ऐतरेय उपनिषद्
प्रथम अध्याय,
तृतीय खण्ड
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ग्रहण किया ....
तत्प्राणेनाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोत्प्राणेन ग्रहीतुं,
स यद्धैनत्प्राणेनाग्रहैष्यदभिप्राण्य हैवान्नमत्रप्स्यत् ।।४।।
(तत् प्राणेन अजिघृक्षत् -- तत् न अशक्नोत् प्राणेन ग्रहीतुं -- स यत् ह एनत् प्राणेन अग्रहैष्यत् --अभिप्राण्य ह एव अन्नम् अत्रप्स्यत्।)
उस आत्मा (अहम्) वा इदम् के प्रतिरूप ने प्राण अर्थात् घ्राण-इन्द्रिय रूपी के साधन के प्रयोग से प्राण द्वारा अन्न को ग्रहण करने का यत्न किया किन्तु वह ऐसा न कर सका, यदि ऐसा हो सकता था तो मनुष्यमात्र केवल सूँघकर ही अन्न को ग्रहण कर सकता होता और इतने से ही तृप्त हो जाता ।
यह इसका भी द्योतक है कि श्वास के माध्यम से ही जीवन की प्रथम अभिव्यक्ति प्राणियों में हुई। श्वास प्राण से ही संचालित है और प्राण का ही व्यक्त रूप है जिसे मनुष्य एक सीमा तक नियंत्रण में रख सकता है।
तच्चक्षुषाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोच्चक्षुषा ग्रहीतुं,
स य यत् ह एनच्चक्षुषाग्रहैष्यद् दृष्ट्वा हैवान्नमत्रप्स्यत् ।।५।।
तब उसने चक्षु अर्थात् नेत्र-इन्द्रिय से अन्न को ग्रहण करने का यत्न किया, किन्तु ग्रहण न कर सका।
यदि कर सका होता, तो मनुष्य अन्न को देखने मात्र से ही तृप्त हो जाता।
तच्छ्रोत्रेणाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोच्छ्रोत्रेण ग्रहीतुं,
स यद्धैनच्छ्रोत्रेणाग्रहैष्यच्छ्रुत्वा हैवान्नमत्रप्स्यत् ।।६।।
तब उसने कानों अर्थात् श्रोतृ-इन्द्रिय से अन्न को ग्रहण करने का यत्न किया, किन्तु ग्रहण न कर सका।
यदि कर सका होता, तो मनुष्य अन्न (की ध्वनि या 'अन्न' शब्द) को सुनने मात्र से ही तृप्त हो जाता।
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प्रथम अध्याय,
तृतीय खण्ड
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ग्रहण किया ....
तत्प्राणेनाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोत्प्राणेन ग्रहीतुं,
स यद्धैनत्प्राणेनाग्रहैष्यदभिप्राण्य हैवान्नमत्रप्स्यत् ।।४।।
(तत् प्राणेन अजिघृक्षत् -- तत् न अशक्नोत् प्राणेन ग्रहीतुं -- स यत् ह एनत् प्राणेन अग्रहैष्यत् --अभिप्राण्य ह एव अन्नम् अत्रप्स्यत्।)
उस आत्मा (अहम्) वा इदम् के प्रतिरूप ने प्राण अर्थात् घ्राण-इन्द्रिय रूपी के साधन के प्रयोग से प्राण द्वारा अन्न को ग्रहण करने का यत्न किया किन्तु वह ऐसा न कर सका, यदि ऐसा हो सकता था तो मनुष्यमात्र केवल सूँघकर ही अन्न को ग्रहण कर सकता होता और इतने से ही तृप्त हो जाता ।
यह इसका भी द्योतक है कि श्वास के माध्यम से ही जीवन की प्रथम अभिव्यक्ति प्राणियों में हुई। श्वास प्राण से ही संचालित है और प्राण का ही व्यक्त रूप है जिसे मनुष्य एक सीमा तक नियंत्रण में रख सकता है।
तच्चक्षुषाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोच्चक्षुषा ग्रहीतुं,
स य यत् ह एनच्चक्षुषाग्रहैष्यद् दृष्ट्वा हैवान्नमत्रप्स्यत् ।।५।।
तब उसने चक्षु अर्थात् नेत्र-इन्द्रिय से अन्न को ग्रहण करने का यत्न किया, किन्तु ग्रहण न कर सका।
यदि कर सका होता, तो मनुष्य अन्न को देखने मात्र से ही तृप्त हो जाता।
तच्छ्रोत्रेणाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोच्छ्रोत्रेण ग्रहीतुं,
स यद्धैनच्छ्रोत्रेणाग्रहैष्यच्छ्रुत्वा हैवान्नमत्रप्स्यत् ।।६।।
तब उसने कानों अर्थात् श्रोतृ-इन्द्रिय से अन्न को ग्रहण करने का यत्न किया, किन्तु ग्रहण न कर सका।
यदि कर सका होता, तो मनुष्य अन्न (की ध्वनि या 'अन्न' शब्द) को सुनने मात्र से ही तृप्त हो जाता।
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