Monday, 27 January 2020

शास्त्राधीतिस्तु निष्फला

स्वाध्यासापनयं / स्व-अध्यास-अपनयम् 
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अविज्ञाते परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला।
विज्ञातेऽपि परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला।।59
लोकानुवर्तनं त्यक्त्वा त्यक्त्वा देहानुवर्तनम्।
शास्त्रानुवर्तनं त्यक्त्वा स्वाध्यासापनयं कुरु।।270
लोकवासनया जन्तोः शास्त्रवासनयाापि च।
देहवासनया ज्ञानं यथावन्नैव जायते।।271
(विवेक-चूडामणि) 
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शास्त्रानाम् अधि+इति इति अधीतिः।
के अनुसार शास्त्र में पारङ्गत होने का अर्थ है शास्त्रों के अथ और समाप्ति से पार होना।
सामान्यतः 'अधीतिः' का अर्थ होता है -'अध्ययन करना' ।
फिर शास्त्रों का प्रयोजन क्या है?
वे केवल उपकरण (सहायक साधन) हैं।
स्व का अध्यास अर्थात् 'स्व' जो पूर्व से है / था; -उस तक पहुँचने के लिए, -उसका आविष्कार करने और विवेक के अभाव में जिसे बुद्धि में 'स्व' की तरह ग्रहण कर लिया जाता है उस अध्यास (तादात्म्य) को दूर करने के लिए शास्त्र का प्रयोजन है।
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जीवन क्या है?

शिव-शक्ति की क्रीडा
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The immutable (अविकारी / स्वरूप) is सार / शिव।
The changing / phenomenal is प्रकृति / शक्ति।
These are but two aspects of the One (?) Reality.
श्री देवी अथर्वशीर्ष में देवी (शक्ति) कहती है,:
मैं एक हूँ, मैं एक नहीं (अनेक) हूँ, मैं शून्या हूँ, मैं अशून्या हूँ।
शून्य के दो अर्थ होते हैं :
एक अभाव (absence) तो दूसरा संख्या की तरह।
अभाव वाला शून्य किसी चीज़ / सत्ता के अभाव का द्योतक है, जबकि संख्यावाला शून्य केवल गणितीय device है जो किसी संख्या में से उसी संख्या को घटाने से पाया जाता है।
इस तरीके से गणित का तथाकथित विकास (manifestation) होता है किन्तु इसीलिए वह सत्य (शिव) का स्थान नहीं ले सकता।
इसीलिए सभी पुराण भी किसी दृष्टि से सत्य हैं, तो दूसरी किसी दृष्टि से कल्पना मात्र है;
-परम सत्य तो शिव ही है।
और शिव भी शक्ति के बिना शव जैसा निष्क्रिय है।
किन्तु क्या कोई शव स्वयं के शव होने को announce करता है?
कोई दूसरा चेतन तत्व / मनुष्य ही उसे 'शव' कहता है।
क्या चेतन तत्व स्वयं ही नित्य जीवन नहीं है?
और जीवन की पहचान हमेशा या तो शिव की तरह, या शक्ति की तरह ही होती है।
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Links within :
शून्य-लक्षणं / śūnya-lakṣaṇaṃ,
शून्यमाहात्म्यम्-स्तोत्रम् / śūnyamāhātmyam-stotram,
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A Corollary

Newton and Einstein.
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Yesterday I came across a post on net (Perhaps at P.Gurus) that claimed that These 2 Physicists have been proved wrong.
I'd rather say, they and all Mathematicians and Physicists were / are neither wrong nor right.
Just as in the last post I've pointed out how Time and Space are notions only.
Like a dream you could 'interpret' a concept / notion / hypothesis in as many ways as possible.
All are right in one perspective while in yet another they hold not.
Though Sri Nisargadatta Maharaj has very clearly pointed out to this, I in my last post stumbled upon this and found out a rather newer angle to the same.
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As a matter of fact, the last post was originally written in response to some-one who had asked me to interpret a dream. And occasionally this turned out to be in a quite different genre.
I, however cannot say how far the questioner was satisfied with my response.
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Of Dreams and Lives.

Not Incoherent .
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So you had a dream that lasted for 3 successive days and nights (or 72 hours), yet with reference to our time-scale while we are waking, took hardly a few minutes only!
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Now this looks quite coherent !
Truly, a dream while takes place, can extend to as much longer as a second, a minute, hour or days.
A dream could last for even longer than this, and may go on for days and weeks, years and many a life-times.
Not only that but beyond as well.
Literally, you can go many deaths and re-births during a dream which; - when you wake up, in your perception think or believe, could have lasted for a few minutes or hours. 
The time-scale in a dream could be quite incompatible (and may not be comparable) with the time-scale that looks REAL to us during our waking state.
But because of our habit of taking time as of a linear experience, we fail to see how time as an inference / concept is itself a notion only.
This notion soon and frequently vanishes / disappears every time when-ever we go to sleep and enter a dream.
Still our belief of linearity of time  in us is ingrained so hard that every time after waking up, we think the dream was but a mind-made picture for a short-while only.
So, what do you think of dreams that take place while we are asleep, or the events that we think happen during our waking hours?
The events that happen in our waking state are as much non-existent as are the dreams that we think afterwards.
The key-point in the above explanation that needs to be noted is that in every experience at any level, the notion of 'me' gets translated into an assumed entity that goes through the experience.
This entity that goes to numerous experiences is itself a time-born event and has no essence of itself.
But through the thread of memory, the 'me' is taken as if it is a Reality and this Reality continues through-out this phenomenon.
This 'me' that is often re-affirmed repeatedly is itself the beginning of illusion.
Memory causes the illusion / idea that this 'me' is independent of the various experiences and the same 'me' runs like a thread in a garland where experiences are strung in upon it.
This is the idea that no one can ever get rid of.
For the very fact that though it is created every time anew, it soon gets vanished too.
Only in understanding this fact this idea gets dissolved.
You are still the consciousness where-in 'others' too are persons like you.
And the whole thing (life) is but a drama in this way.
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Monday, 20 January 2020

लिङ्ग-माहात्म्य / String-Theory

शिव-तत्व-विज्ञान
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स्कन्द पुराण में वर्णन है कि किस प्रकार शिव-लिङ्ग की पूजा इन्द्र से लेकर अग्नि, वायु, आकाश, वरुण, सोम, सुर-असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस आदि करते हैं। फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है!
मूलतः शिव वास्तु-पुरुष हैं।
जिस प्रकार किसी भी वस्तु / स्थान शरीर में उसका अधिष्ठाता देवता उसका स्वामी होता है, उसी प्रकार शिव इस समस्त चराचर विश्व के वास्तु-पुरुष हैं।
जब शिव की प्रतिमा को लिङ्ग कहा जाता है तो वह उस प्रतिमा / वास्तु के वास्तु-पुरुष का द्योतक होता है।
इस प्रकार प्रत्येक प्रतिमा शिव-लिङ्ग ही है, चाहे वह काली, दुर्गा या राधा-कृष्ण आदि की क्यों न हो।
शिव और शक्ति एक ही परमेश्वर की दो अभिव्यक्तियाँ हैं।
जहाँ शिव को पर्वत (मान्धाता, अरुणाचल) आदि रूपों में पर्वत की तरह पूजा जाता है वहीं शक्ति को नदियों तथा भूमि के रूप में। किसी भी देवता की पूजा आराधना करने के लिए उसकी प्रतिमा उपलब्ध न होने पर सुपारी या किसी भी पत्थर आदि में उसकी भावना करते हुए आवाहन एवं प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है।
ऐसा समझा जाता है कि मूर्ति या प्रतिमा की पूजा केवल हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख आदि सम्प्रदायों में ही की जाती है, किन्तु सनातन धर्म से भिन्न मत वाले भी किसी न किसी रूप में किसी स्थान, पर्वत या नदी आदि को पवित्र मानकर उसकी विधिपूर्वक प्रदक्षिणा आदि करते हैं।
अभी तो इस बात पर ध्यान दें कि कोई प्रतिमा स्वयं ही परमेश्वर का लक्षण / लिङ्ग होती है।
जिस प्रकार कोई बालुका-राशि से शिव-लिङ्ग बनाकर उसकी पूजा करता है, तो कोई स्वर्ण, रजत या पत्थर, लकड़ी (काष्ठ) आदि से बनी ऐसी प्रतिमा का पूजन बस उसे नाम कुछ और देकर करता है। यहाँ तक कि पारद के शिव-लिङ्ग की उपासना अत्यंत फलप्रद मानी जाती है।  बाबा अमरनाथ की प्रतिमा हिम-लिङ्ग की होती है।
किसी शिव-क्षेत्र (जैसे तिरुवन्नामलै) के चारों ओर आठ शिवलिङ्ग स्थापित होते हैं।
नव-ग्रहों की पूजा भी केवल शिव-लिङ्ग के स्वरूप में की जाती है।
यहाँ ध्यातव्य है कि लिङ्ग स्वयं एक पिण्ड की तरह होता है।
पिण्ड का अर्थ है संघनित पदार्थ।  किन्तु शिव को ज्योतिर्लिङ्ग की तरह प्रकाश के स्तम्भ-रूप की तरह माना जाता है। कोई संघनित (condensed) पदार्थ (matter) जब एक ढेर के रूप में रखा जाता है तो वह स्वयं ही लिङ्ग की तरह होता है, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण का बल उसके गुरुत्व-केंद्र को निम्नतम बिंदु पर रखते हुए उसे स्थैतिक (static) स्थिति में रखता है।
अब भौतिक-शास्त्र (Physics) के अंतर्गत जिन शक्तियों के स्वरूप और व्यवहार का अध्ययन किया जाता है वे क्रमशः निम्न हैं :
1 गुरुत्वाकर्षण (Gravitation),
2 ताप / ऊष्मा (Heat),
3 ध्वनि (Sound) और प्रकाश  (Light),
4. चुम्बकत्व (Magnetism),
5 विद्युत्-शक्ति (Electricity),
और
6. नाभिकीय शक्ति (Nuclear Power).
उपरोक्त किसी भी शक्ति का क्षेत्र होता है जिसमें उसका बल कार्यशील होता है।
हम जानते हैं कि अंतरिक्ष में जहाँ दो से अधिक ठोस पिण्ड इतने निकट होते हैं कि उनके शक्ति-क्षेत्र (Field) परस्पर स्पर्श करते हैं, तो सर्वाधिक बड़ा पिंड ही शेष पिंडों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। इसी लिए इस शक्ति / बल को गुरुत्वाकर्षण कहा जाता है।
हमारे सौर-मण्डल में भी यही सिद्धांत काम करता है।
यदि विज्ञान की अधुनातन अवधारणाओं पर ध्यान दें तो कहा जाता है कि इस भौतिक संसार का प्रारम्भ किसी Big-Bang से हुआ था। इस प्रकार संसार का समस्त द्रव्य (matter) जो पहले कभी संघनित- रूप  (condensed form) में था, विस्फोट के बाद सभी दिशाओं में भागने लगा। 'सभी' का तात्पर्य है न केवल उत्तर, दक्षिण पूर्व और पश्चिम बल्कि ऊर्ध्व (ऊपर) और अधो (नीचे की) दिशाओं में भी; -यद्यपि अंतरिक्ष में ऊपर-नीचे कहना अर्थहीन है।
इस प्रकार वह पिण्ड जिसे 'सूर्य' कहा जाता है, उसके आसपास के अपेक्षाकृत छोटे पिण्ड जिन्हें क्रमशः बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, और शनि आदि ग्रह भी विभिन्न दिशाओं में जा रहे थे किन्तु सूर्य के अपेक्षाकृत प्रबल गुरुत्वाकर्षण में फँसकर वैसे ही उसके इर्द-गिर्द परिक्रमा करने लगे जैसे किसी अदृश्य डोरी से सूर्य से बँधे हों।
जैसे किसी डोरी में एक पत्थर बाँधकर उसे तेजी से घुमाया जाए तो वह डोरी से बँधा होने से दूर नहीं जा सकता किन्तु डोरी में तनाव का बल उसे एक घेरे / वृत्त में परिक्रमा के लिए बाध्य कर देता है।
[इस बारे में पहले कभी इसी ब्लॉग में लिख चुका हूँ कि सौरमण्डल (देवलोक) चपटा है, और त्रिशंकु को किस प्रकार ऋषि विश्वामित्र ने इस चपटे तल से बाहर स्थापित किया।
प्रमाण वाल्मीकि-रामायण से उद्धृत किए हैं।
इस प्रकार धरती / 'संसार' गोल हो या नहीं यह भिन्न-भिन्न प्रकार से तय किया जा सकता है, किन्तु चपटा अवश्य है।]
विभिन्न ग्रह सूर्य के इर्द-गिर्द जिस प्रकार परिक्रमा करते हैं वह मानों एक ही डोरी में भिन्न-भिन्न दूरी पर बँधे सात पत्थरों को तेजी से घुमाने की तरह है।  वे सभी एक ही सतह (plane) में होंगे।
इस प्रकार हमें गुरुत्वाकर्षण-बल की एक स्ट्रिंग-थ्योरी प्राप्त होती है।
न सिर्फ सौरमंडल के ग्रह बल्कि उन ग्रहों के उपग्रह / चन्द्रमा भी इसी प्रकार अपने-अपने ग्रह के चारों ओर घूमते रहने के लिए बाध्य हैं।
शिव-लिङ्ग इस प्रकार जिस तत्व, पदार्थ, धातु, पत्थर, पारद, सोना, बालुका या काष्ठ से बना होता है उसी पदार्थ को आकर्षित करता है।  यह विचारणीय है कि पारद-शिवलिङ्ग की महिमा इतनी अधिक क्यों है।
चूँकि पारे में प्रायः सभी धातुएँ घुलकर amalgam बनाती हैं इसलिए पारद शिवलिङ्ग अवश्य ही सभी धातुओं अर्थात् मूल्यवान धातुओं को भी आकर्षित करेगा।  और इसलिए इसकी उपासना का यह फल हो सकता है।
मूल प्रश्न है भावना का।
प्रसंगवश एक लघुकथा प्रस्तुत है :
सृष्टि हो जाने के बाद अदिति से 'भावना' (emotions and feelings) का जन्म हुआ और इसी प्रकार दिति से विचार  (intellect) का जन्म हुआ।
उन दोनों के मिलने पर उनके पुत्र संकल्प का जन्म हुआ।
इसलिए संकल्प में भावना और विचार दोनों पाए जा सकते हैं किन्तु यह इस पर भी निर्भर करता है कि वे किस अनुपात में हैं।
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परसों ही किसी से फ़ोन पर इस बारे में बतला रहा था कि इस तथ्य का रोचक वर्णन मुण्डकोपनिषद् में किस तरह किया गया है :
यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च
यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति।
यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि
तथाक्षरात्सम्भवन्तीह  विश्वम्।।७
(मुण्डक १, खण्ड १)
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Sunday, 19 January 2020

प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ...

समय और संबंध
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गत वर्ष 2019 को दिनांक 24 नवम्बर को यहाँ रात्रि में पहुँचा।
दूसरे दिन सुबह टहलने निकला तो मोड़ पर खड़े ऑटो पर लिखा माइक्रो-ब्लॉग पढ़ा :
"दया ही दुःख का कारण है।"
हाँ, एक नए वक्तव्य से सामना हुआ।
याद आया :
"दया धर्म को मूल है पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छाँड़िए जब लग घट में प्रान।।"
यह बन्दा तो क्रांतिकारी लगता है !
पता नहीं किस मनःस्थिति में किस और प्रयोजन से उसने इसे ऑटो की पीठ पर लिखवाया होगा !
बहरहाल उस दिन से आज की सुबह तक इस बारे में गौर करता रहा।
क्या इसका मतलब यह हुआ कि दुष्टता दुःख का निवारण / निराकरण है?
क्या हमें दया और दुष्टता के बीच कोई संतुलन स्थापित करना होगा?
एक ही शब्द 'दया' / 'दुष्टता' हमें विचार की दलदल में धकेल देता है।
विचारवान(?) अवश्य ही इस दुविधा में फँसा हो सकता है,
किन्तु विचारवान(?) ही अवश्य ही इस दलदल से बाहर भी निकल सकता है।
धर्म को दो प्रकार से समझा जा सकता है।
एक है व्यक्तिगत सन्दर्भ से।
दूसरा है सामूहिक चेतना के परिप्रेक्ष्य में।
व्यक्तिगत स्तर है धर्मक्षेत्र।
सामूहिक स्तर है कुरुक्षेत्र।
विचारवान यदि विचार की पूरी शक्ति नहीं लगाता, तो वह धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र के इस द्वंद्व से बाहर नहीं आ पाता। किन्तु जब वह सुनता है :
"प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ..."
तो वह ठिठककर रुक जाता है।
गीता अध्याय 18 के श्लोक 59 में भगवान् श्रीकृष्ण ने मानों पूरे ग्रन्थ के सार / उपसंहार के रूप में यह कहकर ग्रन्थ की समाप्ति घोषित की है।
इस प्रकार प्रकृति ही नियति है।
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समूह संबंध है और संबंध समूह।
समूह संपर्क है और संपर्क समूह।
व्यवहार और समय एक दूसरे से अभिन्न रहते हुए भी मानों सतत बदलते रहते हैं, क्योंकि व्यवहार और समय मूलतः बौद्धिक निष्कर्ष हैं और बुद्धि स्वयं प्रकृति-प्रदत्त होती है। इसे परिष्कृत करने की प्रेरणा भी प्रकृति से ही पाई जाती है।  बुद्धि स्वयं अपने-आपको न तो परिष्कृत कर सकती है न समृद्ध।
इसलिए गायत्री (छन्द) में बुद्धि को 'तत्' / 'वरेण्यं' कहा जाता है।
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सुबह सुबह चाय बनाने जा रहा था।
बर्तनों के बीच से चाय का मग उठाने के प्रयास में बर्तनों की खड़खड़ाहाट की ध्वनि पैदा हुई।
धातुएँ ध्वनि पैदा करती हैं।
संस्कृत में इसीलिए ध्वनि का मूल धातु और धातु का मूल ध्वनि है।
ध्वनि और स्वनि (संगीत) वही है जिससे अंग्रेज़ी का sound / sonic बना है।
[इससे आप अल्ट्रा-सॉनिक बूम / ultrasonic boom) की तुलना कर सकते हैं जहाँ ultrasonic ऑल्ट, संस्कृत के 'अलतः' का और 'boom'  'भूं' का विभ्रंश है। ]  
ध्वनियों से वर्ण और वर्णों से शब्द बनाए जाते हैं।
शब्दों से भाषाएँ बनती हैं।
दूसरी ओर भावों और भावनाओं के पुट से यही शब्द विशिष्ट भावनात्मक शब्द बन जाते हैं।
मूल ध्वनियाँ और उनके संयोजन से उत्पन्न होनेवाले वर्ण भी शब्दों का आधार होते हैं।
इस प्रकार मूलतः धातुओं की ध्वनि भाव-निरपेक्ष होते हुए भी उस ध्वनि तथा ध्वनि-समूह से विभिन्न भाव तथा भावनाएँ व्यक्त और ग्रहण की जाती हैं।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। 
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।11 
(गीता, अध्याय 3)
इसलिए स्कन्द-पुराण तथा श्रीदेवीअथर्वशीर्ष में वर्णो को देवता कहा गया है।
वर्णो को भिन्न-भिन्न प्रकार से संयुक्त कर मन्त्र तथा वेद व्यक्त होते हैं।
किन्तु इसमें ध्वनि-शास्त्र (phonetics) का आधार तो अपरिहार्यतः अन्तर्हित है ही।
ध्वनि-शास्त्र (phonetics) भी पुनः केवल लेखकीय, वाचागत या दोनों हो सकता है।
लेखकीय / लिपिबद्ध भाव-निरपेक्ष होता है और पाठक उसे अपने भाव से ग्रहण कर सकता है।
किन्तु जब इसका उच्चार अर्थात् जब इसे ध्वनित किया जाता है तो इससे भाव तथा भावनाएँ व्यक्त और उत्पन्न होते हैं। भाव तथा भावनाओं से विचार; - तथा पुनः विचार से भाव तथा भावनाएँ।
इस प्रकार विचार अपनी ही सीमाओं में बद्ध रह जाता है।
दूसरी ओर केवल तर्क-आधारित (rational) विचार भी वैसे ही अपनी ही सीमाओं में बद्ध रह जाता है जैसे आज का प्रगत-विज्ञान और उन्नत गणित  (Advanced Science and Mathematics).
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विचारवान मनुष्य का अपनी दुविधा से न उबर पाना ही उसकी नियति और प्रकृति भी है।
इसलिए वह इसी भावना से प्रेरित होकर सतत कार्यरत रहता है।
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Thursday, 16 January 2020

अंतःप्रज्ञः-बहिष्प्रज्ञः / Extrovert-Introvert

बहिष्प्रज्ञ-अंतःप्रज्ञः-चेतोप्रज्ञः-उभयतःप्रज्ञः 
(बहिर्मुख-अन्तर्मुख-चेतोमुखः / प्राज्ञः / उभयतःप्रज्ञः)
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शैत्ये चैत्ये उत्तरायणम्
दक्षिणायनं तद्गतम्।
विस्मृतं तत्पूर्वायनम्।
पश्चिम्यां यद्भूतम्।।
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इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। 
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।
(गीता अध्याय 3)
पराञ्चि खानि व्यतृणत्स्वयंभूस्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन्। 
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छत्।।१ 
(मुण्डकोपनिषद् द्वितीय अध्याय, प्रथम वल्ली)
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प्रकृति स्वभाव से बहिर्मुखी है।
पुरुष स्वभाव से अंतर्मुखी।
मन पुरुष-प्रकृति का युग्म।
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आर्य जब भारत-भूमि से बाहर गए तो सर्वत्र उनकी अपनी भाषा, संस्कृति और दर्शन ने विश्व को गहराई से प्रभावित और प्रेरित किया। वे ही विदेशी जब पुनः भारत आए तो उन्होंने भारत की भाषा, संस्कृति और दर्शन का अध्ययन किया और अपनी बहिर्मुखी बुद्धि तथा दृष्टि से उनकी व्याख्या करने का उपक्रम किया।
फ़्रेंच भाषा में एक शब्द है chateau जिसका ध्वनि-साम्य और अर्थ-साम्य चैत्य से होने से कहा जा सकता है कि chateau चैत्य (बौद्ध विहार) का सज्ञात / अपभ्रंश cognate है। हो सकता है कि यह शैत्य का सज्ञात / अपभ्रंश cognate हो। यूरोप में शीत / शैत्य का प्रकोप तो सर्वविदित ही है।
यहाँ तक कि यह भी हो सकता है, 'शैतान' इसी शैत्य से व्युत्पन्न हुआ हो।
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ओमित्येतदक्षरमिदं-सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव ।
यच्चान्यत्-त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव।।१
सर्वंह्येतद् ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात्।।२ 
जागरितस्थानो बहिष्प्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः स्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पादः।।३
स्वप्नस्थानोऽन्तःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः प्रविविक्तभुक्तैजसो द्वितीयः पादः।।४
यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत्सुषुप्तम् , सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक्चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः।।५
एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम्।।६
नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्। अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेय।।७
सोऽयमात्माध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा अकार उकारो मकार इति।।८
जागरितस्थानो वैश्वानरोऽकारः प्रथमा मात्राप्तेरादिमत्त्वाद्वाप्नोति ह वै सर्वान्कामानादिश्च भवति
य एवं वेद।।९
स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीया मात्रोत्कर्षादुभयत्वाद्वोत्कर्षयति ह वै ज्ञानसन्ततिं समानश्च भवति नास्या ब्रह्मवित्कुले भवति य एवं वेद।।१०
सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा मितेरपीतेर्वा मिनोति ह वा इदं सर्वमपीतिश्च भवति य एवं वेद ।।११
अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैत एवमोङ्कार आत्मैव संविशत्यात्मनात्मानं
य एवं वेद।।११
      
               

 
     
     
माण्डूक्योपनिषद्



  
  

   

Friday, 10 January 2020

The Little Monster Within.

A dialogue with a friend :
Last night, before falling asleep, I asked my conscience to get rid of the negative emotions that I feel in this period. When I fell asleep, I dreamed that in the closet of my house (that of the parents) there was  a big worm,then I brought the cat closer to the worm so that the cat could kill it.
The worm split in two, and the cat could only kill half of it.
From that moment, the worm has turned into a kind of small black demon, with a face, and he was tormenting me, he was angry and very spiteful, although it didn't do really dangerous things, but it was annoying. In the dream I realized that not even my Quartz crystal (to which in reality I give great meaning and power because it is a kind of “master”) was unable to stop it.
My interpretation is as follows:
The worm is also a sexual appeal, connected with emotions of anger and destructiveness.
In Dante Alighieri's "Divine comedy", Satan is called "the great worm", therefore that worm represents a dark part of me, a part without conscience (the worm was faceless and without eyes).
The moment my conscious part tries to destroy it through the cat (which represents my animal part, but allied with the conscious part),that "worm" becomes active and conscious: it has a face and moves with intentions, whereas before it was only a larva.
This worm-demon becomes stronger if attacked (evil is strengthened by evil) and not even the crystal (which represents a noble and spiritual part of me) can stop it.
What is your interpretation?
(And how can I free myself from this hideous little monster?)
--
Me :
Hello!
You have pointed out a big existential problem with the mankind as a whole.
[By the way, I often find insects and worms that keep me disturbing and only after waking up I know it was a dream.]
There is a most famous aphorism / dictum in The Manusmriti (मनुस्मृति) -- a Veda-text :
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियं।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्म सनातनः।।
By the way, the same stanza is there in Dhammapada (Buddha -Text) while elucidating exactly :
"What is 'dharma' or 'Sanatana dharma'.
You must have known well about Patanjali (The Founder of Yoga-Philosophy)
He narrates the 8-fold path (limbs) of yoga.
This is also again somewhat similar to the way of Buddha.
The first is : यम / Yama, that could be rightly translated to :
"Ethics".
The यम / Yama,comprises of
अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह
 Of these :
अहिंसा is translated as non-violence but in fact it means lack of enmity with all and each being.
सत्य is again translated as Truth , but it means Reality immutable; and not only as is expressed in words spoken or written.
अस्तेय means not stealing or using a thing / object which belongs to some-one else without his permission, and especially when one has no authority over it.
ब्रह्मचर्य is translated as abstaining from sex / celibacy which means controlling the sex-urge; while the correct meaning is; - transcending the sex-impulse at the mental level because 'Brahman' is sex-less as well as neuter, male and female as well. Like a child Brahman is a natural celibate.
अपरिग्रह means not amassing wealth, collecting the things that you really don't need.
That means freedom from the greed.
The Second is : नियम / Niyama, that is equivalent to rules and regulations or 'Morality' / 'Mores'.
I wrote this lengthy introduction to suggest that अहिंसा is the very first step of the discipline of Yoga.
So when you have no enmity with anything living or not so alive, you can't 'kill'.
The next part नियम / Niyama, comprises of :
शौच संतोष तपः स्वाध्याय ईश्वर-प्रणिधान
शौच means purity of body, speech, mind, spirit and actions.
संतोष means contentedness; not longing after things of enjoyments, but be happy in whatever is needed for maintaining the body well and healthy.
तपः means austerity "come what may", -bearing the hardships because they make one more strong mature and clear the mind of its impurities and confusion.
स्वाध्याय means study of scriptures. or contemplation and pondering over 'the Self'.
Last is ईश्वर-प्रणिधान that means the realization that all existence is governed by a Supreme power that is not unintelligent like physical power, but essentially the Intelligence Supreme.
This could also mean the God / Lord Supreme, Who has many attributes (Gita Chapter 10). गीता अध्याय 10; - विभूति योग 
Summarily Veda and the Tradition of Sanatan dharma सनातन धर्म does not classify the World and the Lord into Good and bad. Instead it points out that All is One Unique Consciousness only.When one somehow is ripe enough one has no more struggle in life.
I wish to share this in my blog.
Hope you have no objection whatsoever.
Regards and Love !
Vinay.

Thursday, 9 January 2020

श्लोकद्वयम्

10 जनवरी 2020
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द्वन्द्वबुद्धेः अहमस्मिता,
अहमस्मितया द्वन्द्वबुद्धिः
द्वयमेतत् निराकृत्वा
वीतद्वन्द्वो भवेन्नरः ।।
द्वन्द्वबुद्धेः कर्तृत्वबुद्धिः
कर्तृत्वबुद्धेः द्वन्द्वबुद्धिः
द्वयमेतत् निराकृत्वा
अधुनैव सुखी भव !
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ईशोनामिक / Economic, ईशोलोकीय / Ecology

यह पथ बन्धु है !
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ईशोतरीय तथा ईशोशमीय पोस्ट लिखने और प्रकाशित कर देने के बाद ख़याल आया कि इसी प्रकार से Ecology तथा Economics की भी व्युत्पत्ति की जा सकती है।
इस प्रकार Ecology ईशोलोकीय का तथा  Economic ईशो-नामिक का सज्ञात / सजात / सहजात / cognate होता है। Ecology के अंतर्गत यह समस्त ईश्वरीय लोक तथा  Economic के अंतर्गत समस्त नाम-रूप वाली वस्तुओं की लौकिक गतिविधियों का अध्ययन किया जाता है
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Esoteric and Esochemic

पञ्चीकरणम्
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उक्त ग्रन्थ या इसकी वार्तिका श्री सुरेश्वराचार्यकृत है, ऐसा मेरा अनुमान है।
जो भी हो, मूलतः यह ग्रन्थ सृष्टि के सिद्धांत की एक व्याख्या है।
इसे ईशो-स्तरीय तथा ईशो-शमीय इन दो रीतियों से समझा जा सकता है।
पञ्चीकरण में यह स्पष्ट किया जाता है कि किस प्रकार एक ही मूल तत्व के पाँच विभाग पञ्च-ज्ञानेद्रियों के माध्यम से पाँच स्थूल महाभूतों के रूप में ग्रहण किये जा सकते हैं।
इन पांच महाभूतों में से प्रत्येक के दो विभाग किए जाते हैं।
इस प्रकार प्रत्येक के एक विभाग को पुनः चार विभागों में विभाजित कर दिया जाता है।
आकाश, अग्नि, वायु, जल तथा पृथ्वी इन पाँच महाभूतों में से प्रत्येक के आधे भाग के साथ अन्य के शेष चार अर्धभागों को संयुक्त कर सूक्ष्म महाभूतों की सृष्टि होती है।
इस प्रकार आकाश नामक देवता में आधा अंश आकाश तत्व का होता है जिससे अग्नि, वायु, जल तथा पृथ्वी का एक-एक अष्टमांश संयुक्त कर देने पर आकाशरूपी सूक्ष्म देवता अस्तित्व ग्रहण करता है। इसी प्रकार शेष चार देवता तत्व प्रकट होते हैं।
सृष्टि-सिद्धांत में उत्पत्ति या विनाश की कोई भूमिका नहीं है।
इसमें केवल प्राकट्य (expression), अभिव्यक्ति / (manifestation) और संहार (Dissolution) को ही सृष्टि कहा जाता है। इस प्रकार यह सिद्धांत भौतिक-शास्त्र के द्रव्य / ऊर्जा के अविनाशिता के नियम (Law of indestructibility of Matter and Energy) का ही समान्तर (parallel) है।
अब पुनः उन पांच स्थूल भूतों के बारे में :
भौतिक शास्त्र (Physics) में ऊर्जा / द्रव्य की गतिविधि (mechanism) अर्थात् 'बल' का अध्ययन ऊर्जा के पांच प्रकारों गुरुत्वाकर्षण-बल, ताप-बल, प्रकाश या ध्वनिकम्पन-बल (wave), विद्युत्-चुम्बकीय बल (field) तथा परमाण्विक -बल (atomic energy) के रूप में किया जाता है।
वहीँ रसायन-शास्त्र (Chemistry)  के अंतर्गत पदार्थ के पाँच मूल प्रकारों  के आधार की तरह क्रमशः हीलियम, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन तथा कार्बन के रूप में विभाजित किया जाता है।
ये ही क्रमशः आकाश (शून्य, निष्क्रिय / inert), हि द्रु जन् (अग्नि), ओषजन, नितृ-जन्, तथा शर्वण हैं।
आकाश (नभ) विष्णु की नाभि है, हाइड्रोजन जल है, नाइट्रोजन वायु है तथा कार्बन पृथ्वी है।
संस्कृत 'शृ' - शीर्यते से बना है शरीर।
शरीर स्वयं उपरोक्त पांच तत्वों के संयोग से बना उनका विकार है। 
'विकार' पुनः प्रसंग के अनुसार दो भिन्न अर्थों का द्योतक है -
एक है बिगाड़; दूसरा है विशेष प्रकार।
ईश अर्थात् governance वह शक्ति जिससे सृष्टि की तीनों गतिविधियाँ संचालित होती हैं।
शक्ति को स्थूल परिणाम की तरह ही जाना जाता है जबकि ईश अप्रकट शिव (अवश्य) है। 
शक्ति इस प्रकार शिव से वश्य है और विश्य है।
इस प्रकार शक्ति ही विष्णु है।
ईशोतरीय अर्थात् ईश्वर का वह प्रकार जो अप्रकट है।
ईशोशमीय अर्थात् ईश्वर का वह प्रकार जो नित्य प्रकट है।
चमस् ऋषि (Chemistry) ने शमन धर्म अर्थात् रसायनशास्त्र का आविष्कार किया जबकि नागार्जुन ने इसी की  रासायनिक तत्वों (ओषधि-शास्त्र तथा चिकित्सा शास्त्र) के रूप में विस्तारपूर्वक विवेचना की।
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'उष्' से ओष, ओषधि, ओस, ऑक्सीजन, ऑक्सीडेशन / oxidation  तथा ओज़ोन की उत्पत्ति दृष्टव्य है।
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Monday, 6 January 2020

दिव्य-जन्म और दिव्य-कर्म

अर्जुन तथा अभिमन्यु  
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तब अर्जुन ने पुत्र से पूछा :
"भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझसे कहा था :
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।9
(अध्याय 4)
इसका आशय क्या है ?"
अभिमन्यु ने तब कहा :
"जो भली प्रकार से यह जानता है कि मेरा जन्म तथा कर्म दिव्य है, वह देह को त्यागने के पश्चात् मुझे ही प्राप्त होता है। 'मुझे ही' से तात्पर्य है सर्वभूतात्म-आत्मा परमात्मा को, जो पुनः पुनः धरती पर अवतरित होते हैं। मनुष्य-मात्र का जन्म और कर्म दिव्य ही है किन्तु सर्वभूतात्म-आत्मा परमात्मा न तो कर्ता है, न उसका जन्म होता है, न मृत्यु) होती है। "
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दिव्यकर्ण और दिव्यचक्षु

अर्जुन-अभिमन्यु-संवाद  
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सञ्जय को दिव्यचक्षु प्राप्त था जिससे वह किसी दूरस्थ स्थान की घटना को उसी समय प्रत्यक्ष देख-सुन सकता था किन्तु यह लौकिक सिद्धि थी । अभिमन्यु को दिव्यकर्ण प्राप्त था जिससे वह दूरस्थ ध्वनि तथा बातचीत आदि को सुन सकता था।  यह लगभग वैसा ही था जैसा कि आज के युग में ऑडिओ-विडिओ तथा सिर्फ ऑडिओ के माध्यम से हमें भी प्राप्त है।
दोनों को ही दिव्य माध्यम प्राप्त थे जो शुद्धतः आधिभौतिक संसार में कार्य करते थे।
अर्जुन को यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से दिव्यदृष्टि तात्कालिक रूप से प्राप्त हुई थी, किन्तु ऐसी दृष्टि न तो अभिमन्यु को और न सञ्जय को प्राप्त हुई थी।
इसलिए जब भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से गीता कह रहे थे तो अर्जुन ने जितना सुना, और भगवान् श्रीकृष्ण ने जितना कहा, उसकी ऑडियो-फाइल अभिमन्यु को प्राप्त हो गयी।  इसलिए अभिमन्यु ने उसकी ख़ास-ख़ास बातें नोट कर लीं :
अध्याय 1 में जब भगवान् श्रीकृष्ण ने यह कहा :
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।32
इसलिए अभिमन्यु को वह संशय प्राप्त न हुआ जो अर्जुन को (मोहित बुद्धि के कारण) हुआ था।
इसलिए युद्ध में जब अभिमन्यु की मृत्यु हुई तो उसे सीधे स्वर्ग प्राप्त हुआ ।
बहुत समय तक वह वहाँ स्वर्ग के आमोद-प्रमोद का उपभोग करता रहा।
इस बीच उसे अपने पिता (और पितृव्यों) के स्वर्गारोहण का ज्ञान हुआ तो वह स्वर्गद्वार पर उनके आगमन की प्रतीक्षा करता रहा।
अर्जुन ने जब स्वर्ग में पुनः अपने पुत्र को सामने पाया तो वह हर्ष-विह्वल हो उठा।
इस सुख की तुलना में स्वर्ग के तमाम उपभोग उसे अत्यंत तुच्छ प्रतीत हो रहे थे।
किन्तु जैसा कि शास्त्रवचन है,
- मनुष्य का कर्म छाया की भाँति सदा उसका पीछा करता है, भले ही समय की रौशनी में वह कभी दिखाई देता है तो कभी अदृश्य रहकर ही ऐसा करता है।
कर्म शुभ-अशुभ (तथा मिश्रित भी) हो सकता है।
कर्म का कारण और परिणाम भी कर्म है और इसलिए मनुष्य जब तक कर्तृत्वबुद्धि से रहित नहीं हो जाता तब तक वह कर्म-चक्र से परिचालित हुआ उसके परिणामों को भोगता रहता है। वह उन कर्मों को पाप अथवा पुण्य कहकर भी उन प्रवृत्तियों से नहीं मुक्त हो पाता जो उसे कर्म से बाँधती हैं।
जब अर्जुन सहजस्थ  र स्वस्थचित्त हुआ, तो उसे अपने पुत्र के प्रति गौरव-बोध हुआ।
तब उसकी वे बहुत सी स्मृतियाँ जाग उठीं जिनके कारण अभिमन्यु उसे प्राणों से प्रिय था।
तब अभिमन्यु ने अर्जुन से पूरी गीता कही। वह बोला :
अभिमन्यु उवाच -
"पिताजी! गीता में जो श्लोक मुझे बहुत प्रिय हैं, वह आपको सुनाता हूँ :
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।18
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।19
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कं।।21
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वम् शोचितुमर्हसि।।30      
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।32
(अध्याय 2)
इसलिए आपको और मुझे जो यह दिव्य देह प्राप्त हुए हैं जिनसे हम स्वर्ग में पुनः मिल पाए हैं वह केवल औपचारिक है।  आत्मा मिलन-विछोह से रहित, स्मृति और पहचान तक से रहित सत्य है।  विस्तार से तो आपने भगवान् श्रीकृष्ण से सुना ही है, फिर भी मैं उनके एक दो वचन और कहूँगा :
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।26
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्यार्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।27
(अध्याय 2)    
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Sunday, 5 January 2020

Gym, Football, Drugs.

This is interesting how 'Drug' is cognate of 'द्राक्ष'  !
द्रु -- द्रव -- द्रावति - दृग (eye) द्रोण (crucible), द्राक्ष (grapes), all have origin in the  root-verb 'द्रु' .
Even the 'Drucks' and 'drink' too.
There is yet another word 'RudrAkSha' / रुद्राक्ष meaning   Elaeocarpus ganitrus rox (?).
This may also be intriguing how the fruit grape(s) turned into 'RudrAkSha' / रुद्राक्ष or Conversely the 'RudrAkSha' / रुद्राक्ष into 'grape(s).
No wonder 'RudrAkSha' / रुद्राक्ष helps one transcending the transient mundane world of things while 'drAkSha' / द्राक्ष keeps one attached to the same.
Gita (गीता) Chapter 18 tells us there are 3 kinds of 'pleasure'(सुखं).
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रुणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।36
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।।37
विषयेंद्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।38
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।।39
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(For detailed meaning and explanation, you may please check my Gita-blog.)
Toiling in gym is though a lot of physical exercise and one may not want to go through this whole thing, but the results are fantastic and it keeps the fitness perfect.
This is kind of pleasure that is called सात्विकं / sattvikaM.
Playing football is somewhat like this, but there is far more thrill, excitement and ultimately enthrallment or grief according to the result if one wins or loses.
This is kind of pleasure that is called राजसं / rAjasaM.
The Drugs however give one a bout whereby one's sense are made so insensitive that neither the joy nor the sorrow are experienced. The absence of sorrow is taken as pleasure which is just silly.
This is kind of pleasure that is called  तामसं / tAmasaM.
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Wednesday, 1 January 2020

प्रधान और गौण

धर्मलक्षण और लक्षणधर्म
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धर्मेण हन्यते व्याधिः धर्मेण हन्यते ग्रहः।
धर्मेण हन्यते शत्रुः यतो धर्मस्ततो जयः।।
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उपरोक्त या इससे मिलते जुलते अर्थवाला श्लोक प्रायः भारतीयों की जन्म-पत्रिका में उद्धृत किया जाता है।
संसार और जीव का अधिष्ठान धर्म ही है इसलिए धर्म को प्रथम पुरुषार्थ कहा जाता है।  जीवन धर्म का ही विस्तार और फैलाव है जिसमें व्यक्ति-दृष्टि के अनुसार ही विकास और ह्रास, उत्थान और पतन, उत्कर्ष तथा अपकर्ष आदि होते हैं।
जैसे देवी लक्ष्मी भगवान् श्री नारायण का लक्षण हैं, और लक्ष्मण भगवान् श्रीराम का, वैसे ही धर्म के दो स्वरुप हैं प्रधान और गौण। प्रधान वह है जो सबका आधान, अधिष्ठान है, गौण वह है जो यद्यपि प्रधान का ही प्रकार है, किन्तु गुणों की क्रीड़ा है। गुण अर्थात् त्रिगुणात्मिका प्रकृति।
इस प्रकार संसार तथा जीव प्रकृति अर्थात् गुणों की प्रवृत्तियाँ हैं।
चार पुरुषार्थों में से प्रथम धर्म है जिसमें स्थित होना जीव को प्राप्त प्रकृतिप्रदत्त संस्कार है।
पुरुषार्थरूपी इन्हीं चार भुजाओं से ईश्वर विश्व को संचालित करता है, इसलिए उसे पुरुषोत्तम कहा जाता है । दूसरी ओर सामान्य जीव को भी पुरुष ही कहा जाता है।
इस प्रकार पुरुष गौण और पुरुषोत्तम प्रधान है।
यह भी एक रोचक सत्य तथा तथ्य भी है कि प्रत्येक पुरुष (अर्थात् मनुष्य-मात्र जो शरीर की दृष्टि से स्त्री अथवा पुरुष या नपुंसक या विलिंग हो) अपने आप का उल्लेख 'मैं' शब्द (अथवा प्रत्यय) के माध्यम से करता है। यह 'मैं' अस्मद्-प्रत्यय होने से अस्मि (हूँ) का लक्षण है।
इसलिए 'अहम्' और 'अहम् अस्मि' एक ही अर्थ के द्योतक हैं।
इसी प्रकार प्रधान धर्म और गौण धर्म भी एक ही अर्थ के द्योतक हैं।
किन्तु व्यवहार में इन दोनों के बीच भेदभ्रम हो जाता है।
'अहम्' जो आत्मा अर्थात् ब्रह्म का द्योतक है उसे वैयक्तिक मान लिया जाता है और गौण धर्म को प्रधान धर्म। प्रधान अविकारी (immutable) होता है जबकि गौण गुणों के पारस्परिक संयोग का परिणाम और इसलिए आवश्यक रूप से विकारशील भी।
इसी प्रकार काल और समय यद्यपि एक ही अर्थ के द्योतक हैं, काल (की सत्ता) शाश्वत, अचल सत्य है, जबकि समय, काल का सतत गतिशील लक्षण।
पुनः स्थान और काल भी किसी चेतना पर अवलम्बित होने से स्थान और काल भी चेतना के लक्षण हैं, जबकि चेतना स्वयं अस्तित्व का लक्षण।
इसलिए व्यक्ति-चेतना जैसी कोई वस्तु नहीं हो सकती।  चेतना ही व्यक्ति या व्यक्ति-विशेष को, समूह या समष्टि को व्यक्त रूप देती है फिर भी व्यक्ति, समूह और समष्टि से स्वतंत्र है।
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