Saturday, 25 August 2018

JnAna-nADI and brahma-nADI

ऐसा लगता है कि अब नेट से जल्दी ही विदा होना है।
हिंदी में लिखी पोस्ट्स में टेक्स्ट के अलावा सभी (लेबल, शीर्षक आदि) को गूगल सपोर्ट नहीं करता और लिप्यंतरण व्यर्थ हो जाता है।  हैरत सिर्फ इस बात की है कि मेरे इस ब्लॉग की पाठक-संख्या प्रतिदिन तीन अंकों में हो गयी है, इसलिए लिखना जारी है।
अगर किसी दिन आपको यह ब्लॉग देखने को न मिले तो हो सकता है कि मैंने गूगल खाता डिलीट कर दिया हो। वैसे अभी तो पक्का कुछ नहीं, लेकिन किसी भी दिन यह हो सकता है।  सो, प्लीज़ टेक केयर। इस संसार में कुछ भी नित्य कहाँ है? केवल प्रतिदिन जागने पर कोई संसार प्रतीत होता है तो संसार का एक प्रतिबिम्ब 'मन' पर पड़ता है और ऐसे असंख्य प्रतिबिम्बों को स्मृति संजो कर संसार पर सातत्य continuity आरोपित कर देती है, जो निद्रा में पुनः खंडित हो जाती है। इसी प्रकार स्मृति ही संसार के सापेक्ष एक 'मैं' को भी आरोपित करती है, जो अपनी असत्यता के कारण और आश्रय न होने से शरीर और उसकी गतिविधियों तथा स्मृति को ही अपनी सच्चाई स्थापित कर लेता है।  यह दुष्चक्र ही व्यक्तिगत अस्तित्व है।  इस दुष्चक्र में कोई फँसा है यह कल्पना ही भ्रामक है जो नित्य-वास्तविकता को ढँक लेती है।
इसी दुष्चक्र को तोड़ने के लिए शास्त्र बनाए गए जो 'व्यक़्ति' को स्वतंत्र सत्ता माननेवालों को 'विधि' तथा प्रक्रिया देते हैं।  नाड़ियों में प्राणों के संचार और संचालन की इस गतिविधि को 'ब्रह्म-नाड़ी' की गतिविधि का नाम दिया जाता है जो औपचारिक है।  दूसरी ओर, जो किसी के और अपने भी व्यक्तिगत स्वतंत्र अस्तित्व होने की संभावना को ही असत्य जान लेते हैं वे इस मिथ्या ज्ञान से मुक्त हो जाते हैं।  संक्षेप में, उनके लिए यह दुष्चक्र टूट जाता है।  उनका शरीर-मन यद्यपि दुष्चक्र में फँसे दूसरों को एक व्यक्ति-विशेष मानता है, लेकिन यह समस्या उसकी नहीं, उनकी है।
इस मिथ्या-सांसारिक ज्ञान, और संसार में अपने कोई विशिष्ट होने के ज्ञान का निवारण होने पर जिस आध्यात्मिक ज्ञान की ओर ध्यान जाता है, वह नित्य है, किन्तु संसार और संसार में अपने व्यक्ति होने के ज्ञान  / स्मृति / information से ढँका होता है इसलिए शास्त्र 'अपने को जानो' -'आत्मानम् विद्धि' की शिक्षा देते हैं।  जो इस बाह्य ज्ञान के अधिष्ठान-रूपी नित्य ज्ञान के प्रति जागृत हो जाते हैं उनके लिए संसार और 'मैं' एक ही सत्य / सत् की दो अभिव्यक्तियाँ / पहलू होते हैं।  यह जागृति ही 'ज्ञान-नाडी' का कार्य है।
इस प्रकार ज्ञान-नाडी तथा ब्रह्म-नाडी का औपचारिक वर्गीकरण / formal classification किया जाता है।
अंततः शास्त्र-ज्ञान को त्यागना ही है तो अगर प्रारम्भ में त्याग सकें तो शास्त्रीय भूलभुलैया से बचना आसान हो जाता है। नाड़ी-ज्ञान नाड़ियों के सक्रिय होने पर होता है और नाड़ियों में प्राणों की गति ही भिन्न-भिन्न 'अनुभव' तथा बाह्य-ज्ञान का आधार है।
आध्यात्मिक ज्ञान के लिए पुनः ब्रह्म-नाड़ी का सक्रिय होना प्राथमिक आवश्यकता है, किन्तु वह अपरिहार्य आवश्यकता नहीं है।  फिर भी नाड़ी-शुद्धि होने पर ही प्राणों का नाड़ियों में ऊर्ध्वगमन होने पर 'अनुभव'रूपी  ज्ञान आता है जिसमें अंततः यह 'अनुभव' होता है कि  सब-कुछ एकमेव तत्व है।  किन्तु तब भी 'सब-कुछ' और 'मैं' के बीच भेद की कल्पना और विचार भी अज्ञान ही है।  जब यह अज्ञान भी नष्ट हो जाता है तो नित्य-ज्ञान स्फुरित होता है। प्राणों के ऊर्ध्वगमन (ऊर्ध्वरेता होने) की प्रक्रिया का सरल उपाय है 'ॐ' का उच्चारण जिसके बारे में  गीता अध्याय 8 श्लोक 13  में कहा गया है :
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। 
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।
वैसे इस प्रकार का नाम-स्मरण सर्वसुलभ है ही! आप गाय, बकरी, भेड़, हाथी आदि प्राणियों के स्वर में भी इसे सुन सकते हैं।
किन्तु जिन्हें यह व्यर्थ प्रतीत होता है वे नाम-स्मरण के माध्यम से इष्ट के उन्हें अनुकूल प्रतीत होनेवाले नाम का स्मरण कर सकते हैं जो इसी प्रकार विशिष्ट नाड़ी में प्राणों की गति सक्रिय करता है।
नाड़ी-विज्ञान और योगशास्त्र में विभिन्न देवताओं को इस प्रकार शरीर में ही स्थित और प्राप्य कहा जाता है।
वस्तुतः तो देव तथा देह एक ही मूल धातु 'दा' -- दीयते -- 'देना' से व्युत्पन्न हैं।
इसमें पुनः यह भी ध्यान से देखना होगा कि मनुष्य जिस भी देवता की जिस भी रूप  में उपासना और उसका स्मरण करता है, और मृत्यु आने पर उसे याद करता है तो वह उसी देवता और उसके लोक को मृत्यु के बाद प्राप्त होता है।  ब्रह्म का नाम ॐ  है इसलिए मृत्यु के समय ॐ का उच्चारण ब्रह्मलोक की प्राप्ति करने में सहायक है। ब्रह्मलोक को भी पुनः अनित्य कहा गया है।
गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 16 में कहा गया है :
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोsर्जुन  ....
इसी प्रकार राम, कृष्ण, हरि, आदि का महत्त्व है।
ये यथा माम् प्रपद्यन्ते तांस्तथैव  भजाम्यहम्।
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