभाविक गति है। इसीलिए सनातन-धर्म में सामञ्जस्य, सौहार्द और समरसतापूर्ण व्यवस्था के लिए यह आधारभूत निर्देशक सिद्धान्त के रूप में मान्य है।पशु से मनुष्य होने तक का उत्क्रमण 'मन' के उद्भव से ही घटित हुआ और 'मन' स्वयं मूलतः भाव तथा भावना का उन्मेष तथा विकास है, इसलिए भाषा के उद्भव से भी पहले से ही मनुष्य में भाव तथा भावना का चरम विकास हो चुका था। भाव / भावना की पूर्णता और परिपक्वता होने के बाद ही भाषाओं का उद्भव हुआ और फिर ध्वनि-समूह के संकेतों को भौतिक वस्तुओं तथा भावपरक संवेदनाओं से संबद्ध कर विभिन्न शब्दों के विशिष्ट एवं औपचारिक तात्पर्य सुनिश्चित हुए।

'मन' में भाषा के प्रविष्ट होने पर ही 'विचार' का आगमन हुआ। 'विचार' के बाद ही 'निष्कर्ष' की, अर्थात् निर्णय करने की कला उत्पन्न हुई। इसे ही बुद्धि कहा जाता है। बुद्धि की ही पराकाष्ठा के रूप में विवेचना का, और विवेक का प्रकाश प्रकट हुआ। इस विवेक का ही पर्याय है बुद्धत्व, जो किसी भी स्थापित परंपरा से स्वतंत्र एक उद्यम (talent, endeavor, enterprise) है, जिसका आविष्कार मनुष्य के उसी 'मन' के विकास में होता है, जिसमें प्रारंभ में 'भाव / भावना' का उन्मेष हुआ था और फिर जो भाषा से जुड़कर क्रमशः विचार तथा बुद्धि में परिणत हुआ। इस प्रकार विवेक / बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद ही उसमें वैराग्य या संन्यास-बुद्धि जागृत हुई, तथा अनित्य, क्षणभंगुर, लौकिक अस्तित्व (जीवन, संसार) की मर्यादा का भान उसे हुआ। 

यही 'मन' जो न तो इस लौकिक अनित्यता अर्थात् जन्म-मृत्यु, व्याधि, रोग, जरा (वृद्धत्व) आदि के तथ्य को देखना तक नहीं चाहता था, इसी शरीर में रहते हुए अमरता, शक्ति और जीवन के अनेक असीमित भोगों के सुखों की अंतहीन आशा से भरा हुआ अपनी कल्पना के स्वप्नों में मोहित, मरना नहीं चाहता था।

प्रकृति के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि जिन चार आश्रमों की प्राप्ति हर किसी को जन्म से ही प्रकृति-प्रदत्त होती है, उनमें से प्रथम ब्रह्मचर्य है, जैसे किसी शिशु या बच्चे को अपने स्त्री या पुरुष होने का भी आभास नहीं होता, और वह काम-भावना से नितान्त अनभिज्ञ होता है। युवा होने पर ही उसमें काम-भावना जागृत होती है, और अनायास ही उसे गृहस्थ आश्रम की प्राप्ति हो जाती है। संपूर्ण परिवार और समाज इसी आश्रम पर निर्भर हैं। उसकी युवावस्था समाप्त होते-होते प्रकृति उसे गृहस्थ-धर्म के दायित्वों से मुक्त कर देती है, किन्तु तब भी उसमें जीवन एवं प्रकृति की स्वाभाविक गति को समझने और स्वीकार करने की न तो उत्सुकता और न ही बुद्धि होती है । समाज में भी ऐसे ही मनुष्य अधिक हैं जो कि सतत धन, व्यक्तिगत, राजनैतिक सत्ता के सुखों का सीमा से परे अनंतकाल तक उपभोग करते रहना चाहते हैं। यदि वे किसी ईश्वर, भगवान, आदि को मानते भी हैं, तो केवल इसीलिए, ताकि उन्हें जीवन के क्लेशों का सामना न करना पड़े, या मृत्यु के बाद उनकी 'सद्गति' हो।

सामाजिक मानवीय दृष्टिकोण से यद्यपि यह उचित है, कि वृद्ध मनुष्य को भी सुखपूर्वक जीवन जीने का पूरा पूरा अधिकार है, किन्तु किसी की भी असीमित, अपूरणीय लालसाओं की पूर्ति करते रहना संभव ही नहीं है ।

इसलिए जिस मनुष्य में सतत अंतहीन जीते रहने की कामना है, उसे उसके भाग्य पर ही छोड़ दिया जाए। यदि उसमें वैराग्य और संन्यास-बुद्धि पैदा ही नहीं हुई हो, तो समाज या व्यवस्था उसके लिए क्या कर सकता है? चाहे वह नास्तिक, आस्तिक या किसी भी परंपरा को माननेवाला हो। 

हाँ समाज, परिवार और व्यवस्था उसकी स्वाभाविक मृत्यु होने तक उसकी देखभाल अवश्य कर सकता है और वृद्धाश्रम का यही महत्व है।

प्रकृति तो वैसे भी उसे इसी दिशा की ओर अनायास अग्रसर करती ही है।  

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वृद्धाश्रम, old-age home.


 


Thursday, 3 March 2022

साधना-सूत्र

श्रीमदभगवद्गीता 2/17

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संकल्प - संकल्प का अर्थ है किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए मन में उठी प्रेरणा। यह संकल्प शुभ-अशुभ, मिश्रित हो सकता है । यह प्रेरणा या उत्साह भी प्रबल, तीव्र या क्षीण, नाममात्र का हो सकता है। इसे ही इच्छा या अनिच्छा, बाध्यता, आवश्यकता या कर्तव्य आदि रूपों में देखा जा सकता है। यह लोभ, भय, मोह, भ्रम, राग, क्रोध, ईर्ष्या, आदि भावनाओं से प्रभावित हो सकता है । 

कर्म - जब कोई संकल्प आचरण के रूप में सक्रिय हो जाता है तो इसके फलस्वरूप होनेवाला कार्य / घटना-क्रम को कर्म कहा जाता है। 

ज्ञान - किसी भी संकल्प के साथ साथ तत्क्षण उसका भान भी होता ही है। यह भान ही उसका स्वाभाविक किन्तु निःशब्द ज्ञान है। इस भान के ही साथ प्रच्छन्न रूप में अवस्थित अपने होने का भान तो होता ही है किन्तु पुनः इस प्रच्छन्न भान में अपने विशिष्ट कुछ या विशेष कोई होने के विचार, भावना, संकल्प आदि का अस्तित्व नहीं होता। इस प्रकार होने-मात्र के इस शुद्ध भान में जब संकल्प या कर्म की प्रेरणा का उद्भव होता है, तो तत्काल ही उस कर्म के कर्ता के रूप में अपनी स्वीकृति भी उत्पन्न होती है । यह स्वीकृति मिथ्या कल्पना या संकल्प की प्रतिक्रिया होती है। इसी स्वीकृति के कर्ता से अतिरिक्त अन्य तीन रूप क्रमशः भोक्ता, ज्ञाता तथा स्वामी की तरह अभिव्यक्त होते हैं और इसी का कुल परिणाम अहंकार का रूप लेता है । अहंकार इस तरह मूलतः मन की कल्पना है और इसलिए यद्यपि अमूर्त धारणा ही होता है, किन्तु वह स्वयं को मिटा भी नहीं सकता क्योंकि ऐसा प्रयास भी उस धारणा को और अधिक दृढ ही करता है ।

अभ्यास - संकल्प किसी न किसी तात्कालिक, अल्पकालिक या दीर्घ-कालिक लक्ष्य से संबद्ध होता है।

समय या काल - यह लक्ष्य जिसे सन्निकट / तात्कालिक, अल्प-कालिक, दीर्घ-कालिक कहा जाता है, उस काल अथवा समय की अवधारणा का जनक है, जो कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी की ही तरह एक कल्पना है, -न कि कोई वास्तविकता । कल्पना से ही काल की व्यापकता की और भी नई कल्पना प्रकट होती है जिसे स्थान / आकाश (Time-Space) कहा जाता है। 

(इसकी पुष्टि शिव-अथर्वशीर्ष के इस मन्त्र से भी होती है : अक्षरात्संजायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते.... व्यापकः हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो.... यदा शेते रुद्रो संहार्यते प्रजाः ... पुनः उस अविनाशी तत्व के उच्छ्वास से ही तम / अन्धकार या जड-तत्त्व के उद्भव के पश्चात् क्रमशः सृष्टि की अभिव्यक्ति होती है। उच्छ्वसिते तमो भवति तमस आपोऽप्स्वङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरे मथ्यमानं फेनं भवति ... फेनादण्डं भवत्यण्डाद् ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोरोङ्कार .... ॐकारात् सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति।)

रुद्र ही अक्षर और अविनाशी तत्त्व है, जिसका श्रीमदभगवद्गीता में उल्लेख :

अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।१७।।

(अध्याय २)

के रूप में किया गया है । इसकी तुलना भौतिकीविदों के द्वारा स्थापित  :

(Law of Conservation and indestructibility) 

से करना प्रासंगिक होगा। 

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