वसिष्ठ कुम्भोद्भव गौतमार्य
मुनींद्र देवार्चित शेखराय।
चंद्रार्क वैश्वानर लोचनाय
तस्मै नकाराय नमः शिवाय।।
--
वाल्मीकि रामायण में वसिष्ठ तथा अगस्त्य ऋषि के जन्म का विवरण प्राप्त होता है।
दोनों का जन्म कुम्भ
(कुंभ -- कुभ --जिसे भरा न जा सके, अर्थात् नभ -- cub -- cube -- incubation)
से हुआ था और यद्यपि दोनों ऋषियों का अपना स्वतंत्र स्थान है और दोनों आकाश में
दृश्य रूप में तारे या नक्षत्र की तरह दिखलाई पड़ते हैं, दोनों ही भगवान् शंकर की उपासना
करते हैं। भगवान् शंकर इस प्रकार नकार-रूप होते हुए भी सूर्य चंद्र तथा वैश्वानर (अग्नि)
रूपी नेत्रों से व्यक्त जगत पर दृष्टि रखते हैं।
ऐसे ही एक ऋषि हैं कश्यप जो विराट स्वरूप के हैं।
ऋषि कश्यप की दो पत्नियाँ हैं अदिति तथा दिति।
दिति कार्य-कारण (की कल्पना) है, तो अदिति सृष्टि का स्वाभाविक रहस्य है।
दिति के पुत्र आदित्य हैं जो पृथ्वी पर जीवन के अधिष्ठाता हैं।
बारह आदित्य रूपों में भगवान् आदित्य अर्थात् सूर्य मार्तण्ड कहे जाते हैं।
ये गूढ़ कथाएँ दिति-पुत्रों की दृष्टि में कार्य-कारण की मर्यादा के अंतर्गत तथाकथित भौतिक
विज्ञान के अनुसार गल्प या कल्प / कल्पना का विलास मात्र है।
एक बार अदिति और दिति दोनों बहनों में विवाद हुआ।
अदिति का कहना था कि समस्त घटनाएँ विधाता द्वारा निर्धारित रीति से अपने समय पर
होती हैं, और इसी प्रकार घटनाओं में क्रम की कल्पना कार्य-कारण तथा व्यतीत होनेवाले
समय को आधार बनाकर प्राणिमात्र में अपने स्वतंत्र कर्ता होने की भावना उत्पन्न करती है।
दिति इस मान्यता को सिरे से नकार देती थी।
दिति के मतानुसार मनुष्य (तथा सभी जीव) स्वयं ही अपने भाग्य-विधाता हैं।
दोनों के विवाद को सुनते हुए ऋषि कश्यप ने कहा :
मनुष्य या तो प्रकृति से कर्म में प्रवृत्त होता है या अपने संकल्प से।
इसलिए यह जानना आवश्यक है कि संकल्प कहाँ से उत्पन्न होते हैं ताकि इस विवाद का
समाधान हो सके।
तब से अदिति और दिति के मध्य मतभेद बना हुआ है।
--
ऋषि वसिष्ठ को जब ज्ञात हुआ कि भगवान् श्री विष्णु रघुकुल में अवतार लेनेवाले हैं तो उन्होंने
निश्चय किया कि लीला के लिए ही सही वे उस कुल के राजपुरोहित होकर उनका सान्निध्य पा
सकेंगे।
महर्षि वाल्मीकि ने भी इसी प्रकार भगवान् विष्णु के अवतार होने की बात को जानकर तय किया
कि वे उनके आने तक प्रतीक्षा करेंगे और मोक्ष प्राप्ति के बजाय उनकी भक्ति का तत्व अंगीकार
करेंगे।
तब उन्होंने रामकथा को रामायण के रूप में संसार के समक्ष प्रस्तुत किया।
--
भगवान् श्रीराम भी अपने लिए प्राप्त हुए कर्तव्य का निर्वाह कर वर्णाश्रम-धर्म की स्थापना कर
अपने श्रीधाम को चले गए। उनके साथ अयोध्यावासी, यहाँ तक कि मनुष्येतर प्राणी प्रकृतियाँ
(महर्षि श्री वाल्मीकि ने देवता, गन्धर्व, ऋषि, अप्सरा, नाग, किन्नर, वानर, गरुड़, राक्षस, दैत्य,
दानव, विद्याधर, तथा वृक्ष, नदियों, पर्वतों आदि को भी 'प्रकृति' कहा है।)
--
महर्षि जाबालि (जो भगवान् श्रीराम के समय में थे और बाद में भी संसार के कल्याण के लिए
कार्य में सतत संलग्न हैं, जिनकी कथा मेरे स्वाध्याय के इस ब्लॉग में विस्तार से अनेक पोस्ट्स
में लिखी जा चुकी है), के अनेक प्रयासों के बाद भी दैत्यों और देवताओं के बीच आज भी परस्पर
अविश्वास बना हुआ है और मनुष्य उनके हाथों में कठपुतली मात्र है।
होइहै सोइ जो राम रचि रखा।
--
पिछली पोस्ट में कहा जा चुका है कि वर्णाश्रम धर्म न सिर्फ वैदिक बल्कि प्रकृतिप्रदत्त धर्म है,
-जो किसी भी समाज के लिए सर्वाधिक युक्तिसंगत व्यवस्था है।
यदि सभ्यता / समाज / मनुष्य इसका पालन करता है तो अपेक्षाकृत अधिक स्थिर और सुखी होगा।
वर्णाश्रम धर्म में ही विवाह का विधान और सुनिश्चित स्थान है क्योंकि चारों वर्ण ईश्वर के द्वारा
रचे गए हैं (गीता : चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं ...) और वर्ण की शुद्धता बनाए रखने के लिए ही विवाह
की व्यवस्था है। गीता में ही अर्जुन द्वारा तर्क दिया गया कि युद्ध से स्त्रियाँ विधवा हो जाएँगीं
और कुलधर्म का उच्छेद हो जाएगा। स्त्रियों के दूषित होने से पिण्डोदक कार्य होना बंद हो जाएगा
और पितरों का अनियत काल तक नरक-वास होगा।
क्या भगवान् श्रीकृष्ण इस तथ्य से अनभिज्ञ थे?
उन्होंने अर्जुन से कहा :
'प्रकृतिः त्वां नियोक्ष्यसि'
अर्थात् तुम्हारी (क्षत्रिय) प्रकृति ही तुम्हें युद्ध करने के लिए प्रेरित करेगी।
इस प्रकार अंततः महाभारत का युद्ध हुआ, जिसके बाद कलियुग का आगमन हुआ।
यूरोप, अफ्रीका, अमेरिका तथा अन्य कई स्थानों पर विवाह की अवधारणा कभी थी ही नहीं।
कम से कम उस आधार पर तो कदापि नहीं थी, जिसका उल्लेख वर्णाश्रम धर्म में पाया जाता है।
अब 'प्रगतिशीलता' के दौर में तो हम समलैंगिक विवाहों तक को वैधानिक मान्यता देने के बारे
में बहस कर रहे हैं !
धन्य है मनुष्य और उसकी प्रगति और नियति !
--
मुनींद्र देवार्चित शेखराय।
चंद्रार्क वैश्वानर लोचनाय
तस्मै नकाराय नमः शिवाय।।
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वाल्मीकि रामायण में वसिष्ठ तथा अगस्त्य ऋषि के जन्म का विवरण प्राप्त होता है।
दोनों का जन्म कुम्भ
(कुंभ -- कुभ --जिसे भरा न जा सके, अर्थात् नभ -- cub -- cube -- incubation)
से हुआ था और यद्यपि दोनों ऋषियों का अपना स्वतंत्र स्थान है और दोनों आकाश में
दृश्य रूप में तारे या नक्षत्र की तरह दिखलाई पड़ते हैं, दोनों ही भगवान् शंकर की उपासना
करते हैं। भगवान् शंकर इस प्रकार नकार-रूप होते हुए भी सूर्य चंद्र तथा वैश्वानर (अग्नि)
रूपी नेत्रों से व्यक्त जगत पर दृष्टि रखते हैं।
ऐसे ही एक ऋषि हैं कश्यप जो विराट स्वरूप के हैं।
ऋषि कश्यप की दो पत्नियाँ हैं अदिति तथा दिति।
दिति कार्य-कारण (की कल्पना) है, तो अदिति सृष्टि का स्वाभाविक रहस्य है।
दिति के पुत्र आदित्य हैं जो पृथ्वी पर जीवन के अधिष्ठाता हैं।
बारह आदित्य रूपों में भगवान् आदित्य अर्थात् सूर्य मार्तण्ड कहे जाते हैं।
ये गूढ़ कथाएँ दिति-पुत्रों की दृष्टि में कार्य-कारण की मर्यादा के अंतर्गत तथाकथित भौतिक
विज्ञान के अनुसार गल्प या कल्प / कल्पना का विलास मात्र है।
एक बार अदिति और दिति दोनों बहनों में विवाद हुआ।
अदिति का कहना था कि समस्त घटनाएँ विधाता द्वारा निर्धारित रीति से अपने समय पर
होती हैं, और इसी प्रकार घटनाओं में क्रम की कल्पना कार्य-कारण तथा व्यतीत होनेवाले
समय को आधार बनाकर प्राणिमात्र में अपने स्वतंत्र कर्ता होने की भावना उत्पन्न करती है।
दिति इस मान्यता को सिरे से नकार देती थी।
दिति के मतानुसार मनुष्य (तथा सभी जीव) स्वयं ही अपने भाग्य-विधाता हैं।
दोनों के विवाद को सुनते हुए ऋषि कश्यप ने कहा :
मनुष्य या तो प्रकृति से कर्म में प्रवृत्त होता है या अपने संकल्प से।
इसलिए यह जानना आवश्यक है कि संकल्प कहाँ से उत्पन्न होते हैं ताकि इस विवाद का
समाधान हो सके।
तब से अदिति और दिति के मध्य मतभेद बना हुआ है।
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ऋषि वसिष्ठ को जब ज्ञात हुआ कि भगवान् श्री विष्णु रघुकुल में अवतार लेनेवाले हैं तो उन्होंने
निश्चय किया कि लीला के लिए ही सही वे उस कुल के राजपुरोहित होकर उनका सान्निध्य पा
सकेंगे।
महर्षि वाल्मीकि ने भी इसी प्रकार भगवान् विष्णु के अवतार होने की बात को जानकर तय किया
कि वे उनके आने तक प्रतीक्षा करेंगे और मोक्ष प्राप्ति के बजाय उनकी भक्ति का तत्व अंगीकार
करेंगे।
तब उन्होंने रामकथा को रामायण के रूप में संसार के समक्ष प्रस्तुत किया।
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भगवान् श्रीराम भी अपने लिए प्राप्त हुए कर्तव्य का निर्वाह कर वर्णाश्रम-धर्म की स्थापना कर
अपने श्रीधाम को चले गए। उनके साथ अयोध्यावासी, यहाँ तक कि मनुष्येतर प्राणी प्रकृतियाँ
(महर्षि श्री वाल्मीकि ने देवता, गन्धर्व, ऋषि, अप्सरा, नाग, किन्नर, वानर, गरुड़, राक्षस, दैत्य,
दानव, विद्याधर, तथा वृक्ष, नदियों, पर्वतों आदि को भी 'प्रकृति' कहा है।)
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महर्षि जाबालि (जो भगवान् श्रीराम के समय में थे और बाद में भी संसार के कल्याण के लिए
कार्य में सतत संलग्न हैं, जिनकी कथा मेरे स्वाध्याय के इस ब्लॉग में विस्तार से अनेक पोस्ट्स
में लिखी जा चुकी है), के अनेक प्रयासों के बाद भी दैत्यों और देवताओं के बीच आज भी परस्पर
अविश्वास बना हुआ है और मनुष्य उनके हाथों में कठपुतली मात्र है।
होइहै सोइ जो राम रचि रखा।
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पिछली पोस्ट में कहा जा चुका है कि वर्णाश्रम धर्म न सिर्फ वैदिक बल्कि प्रकृतिप्रदत्त धर्म है,
-जो किसी भी समाज के लिए सर्वाधिक युक्तिसंगत व्यवस्था है।
यदि सभ्यता / समाज / मनुष्य इसका पालन करता है तो अपेक्षाकृत अधिक स्थिर और सुखी होगा।
वर्णाश्रम धर्म में ही विवाह का विधान और सुनिश्चित स्थान है क्योंकि चारों वर्ण ईश्वर के द्वारा
रचे गए हैं (गीता : चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं ...) और वर्ण की शुद्धता बनाए रखने के लिए ही विवाह
की व्यवस्था है। गीता में ही अर्जुन द्वारा तर्क दिया गया कि युद्ध से स्त्रियाँ विधवा हो जाएँगीं
और कुलधर्म का उच्छेद हो जाएगा। स्त्रियों के दूषित होने से पिण्डोदक कार्य होना बंद हो जाएगा
और पितरों का अनियत काल तक नरक-वास होगा।
क्या भगवान् श्रीकृष्ण इस तथ्य से अनभिज्ञ थे?
उन्होंने अर्जुन से कहा :
'प्रकृतिः त्वां नियोक्ष्यसि'
अर्थात् तुम्हारी (क्षत्रिय) प्रकृति ही तुम्हें युद्ध करने के लिए प्रेरित करेगी।
इस प्रकार अंततः महाभारत का युद्ध हुआ, जिसके बाद कलियुग का आगमन हुआ।
यूरोप, अफ्रीका, अमेरिका तथा अन्य कई स्थानों पर विवाह की अवधारणा कभी थी ही नहीं।
कम से कम उस आधार पर तो कदापि नहीं थी, जिसका उल्लेख वर्णाश्रम धर्म में पाया जाता है।
अब 'प्रगतिशीलता' के दौर में तो हम समलैंगिक विवाहों तक को वैधानिक मान्यता देने के बारे
में बहस कर रहे हैं !
धन्य है मनुष्य और उसकी प्रगति और नियति !
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