Sunday, 19 August 2018

प्रवाह ...

प्रवाह ... / कविता
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जब प्रवाह होता है,
परिवाह भी होते हैं,
परवाह एक हद तक
की जा सकती है।
प्रवाह का उद्गम क्या है,
प्रवाह का उद्गम क्यों है,
यह चिंता भी एक हद तक
की जा सकती है।
प्रवाह स्वाध्याय है,
अपनी है राह खुद ही,
अपनी मंज़िल भी खुद,
हाँ वो मिल सकती है।
राह अगर है मंज़िल,
और मंज़िल ही राह,
तो है मिली ही हुई,
क्यों न मिल सकती है।
कौन इस राह पर मिलता है,
कौन कहाँ तक साथ चलता है,
कौन क्या सोचता-कहता है,
सरोकार नहीं इससे !
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सन्दर्भ : एक पाठक ने 'स्मृति का अधिष्ठान' किसी सोशल वेबसाइट पर 'गुरुज्ञान' शीर्षक से शेयर किया।
'गुरुज्ञान' शीर्षक से किसी प्रकार का भ्रम न हो, इसलिए उस भ्रम के निवारण के लिए कुछ  लिखने की क़ोशिश  है।  
 
  

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