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धर्मेण हन्यते व्याधिः धर्मेण हन्यन्ते ग्रहाः ।
धर्मेण हन्यते शत्रुः यतो धर्म ततो जयः ॥
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'dharma' is the 'nature' 'adharma' is what is against nature. When human beings follow 'adharma' the result is troubles, calamities, ....And we can't compensate the losses incurred because of the consequences that follow 'adharma'... Prevention is better than cure. And 'dharma' alone is as much prevention as it is the cure. Truly, humanity is one, so there are not some who do 'adharma' and some others who suffer the consequences. The best way is to shun 'adharma' and follow 'dharma'. That needs discovering what is 'adharma' and what is 'dharma'. As 'dharma' is the very 'nature' itself', it surfaces on its own when we stop practicing 'adharma'... There is no other relief.
धर्म, अधर्म और मानवता
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पहले कुछ 'शब्द' ...
'नृ' प्रातिपदिक (stem) से नृप, नर, नल, नारी, नारायण, नारा (पानी) आदि अनेक शब्द बनते हैं।
अंग्रेज़ी में 'natal', 'nation', native, nepotism, nature, natzion (German) आदि अनेक शब्द बनते हैं।
यहाँ तक कि तमिळनाडु या वायनाड, रामनाड आदि में यही 'nat' विद्यमान है (यह मेरा अनुमान है )
'नु' 'नव' से नौका, नाव, नौ, navy, nautical, आदि अनेक शब्द बनते हैं।
अब उपरोक्त श्लोक :
धर्मेण हन्यते व्याधिः धर्मेण हन्यन्ते ग्रहाः ।
धर्मेण हन्यते शत्रुः यतो धर्म ततो जयः ॥
अर्थ :
धर्म से व्याधि (रोग) का निवारण होता है,
धर्म से ग्रहों से उत्पन्न पीड़ा का नाश होता है,
धर्म से शत्रु का नाश होता है ठाठ,
जहाँ धर्म है वहाँ जय है ...
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प्राकृतिक आपदाएँ मनुष्य के द्वारा 'अधर्म का आचरण करने से पैदा होती हैं , और चूँकि मानवता एक है इसलिए किसी भी समुदाय या मनुष्य के द्वारा किए जानेवाले अधार्मिक आचरण के अशुभ परिणाम सभी मनुष्यों को भुगतने होते हैं।
हमें लगता है कि प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित लोगों की सहायता की जाना मानवता-धर्म है, जो अवश्य ही सत्य है, लेकिन एक ओर तो हम लोभ और भय की कसौटी पर प्रगति और विकास के स्वप्न देखते हैं, दूसरी ओर सामूहिक स्तर पर ऐसे कार्य करते हैं जिनसे प्रकृति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं। अपनी तत्कालिक ज़रूरत के पूरा होने को हम सफलता समझकर प्रसन्न होते हैं किन्तु प्रकृति के विरोध से अंततः हमें मुँह की खानी पड़ती है और तब हम सोचते हैं कि आपदा-पीड़ित मनुष्यों की सहायता करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
धर्म और परंपरा / रूढि में भेद है जबकि हमने परम्पराओं को 'धर्म' का नाम देकर इस्लाम, हिंदुत्व, ईसाई, यहूदी आदि परंपराओं को धर्म समझ लिया है। हर परंपरा में धर्म किसी अंश में हो सकता है और परंपरा को अंधे की तरह धर्म समझ लिए जाने से उनके परस्पर मतभेद हमें कट्टर मतावलंबी बना देते हैं और सम्पूर्ण मनुष्यता के लिए क्या शुभ और अशुभ है इस ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता।
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केरल की बाढ़ हो या किसी जगह आनेवाले भूकंप जो एक हद तक मानव-निर्मित हैं तो प्राकृतिक कारण भी उनके लिए होते हैं। युद्ध तो मनुष्य की नासमझी का ही परिणाम है और भले ही ही हम 'आत्मरक्षा' के लिए 'युद्ध हम पर थोपा गया है' यह कहकर अपने 'राष्ट्र' के लिए बलिदान होने में गौरव अनुभव करें, वस्तुतः दुर्भाग्यपूर्ण है।
जब हम विकास या तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर प्रकृति के विरुद्ध चलते हुए प्रकृति का संतुलन बिगाड़ते हैं तब अपने अनिष्ट का सृजन करने लगते हैं। सबसे बड़ा उदाहरण है मनुष्य द्वारा अपनी जनसंख्या पर नियंत्रण न करना। और जब हम स्वास्थ्य की बात करते हैं तब भी देख सकते हैं की अगर हम अपनी औसत आयु को बढ़ा भी लें तो प्राकृतिक कारण या युद्ध, नई नई बीमारियाँ, अकस्मात् होनेवाली दुर्घटनाओं आदि से हम न जानते हुए भी मृत्यु के मुख में जा सकते हैं। प्रकृति इसमें बच्चे, बूढ़े, युवा, स्त्री, पुरुष, गरीब, अमीर, हिन्दू, मुसलमान, यहूदी, पारसी, चीनी, रूसी, आदि का भेद नहीं करती। फिर हम धर्मों के बीच भेद कैसे कर सकते हैं? हमारी जो भी आस्थाएँ हैं वे सबकी आस्थाएँ कैसे हो सकती हैं? किन्तु हम इस सरल तथ्य को देख नहीं पाते और न देखना चाहती हैं क्योंकि हमारे लोभ और भय समुदायगत स्वार्थ हमें ऐसा नहीं करने देते।
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धर्मेण हन्यते व्याधिः धर्मेण हन्यन्ते ग्रहाः ।
धर्मेण हन्यते शत्रुः यतो धर्म ततो जयः ॥
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'dharma' is the 'nature' 'adharma' is what is against nature. When human beings follow 'adharma' the result is troubles, calamities, ....And we can't compensate the losses incurred because of the consequences that follow 'adharma'... Prevention is better than cure. And 'dharma' alone is as much prevention as it is the cure. Truly, humanity is one, so there are not some who do 'adharma' and some others who suffer the consequences. The best way is to shun 'adharma' and follow 'dharma'. That needs discovering what is 'adharma' and what is 'dharma'. As 'dharma' is the very 'nature' itself', it surfaces on its own when we stop practicing 'adharma'... There is no other relief.
धर्म, अधर्म और मानवता
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पहले कुछ 'शब्द' ...
'नृ' प्रातिपदिक (stem) से नृप, नर, नल, नारी, नारायण, नारा (पानी) आदि अनेक शब्द बनते हैं।
अंग्रेज़ी में 'natal', 'nation', native, nepotism, nature, natzion (German) आदि अनेक शब्द बनते हैं।
यहाँ तक कि तमिळनाडु या वायनाड, रामनाड आदि में यही 'nat' विद्यमान है (यह मेरा अनुमान है )
'नु' 'नव' से नौका, नाव, नौ, navy, nautical, आदि अनेक शब्द बनते हैं।
अब उपरोक्त श्लोक :
धर्मेण हन्यते व्याधिः धर्मेण हन्यन्ते ग्रहाः ।
धर्मेण हन्यते शत्रुः यतो धर्म ततो जयः ॥
अर्थ :
धर्म से व्याधि (रोग) का निवारण होता है,
धर्म से ग्रहों से उत्पन्न पीड़ा का नाश होता है,
धर्म से शत्रु का नाश होता है ठाठ,
जहाँ धर्म है वहाँ जय है ...
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प्राकृतिक आपदाएँ मनुष्य के द्वारा 'अधर्म का आचरण करने से पैदा होती हैं , और चूँकि मानवता एक है इसलिए किसी भी समुदाय या मनुष्य के द्वारा किए जानेवाले अधार्मिक आचरण के अशुभ परिणाम सभी मनुष्यों को भुगतने होते हैं।
हमें लगता है कि प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित लोगों की सहायता की जाना मानवता-धर्म है, जो अवश्य ही सत्य है, लेकिन एक ओर तो हम लोभ और भय की कसौटी पर प्रगति और विकास के स्वप्न देखते हैं, दूसरी ओर सामूहिक स्तर पर ऐसे कार्य करते हैं जिनसे प्रकृति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं। अपनी तत्कालिक ज़रूरत के पूरा होने को हम सफलता समझकर प्रसन्न होते हैं किन्तु प्रकृति के विरोध से अंततः हमें मुँह की खानी पड़ती है और तब हम सोचते हैं कि आपदा-पीड़ित मनुष्यों की सहायता करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
धर्म और परंपरा / रूढि में भेद है जबकि हमने परम्पराओं को 'धर्म' का नाम देकर इस्लाम, हिंदुत्व, ईसाई, यहूदी आदि परंपराओं को धर्म समझ लिया है। हर परंपरा में धर्म किसी अंश में हो सकता है और परंपरा को अंधे की तरह धर्म समझ लिए जाने से उनके परस्पर मतभेद हमें कट्टर मतावलंबी बना देते हैं और सम्पूर्ण मनुष्यता के लिए क्या शुभ और अशुभ है इस ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता।
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केरल की बाढ़ हो या किसी जगह आनेवाले भूकंप जो एक हद तक मानव-निर्मित हैं तो प्राकृतिक कारण भी उनके लिए होते हैं। युद्ध तो मनुष्य की नासमझी का ही परिणाम है और भले ही ही हम 'आत्मरक्षा' के लिए 'युद्ध हम पर थोपा गया है' यह कहकर अपने 'राष्ट्र' के लिए बलिदान होने में गौरव अनुभव करें, वस्तुतः दुर्भाग्यपूर्ण है।
जब हम विकास या तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर प्रकृति के विरुद्ध चलते हुए प्रकृति का संतुलन बिगाड़ते हैं तब अपने अनिष्ट का सृजन करने लगते हैं। सबसे बड़ा उदाहरण है मनुष्य द्वारा अपनी जनसंख्या पर नियंत्रण न करना। और जब हम स्वास्थ्य की बात करते हैं तब भी देख सकते हैं की अगर हम अपनी औसत आयु को बढ़ा भी लें तो प्राकृतिक कारण या युद्ध, नई नई बीमारियाँ, अकस्मात् होनेवाली दुर्घटनाओं आदि से हम न जानते हुए भी मृत्यु के मुख में जा सकते हैं। प्रकृति इसमें बच्चे, बूढ़े, युवा, स्त्री, पुरुष, गरीब, अमीर, हिन्दू, मुसलमान, यहूदी, पारसी, चीनी, रूसी, आदि का भेद नहीं करती। फिर हम धर्मों के बीच भेद कैसे कर सकते हैं? हमारी जो भी आस्थाएँ हैं वे सबकी आस्थाएँ कैसे हो सकती हैं? किन्तु हम इस सरल तथ्य को देख नहीं पाते और न देखना चाहती हैं क्योंकि हमारे लोभ और भय समुदायगत स्वार्थ हमें ऐसा नहीं करने देते।
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