पिछले दोनों पोस्ट्स परस्पर संबद्ध हैं।
आज ही लिखे हैं।
कृपया उन्हें एक साथ पढ़ें।
गीता अध्याय 4 में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :
चातुर्वर्ण्यं मयासृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।13
--
इस प्रकार ईश्वर के अकर्ता होते हुए भी प्रकृति उसके ही सान्निध्य से चार वर्ण में व्यक्त होती है।
क्या ईश्वर मनुष्य की तरह कोई व्यक्ति-विशेष है?
अध्याय 9 में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।11
इसके पूर्व इसी अध्याय 9 में वह कहते हैं :
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।4
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य में योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।5
--
गीता में ऐसे ही अन्य श्लोक उल्लेखनीय हैं :
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।35
(अध्याय 3)
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च सिद्धिं विन्दति मानवः।।46
(अध्याय 18)
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।47
(अध्याय 18)
--
इससे स्पष्ट है कि पूरी सृष्टि में हर मनुष्य प्रकृतिप्रदत्त उपरोक्त चार वर्णों में से एक में जन्म लेता
है। और इसके ही अनुसार सत्व, तम तथा रजो गुणों से प्रेरित हुआ कर्म करता है।
आजीविका के लिए भी कर्म करना आवश्यक है ही किन्तु यदि कोई अपने स्वाभाविक वर्ण से भिन्न
वर्ण के पालन का प्रयत्न करता है तो इससे उसे क्लेश ही प्राप्त होगा, न कि श्रेय।
इसी प्रकार 'आश्रम' भी मनुष्य को 'प्राप्त' होता है।
जन्म से ही मनुष्य का आचरण स्वाभाविक रूप से ही ब्रह्म जैसा होता है।
युवा होने पर उसे गृहस्थ आश्रम / धर्म प्राप्त होता है प्रौढ़ होने पर वानप्रस्थ तथा वृद्ध हो जाने पर
संन्यास। यह मनुष्यमात्र के लिए सत्य है।
इसका किसी विशेष सम्प्रदाय से जुड़े धर्म से कोई विरोध नहीं है।
इसीलिए यह पूरे मानव समाज के लिए पूरे विश्व में ग्राह्य है।
चारों वर्ण परस्पर सहायक हैं और न तो कोई छोटा है न कोई बड़ा।
ब्राह्मण न हो तो ज्ञान का प्रचार प्रसार रुक जाएगा।
क्षत्रिय न हो तो दुष्ट प्रकृति के लोगों तथा हिंस्र पशुओं से दुर्बल स्त्री-पुरुषों की रक्षा कौन करेगा?
वैश्य न हो तो पूरी अर्थ-व्यवस्था ही नष्ट हो जाएगी।
शूद्र न हों तो सेवा के अभाव में रुग्ण और असहाय लोगों का जीना कठिन होगा।
सामान्यतः वर्ण को जाति समझ लिया जाता है।
जाति का अर्थ है माता-पिता तथा वंश, जिसमें किसी का जन्म होता है।
वर्ण का अर्थ है मनुष्य में विद्यमान गुण तथा उसके लिए उपयुक्त स्वाभाविक कर्म।
इसलिए एक ही वंश में उत्पन्न हुए भाइयों में से कोई शिक्षक (ब्राह्मण) कोई सैनिक या शासक
(क्षत्रिय), कोई व्यवसायी (वैश्य) तथा कोई डॉक्टर या चिकित्सक या नौकरीपेशा अर्थात् शूद्र हो
सकता है। और किसी भी मानव-समाज में ये चारों वर्ण होने पर ही समाज सुस्थिर और सुचारु
रूप से विकसित होता है।
जहाँ तक मानव-संस्कृति का प्रश्न है वह वैदिक या वेद से भिन्न भी होती है।
इसलिए वर्णाश्रम व्यवस्था दोनों ही स्थितियों में बहुत उपयोगी है।
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आज ही लिखे हैं।
कृपया उन्हें एक साथ पढ़ें।
गीता अध्याय 4 में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :
चातुर्वर्ण्यं मयासृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।13
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इस प्रकार ईश्वर के अकर्ता होते हुए भी प्रकृति उसके ही सान्निध्य से चार वर्ण में व्यक्त होती है।
क्या ईश्वर मनुष्य की तरह कोई व्यक्ति-विशेष है?
अध्याय 9 में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।11
इसके पूर्व इसी अध्याय 9 में वह कहते हैं :
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।4
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य में योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।5
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गीता में ऐसे ही अन्य श्लोक उल्लेखनीय हैं :
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।35
(अध्याय 3)
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च सिद्धिं विन्दति मानवः।।46
(अध्याय 18)
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।47
(अध्याय 18)
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इससे स्पष्ट है कि पूरी सृष्टि में हर मनुष्य प्रकृतिप्रदत्त उपरोक्त चार वर्णों में से एक में जन्म लेता
है। और इसके ही अनुसार सत्व, तम तथा रजो गुणों से प्रेरित हुआ कर्म करता है।
आजीविका के लिए भी कर्म करना आवश्यक है ही किन्तु यदि कोई अपने स्वाभाविक वर्ण से भिन्न
वर्ण के पालन का प्रयत्न करता है तो इससे उसे क्लेश ही प्राप्त होगा, न कि श्रेय।
इसी प्रकार 'आश्रम' भी मनुष्य को 'प्राप्त' होता है।
जन्म से ही मनुष्य का आचरण स्वाभाविक रूप से ही ब्रह्म जैसा होता है।
युवा होने पर उसे गृहस्थ आश्रम / धर्म प्राप्त होता है प्रौढ़ होने पर वानप्रस्थ तथा वृद्ध हो जाने पर
संन्यास। यह मनुष्यमात्र के लिए सत्य है।
इसका किसी विशेष सम्प्रदाय से जुड़े धर्म से कोई विरोध नहीं है।
इसीलिए यह पूरे मानव समाज के लिए पूरे विश्व में ग्राह्य है।
चारों वर्ण परस्पर सहायक हैं और न तो कोई छोटा है न कोई बड़ा।
ब्राह्मण न हो तो ज्ञान का प्रचार प्रसार रुक जाएगा।
क्षत्रिय न हो तो दुष्ट प्रकृति के लोगों तथा हिंस्र पशुओं से दुर्बल स्त्री-पुरुषों की रक्षा कौन करेगा?
वैश्य न हो तो पूरी अर्थ-व्यवस्था ही नष्ट हो जाएगी।
शूद्र न हों तो सेवा के अभाव में रुग्ण और असहाय लोगों का जीना कठिन होगा।
सामान्यतः वर्ण को जाति समझ लिया जाता है।
जाति का अर्थ है माता-पिता तथा वंश, जिसमें किसी का जन्म होता है।
वर्ण का अर्थ है मनुष्य में विद्यमान गुण तथा उसके लिए उपयुक्त स्वाभाविक कर्म।
इसलिए एक ही वंश में उत्पन्न हुए भाइयों में से कोई शिक्षक (ब्राह्मण) कोई सैनिक या शासक
(क्षत्रिय), कोई व्यवसायी (वैश्य) तथा कोई डॉक्टर या चिकित्सक या नौकरीपेशा अर्थात् शूद्र हो
सकता है। और किसी भी मानव-समाज में ये चारों वर्ण होने पर ही समाज सुस्थिर और सुचारु
रूप से विकसित होता है।
जहाँ तक मानव-संस्कृति का प्रश्न है वह वैदिक या वेद से भिन्न भी होती है।
इसलिए वर्णाश्रम व्यवस्था दोनों ही स्थितियों में बहुत उपयोगी है।
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