ब्लॉग-अतीत के कुछ पृष्ठ
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इस ब्लॉग का एकमात्र उद्देश्य और प्रेरणा था अपने द्वारा लिखित संग्रहणीय प्रतीत होनेवाले लेखों
एक स्थान पर संजोना। किन्तु अब एक नया तत्व अचानक उभर आया है वह है धर्म का इतिहास।
श्री ताहिर गोरा के you-tube वीडियो को देखते हुए और श्री एम. नागेश्वर राव का लिखा लेख पढ़ते
हुए लगा कि यह ब्लॉग अपनी संपूर्णता में उनके बहुत क़रीब है।
इसलिए उपरोक्त सन्दर्भ में अपने ब्लॉग का अवलोकन करते हुए यह पोस्ट लिख रहा हूँ।
इस ब्लॉग में कहा जा चुका है कि किस प्रकार भगवान् श्रीराम के युग में व्यक्ति की तरह ऋषि
जाबालि / जाबाल राजा दशरथ की सभा के एक सम्मानित, वरिष्ठ और प्रतिष्ठित सांसद थे।
श्रीराम को वनवास का आदेश प्राप्त होने पर उन्होंने चार्वाक-दर्शन की युक्ति का सहारा लेते हुए
कहा था :
"तुम अभी युवा हो, अभी तुम्हारा विवाह हुए थोड़ा ही समय हुआ है, तो यह बिलकुल उचित नहीं है
कि तुम इस राज्य, धन, वैभव लक्ष्मी को त्यागकर वन को जाओ (और वैसे तो तुंहरे पिता को ही वन
में जाकर वानप्रस्थ आश्रम का समय वहां व्यतीत करना चाहिए। )
यह शरीर ही आत्मा है और अन्य सभी संबंध इसके सुख के लिए ही होते हैं न कि उनके लिए यह
शरीर।
तब श्रीराम ने ऋषि जाबालि की भर्त्सना करते हुए कहा था कि मेरे लिए तो पिता की आज्ञा का
पालन करना ही धर्मऔर एकमात्र कर्तव्य है। और कैकेयी को दिए गए उनके वचनों को साकार करना
भी इसी प्रकार मेरा दायित्व है। यही उचित है कि राजा आपके जैसे संबुद्ध नास्तिक दण्डित करे।
किस प्रकार ऋषि जाबाल (सत्यकाम) को श्रीराम ने सम्बुद्ध और नास्तिक, वेद-विरोधी कहा था,
इसका वर्णन वाल्मीकि रामायण में प्राप्त होता है। तब वसिष्ठ ऋषि ने भगवान् श्रीराम से कहा कि
जाबालि तुमसे केवल इसलिए ऐसा कह रहे हैं क्योंकि वे नहीं चाहते कि तुम वन को जाओ।
वे ही जाबालि पुनः कहोड के रूप में जन्म लेते हैं और अष्टावक्र उनकी संतान के रूप में उनका तथा
उनकी पत्नी सुजाता का पुत्र होता है।
सिद्धार्थ गौतम के रूप में वे जब पुनः जन्म लेते हैं तो वैदिक कर्म-काण्ड से उनका मोहभंग हो चुका
होता है और वे पत्नी यशोधरा, पुत्र राहुल को सोता हुआ हुआ छोड़कर गृहत्याग कर मोक्ष की खोज में
निकल पड़ते हैं। अनेक प्रकार के कठिन तप करते हुए उनकी समस्त वृत्तियाँ निरुद्ध हो जाने पर उन्हें
समाधि (ज्ञान-समाधि) प्राप्त होती है।
आधिभौतिक स्तर पर इसकी अभिव्यक्ति उस निरञ्जना नदी के रूप में होती है जहाँ से अत्यंत दुर्बल
क्षीणकाय दशा में वे स्नान कर उस वटवृक्ष की ओर जाते हैं जिसे बोधि-वृक्ष कहा जाता है और जिसके
तले वे साधनारत थे।
आधिदैविक स्तर पर 'निरञ्जना' वह वृत्ति विशेष है जो अन्य समस्त वृत्तियों के दोषों का निवारण
कर देती है। (अञ्जन = कालिमा, निरञ्जन = दोषरहित, निर्दोष)
इस प्रकार निरञ्जना वृत्ति (नदी) में स्नान कर जब वे उससे भी निवृत्त हो जाते हैं तो वह भी निवृत्त
हो जाती है और सुजाता नामक वृत्ति प्रस्तुत होती है जिसके हाथों में क्षीरपात्र होता है।
इस प्रकार नीर-क्षीर विवेक नामक विवेक-ख्याति होने के बाद उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ।
पूर्व की पोस्ट में लिखा था कि यद्यपि अष्टावक्र जन्म से ही ज्ञानी थे, जबकि उनके पिता कहोड ने
वैदिक कर्मकाण्ड को ही मुक्ति का साधन मान लिया था। तब वे वरुण के बंदी हुए जिससे उनके पुत्र
अष्टावक्र ने ही उन्हें मुक्त करवाया। अष्टावक्र की माता और ऋषि कहोड की पत्नी सुजाता तब भी
नारी प्रकृति के अनुसार निष्ठापूर्वक पातिव्रत धर्म का पालन करती हुई यद्यपि परम श्रेयस की प्राप्ति
कर चुकी थी, किन्तु वृत्ति-रूप में वे पति की छाया की तरह उनके साथ रहती थी।
और इसी रूप में सुजाता ने सिद्धार्थ गौतम को उस समय खीर प्रदान की थी, जब वे निरञ्जना में स्नान
कर चुके थे।
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आध्यात्मिक दृष्टि से यही आत्मा जो सब-कुछ है, समस्त नित्य-अनित्य का वह एकमात्र अधिष्ठान
आश्रय तथा आधार है, जहाँ से 'व्यक्ति' प्रकट / अभिव्यक्त होते हैं और जहाँ पुनः लीन हो जाते हैं।
इस प्रकार 'व्यक्ति' मात्र एक विचार है जिसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हो सकता, जबकि अद्वितीय
और एकमेव आत्मा /परमात्मा ही असंख्य व्यक्तियों तथा लोकों की तरह कल्प के आदि में व्यक्त,
तथा अंत में लीन हो जाता है।
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जाबाल-ऋषि तथा आर्ष-अंगिरा ऋषि ने ही पुनः कलियुग के प्रारम्भ में क्रमशः Gabriel / गैब्रिएल /
जिब्रील तथा Arch-Angel के रूप में अब्राहमिक परम्पराओं के संस्थापकों को धर्म का उपदेश दिया।
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इस बारे में पिछली पोस्ट्स में चर्चा की गयी है।
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सनातन धर्म के सिद्धांतों के अनुसार ईश्वर स्वयं ही व्यक्ति-रूप में अवतार लेता है; अवतरित होता है,
और उसके जन्म-कर्म दिव्य होते हैं। सामान्य मनुष्य उन्हें अपने जैसा कोई व्यक्ति समझ बैठता है।
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इस सन्दर्भ में यह देखना रोचक है कि 'गणतन्त्र' के लिए प्रयुक्त होने वाला अंग्रेज़ी शब्द
DEMOCRACY
धर्मकृतिय का,
DEMOGRAPHY
धर्मग्राहीय का,
तथा
DEMO उपसर्ग
धर्म का ही सज्ञात cognate है।
मेरे उपरोक्त निष्कर्ष संभवतः परिकल्पनाओं hypotheses की तरह ग्रहण किए जा सकते हैं जिन्हें
पूरी मनुष्यता के लिए हम एक सौहार्द्रपूर्ण समाज के निर्माण का आधार बना सकते हैं।
किन अज्ञात कारणों और प्रेरणाओं से मेरा प्रयास इस दिशा में हुआ और मैं नहीं कह सकता कि मेरे
निष्कर्ष कहाँ तक स्वीकार्य हो सकते हैं। मुझे इसका कोई श्रेय दिया जाए ऐसा भी मेरा दावा नहीं है,
किन्तु यह ज़रूर लगता है कि अनेक सम्प्रदायों में विभाजित मानव के लिए इनका उपयोग किया
जा सकता है।
और यह सनातन धर्म के सूत्रवाक्य :
"वसुधैव कुटुम्बकम्य"
से पूर्ण तारतम्य में भी होगा।
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इस ब्लॉग का एकमात्र उद्देश्य और प्रेरणा था अपने द्वारा लिखित संग्रहणीय प्रतीत होनेवाले लेखों
एक स्थान पर संजोना। किन्तु अब एक नया तत्व अचानक उभर आया है वह है धर्म का इतिहास।
श्री ताहिर गोरा के you-tube वीडियो को देखते हुए और श्री एम. नागेश्वर राव का लिखा लेख पढ़ते
हुए लगा कि यह ब्लॉग अपनी संपूर्णता में उनके बहुत क़रीब है।
इसलिए उपरोक्त सन्दर्भ में अपने ब्लॉग का अवलोकन करते हुए यह पोस्ट लिख रहा हूँ।
इस ब्लॉग में कहा जा चुका है कि किस प्रकार भगवान् श्रीराम के युग में व्यक्ति की तरह ऋषि
जाबालि / जाबाल राजा दशरथ की सभा के एक सम्मानित, वरिष्ठ और प्रतिष्ठित सांसद थे।
श्रीराम को वनवास का आदेश प्राप्त होने पर उन्होंने चार्वाक-दर्शन की युक्ति का सहारा लेते हुए
कहा था :
"तुम अभी युवा हो, अभी तुम्हारा विवाह हुए थोड़ा ही समय हुआ है, तो यह बिलकुल उचित नहीं है
कि तुम इस राज्य, धन, वैभव लक्ष्मी को त्यागकर वन को जाओ (और वैसे तो तुंहरे पिता को ही वन
में जाकर वानप्रस्थ आश्रम का समय वहां व्यतीत करना चाहिए। )
यह शरीर ही आत्मा है और अन्य सभी संबंध इसके सुख के लिए ही होते हैं न कि उनके लिए यह
शरीर।
तब श्रीराम ने ऋषि जाबालि की भर्त्सना करते हुए कहा था कि मेरे लिए तो पिता की आज्ञा का
पालन करना ही धर्मऔर एकमात्र कर्तव्य है। और कैकेयी को दिए गए उनके वचनों को साकार करना
भी इसी प्रकार मेरा दायित्व है। यही उचित है कि राजा आपके जैसे संबुद्ध नास्तिक दण्डित करे।
किस प्रकार ऋषि जाबाल (सत्यकाम) को श्रीराम ने सम्बुद्ध और नास्तिक, वेद-विरोधी कहा था,
इसका वर्णन वाल्मीकि रामायण में प्राप्त होता है। तब वसिष्ठ ऋषि ने भगवान् श्रीराम से कहा कि
जाबालि तुमसे केवल इसलिए ऐसा कह रहे हैं क्योंकि वे नहीं चाहते कि तुम वन को जाओ।
वे ही जाबालि पुनः कहोड के रूप में जन्म लेते हैं और अष्टावक्र उनकी संतान के रूप में उनका तथा
उनकी पत्नी सुजाता का पुत्र होता है।
सिद्धार्थ गौतम के रूप में वे जब पुनः जन्म लेते हैं तो वैदिक कर्म-काण्ड से उनका मोहभंग हो चुका
होता है और वे पत्नी यशोधरा, पुत्र राहुल को सोता हुआ हुआ छोड़कर गृहत्याग कर मोक्ष की खोज में
निकल पड़ते हैं। अनेक प्रकार के कठिन तप करते हुए उनकी समस्त वृत्तियाँ निरुद्ध हो जाने पर उन्हें
समाधि (ज्ञान-समाधि) प्राप्त होती है।
आधिभौतिक स्तर पर इसकी अभिव्यक्ति उस निरञ्जना नदी के रूप में होती है जहाँ से अत्यंत दुर्बल
क्षीणकाय दशा में वे स्नान कर उस वटवृक्ष की ओर जाते हैं जिसे बोधि-वृक्ष कहा जाता है और जिसके
तले वे साधनारत थे।
आधिदैविक स्तर पर 'निरञ्जना' वह वृत्ति विशेष है जो अन्य समस्त वृत्तियों के दोषों का निवारण
कर देती है। (अञ्जन = कालिमा, निरञ्जन = दोषरहित, निर्दोष)
इस प्रकार निरञ्जना वृत्ति (नदी) में स्नान कर जब वे उससे भी निवृत्त हो जाते हैं तो वह भी निवृत्त
हो जाती है और सुजाता नामक वृत्ति प्रस्तुत होती है जिसके हाथों में क्षीरपात्र होता है।
इस प्रकार नीर-क्षीर विवेक नामक विवेक-ख्याति होने के बाद उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ।
पूर्व की पोस्ट में लिखा था कि यद्यपि अष्टावक्र जन्म से ही ज्ञानी थे, जबकि उनके पिता कहोड ने
वैदिक कर्मकाण्ड को ही मुक्ति का साधन मान लिया था। तब वे वरुण के बंदी हुए जिससे उनके पुत्र
अष्टावक्र ने ही उन्हें मुक्त करवाया। अष्टावक्र की माता और ऋषि कहोड की पत्नी सुजाता तब भी
नारी प्रकृति के अनुसार निष्ठापूर्वक पातिव्रत धर्म का पालन करती हुई यद्यपि परम श्रेयस की प्राप्ति
कर चुकी थी, किन्तु वृत्ति-रूप में वे पति की छाया की तरह उनके साथ रहती थी।
और इसी रूप में सुजाता ने सिद्धार्थ गौतम को उस समय खीर प्रदान की थी, जब वे निरञ्जना में स्नान
कर चुके थे।
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आध्यात्मिक दृष्टि से यही आत्मा जो सब-कुछ है, समस्त नित्य-अनित्य का वह एकमात्र अधिष्ठान
आश्रय तथा आधार है, जहाँ से 'व्यक्ति' प्रकट / अभिव्यक्त होते हैं और जहाँ पुनः लीन हो जाते हैं।
इस प्रकार 'व्यक्ति' मात्र एक विचार है जिसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हो सकता, जबकि अद्वितीय
और एकमेव आत्मा /परमात्मा ही असंख्य व्यक्तियों तथा लोकों की तरह कल्प के आदि में व्यक्त,
तथा अंत में लीन हो जाता है।
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जाबाल-ऋषि तथा आर्ष-अंगिरा ऋषि ने ही पुनः कलियुग के प्रारम्भ में क्रमशः Gabriel / गैब्रिएल /
जिब्रील तथा Arch-Angel के रूप में अब्राहमिक परम्पराओं के संस्थापकों को धर्म का उपदेश दिया।
--
इस बारे में पिछली पोस्ट्स में चर्चा की गयी है।
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सनातन धर्म के सिद्धांतों के अनुसार ईश्वर स्वयं ही व्यक्ति-रूप में अवतार लेता है; अवतरित होता है,
और उसके जन्म-कर्म दिव्य होते हैं। सामान्य मनुष्य उन्हें अपने जैसा कोई व्यक्ति समझ बैठता है।
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इस सन्दर्भ में यह देखना रोचक है कि 'गणतन्त्र' के लिए प्रयुक्त होने वाला अंग्रेज़ी शब्द
DEMOCRACY
धर्मकृतिय का,
DEMOGRAPHY
धर्मग्राहीय का,
तथा
DEMO उपसर्ग
धर्म का ही सज्ञात cognate है।
मेरे उपरोक्त निष्कर्ष संभवतः परिकल्पनाओं hypotheses की तरह ग्रहण किए जा सकते हैं जिन्हें
पूरी मनुष्यता के लिए हम एक सौहार्द्रपूर्ण समाज के निर्माण का आधार बना सकते हैं।
किन अज्ञात कारणों और प्रेरणाओं से मेरा प्रयास इस दिशा में हुआ और मैं नहीं कह सकता कि मेरे
निष्कर्ष कहाँ तक स्वीकार्य हो सकते हैं। मुझे इसका कोई श्रेय दिया जाए ऐसा भी मेरा दावा नहीं है,
किन्तु यह ज़रूर लगता है कि अनेक सम्प्रदायों में विभाजित मानव के लिए इनका उपयोग किया
जा सकता है।
और यह सनातन धर्म के सूत्रवाक्य :
"वसुधैव कुटुम्बकम्य"
से पूर्ण तारतम्य में भी होगा।
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