भौम और सार्वभौम
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तीन व्याहृतियाँ :
भूः भुवः स्वः
व्यक्त सृष्टि का मूल है।
भू भूमि अर्थात् पृथ्वी तत्व है जो व्यक्त जगत में भौतिकता के रूप में कार्य करता है।
भुवः अर्थात् भुवन; लोक का आधार है।
यही लोक संसार है।
जड भौतिकता की दृष्टि में विषयों (objects) का स्वतंत्र अस्तित्व है और चेतना नामक गुणधर्म जो किसी संगठित पिंड में प्रकट / व्यक्त होता है वह भी इस प्रकार उन जड तत्वों के परस्पर मिश्रण से होता है।
इस प्रकार सम्पूर्ण संसार केवल जड पदार्थ या द्रव्य की गतिविधि और उसके परिणाम के विविध प्रकारों की समष्टि है। इस प्रकार संसार एक स्वतंत्र सत्ता है जो स्वयं तथा जिसका हर छोटे से छोटा अंश अज्ञात शक्ति से
संचालित होता है। किन्तु जिसकी मान्यता है कि इस प्रकार के संसार का अस्तित्व उससे भिन्न है, और वह स्वयं उसके जैसे असंख्य शरीरों की तरह जैव-इकाई के रूप में एक विशिष्ट शरीर है, जिसमें चेतना के प्रकट होने
से उसका जीवन है, -अपने-आपको मूर्त देह के अतिरिक्त अमूर्त चेतनता की तरह भी स्वीकार करता है। यद्यपि यह मान्यता भी "मस्तिष्क में उत्पन्न एक विचार या कल्पना ही है, और यह भी शरीर की क्रिया-प्रणाली का स्वाभाविक कार्य है", ऐसा भी आग्रह किया जा सकता है। जो भी हो, प्रत्येक जीवित शरीर में ऐसी एक चेतना (भान) होता ही है और किसी सद्योमृत के बारे में हमारे पास इस का कोई प्रमाण नहीं हो सकता कि क्या उसमें अपने आपके विशिष्ट शरीर से रहित होने पर भी अमूर्त चेतनता की तरह होने का भान हो सकता है या नहीं। इस प्रकार शरीर, जो पदार्थ के गुणधर्मों (Physical and Chemical Properties) का संयोग मात्र है, और जिसमें 'स्व' नामक भान तथा उसके दूसरों से भिन्न और किसी हद तक स्वतंत्र होने का अनुभव भी मूलतः इन्हीं गुणधर्मों का परिणाम है।
किन्तु यह प्रश्न तो फिर भी बना रहता है कि जिस अज्ञात शक्ति के द्वारा यह सब संचालित होता है, वह स्वयं जड है या चेतन ?'स्व' तो सदैव चेतन है इसे स्वीकार करने के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं, किन्तु 'स्व' के जड होने की संभावना पर विचार करें तो ऐसा विचार भी कोई चेतन 'स्व' ही कर सकता है। इस प्रकार भौतिक विज्ञान स्वयं ही अपनी मर्यादा तय कर अपना निषेध कर देता है और यह भी स्वीकार करता है कि चेतन / चेतना के गुणधर्म / स्वभाव जड के गुणधर्म / स्वभाव से उच्चतर कोटि के हैं। तब अनुसंधान इस दिशा में होता है, कि क्या चेतना ऐसा ईश्वर है, या ईश्वर ऐसी चेतना है जो संसार से विच्छिन्न / भिन्न स्वतंत्र सत्ता है? क्या वह संसार से बाहर और भिन्न हो सकता है?
गीता में इसी क्रम में कहा गया है :
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।18
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्याहरागमे।।9
(अध्याय 8)
इससे यह तो स्पष्ट नहीं होता कि मृत्यु होने के बाद 'स्व' दूसरा शरीर धारण करता है या शरीर के साथ समाप्त हो जाता है, किन्तु यह तो प्रत्येक का अनुभव है कि रात्रि में सो जाने के बाद यद्यपि संसार का, या 'स्व' का भान मिट जाता है और नींद से जागते ही संसार का और 'स्व' का भान भी जागृत हो जाता है। मनुष्यमात्र नींद से जागने के बाद 'निद्रा में मैं कुछ नहीं जान रहा था' इसे भी जानता है। इस प्रकार जो 'स्व' (और 'स्व' की चेतना / भान) जागने के बाद कार्य करने लगते हैं वह उसकी निद्रा की अवस्था में भी विद्यमान थे, क्योंकि इसी आधार से मनुष्य अपनी उस पहचान से पुनः 'स्व' की पुष्टि करता है। वह भूल से भी "निद्रा में मैं ("स्व") नहीं था" ऐसा कभी नहीं कहता। इससे यह स्पष्ट है कि यह चेतना (जो भले ही जड पदार्थों के विशिष्ट संयोग का परिणाम मात्र हो या उनसे भिन्न स्वतंत्र सत्ता हो), 'स्व' का मूल है।
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क्या यह चेतना उस 'ईश्वर' से स्वतंत्र हो सकती है जो विशिष्ट शक्ति के रूप में सम्पूर्ण जड-चेतन की समस्त गतिविधियों को संचालित करता है? इस प्रकार 'ईश्वर' क्या कोई विशिष्ट व्यक्ति हो सकता है?
क्या ईश्वर सार्वभौम और सब में व्याप्त और सब उसमें ओतप्रोत नहीं है ?
इस प्रकार मैं ('स्व') यद्यपि नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव तथा सभी प्राणियों का आत्मा है / हूँ,
तथापि :
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।4
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्माभूतभावनः।।5
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।11
(अध्याय 9)
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ईश्वर अवतार के रूप में व्यक्ति-विशेष की तरह प्रकट हो सकता है, किन्तु अपना कार्य पूर्ण करने के बाद अपने मूल स्वरूप में लौट जाता है और जीव की तरह उसका जन्म या पुनर्जन्म नहीं होता। इस दृष्टि से भी ईश्वर व्यक्ति नहीं है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।7
(अध्याय 4) ...
इसी तथ्य को इंगित करता है।
इस साकार अवतार-स्वरूप ईश्वर की भक्ति करना उसके निर्गुण निराकार स्वरूप की भक्ति करने की अपेक्षा अधिक सरल है। इसलिए ईश्वर की अनेक विभूतियों को इष्ट की तरह मानकर उनके साकार स्वरूप की पूजा से
भी ईश्वर-साक्षात्कार किया जा सकता है।
अध्याय 10 में इस विषय में कहा गया है :
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।40
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गीता अध्याय 12 में इस बारे में यह निर्देश भी प्राप्त होता है :
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवं।।3
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।4
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।5
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तीन व्याहृतियाँ :
भूः भुवः स्वः
व्यक्त सृष्टि का मूल है।
भू भूमि अर्थात् पृथ्वी तत्व है जो व्यक्त जगत में भौतिकता के रूप में कार्य करता है।
भुवः अर्थात् भुवन; लोक का आधार है।
यही लोक संसार है।
जड भौतिकता की दृष्टि में विषयों (objects) का स्वतंत्र अस्तित्व है और चेतना नामक गुणधर्म जो किसी संगठित पिंड में प्रकट / व्यक्त होता है वह भी इस प्रकार उन जड तत्वों के परस्पर मिश्रण से होता है।
इस प्रकार सम्पूर्ण संसार केवल जड पदार्थ या द्रव्य की गतिविधि और उसके परिणाम के विविध प्रकारों की समष्टि है। इस प्रकार संसार एक स्वतंत्र सत्ता है जो स्वयं तथा जिसका हर छोटे से छोटा अंश अज्ञात शक्ति से
संचालित होता है। किन्तु जिसकी मान्यता है कि इस प्रकार के संसार का अस्तित्व उससे भिन्न है, और वह स्वयं उसके जैसे असंख्य शरीरों की तरह जैव-इकाई के रूप में एक विशिष्ट शरीर है, जिसमें चेतना के प्रकट होने
से उसका जीवन है, -अपने-आपको मूर्त देह के अतिरिक्त अमूर्त चेतनता की तरह भी स्वीकार करता है। यद्यपि यह मान्यता भी "मस्तिष्क में उत्पन्न एक विचार या कल्पना ही है, और यह भी शरीर की क्रिया-प्रणाली का स्वाभाविक कार्य है", ऐसा भी आग्रह किया जा सकता है। जो भी हो, प्रत्येक जीवित शरीर में ऐसी एक चेतना (भान) होता ही है और किसी सद्योमृत के बारे में हमारे पास इस का कोई प्रमाण नहीं हो सकता कि क्या उसमें अपने आपके विशिष्ट शरीर से रहित होने पर भी अमूर्त चेतनता की तरह होने का भान हो सकता है या नहीं। इस प्रकार शरीर, जो पदार्थ के गुणधर्मों (Physical and Chemical Properties) का संयोग मात्र है, और जिसमें 'स्व' नामक भान तथा उसके दूसरों से भिन्न और किसी हद तक स्वतंत्र होने का अनुभव भी मूलतः इन्हीं गुणधर्मों का परिणाम है।
किन्तु यह प्रश्न तो फिर भी बना रहता है कि जिस अज्ञात शक्ति के द्वारा यह सब संचालित होता है, वह स्वयं जड है या चेतन ?'स्व' तो सदैव चेतन है इसे स्वीकार करने के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं, किन्तु 'स्व' के जड होने की संभावना पर विचार करें तो ऐसा विचार भी कोई चेतन 'स्व' ही कर सकता है। इस प्रकार भौतिक विज्ञान स्वयं ही अपनी मर्यादा तय कर अपना निषेध कर देता है और यह भी स्वीकार करता है कि चेतन / चेतना के गुणधर्म / स्वभाव जड के गुणधर्म / स्वभाव से उच्चतर कोटि के हैं। तब अनुसंधान इस दिशा में होता है, कि क्या चेतना ऐसा ईश्वर है, या ईश्वर ऐसी चेतना है जो संसार से विच्छिन्न / भिन्न स्वतंत्र सत्ता है? क्या वह संसार से बाहर और भिन्न हो सकता है?
गीता में इसी क्रम में कहा गया है :
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।18
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्याहरागमे।।9
(अध्याय 8)
इससे यह तो स्पष्ट नहीं होता कि मृत्यु होने के बाद 'स्व' दूसरा शरीर धारण करता है या शरीर के साथ समाप्त हो जाता है, किन्तु यह तो प्रत्येक का अनुभव है कि रात्रि में सो जाने के बाद यद्यपि संसार का, या 'स्व' का भान मिट जाता है और नींद से जागते ही संसार का और 'स्व' का भान भी जागृत हो जाता है। मनुष्यमात्र नींद से जागने के बाद 'निद्रा में मैं कुछ नहीं जान रहा था' इसे भी जानता है। इस प्रकार जो 'स्व' (और 'स्व' की चेतना / भान) जागने के बाद कार्य करने लगते हैं वह उसकी निद्रा की अवस्था में भी विद्यमान थे, क्योंकि इसी आधार से मनुष्य अपनी उस पहचान से पुनः 'स्व' की पुष्टि करता है। वह भूल से भी "निद्रा में मैं ("स्व") नहीं था" ऐसा कभी नहीं कहता। इससे यह स्पष्ट है कि यह चेतना (जो भले ही जड पदार्थों के विशिष्ट संयोग का परिणाम मात्र हो या उनसे भिन्न स्वतंत्र सत्ता हो), 'स्व' का मूल है।
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क्या यह चेतना उस 'ईश्वर' से स्वतंत्र हो सकती है जो विशिष्ट शक्ति के रूप में सम्पूर्ण जड-चेतन की समस्त गतिविधियों को संचालित करता है? इस प्रकार 'ईश्वर' क्या कोई विशिष्ट व्यक्ति हो सकता है?
क्या ईश्वर सार्वभौम और सब में व्याप्त और सब उसमें ओतप्रोत नहीं है ?
इस प्रकार मैं ('स्व') यद्यपि नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव तथा सभी प्राणियों का आत्मा है / हूँ,
तथापि :
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।4
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्माभूतभावनः।।5
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।11
(अध्याय 9)
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ईश्वर अवतार के रूप में व्यक्ति-विशेष की तरह प्रकट हो सकता है, किन्तु अपना कार्य पूर्ण करने के बाद अपने मूल स्वरूप में लौट जाता है और जीव की तरह उसका जन्म या पुनर्जन्म नहीं होता। इस दृष्टि से भी ईश्वर व्यक्ति नहीं है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।7
(अध्याय 4) ...
इसी तथ्य को इंगित करता है।
इस साकार अवतार-स्वरूप ईश्वर की भक्ति करना उसके निर्गुण निराकार स्वरूप की भक्ति करने की अपेक्षा अधिक सरल है। इसलिए ईश्वर की अनेक विभूतियों को इष्ट की तरह मानकर उनके साकार स्वरूप की पूजा से
भी ईश्वर-साक्षात्कार किया जा सकता है।
अध्याय 10 में इस विषय में कहा गया है :
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।40
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गीता अध्याय 12 में इस बारे में यह निर्देश भी प्राप्त होता है :
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवं।।3
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।4
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।5
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