(नोट : प्रस्तुत पोस्ट इससे पहले अंग्रेज़ी में प्रस्तुत मेरी तीन पोस्ट्स का हिंदी सार-संग्रह है। )
स्मृति का अधिष्ठान
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स्मृति का आगमन और प्रस्थान होता है, इस तथ्य से कौन अनभिज्ञ है?
श्री निसर्गदत्त महाराज से वार्ताओं की एक पुस्तक, "Seeds of Consciousness" / "चेतना के बीज" गूढ, गहन किंतु सरल और स्पष्ट शब्दों में उस अधिष्ठान के ओर संकेत करती है जहाँ से स्मृति जागृत होती है, और जहाँ पुनः विलीन होती है ।
पुस्तक का शीर्षक भी पुनः दो प्रकार से विवेचित किया जा सकता है :
प्रथम अर्थ में : वह बीज-चेतना जो जीव में मन की जागृत, स्वप्न तथा सुषुप्ति के साथ व्यक्त रूप में तथा दूसरे अर्थ में अव्यक्त रूप में भी व्यक्ति-चेतना की तरह विद्यमान होती है ।
इस बारे में एक प्रश्न उठाया जा सकता है कि व्यक्ति की मृत्यु होने की स्थिति में इस स्मृति का क्या होता है?
इस संबंध में एक अनुमान शायद यह लगाया जा सकता है कि मनुष्य के जन्म के समय से जो स्मृति उसके मस्तिष्क में बनना प्रारंभ होती है, जो उसकी आयु के साथ क्रमशः विकसित, परिवर्तित, विस्तृत और परिवर्तित होती रहती है और विभिन्न अनुभवों, घटनाओं, अभ्यासों (आदतों) का एक बड़ा संग्रह बन जाती है, मृत्यु होने पर बस समाप्त हो जाती है ।
किंतु इसका एक और पहलू हो सकता है ।
जहाँ तक शरीर की रचना, आकार-प्रकार आदि का प्रश्न है, इसकी स्मृति, यह जानकारी प्रत्येक मनुष्य के मन और मस्तिष्क में बीज-रूप में व्यवस्थित ढंग से सुरक्षित होती है, जो समय के साथ अंकुरित और विवर्धित होकर एक बड़े वृक्ष का रूप ले लेती है । और हम यह नहीं कह सकते कि जिस रूप में यह इस प्रकार व्यक्त होती है, बीज-रूप में इसकी जानकारी इसमें नहीं थी । बल्कि यह भी सत्य है कि जैसे किसी वृक्ष के बीज में उसके अंकुरित होकर बढ़कर वृक्ष बनने, पत्तियों, फूल, फल, शाखाओं आदि का जो सूक्ष्म और सटीक नक्शा छिपा होता है, वैसा ही मनुष्य या किसी भी जीवित प्राणी में भी सूक्ष्म-तल पर बीज-रूप में ऐसा ही नक्शा कहीं संरक्षित होता है । वंशानुक्रमगत, जेनेटिक-कोड में यही होता है ।
दूसरे अर्थ में : "Seeds of Consciousness" / "चेतना के बीज" की व्याख्या यह हो सकती है कि यह ब्रह्मांडीय, वैश्विक चेतनारूपी उस बीज की ओर इंगित करता है जो व्यक्ति (तथा समष्टि) में बीज-रूप में विद्यमान होता है, और समय आने पर उसके विशिष्ट रूप में प्रकट होता है ।
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इस प्रकार, एक तो वह भौतिक स्मृति होती है, जो शरीर और शरीर से संबंधित संसार में अपनी स्थिति के बारे में होती है, जिसमें मन ’जागृत अवस्थाओं’ को जोड़कर उनमें अपने एक संसार की प्रतिमा बनाकर उससे जुड़ी धारणाओं को अकाट्य सत्य की तरह समझ बैठता है, जो आनुवांशिक, ’विज्ञानसम्मत’ भी हो सकती है और व्यावहारिक रूप से पुनः पुनः प्रयोग द्वारा ’सिद्ध’ की जा सकती है । यही वह सीढ़ी है, जहाँ से भौतिक / आधिभौतिक का अतिक्रमण कर ’दैविक’ / ’आधिदैविक’ का क्षेत्र शुरु होता है ।
इसकी स्मृति को हम स्वप्न या कल्पना मान बैठते हैं और आधुनिक मनोविज्ञान में जिसे ’अवचेतन’ / sub-conscious mind कहा जाता है ।
यह अवचेतन /subconscious वह है जिससे जागृत अवस्था में भी किसी भी बाह्य प्रेरणा या ज़रूरत से तत्क्षण सम्पर्क किया जा सकता है और प्रायः किया भी जाता है । जैसे आपके ’अवचेतन’ मन में असंख्य स्मृतियाँ संचित हैं किंतु आवश्यकता पड़ने पर उनमें से कोई विशिष्ट ही आपके वर्तमान में उभरकर सामने आती हैं । जैसे किसी व्यक्ति का नाम सुनते ही उससे जुड़ी स्मृति सहसा जाग पड़ती है, किसी स्थान, घटना, सन्दर्भ, व्यवहार, अनुभव आदि के साथ भी ऐसा होता है ।
’स्वप्न’ की स्थिति में यद्यपि बाह्य भौतिक संसार से मन का संपर्क कट जाता है और केवल ’अवचेतन’ ही प्रायः बेतरतीब ढंग से हमारे सामने होता है, जिसमें उन असंख्य स्मृतियों में से कुछ, जो सतह पर होती हैं, परस्पर एक-दूसरे को उकसाती रहती हैं । इसलिए स्वप्न प्रायः ऐसे अनुभव होते हैं जिनकी कोई संतोषजनक व्याख्या जागने के बाद कर पाना मुश्किल होता है । किंतु स्वप्नों के बारे में एक रोचक तथ्य यह भी है कि कभी कभी स्वप्न में देखी गई चीज़ें बहुत बाद में अक्षरशः उसी प्रकार से जागृत अवस्था में सामने आती हैं जैसा उन्हें स्वप्न में देखा गया था । हो सकता है यह कोई ऐसी घटना हो, स्वप्न देखते समय जिसकी कल्पना भी न की जा सके ।
आधिदैविक या दैविक (देवता-तत्व) का इससे बड़ा प्रमाण फ़िलहाल हमारे पास दूसरा नहीं है ।
यद्यपि कुछ विशिष्ट प्रयोगों जैसे मंत्र, औषधि, जप और योग तथा तन्त्रोक्त विधियों के अनुष्ठान आदि से भी इस ’सत्यता’ से हमारा साक्षात्कार होता रहता है....
यदि हम सचमुच वैज्ञानिक ढंग से सोचते और ’सत्य’ / ’असत्य’ की परीक्षा करते हैं तो ’आधिदैविक-चेतन-सत्ताओं’ की परिकल्पना के बारे में गहन्ता और गंभीरता से खोज-बीन करेंगे और जान सकेंगे कि प्रकृति में विद्यमान उन सत्ताओं की सत्यता कितनी है ।
उन सत्ताओं के अस्तित्व को जानने-समझने में जो सबसे बड़ा व्यवधान है वह है हमारा उनके अस्तित्व को ही सिरे से इनकार कर देना ।
काल और स्थान ऐसी ही एक ’सत्ता’ है, जिसके हम चाहे-अनचाहे गुलाम हैं न कि वे हमारे । यदि हमें तनिक भी आभास हो कि वे हमारे वैयक्तिक, सामूहिक, सामाजिक जीवन अर्थात् अस्तित्व के ’नियन्ता’ हैं जिन्हें वेद में देवता कहा गया है, और उनका आवाहन तथा उनसे संपर्क किया जाना संभव है तो हम बिना सोचे-समझे उनका तिरस्कार नहीं करेंगे ।
और वैसे भी किसी भी ’धर्म’ में चाहे वह वेद को मानता हो या न मानता हो, भले ही एकेश्वरवादी, बहुदेववादी हो या अनीश्वरवादी ही क्यों न हो इन अज्ञात शक्तियों को कोई और नाम दिया जाता है और उनके प्रति ’सम्मान’ तो प्रकट किया ही जाता है । विशुद्ध ’भौतिकवाद’ या ’विज्ञानवाद’ भी किन्हीं ’आदर्शों’/ सिद्धान्तों को तो सम्मान देता ही है या बस अनिश्चयपूर्ण हो रहता है ।
भय और लोभ ऐसे ही दो ’देवता’ हैं ’काम’ भी प्रत्यक्ष देवता है जिसका भौतिक आधार अभी वैज्ञानिक नहीं खोज पाए ।
आस्था और परंपरा का जन्म या तो विवेक (अर्थात् विवेचना) से होता है, या भय और लोभ से ।
ये वृत्तियाँ ही वे ’चेतन-सत्ताएँ’ हैं जो हमारे आधिदैविक अस्तित्व को संचालित करती हैं ।
यहाँ तक कि ’बुद्धि’ / 'intellect' भी ऐसा ही ’देवता’ है । किंतु इस ’बुद्धि’ को संचालित करनेवाला एक और ’देवता’ है जिसका अनुभव / अनुमान किए बिना हमारी बुद्धि कैसे कार्य करती है यह कभी नहीं समझा जा सकता ।
किंतु ’अवचेतन’ से भी गहरी स्थिति है ’अचेतन-मन’ की, जो मन का वह तल है जब हम गहरी सुषुप्ति में होते हैं ।
’मैं हूँ’ की भावना तब भी विद्यमान होती है और जागने पर मनुष्य स्वयं ही इसकी पुष्टि इस प्रकार से करता है : "तब मुझे कुछ पता नहीं था, मैं सोया हुआ था । "
स्पष्ट है कि तब भी उसे अपने होने का और निद्रा में पाए जानेवाले सुख का भान तो था ही ।
इस प्रकार ’मैं’ नामक वास्तविकता अविच्छिन्न, अखंड सत्य है ऐसा कहना अनुचित न होगा ।
प्रत्येक व्यक्ति इस त्रि-आयामी अस्तित्व (जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति) को अनुभव से ही जानता है ।
ऐसा कहा जा सकता है कि अपने अस्तित्व का सहज, अनायास भान बीज-रूप में हर किसी में होता ही है ।
इस प्रकार का भान वैसे तो शुद्ध, परम ज्ञान ही है, किन्तु जिन पाँच कोषों में आवरित होता है उन्हें वेदान्त के ग्रन्थों में क्रमशः अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनंदमय कोष कहा जाता है ।
इसका मूल तत्व है ’मैं’ नामक सत्यता जिसका रूपान्तरण इन पाँच कोषों से आवरित होने से "मैं हूँ" नामक कल्पना में होता है और वह ’मैं’ जो नित्य इन कोषों से रहित है, ’मैं हूँ’ की स्मृति बन जाता है ।
इस ’मैं हूँ’ का अतीत, वर्तमान और भविष्य होता है जिसे ’अपना’ व्यक्तित्व मान लिया जाता है ।
इस प्रकार से ’स्मृति’ का आधार ’मैं हूँ’ रूपी स्मृति है, और इस स्मृति का भी आगमन तथा प्रस्थान होते रहने से स्पष्ट है कि यह ’अनित्य’ है, और इसका कोई ऐसा अचल अटल अधिष्ठान अवश्य है जो ’नित्य’ है क्योंकि किसी भी मनुष्य को अपनी नित्यता में शंका नहीं होती ।
और शरीर, मन, बुद्धि, भावनाओं, स्मृति, संबंधों, संपत्ति, धन, अनुभव आदि के रूप में हर व्यक्ति वैसे भी जानता ही है कि ये सब ’अनित्य’ हैं ।
फिर भी इस लेख का प्रयोजन यह खोजना है कि ’शरीर’ में क्या कोई ऐसा स्थान हो सकता है जिसे ’स्मृति’ का स्थान कहा जा सके?
उपरोक्त पाँच कोषों की भूमिका को ठीक से समझने के लिए मांडूक्य-उपनिषद् में ॐ के स्वरूप पर की गई विवेचना दृष्टव्य है, जो जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय तथा तुरीयातीत के सन्दर्भ में इसे स्पष्ट करता है ।
इस प्रकार ’स्मृति’ न केवल वैयक्तिक बल्कि मनुष्य के चेतन, अवचेतन, अचेतन तथा प्राक्-चेतन तल तक तथा उससे भी पहले की अवस्था का संयुक्त ज्ञान है । संक्षेप में यह ’ब्रह्मांडीय-स्मृति’ ही है जो मनुष्य की वैयक्तिक स्मृति के रूप में मनुष्य-विशेष में अलग-अलग प्रतीत होती हुई कार्य करती है ।
जैसा कि पहले कहा गया ’मैं’ शुद्ध अहं है जबकि उससे जुड़ी ’मैं हूँ’ व्यक्तिगत स्मृति अहंकार अथवा ’जीव-भाव’ है ।
शुद्ध ’अहं’ आत्मा अर्थात् ब्रह्म है, जबकि ’अहंकार’ पाँच कोषों के भीतर फैला ’अहं’ का भान ।
शुद्ध ’अहं’ में यद्यपि ’बोध’ उसका उससे अभिन्न अंग है, प्रथम ’सत्’ और दूसरा ’चित्’ है ।
स्पष्ट है कि ’सत्’ को भी ’जाननेवाली’ कोई सत्ता है, जो ’सत्’ का स्वप्रमाण है । दूसरी ओर इस ’जाननेवाली’ सत्ता का भी अस्तित्व है इसलिए वह ’सत्’ का ही प्रकार है । तात्पर्य यह कि ’सत्’ एवं ’चित्’ परस्पर अभिन्न हैं और व्यावहारिक समझ के आधार पर उन्हें दो नाम दिए गए हैं ।
इस प्रकार ’सत्’ "है" न कि "हूँ" ।
अहं को ज्जब ब्रह्म अर्थात् ’सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ के अर्थ में जाना जाता है तो इस प्रकार का अनुभव-रूपी भान भी ’ज्ञाता-ज्ञेय-विषय’ की त्रयी के रूप में होता है ।
वेदान्त के साधन के अनुसार मनुष्य का प्रयत्न विवेक-वैराग्य-मुमुक्षा के दृढ होने और उसके बाद अभ्यास की परिपक्वता से सिद्ध होता है ।
एक अभ्यास विवेक-वैराग्य-मुमुक्षा के उदय से पूर्व भी होता है जिसके विषय में गीता अध्याय ६, श्लोक ३५ में कहा गया है :
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
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दूसरा अभ्यास इस प्रथम अभ्यास के पूर्ण होने के बाद किया जाता है जिसमें चिन्तन, मनन, निदिध्यासन के माध्यम से ’ब्रह्म’ के स्वरूप को समझने का यत्न किया जाता है । इस अभ्यास में साधक वृत्ति-निरोध से अन्य वृत्तियों का निवारण कर ब्रह्माकार-वृत्ति में स्थित होने का, स्थित रहने का प्रयत्न करता है ।
सरल भाषा में कहें तो या तो ’मैं हूँ’ इस भावना में गहरे डूबने (निमज्जित होने) का, या ’मैं’ का स्वरूप क्या है इस जिज्ञासा से प्रेरित होकर ’आत्म-अनुसंधान’ का, या ब्रह्म के स्वरूप का विचार करते हुए अन्ततः इस निष्कर्ष तक पहुँचकर कि यदि सब ब्रह्म है, तो ब्रह्म का विचार / जिज्ञासा करनेवाला उससे भिन्न कैसे हो सकता है, अपने पृथकता को उसमें विलीन हो जाने देता है ।
तात्पर्य यह कि किसी भी तरह से अंततः ’अहं अस्मि’ से ’अहं ब्रह्मास्मि’ तक के अपरोक्ष अनुभव के प्रति सचेत होता है ।
और तब वैयक्तिक अहं ’मैं हूँ’ के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता ।
किंतु हमारे प्रश्न का अभी समाधान नहीं हुआ । उपरोक्त चर्चा तो प्रसंगवश की गई ।
ताकि प्रश्न के आध्यात्मिक पक्ष को भी समझ लिया जाए ।
तो, हमारा प्रश्न यह है कि स्मृति का स्थान शरीर के अन्तर्गत कहाँ सुनिश्चित किया जा सकता है?
गीता के अध्याय ५ के श्लोक २७ में कहा गया है :
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥
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अर्थात् विषयों से इंद्रियों के स्पर्श अर्थात् स्पर्श, रूप, रस, गंध, श्रवण इन पाँचों अनुभवों से, बाह्य विषयानुभवों से मन को हटाकर उसे दोनों भौहों के मध्य स्थिर करना चाहिए, और नासा में जो प्राण वायु को भीतर की ओर खींचते हैं और बाहर की ओर धकेलते हैं उन दोनों की गति को नियमित एवं संतुलित कर...
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पुनः, गीता के अध्याय ८ के श्लोक में कहा गया है :
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥
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अर्थात् पिछले श्लोक में जिन नासाभ्यन्तरिणौ प्रण-अपान को सम करने का निर्देश दिया गया, (प्रयाणकाल में) प्राणों को इस प्रकार निरुद्ध कर दोनों भौहों के मध्य अवस्थित करे । अब प्रश्न यह है कि व्यवहार में इसे कैसे किया जाता है? इसके लिए यह ध्यान रखना होगा कि प्राण चित्त का अनुगमन करते हैं और चित्त ध्यान का ।
इस विषय में अध्याय १५, श्लोक ८ को देखें :
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥
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(इस प्रकार मृत्यु होने पर जीव) जिस नए शरीर को प्राप्त करता है, और जिस अपने शरीर को त्याग देता है, वह आवागमन को उसी प्रकार संपन्न होता है जैसे वायु गंध को एक स्थान से लेकर दूसरे स्थान पर ले जाती है ।
चूँकि यहाँ ’सद्गति’ के लिए भ्रूमध्य में प्राणों को प्रविष्ट करने का निर्देश है इसलिए उपरोक्त क्रम (के यथावत किए जाने से) जीव आज्ञा-चक्र के संपर्क में आता है, जो ’मैं हूँ’ स्मृति का स्थान है । पुनः ’मैं हूँ’ समस्त स्मृतियों का अधिष्ठान है इसलिए भी यदि अन्तकाल अने पर इस प्रक्रिया का पालन किया जाता है तो जीव का ब्रह्म में विलय हो जाता हुआ ।
यह अवश्य ही सैद्धान्तिक पक्ष है और इसलिए समझने और व्यवहार में लाने के लिए कठिन भी है ही । यहाँ केवल ’शरीर के अन्तर्गत स्मृति के अधिष्ठान’ को स्पष्ट करने हेतु यह मंथन किया गया ।
सरल चित्त मनुष्य के लिए यही निर्देश दिया जाता है कि वह केवल ’नाम-स्मरण’ जैसे साधन का अभ्यास करता हुआ उस नाम में इतना लीन हो जाए कि उस नाम से जाने-जानेवाले देवता से एकरूप हो जाए । तब अनायास ही उसके प्राण चित्त का अनुगमन कर विशिष्ट नाडी मार्ग से देवता के स्वरूप में विलीन हो जाएँगे ।
पुनः सैद्धान्तिक दृष्टि से इस प्रकार भी अपने ’नए’ शरीर को प्राप्त करने पर साधक का अभ्यास तब तक होता रहता है, जब तक कि वह परब्रह्म परमेश्वर से अभिन्न नहीं हो जाता ।
यह भी है दृष्टव्य है कि ’भ्रू’ शब्द / प्रातिपदिक से ही भ्रूण की व्युत्पत्ति भी की जा सकती है ।
भ्रूण का अर्थ है वह मांसपिण्ड जो माता के गर्भ में जीव के प्रविष्ट होने से पहले ही एक देह के रूप में प्रारंभिक अवस्था में होता है ।
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टिप्पणी :
अंग्रेज़ी में लिखी पोस्ट में एक विडिओ की लिंक दी गयी है जो भूटान के राजपरिवार में जन्मे व्यक्ति के उस पूर्वजन्म की स्मृति के बारे में है जब वह नालंदा विश्वविद्यालय में निवास करता था।
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स्मृति का अधिष्ठान
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स्मृति का आगमन और प्रस्थान होता है, इस तथ्य से कौन अनभिज्ञ है?
श्री निसर्गदत्त महाराज से वार्ताओं की एक पुस्तक, "Seeds of Consciousness" / "चेतना के बीज" गूढ, गहन किंतु सरल और स्पष्ट शब्दों में उस अधिष्ठान के ओर संकेत करती है जहाँ से स्मृति जागृत होती है, और जहाँ पुनः विलीन होती है ।
पुस्तक का शीर्षक भी पुनः दो प्रकार से विवेचित किया जा सकता है :
प्रथम अर्थ में : वह बीज-चेतना जो जीव में मन की जागृत, स्वप्न तथा सुषुप्ति के साथ व्यक्त रूप में तथा दूसरे अर्थ में अव्यक्त रूप में भी व्यक्ति-चेतना की तरह विद्यमान होती है ।
इस बारे में एक प्रश्न उठाया जा सकता है कि व्यक्ति की मृत्यु होने की स्थिति में इस स्मृति का क्या होता है?
इस संबंध में एक अनुमान शायद यह लगाया जा सकता है कि मनुष्य के जन्म के समय से जो स्मृति उसके मस्तिष्क में बनना प्रारंभ होती है, जो उसकी आयु के साथ क्रमशः विकसित, परिवर्तित, विस्तृत और परिवर्तित होती रहती है और विभिन्न अनुभवों, घटनाओं, अभ्यासों (आदतों) का एक बड़ा संग्रह बन जाती है, मृत्यु होने पर बस समाप्त हो जाती है ।
किंतु इसका एक और पहलू हो सकता है ।
जहाँ तक शरीर की रचना, आकार-प्रकार आदि का प्रश्न है, इसकी स्मृति, यह जानकारी प्रत्येक मनुष्य के मन और मस्तिष्क में बीज-रूप में व्यवस्थित ढंग से सुरक्षित होती है, जो समय के साथ अंकुरित और विवर्धित होकर एक बड़े वृक्ष का रूप ले लेती है । और हम यह नहीं कह सकते कि जिस रूप में यह इस प्रकार व्यक्त होती है, बीज-रूप में इसकी जानकारी इसमें नहीं थी । बल्कि यह भी सत्य है कि जैसे किसी वृक्ष के बीज में उसके अंकुरित होकर बढ़कर वृक्ष बनने, पत्तियों, फूल, फल, शाखाओं आदि का जो सूक्ष्म और सटीक नक्शा छिपा होता है, वैसा ही मनुष्य या किसी भी जीवित प्राणी में भी सूक्ष्म-तल पर बीज-रूप में ऐसा ही नक्शा कहीं संरक्षित होता है । वंशानुक्रमगत, जेनेटिक-कोड में यही होता है ।
दूसरे अर्थ में : "Seeds of Consciousness" / "चेतना के बीज" की व्याख्या यह हो सकती है कि यह ब्रह्मांडीय, वैश्विक चेतनारूपी उस बीज की ओर इंगित करता है जो व्यक्ति (तथा समष्टि) में बीज-रूप में विद्यमान होता है, और समय आने पर उसके विशिष्ट रूप में प्रकट होता है ।
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इस प्रकार, एक तो वह भौतिक स्मृति होती है, जो शरीर और शरीर से संबंधित संसार में अपनी स्थिति के बारे में होती है, जिसमें मन ’जागृत अवस्थाओं’ को जोड़कर उनमें अपने एक संसार की प्रतिमा बनाकर उससे जुड़ी धारणाओं को अकाट्य सत्य की तरह समझ बैठता है, जो आनुवांशिक, ’विज्ञानसम्मत’ भी हो सकती है और व्यावहारिक रूप से पुनः पुनः प्रयोग द्वारा ’सिद्ध’ की जा सकती है । यही वह सीढ़ी है, जहाँ से भौतिक / आधिभौतिक का अतिक्रमण कर ’दैविक’ / ’आधिदैविक’ का क्षेत्र शुरु होता है ।
इसकी स्मृति को हम स्वप्न या कल्पना मान बैठते हैं और आधुनिक मनोविज्ञान में जिसे ’अवचेतन’ / sub-conscious mind कहा जाता है ।
यह अवचेतन /subconscious वह है जिससे जागृत अवस्था में भी किसी भी बाह्य प्रेरणा या ज़रूरत से तत्क्षण सम्पर्क किया जा सकता है और प्रायः किया भी जाता है । जैसे आपके ’अवचेतन’ मन में असंख्य स्मृतियाँ संचित हैं किंतु आवश्यकता पड़ने पर उनमें से कोई विशिष्ट ही आपके वर्तमान में उभरकर सामने आती हैं । जैसे किसी व्यक्ति का नाम सुनते ही उससे जुड़ी स्मृति सहसा जाग पड़ती है, किसी स्थान, घटना, सन्दर्भ, व्यवहार, अनुभव आदि के साथ भी ऐसा होता है ।
’स्वप्न’ की स्थिति में यद्यपि बाह्य भौतिक संसार से मन का संपर्क कट जाता है और केवल ’अवचेतन’ ही प्रायः बेतरतीब ढंग से हमारे सामने होता है, जिसमें उन असंख्य स्मृतियों में से कुछ, जो सतह पर होती हैं, परस्पर एक-दूसरे को उकसाती रहती हैं । इसलिए स्वप्न प्रायः ऐसे अनुभव होते हैं जिनकी कोई संतोषजनक व्याख्या जागने के बाद कर पाना मुश्किल होता है । किंतु स्वप्नों के बारे में एक रोचक तथ्य यह भी है कि कभी कभी स्वप्न में देखी गई चीज़ें बहुत बाद में अक्षरशः उसी प्रकार से जागृत अवस्था में सामने आती हैं जैसा उन्हें स्वप्न में देखा गया था । हो सकता है यह कोई ऐसी घटना हो, स्वप्न देखते समय जिसकी कल्पना भी न की जा सके ।
आधिदैविक या दैविक (देवता-तत्व) का इससे बड़ा प्रमाण फ़िलहाल हमारे पास दूसरा नहीं है ।
यद्यपि कुछ विशिष्ट प्रयोगों जैसे मंत्र, औषधि, जप और योग तथा तन्त्रोक्त विधियों के अनुष्ठान आदि से भी इस ’सत्यता’ से हमारा साक्षात्कार होता रहता है....
यदि हम सचमुच वैज्ञानिक ढंग से सोचते और ’सत्य’ / ’असत्य’ की परीक्षा करते हैं तो ’आधिदैविक-चेतन-सत्ताओं’ की परिकल्पना के बारे में गहन्ता और गंभीरता से खोज-बीन करेंगे और जान सकेंगे कि प्रकृति में विद्यमान उन सत्ताओं की सत्यता कितनी है ।
उन सत्ताओं के अस्तित्व को जानने-समझने में जो सबसे बड़ा व्यवधान है वह है हमारा उनके अस्तित्व को ही सिरे से इनकार कर देना ।
काल और स्थान ऐसी ही एक ’सत्ता’ है, जिसके हम चाहे-अनचाहे गुलाम हैं न कि वे हमारे । यदि हमें तनिक भी आभास हो कि वे हमारे वैयक्तिक, सामूहिक, सामाजिक जीवन अर्थात् अस्तित्व के ’नियन्ता’ हैं जिन्हें वेद में देवता कहा गया है, और उनका आवाहन तथा उनसे संपर्क किया जाना संभव है तो हम बिना सोचे-समझे उनका तिरस्कार नहीं करेंगे ।
और वैसे भी किसी भी ’धर्म’ में चाहे वह वेद को मानता हो या न मानता हो, भले ही एकेश्वरवादी, बहुदेववादी हो या अनीश्वरवादी ही क्यों न हो इन अज्ञात शक्तियों को कोई और नाम दिया जाता है और उनके प्रति ’सम्मान’ तो प्रकट किया ही जाता है । विशुद्ध ’भौतिकवाद’ या ’विज्ञानवाद’ भी किन्हीं ’आदर्शों’/ सिद्धान्तों को तो सम्मान देता ही है या बस अनिश्चयपूर्ण हो रहता है ।
भय और लोभ ऐसे ही दो ’देवता’ हैं ’काम’ भी प्रत्यक्ष देवता है जिसका भौतिक आधार अभी वैज्ञानिक नहीं खोज पाए ।
आस्था और परंपरा का जन्म या तो विवेक (अर्थात् विवेचना) से होता है, या भय और लोभ से ।
ये वृत्तियाँ ही वे ’चेतन-सत्ताएँ’ हैं जो हमारे आधिदैविक अस्तित्व को संचालित करती हैं ।
यहाँ तक कि ’बुद्धि’ / 'intellect' भी ऐसा ही ’देवता’ है । किंतु इस ’बुद्धि’ को संचालित करनेवाला एक और ’देवता’ है जिसका अनुभव / अनुमान किए बिना हमारी बुद्धि कैसे कार्य करती है यह कभी नहीं समझा जा सकता ।
किंतु ’अवचेतन’ से भी गहरी स्थिति है ’अचेतन-मन’ की, जो मन का वह तल है जब हम गहरी सुषुप्ति में होते हैं ।
’मैं हूँ’ की भावना तब भी विद्यमान होती है और जागने पर मनुष्य स्वयं ही इसकी पुष्टि इस प्रकार से करता है : "तब मुझे कुछ पता नहीं था, मैं सोया हुआ था । "
स्पष्ट है कि तब भी उसे अपने होने का और निद्रा में पाए जानेवाले सुख का भान तो था ही ।
इस प्रकार ’मैं’ नामक वास्तविकता अविच्छिन्न, अखंड सत्य है ऐसा कहना अनुचित न होगा ।
प्रत्येक व्यक्ति इस त्रि-आयामी अस्तित्व (जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति) को अनुभव से ही जानता है ।
ऐसा कहा जा सकता है कि अपने अस्तित्व का सहज, अनायास भान बीज-रूप में हर किसी में होता ही है ।
इस प्रकार का भान वैसे तो शुद्ध, परम ज्ञान ही है, किन्तु जिन पाँच कोषों में आवरित होता है उन्हें वेदान्त के ग्रन्थों में क्रमशः अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनंदमय कोष कहा जाता है ।
इसका मूल तत्व है ’मैं’ नामक सत्यता जिसका रूपान्तरण इन पाँच कोषों से आवरित होने से "मैं हूँ" नामक कल्पना में होता है और वह ’मैं’ जो नित्य इन कोषों से रहित है, ’मैं हूँ’ की स्मृति बन जाता है ।
इस ’मैं हूँ’ का अतीत, वर्तमान और भविष्य होता है जिसे ’अपना’ व्यक्तित्व मान लिया जाता है ।
इस प्रकार से ’स्मृति’ का आधार ’मैं हूँ’ रूपी स्मृति है, और इस स्मृति का भी आगमन तथा प्रस्थान होते रहने से स्पष्ट है कि यह ’अनित्य’ है, और इसका कोई ऐसा अचल अटल अधिष्ठान अवश्य है जो ’नित्य’ है क्योंकि किसी भी मनुष्य को अपनी नित्यता में शंका नहीं होती ।
और शरीर, मन, बुद्धि, भावनाओं, स्मृति, संबंधों, संपत्ति, धन, अनुभव आदि के रूप में हर व्यक्ति वैसे भी जानता ही है कि ये सब ’अनित्य’ हैं ।
फिर भी इस लेख का प्रयोजन यह खोजना है कि ’शरीर’ में क्या कोई ऐसा स्थान हो सकता है जिसे ’स्मृति’ का स्थान कहा जा सके?
उपरोक्त पाँच कोषों की भूमिका को ठीक से समझने के लिए मांडूक्य-उपनिषद् में ॐ के स्वरूप पर की गई विवेचना दृष्टव्य है, जो जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय तथा तुरीयातीत के सन्दर्भ में इसे स्पष्ट करता है ।
इस प्रकार ’स्मृति’ न केवल वैयक्तिक बल्कि मनुष्य के चेतन, अवचेतन, अचेतन तथा प्राक्-चेतन तल तक तथा उससे भी पहले की अवस्था का संयुक्त ज्ञान है । संक्षेप में यह ’ब्रह्मांडीय-स्मृति’ ही है जो मनुष्य की वैयक्तिक स्मृति के रूप में मनुष्य-विशेष में अलग-अलग प्रतीत होती हुई कार्य करती है ।
जैसा कि पहले कहा गया ’मैं’ शुद्ध अहं है जबकि उससे जुड़ी ’मैं हूँ’ व्यक्तिगत स्मृति अहंकार अथवा ’जीव-भाव’ है ।
शुद्ध ’अहं’ आत्मा अर्थात् ब्रह्म है, जबकि ’अहंकार’ पाँच कोषों के भीतर फैला ’अहं’ का भान ।
शुद्ध ’अहं’ में यद्यपि ’बोध’ उसका उससे अभिन्न अंग है, प्रथम ’सत्’ और दूसरा ’चित्’ है ।
स्पष्ट है कि ’सत्’ को भी ’जाननेवाली’ कोई सत्ता है, जो ’सत्’ का स्वप्रमाण है । दूसरी ओर इस ’जाननेवाली’ सत्ता का भी अस्तित्व है इसलिए वह ’सत्’ का ही प्रकार है । तात्पर्य यह कि ’सत्’ एवं ’चित्’ परस्पर अभिन्न हैं और व्यावहारिक समझ के आधार पर उन्हें दो नाम दिए गए हैं ।
इस प्रकार ’सत्’ "है" न कि "हूँ" ।
अहं को ज्जब ब्रह्म अर्थात् ’सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ के अर्थ में जाना जाता है तो इस प्रकार का अनुभव-रूपी भान भी ’ज्ञाता-ज्ञेय-विषय’ की त्रयी के रूप में होता है ।
वेदान्त के साधन के अनुसार मनुष्य का प्रयत्न विवेक-वैराग्य-मुमुक्षा के दृढ होने और उसके बाद अभ्यास की परिपक्वता से सिद्ध होता है ।
एक अभ्यास विवेक-वैराग्य-मुमुक्षा के उदय से पूर्व भी होता है जिसके विषय में गीता अध्याय ६, श्लोक ३५ में कहा गया है :
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
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दूसरा अभ्यास इस प्रथम अभ्यास के पूर्ण होने के बाद किया जाता है जिसमें चिन्तन, मनन, निदिध्यासन के माध्यम से ’ब्रह्म’ के स्वरूप को समझने का यत्न किया जाता है । इस अभ्यास में साधक वृत्ति-निरोध से अन्य वृत्तियों का निवारण कर ब्रह्माकार-वृत्ति में स्थित होने का, स्थित रहने का प्रयत्न करता है ।
सरल भाषा में कहें तो या तो ’मैं हूँ’ इस भावना में गहरे डूबने (निमज्जित होने) का, या ’मैं’ का स्वरूप क्या है इस जिज्ञासा से प्रेरित होकर ’आत्म-अनुसंधान’ का, या ब्रह्म के स्वरूप का विचार करते हुए अन्ततः इस निष्कर्ष तक पहुँचकर कि यदि सब ब्रह्म है, तो ब्रह्म का विचार / जिज्ञासा करनेवाला उससे भिन्न कैसे हो सकता है, अपने पृथकता को उसमें विलीन हो जाने देता है ।
तात्पर्य यह कि किसी भी तरह से अंततः ’अहं अस्मि’ से ’अहं ब्रह्मास्मि’ तक के अपरोक्ष अनुभव के प्रति सचेत होता है ।
और तब वैयक्तिक अहं ’मैं हूँ’ के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता ।
किंतु हमारे प्रश्न का अभी समाधान नहीं हुआ । उपरोक्त चर्चा तो प्रसंगवश की गई ।
ताकि प्रश्न के आध्यात्मिक पक्ष को भी समझ लिया जाए ।
तो, हमारा प्रश्न यह है कि स्मृति का स्थान शरीर के अन्तर्गत कहाँ सुनिश्चित किया जा सकता है?
गीता के अध्याय ५ के श्लोक २७ में कहा गया है :
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥
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अर्थात् विषयों से इंद्रियों के स्पर्श अर्थात् स्पर्श, रूप, रस, गंध, श्रवण इन पाँचों अनुभवों से, बाह्य विषयानुभवों से मन को हटाकर उसे दोनों भौहों के मध्य स्थिर करना चाहिए, और नासा में जो प्राण वायु को भीतर की ओर खींचते हैं और बाहर की ओर धकेलते हैं उन दोनों की गति को नियमित एवं संतुलित कर...
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पुनः, गीता के अध्याय ८ के श्लोक में कहा गया है :
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥
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अर्थात् पिछले श्लोक में जिन नासाभ्यन्तरिणौ प्रण-अपान को सम करने का निर्देश दिया गया, (प्रयाणकाल में) प्राणों को इस प्रकार निरुद्ध कर दोनों भौहों के मध्य अवस्थित करे । अब प्रश्न यह है कि व्यवहार में इसे कैसे किया जाता है? इसके लिए यह ध्यान रखना होगा कि प्राण चित्त का अनुगमन करते हैं और चित्त ध्यान का ।
इस विषय में अध्याय १५, श्लोक ८ को देखें :
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥
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(इस प्रकार मृत्यु होने पर जीव) जिस नए शरीर को प्राप्त करता है, और जिस अपने शरीर को त्याग देता है, वह आवागमन को उसी प्रकार संपन्न होता है जैसे वायु गंध को एक स्थान से लेकर दूसरे स्थान पर ले जाती है ।
चूँकि यहाँ ’सद्गति’ के लिए भ्रूमध्य में प्राणों को प्रविष्ट करने का निर्देश है इसलिए उपरोक्त क्रम (के यथावत किए जाने से) जीव आज्ञा-चक्र के संपर्क में आता है, जो ’मैं हूँ’ स्मृति का स्थान है । पुनः ’मैं हूँ’ समस्त स्मृतियों का अधिष्ठान है इसलिए भी यदि अन्तकाल अने पर इस प्रक्रिया का पालन किया जाता है तो जीव का ब्रह्म में विलय हो जाता हुआ ।
यह अवश्य ही सैद्धान्तिक पक्ष है और इसलिए समझने और व्यवहार में लाने के लिए कठिन भी है ही । यहाँ केवल ’शरीर के अन्तर्गत स्मृति के अधिष्ठान’ को स्पष्ट करने हेतु यह मंथन किया गया ।
सरल चित्त मनुष्य के लिए यही निर्देश दिया जाता है कि वह केवल ’नाम-स्मरण’ जैसे साधन का अभ्यास करता हुआ उस नाम में इतना लीन हो जाए कि उस नाम से जाने-जानेवाले देवता से एकरूप हो जाए । तब अनायास ही उसके प्राण चित्त का अनुगमन कर विशिष्ट नाडी मार्ग से देवता के स्वरूप में विलीन हो जाएँगे ।
पुनः सैद्धान्तिक दृष्टि से इस प्रकार भी अपने ’नए’ शरीर को प्राप्त करने पर साधक का अभ्यास तब तक होता रहता है, जब तक कि वह परब्रह्म परमेश्वर से अभिन्न नहीं हो जाता ।
यह भी है दृष्टव्य है कि ’भ्रू’ शब्द / प्रातिपदिक से ही भ्रूण की व्युत्पत्ति भी की जा सकती है ।
भ्रूण का अर्थ है वह मांसपिण्ड जो माता के गर्भ में जीव के प्रविष्ट होने से पहले ही एक देह के रूप में प्रारंभिक अवस्था में होता है ।
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टिप्पणी :
अंग्रेज़ी में लिखी पोस्ट में एक विडिओ की लिंक दी गयी है जो भूटान के राजपरिवार में जन्मे व्यक्ति के उस पूर्वजन्म की स्मृति के बारे में है जब वह नालंदा विश्वविद्यालय में निवास करता था।
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