मोक्षपथम्
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सुना है 'साँप-सीढ़ी' खेल का अविष्कार संत ज्ञानेश्वर ने किया था |
नेट पर देखे एक चित्र से उसकी एक अनुकृति बनाई है।
अगर ये संत ज्ञानेश्वर वही हैं जिन्होंने ज्ञानेश्वरी और अमृतानुभव / अनुभवामृत की रचना की हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। इस खेल में 72 खाने हैं।
उपनिषदों के अनुसार 'हृदय' अर्थात् 'आध्यात्मिक-हृदय' से जहाँ से 72,000 नाड़ियाँ निकलती हैं, एक नाड़ी मस्तिष्क की ओर जाती है . दूसरी ओर गर्भ में 'जीवात्मा' ब्रह्मरंध्र से सूक्ष्मशरीर के रूप में स्थूल-देह में प्रविष्ट होता है (गर्भोपनिषद में) , जो भी हो ब्रह्म की उपासना करनेवाले मनुष्य के प्राण उसकी मृत्यु के समय ब्रह्म-नाड़ी से होकर ब्रह्मरंध्र से ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं जिसके बाद भी यदि उसे आत्म-साक्षात्कार न हुआ हो तो उसे नया शरीर धारण करना पड़ सकता है।
गीता अध्याय ८ श्लोक १६ में भी वर्णन है :
अध्याय 8, श्लोक 16,
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥
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(आब्रह्म-भुवनात् लोकाः पुनरावर्तिनः अर्जुन ।
माम् उपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥)
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भावार्थ :
हे अर्जुन! ब्रह्म सहित, समस्त ही लोक (अर्थात् छोटे-बड़े सभी) बारम्बार प्रकट और अप्रकट हुआ करते हैं, किन्तु हे कौन्तेय (अर्जुन)! मुझे प्राप्त हो जाने के बाद ऐसा पुनः पुनः आवागमन फिर नहीं होता ।
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श्रीरमणगीता में कहा है :
स्वात्मभूतं यदि ब्रह्म ज्ञातुं वृत्तिः प्रवर्तते।
स्वात्माकारा तदा भूत्वा न पृथक्प्रतितिष्ठति । ।
(अध्याय 4, श्लोक 8 )
निर्गच्छन्ति यतः सर्वा वृत्तयो देहधारिणाम्।
हृदयं तत्समाख्यातं भावना कृति वर्णनम् । ।
(अध्याय 5 , श्लोक 2 )
हृदयस्य यदि स्थानं भवेच्चक्रमनाहतम्।
मूलाधारं समारभ्य योगस्योपक्रमः कुतः । ।
(अध्याय 5, श्लोक 4 )
तात्पर्य यह कि आत्मज्ञान होने की स्थिति में प्राण अंततः हृदय में ही प्रलीन हो जाते हैं।
उपरोक्त प्रसंग को संत ज्ञानेश्वर महाराज ने रोचक स्वरूप देकर खेल के रूप में प्रस्तुत किया है।
72000 अर्थात् प्रमुख 72 नाड़ियों के द्वारा चित्त आत्मा से बाहर जगत में विचरण करता है, ब्रह्म-नाड़ी से ब्रह्मरंध्र के द्वारा मृत्यु के बाद ब्रह्मलोक में जाता है और वहाँ से सीधे आत्मा में अर्थात् 'हृदय' में प्रविष्ट होता है, या जीते-जी भी ऐसा हो सकता है, जब प्राण (और चित्त) ब्रह्मनाड़ी का मार्ग न लेकर, ब्रह्मरंध्र से गुज़रे बिना 'यहीं' हृदय में ही प्रलीन हो जाते हैं (अत्रैव प्रलीयन्ते )।
जो मनुष्य किसी और नाड़ी के मार्ग से देहत्याग करते हैं वे या तो इष्ट का (नाम-)स्मरण करते हुए उसके लोक को प्राप्त होते हैं। गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में कहा है :
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।
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(यान्ति देवव्रताः देवान् पितॄन् यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनः अपि माम् ॥)
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भावार्थ :
देवताओं की उपासना / पूजा करनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं ( अर्थात् मृत्यु के बाद उनके लोक में स्थान पाते हैं), पितरों की उपासना / पूजा करनेवाले पितृलोक में, तथा भूतों की उपासना / पूजा करनेवाले भूतलोक अर्थात् मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं, जबकि मेरा यजन अर्थात् भक्ति / उपासना, पूजन, आदि करनेवाला मुझे / मेरे ही लोक (धाम) को प्राप्त होता है ।
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टिप्पणी :
स्पष्ट है कि मृत्यु के अनन्तर किसी मनुष्य की क्या गति होती है, इस बारे में इस श्लोक के आधार से अनुमान लगाया जा सकता है ।
भगवान् श्रीकृष्ण के धाम का वर्णन संक्षेप में अध्याय 8, श्लोक 21 में इस प्रकार से वर्णित किया गया है :
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अध्याय 8, श्लोक 21,
अव्यक्तोऽक्षर इत्याहुस्तमाहुः परमां गतिं ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
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(अव्यक्तः अक्षरः इति उक्तः तम् आहुः परमाम् गतिम् ।
यम् प्राप्य न निवर्तन्ते तत् धाम परमम् मम ॥)
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भावार्थ :
अव्यक्त (अर्थात् जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, स्मृति आदि से किसी व्यक्त विषय की भाँति ग्रहण नहीं किया जा सकता, किन्तु इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, स्मृति आदि जो उसके ही व्यक्त रूप हैं और उसके ही द्वारा प्रेरित किए जाने पर अपना अपना कार्य करते हैं), अक्षर अर्थात् अविनाशी, इस प्रकार से (जिस) उस परम गति का वर्णन किया जाता है, जिसे प्राप्त होने के बाद कोई पुनः संसार रूपी दुःख में नहीं जन्म लेता, वह मेरा परम धाम है ।
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शिव-अथर्वशीर्ष में भी स्पष्ट किया गया है :
या सा प्रथमा मात्रा ब्रह्मदेवत्या रक्ता वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेद्ब्रह्मपदं।
या सा द्वितीया मात्रा विष्णुदेवत्या कृष्णावर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेद्वैष्णवं पदम् ।
या सा तृतीया मात्रा ईशानदेवत्या कपिला वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेदैशानं पदम् ।
या सार्धचतुर्थीमात्रा सर्वदेवत्याSव्यक्तीभूता खं विचरति शुद्धस्फटिकसन्निभा वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स
गच्छेत्पदमनामयाम्।
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ये 72 मार्ग पुनः साँख्य के 24 तत्वों का त्रिगुणात्मक रूप हैं ...
इस बारे में अगली किसी पोस्ट में।
फिलहाल यही कि इस खेल के माध्यम से गूढ कठिन आध्यात्मिक तत्व का विवेचन किया गया है।
सीढ़ियाँ आध्यात्मिक उन्नति, और सर्प आध्यात्मिक अवनति के द्योतक हैं।
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सुना है 'साँप-सीढ़ी' खेल का अविष्कार संत ज्ञानेश्वर ने किया था |
नेट पर देखे एक चित्र से उसकी एक अनुकृति बनाई है।
अगर ये संत ज्ञानेश्वर वही हैं जिन्होंने ज्ञानेश्वरी और अमृतानुभव / अनुभवामृत की रचना की हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। इस खेल में 72 खाने हैं।
उपनिषदों के अनुसार 'हृदय' अर्थात् 'आध्यात्मिक-हृदय' से जहाँ से 72,000 नाड़ियाँ निकलती हैं, एक नाड़ी मस्तिष्क की ओर जाती है . दूसरी ओर गर्भ में 'जीवात्मा' ब्रह्मरंध्र से सूक्ष्मशरीर के रूप में स्थूल-देह में प्रविष्ट होता है (गर्भोपनिषद में) , जो भी हो ब्रह्म की उपासना करनेवाले मनुष्य के प्राण उसकी मृत्यु के समय ब्रह्म-नाड़ी से होकर ब्रह्मरंध्र से ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं जिसके बाद भी यदि उसे आत्म-साक्षात्कार न हुआ हो तो उसे नया शरीर धारण करना पड़ सकता है।
गीता अध्याय ८ श्लोक १६ में भी वर्णन है :
अध्याय 8, श्लोक 16,
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥
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(आब्रह्म-भुवनात् लोकाः पुनरावर्तिनः अर्जुन ।
माम् उपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥)
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भावार्थ :
हे अर्जुन! ब्रह्म सहित, समस्त ही लोक (अर्थात् छोटे-बड़े सभी) बारम्बार प्रकट और अप्रकट हुआ करते हैं, किन्तु हे कौन्तेय (अर्जुन)! मुझे प्राप्त हो जाने के बाद ऐसा पुनः पुनः आवागमन फिर नहीं होता ।
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श्रीरमणगीता में कहा है :
स्वात्मभूतं यदि ब्रह्म ज्ञातुं वृत्तिः प्रवर्तते।
स्वात्माकारा तदा भूत्वा न पृथक्प्रतितिष्ठति । ।
(अध्याय 4, श्लोक 8 )
निर्गच्छन्ति यतः सर्वा वृत्तयो देहधारिणाम्।
हृदयं तत्समाख्यातं भावना कृति वर्णनम् । ।
(अध्याय 5 , श्लोक 2 )
हृदयस्य यदि स्थानं भवेच्चक्रमनाहतम्।
मूलाधारं समारभ्य योगस्योपक्रमः कुतः । ।
(अध्याय 5, श्लोक 4 )
तात्पर्य यह कि आत्मज्ञान होने की स्थिति में प्राण अंततः हृदय में ही प्रलीन हो जाते हैं।
उपरोक्त प्रसंग को संत ज्ञानेश्वर महाराज ने रोचक स्वरूप देकर खेल के रूप में प्रस्तुत किया है।
72000 अर्थात् प्रमुख 72 नाड़ियों के द्वारा चित्त आत्मा से बाहर जगत में विचरण करता है, ब्रह्म-नाड़ी से ब्रह्मरंध्र के द्वारा मृत्यु के बाद ब्रह्मलोक में जाता है और वहाँ से सीधे आत्मा में अर्थात् 'हृदय' में प्रविष्ट होता है, या जीते-जी भी ऐसा हो सकता है, जब प्राण (और चित्त) ब्रह्मनाड़ी का मार्ग न लेकर, ब्रह्मरंध्र से गुज़रे बिना 'यहीं' हृदय में ही प्रलीन हो जाते हैं (अत्रैव प्रलीयन्ते )।
जो मनुष्य किसी और नाड़ी के मार्ग से देहत्याग करते हैं वे या तो इष्ट का (नाम-)स्मरण करते हुए उसके लोक को प्राप्त होते हैं। गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में कहा है :
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।
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(यान्ति देवव्रताः देवान् पितॄन् यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनः अपि माम् ॥)
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भावार्थ :
देवताओं की उपासना / पूजा करनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं ( अर्थात् मृत्यु के बाद उनके लोक में स्थान पाते हैं), पितरों की उपासना / पूजा करनेवाले पितृलोक में, तथा भूतों की उपासना / पूजा करनेवाले भूतलोक अर्थात् मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं, जबकि मेरा यजन अर्थात् भक्ति / उपासना, पूजन, आदि करनेवाला मुझे / मेरे ही लोक (धाम) को प्राप्त होता है ।
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टिप्पणी :
स्पष्ट है कि मृत्यु के अनन्तर किसी मनुष्य की क्या गति होती है, इस बारे में इस श्लोक के आधार से अनुमान लगाया जा सकता है ।
भगवान् श्रीकृष्ण के धाम का वर्णन संक्षेप में अध्याय 8, श्लोक 21 में इस प्रकार से वर्णित किया गया है :
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अध्याय 8, श्लोक 21,
अव्यक्तोऽक्षर इत्याहुस्तमाहुः परमां गतिं ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
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(अव्यक्तः अक्षरः इति उक्तः तम् आहुः परमाम् गतिम् ।
यम् प्राप्य न निवर्तन्ते तत् धाम परमम् मम ॥)
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भावार्थ :
अव्यक्त (अर्थात् जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, स्मृति आदि से किसी व्यक्त विषय की भाँति ग्रहण नहीं किया जा सकता, किन्तु इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, स्मृति आदि जो उसके ही व्यक्त रूप हैं और उसके ही द्वारा प्रेरित किए जाने पर अपना अपना कार्य करते हैं), अक्षर अर्थात् अविनाशी, इस प्रकार से (जिस) उस परम गति का वर्णन किया जाता है, जिसे प्राप्त होने के बाद कोई पुनः संसार रूपी दुःख में नहीं जन्म लेता, वह मेरा परम धाम है ।
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शिव-अथर्वशीर्ष में भी स्पष्ट किया गया है :
या सा प्रथमा मात्रा ब्रह्मदेवत्या रक्ता वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेद्ब्रह्मपदं।
या सा द्वितीया मात्रा विष्णुदेवत्या कृष्णावर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेद्वैष्णवं पदम् ।
या सा तृतीया मात्रा ईशानदेवत्या कपिला वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेदैशानं पदम् ।
या सार्धचतुर्थीमात्रा सर्वदेवत्याSव्यक्तीभूता खं विचरति शुद्धस्फटिकसन्निभा वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स
गच्छेत्पदमनामयाम्।
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ये 72 मार्ग पुनः साँख्य के 24 तत्वों का त्रिगुणात्मक रूप हैं ...
इस बारे में अगली किसी पोस्ट में।
फिलहाल यही कि इस खेल के माध्यम से गूढ कठिन आध्यात्मिक तत्व का विवेचन किया गया है।
सीढ़ियाँ आध्यात्मिक उन्नति, और सर्प आध्यात्मिक अवनति के द्योतक हैं।
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