Thursday, 25 March 2021

Magnetism

Reading in :

अध्यात्म रामायण,

बालकाण्ड, 

प्रथम सर्ग,

रामहृदय, 

Came across this verse:

जगन्ति नित्यं परितो भ्रमन्ति 

यत्सन्निधौ चुम्बकलोहवद्धि। 

एतन्न जानन्ति विमूढचित्ताः

स्वाविद्यया संवृतमानसा ते।। १९

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चुम्बक के समीप होने पर जिस प्रकार जड लोहे में गतिशीलता उत्पन्न  हो जाती है, उसी प्रकार जिनकी सन्निधि मात्र से यह विश्व सदा सब ओर भ्रमता रहता है, उन परमात्मा राम को, वे मूढजन नहीं जान सकते, जिनका हृदय आत्मा के अज्ञान से ढका हुआ है ।

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इससे यही प्रमाणित होता है कि आज के वैज्ञानिकों से बहुत पहले ही ऋषि चुम्बकत्व के सिद्धान्त से परिचित थे ।

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Just as near a magnet, a piece of iron becomes so magnetised, this whole existence becomes alive in the vicinity of : 

The Supreme Parabrahman SriRam.

But the unfortunate ones, immersed deep in the ignorance of the Self, know Him not, and keep wondering in misery and dark.

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This points out :

  How long before the Physicists of the day, the ancient sages knew well about the magnetism!

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Wednesday, 24 March 2021

गौण और प्रधान,

सापेक्ष और निरपेक्ष 

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भगवत्कृपा से पिछले छः माह से उपनिषद् का पाठ कर रहा हूँ। 

प्रसंगवश, गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित ईशादि नौ उपनिषद् (66) मेरे पास है । उसी क्रम में पाठ / अध्ययन करते हुए कल रात्रि लगभग साढ़े नौ बजे ऐतरेय उपनिषद् का पाठ पूरा हुआ। 

इस उपनिषद् का प्रारंभ :

"ॐ आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्। 

नान्यत् किञ्चन मिषत् ।

स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति। " 

से होता है। 

इसका अंतिम मंत्र इस प्रकार से है :

"स एतेन प्रज्ञेनात्मनास्माल्लोकादुत्क्रम्यामुष्मिन्स्वर्गे लोके सर्वान् कामानाप्त्वामृतः समभवत्समभवत्।।"

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इस उपनिषद् के आरंभ से ही सृष्टि के विधान का वर्णन है। 

औपनिषदिक और वैदिक सिद्धान्त के अनुसार, अस्तित्व की रचना अथवा नाश नहीं होता और न अस्तित्व से भिन्न और पृथक् कोई ऐसी विशिष्ट सत्ता है जो अस्तित्व की रचना या विनाश करती है। 

केवल संस्कृत भाषा के अध्ययन के विशिष्ट प्रयोजन से एक मित्र के साथ यह पाठ आरंभ हुआ था। यह अध्ययन करते हुए अनेक प्रश्न उसके द्वारा किए गए जिनका उत्तर मैं सन्तोषप्रद तरीके से नहीं दे सका। 

विशेषतः उस आत्मा का स्वरूप क्या है, इसे स्पष्ट करना मेरे लिए सामर्थ्य से परे था।

कल (23-03-2021) की रात्रि में कुछ ऐसी ही मनःस्थिति में सो गया। 

आज ब्रह्म-मुहूर्त में दो तीन अद्भुत् स्वप्न आए :

पहला वही जो बचपन से आता रहा है और मुझे नहीं पता, कि कब तक आता रहेगा। उसका उल्लेख बाद में। किन्तु उसका संबंध बाद के दो स्वप्नों से होने के कारण केवल अपने संदर्भ के लिए ही यहाँ संकेत है। 

दूसरे स्वप्न में मैं किसी विचित्र लोक में भ्रमण कर रहा था जहाँ दूर दूर तक कोई बस्ती, गाँव, नगर आदि नहीं थे। केवल शुष्क धरती थी, जिस पर कोई वनस्पति आदि भी नहीं थी। 

कुछ विचित्र पशु अवश्य यहाँ-वहाँ भटक रहे थे ।

वास्तव में मुझे वहाँ बेचैनी तो उतनी नहीं थी जितनी कि उदासी थी । वह स्वप्न बीत गया और (शायद) पाँच-दस मिनट बाद एक स्वप्न आया, जिसमें मैं पुनः उसी उदास सी मनःस्थिति में कहीं ऐसे ही स्थान पर घूम रहा था। मेरे आसपास वे ही पशु भी थे,  जो आपस में झगड़ रहे थे। उनका ध्यान मुझ पर गया, तो वे वहाँ से इधर उधर चले गए। उनमें से एक पशु डायनोसोर जैसा था जिसकी गर्दन पर दोनों तरफ तीन चार हाथी के कान जैसे थे, जो भूरे रंग का था।। वे सभी जल्दी ही मुझसे दूर चले गए और मैंने अपने आप को एक बस्ती में पाया जहाँ चार-पाँच छोटे छोटे बालक थे। मैंने एक बालक से कहा:

"तुम लोग बहुत असुरक्षित हो, अपनी रक्षा के लिए तलवार रखा करो और उसे चलाना भी सीख लो।"

मेरे यह कहने का कारण सिर्फ यह था कि मुझे लग रहा था कि मैं उस स्वप्न में किसी 'भविष्य' में चला गया था। 

वे बच्चे मानों किसी आदिम युग के थे। 

फिर वे मुझसे हिन्दी में कुछ बातें करने लगे। 

बड़ी मुश्किल से हमारी बातें हो पा रही थीं ।

वहाँ सब घर मिट्टी-पत्थर से बने थे और आपस में बहुत सटे हुए थे।  वहाँ सड़क जैसा कुछ नहीं था। तब मैंने उस बच्चे से कहा :

"तुमने कार देखी होगी?"

उसे कुछ समझ में नहीं आया। फिर मैंने उसे बताया :

"कुछ समय पहले यहाँ बहुत चौडी़ सड़केंं थीं जिन पर कारें चलती थीं। तीन चार इस लेन पर, और तीन चार उस लेन पर।"

उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। 

फिर मैंने उससे पूछा :

"तुमने पिक्चर देखी है कभी?"

उसे यह सब समझना मुश्किल था। 

फिर मैं वहीं पास के घर के सामने पहुँचा जहाँ भगवान रावण (जी, भगवान रावण!) के बारे में कुछ लिखा था। वहाँ मेरी आयु का एक आदमी बैठा था जिसने कपाल पर लाल-पीले रंग का लेप किया था। 

वह बोला :

"हाँ,  मैंने ऐसे डब्बे देखे हैं जिनमें कोई आदमी बैठ जाता था ओर वह डब्बा चलने लगता था। उसका नाम 'ड्राइवर' था।"

उस आदमी से बातें करते हुए मैं उसे बताने लगा कि सब कुछ एक ही आत्मा है, जो निरपेक्ष होते हुए भी असंख्य सापेक्ष रूपों में व्यक्त होती रहती है। उसे ही प्रधान आत्मा भी कहते हैं, और वही असंख्य गौण आत्माओंं के रूप में एक दूसरे को और अपने आपको अलग अलग भी मान लेती है। 

वह आदमी मुझे आश्चर्य और कौतूहल से देखने लगा। 

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सुबह जब उस मित्र को स्वप्न बताया तो उसने कहा :

"आत्मा के बारे में तुम जो बात मुझे अब तक नहीं समझा सके, वह तुम्हारे स्वप्न के चार शब्दों (निरपेक्ष-सापेक्ष, प्रधान-गौण) से मुझे पूरी तरह समझ में आ गई!"

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अब पुनः पहले स्वप्न के बारे में :

मुझे कभी कभी नींद में स्वप्न जैसा कुछ अनुभव होता है, जहाँ मुझे लगता है कि मेरी मृत्यु हो चुकी है,  किन्तु फिर जाग जाने पर समझ में आता है कि मैं अभी जीवित हूँ और यह स्वप्न ही था। 

इसलिए मुझे लगता है कि मृत्यु से पहले पता नहीं कितनी बार मुझे फिर फिर यह स्वप्न आता रहेगा। 

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Tuesday, 23 March 2021

ऐतरेय उपनिषद् / कोऽहम्?

(स आत्मा वा पुरुषऽयम्।)

स ईक्षत कथं न्विदं मदृते स्यादिति 

स ईक्षत कतरेण प्रपद्या इति ।

स ईक्षत यदि वाचाभिव्याहृतं कोऽहम् ?--

यदि प्राणेनाभिप्राणितं यदि चक्षुषा दृष्टं 

यदि श्रोत्रेण श्रुतं यदि त्वचा स्पृष्टं 

यदि मनसा ध्यातं यद्यपानेनाभ्यपानितं 

यदि शिश्नेन विसृष्टमथ कोऽहमिति ।।११

(अध्याय १, खण्ड ३)

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सः ईक्षतः (?) कथं नु इदं 

मत् ऋते स्यात् इति 

स ईक्षतः (?) कतरेण प्रपद्यै इति। 

स ईक्षतः (?) यदि वाचा अभिव्याहृतं 

यदि प्राणेन अभिप्राणितं 

यदि चक्षुषा दृष्टं 

यदि मनसा ध्यातं 

यदि अपानेन अभ्यपानितं 

यदि शिश्नेन विसृष्टं अथ

कः अहं इति। 

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स एतमेव सीमानं विदार्यैतया द्वारा प्रापद्यत। 

सैषा विदृतिर्नाम द्वास्तदेतन्नान्दनम् ।

तस्य त्रय आवसथास्त्रयः स्वप्नाः ।

अयमावसथोऽयमावसथोऽयमावसथ इति ।।१२

(अध्याय १, खण्ड ३)

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सः एतं एव सीमानं विदार्य एतया द्वारा प्रापद्यत। 

सा एषा विदृतिः नाम द्वाः तत् एतत् नान्दनम्। 

तस्य त्रयः आवसथाः त्रयः स्वप्नाः। 

अयं आवसथः अयं आवसथः अयं आवसथः इति।। 

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स जातो  भूतान्यभिव्यैख्यत् किमिहान्यं वावदिषदिति। 

स एतमेव पुरुषं ब्रह्म ततममपश्यत् ।

इदमदर्शमिति३ ।। १३

(अध्याय १, खण्ड ३)

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सः जातः भूतादि अभिव्यैख्यत किं इह अन्यं वा अवदिषत् इति। सः एतं एव पुरुषं ब्रह्म ततमं अपश्यत्। 

इदं अदर्शं इति।। 

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तस्मादिदन्द्रो नामेदन्द्रो ह वै नाम तमिदन्द्रं सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते परोक्षेण । 

परोक्षप्रिया इव  हि देवाः परोक्षप्रिया इव हि देवाः।। १४

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तस्मात् इदन्द्रो नाम ह वै नाम तं इन्द्रं सन्तं इन्द्रः इति आचक्षते परोक्षेण। परोक्षप्रियाः इव हि देवाः परोक्षप्रियाः इव हि देवाः।। 

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केनोपनिषद् :

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तस्माद् वा इन्द्रोऽतितरामिवान्यान् देवान् स ह्येन्नेदिष्ठं पस्पर्श, स ह्येनत् प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति।। ३

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तस्मात् वा इन्द्रः अतितराम् इव अन्यान् देवान् सः हि एनत् नेदिष्ठं पस्पर्श, सः हि एनत् प्रथमः विदाञ्चकार ब्रह्म इति।। 

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Monday, 22 March 2021

क्यों और किसे?

किसी स्थिति,  प्रश्न या समस्या का सामना करने पर प्रायः हर कोई बहुत गंभीरता से उसके सभी कारणों पर चिन्तन कर सकता है। फिर भी संभव है कि बहुत से कारणों की उसे कल्पना तक नहीं होती या वह उन कारणों के संबंध में जान बूझकर अनभिज्ञ दिखाई देने का प्रयास करता है। 

सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है संप्रेषणीयता का अभाव या  "communication gap",

जिसके कारण यद्यपि हम सौहार्दपूर्वक परस्पर किसी विषय पर   बातचीत तो करते हैं, किन्तु हमारे मन मूल समस्या की उपेक्षा करते रहते हैं।  हमें अपने अज्ञान का आभास भी नहीं होता,  इसलिए सारी बातचीत व्यर्थ और समय का अपव्यय होती है। 

एक उदाहरण के लिए, भय के विषय में चिन्तन करें, तो बड़े बड़े विद्वान 

'भय दूर कैसे किया जाए?' 

इस पर बहुत तर्कपूर्ण ढंग से समझाते हैं।

मनोवैज्ञानिक "fobia" के अनेक प्रकारों की विस्तारपूर्वक विवेचना और विश्लेषण करते हैं। 

Claustrophobia, -fear of closed spaces, 

or fear of open spaces,

भय का एक रूप है। 

तथाकथित शास्त्रवेत्ता 'मृत्यु-भय' पर इसी प्रकार से विवेचना करते हैं। नास्तिक या आस्तिक भी मृत्यु क्या है और मृत्यु के बाद हमारा क्या होता है इस बारे में बहुत अध्ययन और परस्पर वैचारिक संवाद इत्यादि करते हैं । 

'कठोपनिषद्' या 'गरुडपुराण' तो अत्यन्त रोचक तरीके से इस विषय में उपदेश / शिक्षा प्रदान करते हैं। 

सभी विद्वान इस प्रकार 'भय' के बड़े बड़े विशेषज्ञ होते हैं किन्तु क्या फिर भी वे संशयरहित हो पाते हैं? 

वे निरन्तर भय के बारे में किन्हीं मान्यताओं से बन्धे होते हैं।  'भय' के इस प्रश्न पर चिन्तन करने के हमारे तरीके में मूलतः ही तो कहीं त्रुटि नहीं है? 

स्पष्ट है कि जिन विषयों में हम भयभीत होते हैं वे अनेक होते हैं। किसी को कुत्तों से डर लगता है तो किसी को बिल्ली से, किसी को अंधेरे से डर लगता है तो किसी को भीड़ से। किसी को समाज से डर लगता है तो किसी को निर्धन हो जाने से। किसी को दूसरों से डर लगता है तो किसी को नाते-रिश्तों से। किसी को भविष्य से डर लगता है तो किसी को भूत से! किसी को कल्पना से डर लगता है तो किसी को वास्तविकता से। सभी के अपने अपने डर होते हैं। किसी को सपने से डर लगता है तो किसी को सोने से। कभी इस बात या कारण से डर लगता है तो कभी उस बात से। 

बहुत से लोग हत्या करने की कल्पना तक करने से डरते हैं तो बहुत से आत्महत्या करने तक के बारे में सोचने से नहीं डरते। 

क्या इन सब भयों (से मुक्ति) के संबंध में क्या किया जाना चाहिए या किया जा सकता है, इसका कोई सुनिश्चित तय उत्तर हो सकता है? 

फिर भी यह प्रश्न कि  यह प्रश्न कि 

'भय किसे है?'

शायद हमें इस बारे में कोई उपयोगी सूत्र या संकेत अवश्य दे सकता है। 

हाँ शायद आपको हँसी आ रही होगी! 

किन्तु थोड़ा ध्यान दें तो दिखलाई देगा कि भय 'मुझे' ही तो लगता है!

"यह भी कोई उत्तर हुआ?"

किन्तु और भी अधिक ध्यान से देखें तो यह समझना रोचक भी हो सकता है कि भय का उद्गम और अभिव्यक्ति हमारे अपने ही भीतर, और भीतर से है।

तात्पर्य है वह 'चेतना' जो हम हैं। 

'चेतना' को हम 'मन' मान लेते हैं,  जो मूलतः हमारी एक भ्रामक कल्पना / मान्यता ही तो है! 

एक ओर तो हम अपने आपको 'मन' कहते-समझते हैं, तो दूसरी ओर अपने इसी 'मन' को अकसर ही 'मेरा मन' भी कहते और समझ बैठते हैं। 

थोड़ा ध्यान से देखें तो यह समझना आसान है कि हम 'मन' नहीं, जो कि सतत बदलता रहता है । इसी 'मन' की पृष्ठभूमि में जो चेतना अथवा अपने 'होने-मात्र' का सहज और स्वाभाविक भान है,  जिसे हमने कहीं और से प्राप्त नहीं किया, वही हमारी वास्तविकता है। 

यदि इस तरह से देखें तो यह तो 'मन' ही है जो बदलती स्थितियों के साथ बदलता हुआ कभी भयभीत तो कभी निर्भय, कभी उत्साहित तो कभी अवसादयुक्त होता रहता है। कभी चिन्तित, कभी व्याकुल, कभी जडवत, कभी 'सफल' या 'असफल' होता है। 

क्या वह पृष्ठभूमि, जिसमें यह सतत बदलता 'मन' सतत ही भिन्न भिन्न रूप ग्रहण करता है, 'मन' के इन अनेक रूपों से रंचमात्र भी प्रभावित होती है?

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Thursday, 18 March 2021

The Brahman


Courtesy : Vandana Goel.

 ब्रह्मन् 

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The tetrahedron I have described in my last post could be a good example to represent the idea of Brahman. 

(Interestingly, here I have been suggested the word "Phoenix"! My AI hints that every word I write with meaning of the whole sentence is carefully monitored by some machine or man. Doesn't matter!)

The Brahman, the Atman (the Self) and the Supreme Reality are said to be devoid of the 3 kinds of distinctions pertaining to everything else.

Though Brahmasutra candidly explains that what we call "everything else" could again be seen rooted in this "Brahman" only.

There I would like to compare this word as an analogy to the tetrahedron, the model I used for discussing this whole matter of

"Life and Living".

Just as the  tetrahedron could be synonymous with "Brahman", we can see how " ego" may be of the "self" / the individual living being.

The Self on the other hand is the totality of all such "selves" and their collective world.

Individually though each and every individual experiences the three states of "Life and Living", the "world" experienced during these 3 states is shared by them in their waking state only. 

This doesn't explain very satisfactorily, if the other two (mental) states of the individual could be dealt with with reference to, and on the basis  of that criteria.

However. The Dharma is what could be indicated by the other 3 faces of our model.

The concept of Dharma is akin to nature. 

So each and everything without exception and without fail obeys the "Laws of nature" which a scientist tries to discover. Of course, this again points out that he has a perfect conviction that there is something, an "Intelligence Supreme", that governs the nature and has its own charter of such laws that are strictly followed by the subjects under its Governance. 

This is enough reason to hypothesise there is such an entity Utmost Intelligent.

This leads to the conclusion that there is this Supreme Intelligence / God, whatever name it is given.

So there comes an idea that this entity could possibly be known in terms of "discovery" or "Realization".

The problem then is :

If this like Brahman or Atman, is devoid of parts and distinctions, how and who other than Itself  could "know" or "discover" this "Reality", because It is neither an individual nor a collective (like the collective of individual beings in their waking state where they experience the "world".

Whatever be the case, some may think there is possibly a way to "GOD-REALIZATION". They may claim and believe their own version of such a Reality. 

This could represent another face of our model.

There could be many others (individuals) who would instead like to question about the Reality / validity if the "self" / "Individual".

They may try to find out :

"SELF-REALIZATION".

Still there are some who are bogged and exasperatedly try to be free (of sorrow,  misery, and this whole chaos, situation, though they have no clue / inkling, exactly "who" will be "free", and in what form will be this

"LIBERATION " 

when they have attained this.)

This could be likened to the fourth face of this TETRAHEDRON.

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Wednesday, 17 March 2021

The tetrahedron

Let us imagine a regular tetrahedron with 4 identical triangles as its 4 faces.

"GOD-REALIZATION" has been written on 

Face One.

"SELF-REALIZATION" on 

Face Two. 

"LIBERATION" on 

Face Three.

And "EGO" on

Face Four. 

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Given that,

All these are mutually exclusive, and you can attain only one of them by touching with your finger. 

What will you opt for?

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Or,  could you perhaps find some way, if all of them could be attained by attainment of any of them ?

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Saturday, 13 March 2021

406, अनन्यत्वमधिष्ठानात्

अनन्यत्वमधिष्ठानादारोप्यस्य निरीक्षितम्।

पण्डितै रज्जुसर्पादौ विकल्पो भ्रान्तिजीवनः।। ४०६

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अनन्यत्वं अधिष्ठानात् आरोप्यस्य निरीक्षितम्। 

पण्डितैः रज्जु-सर्प-आदौ विकल्पः भ्रान्ति-जीवनः ।।

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अधिष्ठान पर जिसे आरोपित किया जाता है, उस आरोपित को अधिष्ठान से अनन्य मान लिया जाना ही, आरोपित की सत्यता के आभास के उत्पन्न होने का कारण होता है। 

पण्डितों के अनुसार, रज्जु में आरोपित सर्प को सत्य मान लेना ही, वैकल्पिक सर्प के सत्य होने का भ्रम पैदा करता है।

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Seeing an image superimposed upon an object causes the illusion that the image has its own reality quite different and independent of the object (which is completely forgotten), and the image appears to be the only reality.

According to the wise, the assumed reality of the superimposed image, is itself the cause of this illusion.

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विवेकचूडामणि / vivekacUDAmaNi

About a week ago, started this new blog in blogger.

38 posts written so far.

Contains the verses in Sanskrit, the translation into Hindi and English, with occasional comments.

कुछ दिनों पहले यह ब्लॉग लिखना शुरू किया है। 

मूल संस्कृत श्लोक, अन्वय, तथा हिन्दी व अंग्रेजी में भावार्थ है। 

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May take some 3-4 months to complete.

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Wednesday, 10 March 2021

उपाधिः

उपाधिः उपमानेव मीमान्सयानुमीयते। 

अतः भवति माया विलासमात्रः बुद्धेर्या ।।१

कल्पनयाप्रेरिता सा सृजत्यावरणविक्षेपौ ।

प्रमादानवधानतया भवति सैव स्मृतिदोषापि।।२

जीवभावः तथा एव भ्रान्त्या सृजित कल्पना।

जीवभावः उपाधिः अतोऽसौ भ्रान्तकल्पना।।३

तथा हि ईश्वरोऽपि स्यात् यो गृह्यते परात्मवत् ।

एवमेव अभेदात्मनि उपाधिभेदं तत्मिथ्या।। ४

केन वा कथं लभ्यो कदा वा लब्धवानहम्। 

इति आशङ्कया आशा या मिथ्याभासैव च।। ५

कोऽहमिति विचारेण लीयते तदात्म-कल्पना। 

अपि लीयते च भेदं तत् यदात्मपरात्मयोः।। ६

एवं हि ज्ञात्वा स्वात्मानं तथात्मनि रमते इहैव ।

स हि भवेद्ब्रह्मविच्च सैव आत्मवेत्ता तथा।। ७

इति यद्रचितं अत्र एतत् जीवभावेन । 

न बुद्धिविलासं तु अपि च तद्विवेकैव ।। ८

ये पठन्ति इदमष्टकं प्रमादरहितं भूत्वा ।

सावधानेन गृहीत्वा च तेषां शान्तिर्भविष्यति।। 

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Monday, 8 March 2021

चिदाभास और चित्

Reading this :

आविः संनिहितं गुहाचरं नाम महत्पदमत्रैतत्समर्पितम्। 

एजत्प्राणन्निमिषच्च यदेतज्जानथ सदसद्वरेण्यं परं विज्ञानाद्वरिष्ठं प्रजानाम्।। १ ।।

(मुण्डकोपनिषद् २/२)

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Trying to split this as under :

आविः संनिहितं गुहाचरं नाम महत्पदं अत्र एतत् समर्पितम्।

एजत् प्राणन् निमिषत् च यत् एतत् जानथ सत् असत् वरेण्यं परं विज्ञानात् यत् वरिष्ठं प्रजानाम्।। 

आवि: = प्रत्यक्ष (जैसा कि 'आविर्भूतः' में इसका अर्थ है),

संनिहितं = सूक्ष्म रूप से अन्तर्निहित, 

(नपुं. प्रथमा, पुं.द्वितीया एकवचन) 

गुहाचरं नाम = जिसका नाम गुहाचर है,

(गुहाचरं > पुं. द्वितीया एकवचन, नाम नपुं. प्रथमा / द्वितीया एकवचन)

महत्पदं = जो वह उच्च पद / स्थान है,

(प्रथमा / द्वितीया एकवचन) 

अत्र = यहाँ,

एतत् = यह / इसको,  (प्रथमा,  द्वितीया एकवचन) 

समर्पितम् = दिया गया है। 

अर्थ :

हृदय में जो संनिहित अन्तरात्मा है, इस श्रेष्ठ / सर्वोपरि स्थान पर विराजमान उस (पुरुष) आत्मा को "गुहाचर" नाम प्रदान किया गया है।

इसे गतिशील, प्राणों से युक्त हुआ तथा नेत्र बंद करने / खोलनेवाले की तरह जानो।

यह सत् एवं असत् दोनों ही से अन्य, उनसे पूर्व से ही विद्यमान होने से इसे प्रथम, उनसे वरिष्ठ जानो।

इस प्रकार  यह वैयक्तिक आत्मा (individual self) अन्य सभी से अधिक महत्वपूर्ण है। 

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यहाँ तक की विवेचना से स्पष्ट हुआ कि यह पुरुष "मिथ्या अहं" अर्थात् "चिदाभास" है। इसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हो सकता ओर यह किसी स्वतंत्र स्रोत से सतत प्रकट और अप्रकट होते रहकर अपने आपको एक स्वतंत्र सत्ता मान लेता है। इस प्रकार से इसके स्वरूप को जानकर इसके स्रोत पर दृढ रहने पर अंततः यह विलीन हो जाता है और आत्मा का सत्य अपने पूर्ण प्रकाश से ज्योतित होकर एकमेव सत् की तरह आत्मा में ही रमण करता है। 

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Tuesday, 2 March 2021

The Four Pillars of Ego.

प्रश्नोपनिषद् 

तृतीय प्रश्न :

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अथ हैनं कौसल्याश्चाश्वलायनः पप्रच्छ :

भगवन्कुत एष प्राणो जायते कथमायात्यस्मिञ्शरीर आत्मानं वा प्रविभज्य कथं प्रातिष्ठते केनोत्क्रमते कथं बाह्यमभिधत्ते कथ-मध्यात्ममिति ।। १ ।।

तस्मै स होवाचातिप्रश्नान्पृच्छसि ब्रह्मिष्ठोऽसीति तस्मात्तेऽहं ब्रवीमि।। २ ।।

आत्मन एष प्राणो जायते यथैषा पुरुषे छायैतस्मिन्नेतदाततं मनोकृतेनायात्यस्मिञ्शरीरे।। ३ ।।

[अथ ह एनम् कौसल्यः च आश्वलायनः पप्रच्छ :

भगवन्!  कुतः एषः प्राणः जायते कथं आयाति अस्मिन् शरीरे आत्मानं वा प्रविभज्य कथं प्रातिष्ठते केन उत्क्रमते कथं बाह्यं अभिधत्ते कथं अध्यात्मं इति ... १

तस्मै सः ह उवाच :

अतिप्रश्नान् पृच्छसि ब्रह्मिष्ठः असि तस्मात् ते अहं ब्रवीमि ... २

आत्मनः एषः प्राणः जायते यथा एषा पुरुषे छाया एतस्मिन् एतत् आततं मनोकृतेन आयाति अस्मिन् शरीरे. ... ३ ]

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तब कौसल्य आश्वलायन ने प्रश्न पूछा :

भगवान्! यह प्राण कहाँ से उत्पन्न होता है, इस शरीर में कहाँ से आता है अथवा अपने-आपको प्रविभक्त कर कैसे उस तरह से स्थापित करता है, किससे निर्देशित होकर (शरीर से) उत्क्रमण करता है, किस प्रकार से (आत्मा / अपने) से बाहर (प्रतीत होनेवाले) तथा (अपने भीतर के) अन्तःकरण आदि को धारण करता है?... (यह मेरा प्रश्न है।)

उसे अर्थात् कौसल्य आश्वलायन से महर्षि पिप्पलाद ने कहा:

तुम अतिप्रश्न (मर्यादा से बाहर का प्रश्न) पूछ रहे हो।

किन्तु चूँकि तुम्हारी ब्रह्म में निष्ठा है अतः मैं तुमसे कहता हूँ। 

आत्मा / (अहंकार) से ही यह प्राण उत्पन्न होता है, जैसे मनुष्य की छाया उस मनुष्य (के प्रकाश को अवरुद्ध किए जाने) से ही उत्पन्न होती है और वस्तुतः जिसका अपना, मनुष्य से स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता, और जो केवल अभावात्मक होती है, उसी प्रकार से इस शरीर में मन के द्वारा किए गए संकल्प से यह प्रतीत होता है।

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दोपहर 01:00 बजे उस छात्र का कॉल आया था :

"सर, आप फ्री हैं?"

वह उपरोक्त उपनिषद् का अध्ययन कर रहा है ।

इन तीन मंत्रों का पाठ हम कर चुके हैं।

उस समय मैं व्यस्त था । अतः उससे कहा कि एक घंटे के बाद शायद फ्री हो सकूँगा। किन्तु साढ़े तीन-चार बजे तक व्यस्त रहा। फिर उसे मेसेज किया कि मैं अब फ्री हूँ। 

उक्त उपनिषद् और एक अन्य ग्रन्थ पास रखकर उसके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। (जैसा कि) प्रमाद और अनवधानता से अभ्यास हो जाता है, -मन में विचार उत्पन्न हुआ कि बैठे बैठे क्या करूँ?

मन इसी प्रकार कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व तथा ज्ञातृत्व इन चारों प्रकार से सतत अहंकार के रूप में अस्तित्वमान (प्रतीत) होता  है। 

यही, मन / अपने-आप को निरंतर बनाए रखने की अहंकार की रणनीति (strategy) होती है। 

अवधान इस रणनीति को ध्वस्त कर देता है। 

यह पोस्ट लिखे जाने तक मेरे मेसेज का कोई उत्तर नहीं आया है। किन्तु इस बहाने से बैठे बैठे समय का सदुपयोग हो गया! 

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