Thursday, 31 October 2019

Global Economy

Dynamic Balance.
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If Global Economy as a whole has to survive and prosper the 5 tenets of Upanishads* are to be followed as the tenets.
(* The word 'Upanishads' is plural indicating that it is about wisdom.
While The word 'Upanishad' is synonymous with 'wisdom'; and as such has no plural form.)
Whatever be the case, The Upanishad give us the 5 directive principles that could help the dynamic balance to support and maintain the development and sustenance of Economy at that level.
The 5 tenets are :

सह नाववतु।
सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु।
मा विद्विषावहै।
ॐ शांतिः।  शांतिः । शांतिः।
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Economy is transactions of and about money, wealth and prosperity.
The First tenet :
"सह नाववतु।"
is the Expression of interest (EOI).
We as the Global Humans wish :
"May Economy save and breed together with one and all."
The Second tenet :
सह नौ भुनक्तु।
is the Collective and the individual Objective .
"May We all prosper together."
The Third tenet :
सह वीर्यं करवावहै।
is the Agreement reached at :
"May we endeavor for attaining this objective."
The Fourth tenet :
 तेजस्वि नावधीतमस्तु।
is :
"May the Ultimate Goal / Success of all our efforts be to maintain a
Dynamic Balance : and Amity between us."
And, the Fifth tenet :
मा विद्विषावहै।
is the core inspiration that leads us in this direction
That is --
"May we not be jealous of one another."
This last one is a check on our greed and fear, of being Supremacist attitudes that turn into 'Competition' and ultimately destroys the Whole Process.
A hint :
Monopoly 
Ultimately and finally ruins everything and becomes the nemesis of itself as well.
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संक्षेप में :
"सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास"
इसी पंचशील / पंचरत्न का पर्याय हो सकता है।
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Hope Google is listening !
A business can always profit prosper iff the above principles are given attention to, in all our business activities whether 
B to B or B to C, or even B to G.
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Friday, 25 October 2019

The Intrigue.

The Reality.
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The latest trend in the so-called 'Spiritual' is focused around two poles.
One is the Buddhist and the associated doctrines;
And the other around the Vedanta.
Between them oscillate the various philosophical approaches that attract the seeker.
No surprise, the Vedanta-texts and the Buddhist-Literature appear as if dealing with the so-called 'Spiritual', in two contradictory approaches.
When it comes to practice, J.Krishnamurti (like the Buddhists) leaves us just clueless.
In between are the traditional paths of Yoga, Bhakti, even Tantra.
The seeker and the layman is equally even more confused, when he tries to understand what they teach.
Religion and Philosophy hardly help in solving the riddle 'Spiritual' (whatever it is about).
Vedanta however presents before us the essential, inevitable prerequisites before embarking upon the endeavor about the 'Spiritual'.
The practice is however for those, who 'deserve'.
And the seeker is advised to ponder over the nature of things in term of transiency and permanency. Contemplating about this aspect of Reality takes one soon to the essential nature of Truth.
Truth is what is permanent. 
Untruth is what is transient.
However, before looking for Truth in this way, one is supposed to have grasped and developed the dispassion and lost all interest in the 'Phenomenal' as if not of any use whatsoever.
Even without being pointed out by someone, one eventually comes across the 'Realization' that  
'Consciousness' is the fulcrum that is the foundation and the only,-even unique 'support' for the 'Phenomenal'. 
The next Realization is that while this consciousness is tainted by the 'mind' it is ever so distinct and pure, chaste and virgin, incorruptible that it always hints something even deeper, where-from it is manifest, emerges and subsequently merges into the same source again and again.
The seeker can go along whatever thread he would like to.
Sense of 'I AM' or rather the 'I' takes one there almost in no time.
But then as J.Krishnamurti variously points out :
The description is not the described.
The observer is the observed. 
The thought is the 'thinker'. 
One finally understands the full import of what He might be pointing out at / saying about.
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Tuesday, 22 October 2019

Sovereign Democratic Republic

भारत के संविधान की भूमिका 
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भारत के संविधान की भूमिका में भारत को
Sovereign Democratic Republic घोषित किया गया है।
वर्ष 1976 में  दो शब्द Secular (धर्मनिरपेक्ष) एवं Socialist (समाजवादी) और जोड़े गए।
Sovereign वैराज्यं / स्वैराज्यं का सज्ञात / cognate हो सकता है क्योंकि इसका अक्षरशः अर्थ भी यही है।
Democratic धर्मकृतिक का सज्ञात / cognate हो सकता है क्योंकि इसका अक्षरशः अर्थ भी यही है।
Republic परि-बहुलिक का सज्ञात / cognate हो सकता है क्योंकि इसका अक्षरशः अर्थ भी यही है।
अंग्रेज़ी में :
Poly बहुलीय का सज्ञात / cognate हो सकता है क्योंकि इसका अक्षरशः अर्थ भी यही है।
Polynomial बहुलीय नामीय के साथ 'ल' प्रत्यय (suffix) जुड़ने से बना है।   
Polity / बहुलित का सज्ञात / cognate हो सकता है क्योंकि इसका अक्षरशः अर्थ भी यही है।
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हमारी मूल समस्या यह है कि अंग्रेज़ी विद्वानों ने जानबूझकर हमें भ्रमित करने के लिए भाषाशास्त्र में
derivation of a language from another language -Theory;
किसी भाषा की व्युत्पत्ति / उद्गम किसी अन्य भाषा से होने के सिद्धान्त
को 'स्थापित' किया ताकि संस्कृत (और दूसरी तमाम भारतीय भाषाओं) को  किसी और भाषा से उत्पन्न हुआ कहकर हमारा ध्यान इस तथ्य से हटा दिया जाए कि Cognate-Theory के माध्यम से भी भाषाओं की विविधता को अधिक सरलता और अच्छी तरह से स्पष्ट किया जा सकता है।
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Democratic / धर्मकृतिक, स्वयं ही Secular का पर्याय और विधेय (positive) रूप है।
Secular के लिए 'धर्म-निरपेक्ष' का प्रयोग अनावश्यक विस्तार है।
इसी प्रकार,
Republic / परि-बहुलिक, -स्वयं ही Socialist का पर्याय और विधेय (positive) रूप है।
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Monday, 21 October 2019

भूः भुवः स्वः

भौम और सार्वभौम
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तीन व्याहृतियाँ  :
भूः भुवः स्वः
व्यक्त सृष्टि का मूल है।
भू भूमि अर्थात् पृथ्वी तत्व है जो व्यक्त जगत में भौतिकता के रूप में कार्य करता है।
भुवः अर्थात् भुवन; लोक का आधार है।
यही लोक संसार है।
जड भौतिकता की दृष्टि में विषयों (objects) का स्वतंत्र अस्तित्व है और चेतना नामक गुणधर्म जो किसी संगठित पिंड में प्रकट / व्यक्त होता है वह भी इस प्रकार उन जड तत्वों के परस्पर मिश्रण से होता है।
इस प्रकार सम्पूर्ण संसार केवल जड पदार्थ या द्रव्य की गतिविधि और उसके परिणाम के विविध प्रकारों की समष्टि है। इस प्रकार संसार एक स्वतंत्र सत्ता है जो स्वयं तथा जिसका हर छोटे से छोटा अंश अज्ञात शक्ति से
संचालित होता है। किन्तु जिसकी मान्यता है कि इस प्रकार के संसार का अस्तित्व उससे भिन्न है, और वह स्वयं उसके जैसे असंख्य शरीरों की तरह जैव-इकाई के रूप में एक विशिष्ट शरीर है, जिसमें चेतना के प्रकट होने
से उसका जीवन है, -अपने-आपको मूर्त देह के अतिरिक्त अमूर्त चेतनता की तरह भी स्वीकार करता है। यद्यपि यह मान्यता भी "मस्तिष्क में उत्पन्न एक विचार या कल्पना ही है, और यह भी शरीर की क्रिया-प्रणाली का स्वाभाविक कार्य है", ऐसा भी आग्रह किया जा सकता है। जो भी हो, प्रत्येक जीवित शरीर में ऐसी एक चेतना (भान) होता ही है और किसी सद्योमृत के बारे में हमारे पास इस का कोई प्रमाण नहीं हो सकता कि क्या उसमें अपने आपके विशिष्ट शरीर से रहित होने पर भी अमूर्त चेतनता की तरह होने का भान हो सकता है या नहीं। इस प्रकार शरीर, जो पदार्थ के गुणधर्मों (Physical and Chemical Properties) का संयोग मात्र है, और जिसमें 'स्व' नामक भान तथा उसके दूसरों से भिन्न और किसी हद तक स्वतंत्र होने का अनुभव भी मूलतः इन्हीं गुणधर्मों का परिणाम है।
किन्तु यह प्रश्न तो फिर भी बना रहता है कि जिस अज्ञात शक्ति के द्वारा यह सब संचालित होता है, वह स्वयं जड है या चेतन ?'स्व' तो सदैव चेतन है इसे स्वीकार करने के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं, किन्तु 'स्व' के जड होने की संभावना पर विचार करें तो ऐसा विचार भी कोई चेतन 'स्व' ही कर सकता है। इस प्रकार भौतिक विज्ञान स्वयं ही अपनी मर्यादा तय कर अपना निषेध कर देता है और यह भी स्वीकार करता है कि चेतन / चेतना के गुणधर्म / स्वभाव जड के गुणधर्म / स्वभाव से उच्चतर कोटि के हैं। तब अनुसंधान इस दिशा में होता है, कि क्या चेतना ऐसा ईश्वर है, या ईश्वर ऐसी चेतना है जो संसार से विच्छिन्न / भिन्न स्वतंत्र सत्ता है? क्या वह संसार से बाहर और भिन्न हो सकता है?
गीता में इसी क्रम में कहा गया है :
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।18
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्याहरागमे।।9
(अध्याय 8)
इससे यह तो स्पष्ट नहीं होता कि मृत्यु होने के बाद 'स्व' दूसरा शरीर धारण करता है या शरीर के साथ समाप्त हो जाता है, किन्तु यह तो प्रत्येक का अनुभव है कि रात्रि में सो जाने के बाद यद्यपि संसार का, या 'स्व' का भान मिट जाता है और नींद से जागते ही संसार का और 'स्व' का भान भी जागृत हो जाता है। मनुष्यमात्र नींद से जागने के बाद 'निद्रा में मैं कुछ नहीं जान रहा था' इसे भी जानता है। इस प्रकार जो 'स्व' (और 'स्व' की चेतना / भान) जागने के बाद कार्य करने लगते हैं वह उसकी निद्रा की अवस्था में भी विद्यमान थे, क्योंकि इसी आधार से मनुष्य अपनी उस पहचान से पुनः 'स्व' की पुष्टि करता है। वह भूल से भी "निद्रा में मैं ("स्व") नहीं था" ऐसा कभी नहीं कहता। इससे यह स्पष्ट है कि यह चेतना (जो भले ही जड पदार्थों के विशिष्ट संयोग का परिणाम मात्र हो या उनसे भिन्न स्वतंत्र सत्ता हो), 'स्व' का मूल है।
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क्या यह चेतना उस 'ईश्वर' से स्वतंत्र हो सकती है जो विशिष्ट शक्ति के रूप में सम्पूर्ण जड-चेतन की समस्त गतिविधियों को संचालित करता है? इस प्रकार 'ईश्वर' क्या कोई विशिष्ट व्यक्ति हो सकता है?
क्या ईश्वर सार्वभौम और सब में व्याप्त और सब उसमें ओतप्रोत नहीं है ?
इस प्रकार मैं ('स्व') यद्यपि नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव तथा सभी प्राणियों का आत्मा है / हूँ,
तथापि :
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।4
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्माभूतभावनः।।5    
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।11
(अध्याय 9)
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ईश्वर अवतार के रूप में व्यक्ति-विशेष की तरह प्रकट हो सकता है, किन्तु अपना कार्य पूर्ण करने के बाद अपने मूल स्वरूप में लौट जाता है और जीव की तरह उसका जन्म या पुनर्जन्म नहीं होता। इस दृष्टि से भी ईश्वर व्यक्ति नहीं है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।7 
(अध्याय 4)  ...
इसी तथ्य को इंगित करता है।
इस साकार अवतार-स्वरूप ईश्वर की भक्ति करना उसके निर्गुण निराकार स्वरूप की भक्ति करने की अपेक्षा अधिक सरल है। इसलिए ईश्वर की अनेक विभूतियों को इष्ट की तरह मानकर उनके साकार स्वरूप की पूजा से
भी ईश्वर-साक्षात्कार किया जा सकता है।
अध्याय 10 में इस विषय में कहा गया है :
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।40
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गीता अध्याय 12 में इस बारे में यह निर्देश भी प्राप्त होता है :
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवं।।3 
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।4  
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।5 
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Saturday, 19 October 2019

Democracy and Demography / धर्म का इतिहास

ब्लॉग-अतीत के कुछ पृष्ठ 
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इस ब्लॉग का एकमात्र उद्देश्य और प्रेरणा था अपने द्वारा लिखित संग्रहणीय प्रतीत होनेवाले लेखों
एक स्थान पर संजोना। किन्तु अब एक नया तत्व अचानक उभर आया है वह है धर्म का इतिहास।
श्री ताहिर गोरा के you-tube वीडियो को देखते हुए और श्री एम. नागेश्वर राव का लिखा लेख पढ़ते
हुए लगा कि यह ब्लॉग अपनी संपूर्णता में उनके बहुत क़रीब है।
इसलिए उपरोक्त सन्दर्भ में अपने ब्लॉग का अवलोकन करते हुए यह पोस्ट लिख रहा हूँ।
इस ब्लॉग में कहा जा चुका है कि किस प्रकार भगवान् श्रीराम के युग में व्यक्ति की तरह ऋषि
जाबालि / जाबाल राजा दशरथ की सभा के एक सम्मानित, वरिष्ठ और प्रतिष्ठित सांसद थे।
 श्रीराम को वनवास का आदेश प्राप्त होने पर उन्होंने चार्वाक-दर्शन की युक्ति का सहारा लेते हुए
कहा था :
"तुम अभी युवा हो, अभी तुम्हारा विवाह हुए थोड़ा ही समय हुआ है, तो यह बिलकुल उचित नहीं है
कि तुम इस राज्य, धन, वैभव लक्ष्मी को त्यागकर वन को जाओ (और वैसे तो तुंहरे पिता को ही वन
में जाकर वानप्रस्थ आश्रम का समय वहां व्यतीत करना चाहिए। )
यह शरीर ही आत्मा है और अन्य सभी संबंध इसके सुख के लिए ही होते हैं न कि उनके लिए यह
शरीर।
तब श्रीराम ने  ऋषि जाबालि की भर्त्सना करते हुए कहा था कि मेरे लिए तो पिता की आज्ञा का
पालन करना ही धर्मऔर एकमात्र कर्तव्य है। और कैकेयी को दिए गए उनके वचनों को साकार करना
भी इसी प्रकार मेरा दायित्व है। यही उचित है कि राजा आपके जैसे संबुद्ध नास्तिक दण्डित करे।
किस प्रकार ऋषि जाबाल (सत्यकाम) को श्रीराम ने सम्बुद्ध और नास्तिक, वेद-विरोधी कहा था,
इसका वर्णन वाल्मीकि रामायण में प्राप्त होता है।  तब वसिष्ठ ऋषि ने भगवान् श्रीराम से कहा कि
जाबालि तुमसे केवल इसलिए ऐसा कह रहे हैं क्योंकि वे नहीं चाहते कि  तुम वन को जाओ।
वे ही जाबालि पुनः कहोड के रूप में जन्म लेते हैं और अष्टावक्र उनकी संतान के रूप में उनका तथा
उनकी पत्नी सुजाता का पुत्र होता है।
सिद्धार्थ गौतम के रूप में वे जब पुनः जन्म लेते हैं तो वैदिक कर्म-काण्ड से उनका मोहभंग हो चुका
होता है और वे पत्नी यशोधरा, पुत्र राहुल को सोता हुआ हुआ छोड़कर गृहत्याग कर मोक्ष की खोज में
निकल पड़ते हैं। अनेक प्रकार के कठिन तप करते हुए उनकी समस्त वृत्तियाँ निरुद्ध हो जाने पर उन्हें
समाधि (ज्ञान-समाधि) प्राप्त होती है।
आधिभौतिक स्तर पर इसकी अभिव्यक्ति उस निरञ्जना नदी के रूप में होती है जहाँ से अत्यंत दुर्बल
क्षीणकाय दशा में वे स्नान कर उस वटवृक्ष की ओर जाते हैं जिसे बोधि-वृक्ष कहा जाता है और जिसके
तले वे साधनारत थे।
आधिदैविक स्तर पर 'निरञ्जना' वह वृत्ति विशेष है जो अन्य समस्त वृत्तियों के दोषों का निवारण
कर देती है। (अञ्जन = कालिमा, निरञ्जन = दोषरहित, निर्दोष)
इस प्रकार निरञ्जना वृत्ति (नदी) में स्नान कर जब वे उससे भी निवृत्त हो जाते हैं तो वह भी निवृत्त
हो जाती है और सुजाता नामक वृत्ति प्रस्तुत होती है जिसके हाथों में क्षीरपात्र होता है।
इस प्रकार नीर-क्षीर विवेक नामक विवेक-ख्याति होने के बाद उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ।
पूर्व की पोस्ट में लिखा था कि यद्यपि अष्टावक्र जन्म से ही ज्ञानी थे, जबकि उनके पिता कहोड ने
वैदिक कर्मकाण्ड को ही मुक्ति का साधन मान लिया था।  तब वे वरुण के बंदी हुए जिससे उनके पुत्र
अष्टावक्र ने ही उन्हें मुक्त करवाया। अष्टावक्र की माता और ऋषि कहोड की पत्नी सुजाता तब भी
नारी प्रकृति के अनुसार निष्ठापूर्वक पातिव्रत धर्म का पालन करती हुई यद्यपि  परम श्रेयस की प्राप्ति
कर चुकी थी, किन्तु वृत्ति-रूप में वे पति की छाया की तरह उनके साथ रहती थी।
और इसी रूप में सुजाता ने सिद्धार्थ गौतम को उस समय खीर प्रदान की थी, जब वे निरञ्जना में स्नान
कर चुके थे।
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आध्यात्मिक दृष्टि से यही  आत्मा जो सब-कुछ है, समस्त नित्य-अनित्य का वह एकमात्र अधिष्ठान
आश्रय तथा आधार है, जहाँ से 'व्यक्ति' प्रकट / अभिव्यक्त होते हैं और जहाँ पुनः लीन हो जाते हैं।
इस प्रकार 'व्यक्ति' मात्र एक विचार है जिसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हो सकता, जबकि अद्वितीय
और एकमेव आत्मा /परमात्मा ही असंख्य व्यक्तियों तथा लोकों की तरह कल्प के आदि में व्यक्त,
तथा अंत में लीन हो जाता है।
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जाबाल-ऋषि तथा आर्ष-अंगिरा ऋषि ने ही पुनः कलियुग के प्रारम्भ में क्रमशः Gabriel / गैब्रिएल /
जिब्रील तथा Arch-Angel के रूप में अब्राहमिक परम्पराओं के संस्थापकों को धर्म का उपदेश दिया।
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इस बारे में पिछली पोस्ट्स में चर्चा की गयी है।
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सनातन धर्म के सिद्धांतों के अनुसार ईश्वर स्वयं ही व्यक्ति-रूप में अवतार लेता है; अवतरित होता है,
और उसके जन्म-कर्म दिव्य होते हैं। सामान्य मनुष्य उन्हें अपने जैसा कोई व्यक्ति समझ बैठता है।
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इस सन्दर्भ में यह देखना रोचक है कि 'गणतन्त्र' के लिए प्रयुक्त होने वाला अंग्रेज़ी शब्द
DEMOCRACY
धर्मकृतिय का,
DEMOGRAPHY
धर्मग्राहीय का,
तथा
DEMO उपसर्ग
धर्म का ही सज्ञात cognate है। 
मेरे उपरोक्त निष्कर्ष संभवतः परिकल्पनाओं hypotheses की तरह ग्रहण किए जा सकते हैं जिन्हें 
पूरी मनुष्यता के लिए हम एक सौहार्द्रपूर्ण समाज के निर्माण का आधार बना सकते हैं।
किन अज्ञात कारणों और प्रेरणाओं से मेरा प्रयास इस दिशा में हुआ और मैं नहीं कह सकता कि मेरे
निष्कर्ष कहाँ तक स्वीकार्य हो सकते हैं। मुझे इसका कोई श्रेय दिया जाए ऐसा भी मेरा दावा नहीं है,
किन्तु यह ज़रूर लगता है कि अनेक सम्प्रदायों में विभाजित मानव के लिए इनका उपयोग किया
जा सकता है।
और यह सनातन धर्म के सूत्रवाक्य :
"वसुधैव कुटुम्बकम्य"
से पूर्ण तारतम्य में भी होगा।
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Wednesday, 16 October 2019

भगवान् श्रीराम -- अदिति और दिति

वसिष्ठ कुम्भोद्भव गौतमार्य
मुनींद्र देवार्चित शेखराय।
चंद्रार्क वैश्वानर लोचनाय
तस्मै नकाराय नमः शिवाय।।
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वाल्मीकि रामायण में वसिष्ठ तथा अगस्त्य ऋषि के जन्म का विवरण प्राप्त होता है।
दोनों का जन्म कुम्भ
(कुंभ -- कुभ --जिसे भरा न जा सके, अर्थात् नभ -- cub -- cube -- incubation)
से हुआ था और यद्यपि दोनों ऋषियों का अपना स्वतंत्र स्थान है और दोनों आकाश में
दृश्य रूप में तारे या नक्षत्र की तरह दिखलाई पड़ते हैं, दोनों ही भगवान् शंकर की उपासना
करते हैं। भगवान् शंकर इस प्रकार नकार-रूप होते हुए भी सूर्य चंद्र तथा वैश्वानर (अग्नि)
रूपी नेत्रों से व्यक्त जगत पर दृष्टि रखते हैं।
ऐसे ही एक ऋषि हैं कश्यप जो विराट स्वरूप के हैं।
ऋषि कश्यप की दो पत्नियाँ हैं अदिति तथा दिति।
दिति कार्य-कारण (की कल्पना) है, तो अदिति सृष्टि का स्वाभाविक रहस्य है।
दिति के पुत्र आदित्य हैं जो पृथ्वी पर जीवन के अधिष्ठाता हैं।
बारह आदित्य रूपों में भगवान् आदित्य अर्थात् सूर्य मार्तण्ड कहे जाते हैं।
ये गूढ़ कथाएँ दिति-पुत्रों की दृष्टि में कार्य-कारण की मर्यादा के अंतर्गत तथाकथित भौतिक
विज्ञान के अनुसार गल्प या कल्प / कल्पना का विलास मात्र है।
एक बार अदिति और दिति दोनों बहनों में विवाद हुआ।
अदिति का कहना था कि समस्त घटनाएँ विधाता द्वारा निर्धारित रीति से अपने समय पर
होती हैं, और इसी प्रकार घटनाओं में क्रम की कल्पना कार्य-कारण तथा व्यतीत होनेवाले
समय को आधार बनाकर प्राणिमात्र में अपने स्वतंत्र कर्ता होने की भावना उत्पन्न करती है।
दिति इस मान्यता को सिरे से नकार देती थी।
दिति के मतानुसार मनुष्य (तथा सभी जीव) स्वयं ही अपने भाग्य-विधाता हैं।
दोनों के विवाद को सुनते हुए ऋषि कश्यप ने कहा :
मनुष्य या तो प्रकृति से कर्म में प्रवृत्त होता है या अपने संकल्प से।
इसलिए यह जानना आवश्यक है कि संकल्प कहाँ से उत्पन्न होते हैं ताकि इस विवाद का
समाधान हो सके।
तब से अदिति और दिति के मध्य मतभेद बना हुआ है।
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ऋषि वसिष्ठ को जब ज्ञात हुआ कि भगवान् श्री विष्णु रघुकुल में अवतार लेनेवाले हैं तो उन्होंने
निश्चय किया कि लीला के लिए ही सही वे उस कुल के राजपुरोहित होकर उनका सान्निध्य पा
सकेंगे।
महर्षि वाल्मीकि ने भी इसी प्रकार भगवान् विष्णु के अवतार होने की बात को जानकर तय किया
कि वे उनके आने तक प्रतीक्षा करेंगे और मोक्ष प्राप्ति के बजाय उनकी भक्ति का तत्व अंगीकार
करेंगे।
तब उन्होंने रामकथा को रामायण के रूप में संसार के समक्ष प्रस्तुत किया।
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भगवान् श्रीराम भी अपने लिए प्राप्त हुए कर्तव्य का निर्वाह कर वर्णाश्रम-धर्म की स्थापना कर
अपने श्रीधाम को चले गए। उनके साथ अयोध्यावासी, यहाँ तक कि मनुष्येतर प्राणी प्रकृतियाँ
(महर्षि श्री वाल्मीकि ने देवता, गन्धर्व, ऋषि, अप्सरा, नाग, किन्नर, वानर, गरुड़, राक्षस, दैत्य,
दानव, विद्याधर, तथा वृक्ष, नदियों, पर्वतों आदि को भी 'प्रकृति' कहा है।)
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महर्षि जाबालि (जो भगवान् श्रीराम के समय में थे और बाद में भी संसार के कल्याण के लिए
कार्य में सतत संलग्न हैं, जिनकी कथा मेरे स्वाध्याय के इस ब्लॉग में विस्तार से अनेक पोस्ट्स
में लिखी जा चुकी है), के अनेक प्रयासों के बाद भी दैत्यों और देवताओं के बीच आज भी परस्पर
अविश्वास बना हुआ है और मनुष्य उनके हाथों में कठपुतली मात्र है।
होइहै सोइ जो राम रचि रखा। 
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पिछली पोस्ट में कहा जा चुका है कि वर्णाश्रम धर्म न सिर्फ वैदिक बल्कि प्रकृतिप्रदत्त धर्म है,
-जो किसी भी समाज के लिए सर्वाधिक युक्तिसंगत व्यवस्था है।
यदि सभ्यता / समाज / मनुष्य इसका पालन करता है तो अपेक्षाकृत अधिक स्थिर और सुखी होगा।
वर्णाश्रम धर्म में ही विवाह का विधान और सुनिश्चित स्थान है क्योंकि चारों वर्ण ईश्वर के द्वारा
रचे गए हैं (गीता : चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं ...) और वर्ण की शुद्धता बनाए रखने के लिए ही विवाह 
की व्यवस्था है। गीता में ही अर्जुन द्वारा तर्क दिया गया कि युद्ध से स्त्रियाँ विधवा हो जाएँगीं
और कुलधर्म का उच्छेद हो जाएगा। स्त्रियों के दूषित होने से पिण्डोदक कार्य होना बंद हो जाएगा
और पितरों का अनियत काल तक नरक-वास होगा।
क्या भगवान् श्रीकृष्ण इस तथ्य से अनभिज्ञ थे?
उन्होंने अर्जुन से कहा :
'प्रकृतिः त्वां नियोक्ष्यसि'
अर्थात् तुम्हारी (क्षत्रिय) प्रकृति ही तुम्हें युद्ध करने के लिए प्रेरित करेगी।
इस प्रकार अंततः महाभारत का युद्ध हुआ, जिसके बाद कलियुग का आगमन हुआ।
यूरोप, अफ्रीका, अमेरिका तथा अन्य कई स्थानों पर विवाह की अवधारणा कभी थी ही नहीं।
कम से कम उस आधार पर तो कदापि नहीं थी, जिसका उल्लेख वर्णाश्रम धर्म में पाया जाता है।
अब 'प्रगतिशीलता' के दौर में तो हम समलैंगिक विवाहों तक को वैधानिक मान्यता देने के बारे
में बहस कर रहे हैं !
धन्य है मनुष्य और उसकी प्रगति और नियति !
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Tuesday, 8 October 2019

चार वर्ण, चार आश्रम

पिछले दोनों पोस्ट्स परस्पर संबद्ध हैं।
आज ही लिखे हैं।
कृपया उन्हें एक साथ पढ़ें।
गीता अध्याय 4 में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :
चातुर्वर्ण्यं मयासृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।13
--
इस प्रकार ईश्वर के अकर्ता होते हुए भी प्रकृति उसके ही सान्निध्य से चार वर्ण में व्यक्त होती है।
क्या ईश्वर मनुष्य की तरह कोई व्यक्ति-विशेष है?
अध्याय 9 में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।11
इसके पूर्व इसी अध्याय 9 में वह कहते हैं :
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।4
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य में योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।5
--
गीता में ऐसे ही अन्य श्लोक उल्लेखनीय हैं :
श्रेयान्स्वधर्मो  विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। 
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।35 
(अध्याय 3)
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। 
स्वकर्मणा तमभ्यर्च सिद्धिं विन्दति मानवः।।46 
(अध्याय 18)
श्रेयान्स्वधर्मो  विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। 
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।47 
(अध्याय 18)
--
इससे स्पष्ट है कि पूरी सृष्टि में हर मनुष्य प्रकृतिप्रदत्त उपरोक्त चार वर्णों में से एक में जन्म लेता
है। और इसके ही अनुसार सत्व, तम तथा रजो गुणों से प्रेरित हुआ कर्म करता है।
आजीविका के लिए भी कर्म करना आवश्यक है ही किन्तु यदि कोई अपने स्वाभाविक वर्ण से भिन्न
वर्ण के पालन का प्रयत्न करता है तो इससे उसे क्लेश ही प्राप्त होगा, न कि श्रेय।

इसी प्रकार 'आश्रम' भी मनुष्य को 'प्राप्त' होता है।
 जन्म से ही मनुष्य का आचरण स्वाभाविक रूप से ही ब्रह्म जैसा होता है।
युवा होने पर उसे गृहस्थ आश्रम / धर्म प्राप्त होता है प्रौढ़ होने पर वानप्रस्थ तथा वृद्ध हो जाने पर
संन्यास। यह मनुष्यमात्र के लिए सत्य है।
इसका किसी विशेष सम्प्रदाय से जुड़े धर्म से कोई विरोध नहीं है।
इसीलिए यह पूरे मानव समाज के लिए पूरे विश्व में ग्राह्य है।
चारों वर्ण परस्पर सहायक हैं और न तो कोई छोटा है न कोई बड़ा।
ब्राह्मण न हो तो ज्ञान का प्रचार प्रसार रुक जाएगा।
क्षत्रिय न हो तो दुष्ट प्रकृति के लोगों तथा हिंस्र पशुओं से दुर्बल स्त्री-पुरुषों की रक्षा कौन करेगा?
वैश्य न हो तो पूरी अर्थ-व्यवस्था ही नष्ट हो जाएगी।
शूद्र न हों तो सेवा के अभाव में रुग्ण और असहाय लोगों का जीना कठिन होगा।
सामान्यतः वर्ण को जाति  समझ लिया जाता है।
जाति का अर्थ है माता-पिता तथा वंश, जिसमें किसी का जन्म होता है।
वर्ण का अर्थ है मनुष्य में विद्यमान गुण तथा उसके लिए उपयुक्त स्वाभाविक कर्म।
इसलिए एक ही वंश में उत्पन्न हुए भाइयों में से कोई शिक्षक (ब्राह्मण) कोई सैनिक या शासक
(क्षत्रिय), कोई व्यवसायी (वैश्य) तथा कोई डॉक्टर या चिकित्सक या नौकरीपेशा अर्थात् शूद्र हो
सकता है। और किसी भी मानव-समाज में ये चारों वर्ण होने पर ही समाज सुस्थिर और सुचारु
रूप से विकसित होता है।
जहाँ तक मानव-संस्कृति का प्रश्न है वह वैदिक या वेद से भिन्न भी होती है।
इसलिए वर्णाश्रम व्यवस्था दोनों ही स्थितियों में बहुत उपयोगी है।
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Monday, 7 October 2019

My way to dharma

प्रश्न :
कः धर्म अनुष्ठेयः
कः धर्म पालनीयः।
किं कर्तव्याकर्तव्यम्
कथितुमर्हसि प्रभो।।
उत्तर :
श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासात्
ज्ञानात् ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात् कर्मफलत्यागः
त्यागात् शान्तिः अनंतरम्।।
अभ्यासं यत्क्रियते
ज्ञानरहितं हि यत्।
अभ्यासं तत्भयावहम्
प्रमादेन कृतं हि तत्।।
ज्ञान-ध्यानयोः धर्मः
जहदजहेन प्रवर्तते।
जहदजहत्-लक्षणयोः
झेन इति प्रकीर्तितम्।।
विरम्यन्ते यस्मात्
विचारवृत्तयः सर्वाः।
तच्चिन्तनं चिन्तो वा
शिन्तो इति विजानीयात्।।
धिया धीः चेतसायुक्ता
या स्थिरा निश्चला अथ
सा थिया थियो इति
गीर्वाणी सा ग्रीकायाम् ।।
एतया त्रीण्या-भेदया
धर्मत्रयी या उच्यते।
असौऽपि धर्म-सनातनः
वर्णाश्रमयुक्तो हि यः।।
रा दाने ला आदाने
यास्मिन्तत्वं धीयते।
वर्णाश्रमविरोधित्वात्
तमपि धर्म्यः गृह्णीयात्।।
अन्येऽपि सर्वे धर्माः
लोके ये प्रवर्तन्ते।
तेऽपि व्यवहर्तव्याः
वर्णाश्रमानुकूला ये।।
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Non-violence

शस्त्रपूजा और शास्त्रपूजा 
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दशहरे पर VY-Culture से एक मेसेज मिला :
Non-violence is the greatest force at the disposal of mankind. 
It is mightier than the mightiest weapon of destruction.
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ज्ञात इतिहास में इसका एक उदाहरण भगवान बुद्ध हो सकते हैं।
एक गुडाकेश का वर्णन गीता के अध्याय 10 में है :
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। 
अहमादिश्च मध्यं च  भूतानामन्त एव च।।20   
जिसका अर्थ करते हुए (शांकर-भाष्य में) पूज्य भगवत्पाद आचार्य शंकर ने कहा है :
गुडा का अर्थात् निद्रा का स्वामी, यानी निद्राजयी होने के कारण अथवा घनकेश
होने के कारण अर्जुन का नाम गुडाकेश है।
अर्जुन को इन्द्र से (मंत्रसिद्ध) अस्त्र प्राप्त हुए थे।
ऐसा ही (मंत्रसिद्ध) अस्त्र अश्वत्थामा को अपने पिता आचार्य द्रोण से प्राप्त हुआ था,
जिसका प्रयोग उसने युद्ध के बाद पाण्डु-कुल के नाश के लिए करना चाहा।
अश्वत्थामा उपरोक्त अर्थ में गुडाकेश / निद्राजयी नहीं था।
ऐसे ही अनेक (मंत्रसिद्ध) दिव्य अस्त्र भगवान् श्रीराम को ऋषि विश्वामित्र से प्राप्त
हुए थे।
श्रीराम के अनुज भगवान् श्री लक्ष्मण को ऐसे अस्त्र प्राप्त हुए या नहीं इस बारे में मुझे
ठीक से ध्यान नहीं है कि वाल्मीकि रामायण में क्या उल्लेख है।
भगवान् श्रीराम ने इसी अस्त्र का प्रयोग इन्द्र के पुत्र जयंत पर तब किया था जब उसने
माता सीता के प्रति अपराध किया था। 
इसका उल्लेख भी वाल्मीकि रामायण में है ही।
किन्तु भगवान् श्री लक्ष्मण भी इस अर्थ में गुडाकेश थे कि उन्होंने भी निद्रा पर जय
प्राप्त कर ली थी। किन्तु अर्जुन तथा भगवान् श्री लक्ष्मण ने जिस अर्थ में निद्रा पर
जय प्राप्त की थी वह केवल संकल्पशक्ति से पाई गयी थी।
निद्रा का देवता-स्वरूप क्या है इसे वाल्मीकि रामायण में इन्द्र द्वारा माता सीता को
खीर दिए जाने के प्रसंग से समझा जा सकता है।
अर्जुन तथा भगवान् श्री लक्ष्मण ने इस अर्थ में निद्रा को नहीं जाना था जिस अर्थ में
निद्रा को गुडा / गूढा कहा जाता है।
इस प्रकार ऐसे मनुष्य के लिए जिसने गुडा-आकेश के अर्थ में निद्रा (के स्वरूप) में
प्रवेश नहीं किया है उसे भी गुडाकेश कहा जा सकता है।
दूसरी ओर गीता में ही :
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। .... 
 (अध्याय 2 , श्लोक 69)
में जिस निद्रा का संकेत किया गया है उस निद्रा का तात्पर्य है मन की तीन अवस्थाओं;
-जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के आने जाने के प्रति जागृति होना।
इस प्रकार की जागृति (अर्थात् बुद्धत्व) के प्राप्त होने पर ही 'अहिंसा' / Non-violence की
वह सिद्धि अनायास प्राप्त हो जाती है जिसका उल्लेख पातञ्जल योग-सूत्र में पाया जाता
है। यह भी एक प्रकार का (मंत्रसिद्ध) अस्त्र हो सकता है जिसके प्रयोग से शत्रु के भीतर वैर
तथा हिंसा की भावना ही समाप्त हो जाते हैं।
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तात्पर्य यह कि शस्त्र-पूजा क्षत्रियों के लिए है जबकि शास्त्र-पूजा ब्राह्मणो के लिए।
(वर्णाश्रम धर्म किस प्रकार वैश्विक सनातन-धर्म है तथा वेद-विहित एवं वेद से भिन्न
परम्पराओं के लिए भी ईश्वरीय आदेश है इस बारे में अगली पोस्ट में। )
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इस पोस्ट तथा अगली सभी पोस्ट में Labels नहीं होंगे, कृपया ध्यान दें।
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Saturday, 5 October 2019

अजिघृक्षत् - अग्रहैष्यत्

ऐतरेय उपनिषद् 
प्रथम अध्याय,
तृतीय खण्ड 
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ग्रहण किया ....
तत्प्राणेनाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोत्प्राणेन ग्रहीतुं,
स यद्धैनत्प्राणेनाग्रहैष्यदभिप्राण्य हैवान्नमत्रप्स्यत् ।।४।।
(तत् प्राणेन अजिघृक्षत् -- तत् न अशक्नोत् प्राणेन ग्रहीतुं -- स यत् ह एनत् प्राणेन अग्रहैष्यत् --अभिप्राण्य ह एव अन्नम् अत्रप्स्यत्।)      
उस आत्मा (अहम्) वा इदम् के प्रतिरूप ने प्राण अर्थात् घ्राण-इन्द्रिय रूपी के साधन के प्रयोग से प्राण द्वारा अन्न को ग्रहण करने का यत्न किया किन्तु वह ऐसा न कर सका, यदि ऐसा हो सकता था तो मनुष्यमात्र केवल सूँघकर ही अन्न को ग्रहण कर सकता होता और इतने से ही तृप्त हो जाता ।
यह इसका भी द्योतक है कि श्वास के माध्यम से ही जीवन की प्रथम अभिव्यक्ति प्राणियों में हुई। श्वास प्राण से ही संचालित है और प्राण का ही व्यक्त रूप है जिसे मनुष्य एक सीमा तक नियंत्रण में रख सकता है।
तच्चक्षुषाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोच्चक्षुषा ग्रहीतुं,
स य यत् ह एनच्चक्षुषाग्रहैष्यद् दृष्ट्वा हैवान्नमत्रप्स्यत् ।।५।।
तब उसने चक्षु अर्थात् नेत्र-इन्द्रिय से अन्न को ग्रहण करने का यत्न किया, किन्तु ग्रहण न कर सका।
यदि कर सका होता, तो मनुष्य अन्न को देखने मात्र से ही तृप्त हो जाता।
तच्छ्रोत्रेणाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोच्छ्रोत्रेण ग्रहीतुं,
स यद्धैनच्छ्रोत्रेणाग्रहैष्यच्छ्रुत्वा हैवान्नमत्रप्स्यत् ।।६।।
तब उसने कानों अर्थात् श्रोतृ-इन्द्रिय से अन्न को ग्रहण करने का यत्न किया, किन्तु ग्रहण न कर सका।
यदि कर सका होता, तो मनुष्य अन्न (की ध्वनि या 'अन्न' शब्द) को सुनने मात्र से ही तृप्त हो जाता।
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Friday, 4 October 2019

Grant Duff

सद्दर्शनं 
Truth Revealed.
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After going through the teachings of Bhagvan Sri Ramana Maharshi for a year
or two, I went to
Sri Ramanashramam, Tiruvannamalai (South India).
I bought a few books about Him or His works.
"TRUTH REVEALED" was one such a small book with a Preface written by
Grant Duff.
Earlier, I had read about Him, so greatly benefited by this Preface.
For the benefit of readers I posted the same verbatim in my another
 ramanavinay blog.
Here I'm presenting the Preface only.
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A NOTE
ON THE ENGLISH TRANSLATION
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The Title "TRUTH REVEALED" stands in the place of the original Tamil title
"ULLADU NARPADU"
which means
"Forty verses about That which is."
What is offered, therefore, to the earnest seeker in this short treatise is
SAD-VIDYA or Knowledge of Truth.
While TRUTH REVEALED is an original exposition of the Highest Truth by
Bhagavan Sri Ramana Maharshi,
the Supplement consists partly of the verses (which are about sixteen in number)
composed by Him for the first time.
In structure and expression the English translation of all the verses adheres very
closely to the text in Tamil and can, therefore, be entirely depended upon by the
reader, unacquainted though he be with the Tamil Language.
The synopsis gives clearly and concisely the central idea of each of the verses in
the entirety and may therefore be considered as a conspectus of the whole treatise.
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Note :
By the way,
The very first post in my blog
ramanavinay;
I have tried to present this text सद्दर्शनं (in Sanskrit),
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