एक ’मत’ संप्रदायवाद के पक्ष में
गत दिनों एक भारतीय आध्यात्मिक गुरु के किसी विदेशी भक्त ने अपने घर में स्थापित गुरु की प्रतिमा के और उस प्रतिमा की पूजा के कुछ चित्र संचार माध्यम (मीडिया) में प्रकाशित किए थे । शीर्षक में ’... ... संप्रदाय के गुरु ...’ आदि का उल्लेख था । उसी गुरु के उपदेशों के अनुयायी एक दूसरे शिष्य ने आपत्ति उठाई :
हमारे गुरु की शिक्षाएँ सभी के लिए हैं, इसे आप 'संप्रदाय’ तक क्यों सीमित रखना चाहते हैं ?
हमारे राजनैतिक पथ-प्रदर्शकों ने इतना ज़हर घोल रखा है कि अच्छे-अच्छों की बुद्धि कुंठित है ।
संप्रदाय और संप्रदायवाद तो सनातन-धर्म की सामाजिक परंपरा है जो वास्तव में अनेकता में एकता, समरसता के दर्शन का व्यावहारिक उदाहरण है ।
भगवान् आद्य शङ्ककराचार्य ने चार मठों की स्थापना की ताकि आर्यावर्त में सनातन-धर्म का संरक्षण होता रहे ।
इन चार मठों / विभागों को संप्रदाय कहते हैं । इसके अलावा मत-वैभिन्न्य से वैसे भी अनेक आध्यात्मिक सम्प्रदाय हो सकते हैं जो परस्पर भिन्न प्रकार के होते हुए भी अंतिम एक ही लक्ष्य की सिद्धि के लिए अपनी अपनी रूचि के अनुसार हर व्यक्ति के लिए दूसरों से अलग हो सकते हैं। आध्यात्मिक परंपरा में व्यक्तियों के मन, बुद्धि, मानसिक, परिपक्वता के अनुसार वह जिस परंपरा-विशेष को अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए सर्वाधिक अनुकूल और ग्राह्य पाता है, वह उसका स्वाभाविक संप्रदाय होता है । इसलिए सनातन धर्म हर व्यक्ति की स्वतन्त्रता का सम्मान करता है जब तक कि वह व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों / समुदायों व शेष अन्य सभी परंपराओं पर अपना मत नहीं लादता । इसलिए सनातन-धर्म में एक ओर जहाँ किसी पर अपना मत लादने तक को अधर्म समझा जाता है, वहीं भय और प्रलोभन से ऐसा करने को तो अधर्म की पराकाष्ठा ही कह सकते हैं ।
किन्तु इस्लाम और क्रिश्चिनियटी के भारत में आने के बाद जब तक ये दोनों ’मत’ जिस किसी भी प्रकार से संभव हुआ भारत की जनता को अपने मत में मतान्तरित करते रहे, वहीं पिछले दो-सौ वर्षों में ’मत’ पर ’धर्म’ की मुहर लगाकर वे भारतीयों को भ्रमित भी करते रहे कि उनका मत सनातन-धर्म जैसा ही एक ’धर्म’ है । चूँकि उदारता सनातन-धर्म का एक आधारभूत-तत्व है, इसलिए भारतीय उनके द्वारा फैलाए गए भ्रम में फँस गए, यहाँ तक कि आर्य-समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती भी ’मूर्ति-पूजा’ के विरोध के अपने अपरिपक्व विचारयुक्त पूर्वाग्रह / दुराग्रह के कारण उन मूर्ति-पूजा विरोधी मतवादियों का सशक्त 'मोहरा' बन गए जो भारतीय परंपरा की उदारता का लाभ अपने कुत्सित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लेने और सनातन धर्म की जड़ों पर कुठाराघात करने के लिए कटिबद्ध थे।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि स्वामी दयानंद के द्वारा उन विदेशी 'मतवादों' के खंडन-मंडन से उन्हें तो कोई क्षति नहीं होती थी क्योंकि उनके लिए कुटिलता छल-छद्म लक्ष्य-प्राप्ति के 'साधन' थे, जबकि स्वामी दयानंद जी जैसे लोग भ्रम का शिकार थे कि उनसे स्वस्थ-संवाद के द्वारा उन्हें 'सुधारा' सकता है। उन विदेशी 'मतवादियों' के लिए 'सर्व-धर्म-समभाव' एक मुखौटा थी, जबकि स्वामी जी और उनके जैसे दूसरे अधिकाँश सनातन-धर्मी उनकी इस धूर्तता से नितांत अनभिज्ञ थे। अपनी परम्परा की 'जांच-परख और सुधार' जहां स्वामीजी जैसे लोगों के लिए एक कर्तव्य और 'धर्म' था, वही विदेशी मतवादियों का सारा जोर किसी भी प्रकार से सनातन-धर्म की जड़ें काटने और उनके अपने मत के प्रचार-प्रसार पर ही था। उनका 'मत' तो सदा से वैसे ही 'श्रेष्ठतम' था इसमें उन्हें संदेह करने तक की आज्ञा उनका मत नहीं देता था / है।
इस प्रकार 'संप्रदायवाद' का प्रचलित अर्थ हो गया - (सनातन धर्म जिसे) 'हिंदू' (नाम दिया गया उस मत /) 'धर्म' को माननेवाले लोगों की संकीर्ण मनोवृत्ति और सोच। और इसका एक परिणाम यह हुआ कि संप्रदायवाद जो अपने मूल अर्थ में सनातन-धर्म की उदारता की परंपरा और उदाहरण था, 'sectarianism' के अर्थ में 'विभाजनकारी शक्ति' समझा जाने लगा। और मजे की बात यह कि इस्लाम या ख्रीस्त मतावलंबी यदि उनके मत / 'धर्म' की मान्यताओं पर चलते हुए राज्य और देश तथा देश की उस जनता की उन मान्यताओं का विरोध करें, जो 'सनातन-धर्म' को अपना अधिकार और धर्म मानती है, तो उन्हें ऐसा करने की स्वतन्त्रता है। इस प्रकार के 'सेकुलरिज्म' से किसके हितों के पूर्ति होगी? क्या यह सनातन-धर्म के लिए घातक ही नहीं है? किन्तु हमारे बहुत से हिन्दू भाई भी राजनीतिक स्वार्थ-बुद्धि से अंधे होकर सनातन-धर्म की लुटिया डुबोने में गौरवान्वित अनुभव करते और प्रसन्न होते हैं।
भला करनेवाले भलाई किए जा, बुराई के बदले दुआएँ दिए जा !
यदि यही हमारा व्यवहारिक, राजनैतिक दर्शन है तो आज नहीं तो कल भारत का भी वही हाल होनेवाला है जो आज तमाम इस्लामिक और क्रिश्चियन राष्ट्रों का है।
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गत दिनों एक भारतीय आध्यात्मिक गुरु के किसी विदेशी भक्त ने अपने घर में स्थापित गुरु की प्रतिमा के और उस प्रतिमा की पूजा के कुछ चित्र संचार माध्यम (मीडिया) में प्रकाशित किए थे । शीर्षक में ’... ... संप्रदाय के गुरु ...’ आदि का उल्लेख था । उसी गुरु के उपदेशों के अनुयायी एक दूसरे शिष्य ने आपत्ति उठाई :
हमारे गुरु की शिक्षाएँ सभी के लिए हैं, इसे आप 'संप्रदाय’ तक क्यों सीमित रखना चाहते हैं ?
हमारे राजनैतिक पथ-प्रदर्शकों ने इतना ज़हर घोल रखा है कि अच्छे-अच्छों की बुद्धि कुंठित है ।
संप्रदाय और संप्रदायवाद तो सनातन-धर्म की सामाजिक परंपरा है जो वास्तव में अनेकता में एकता, समरसता के दर्शन का व्यावहारिक उदाहरण है ।
भगवान् आद्य शङ्ककराचार्य ने चार मठों की स्थापना की ताकि आर्यावर्त में सनातन-धर्म का संरक्षण होता रहे ।
इन चार मठों / विभागों को संप्रदाय कहते हैं । इसके अलावा मत-वैभिन्न्य से वैसे भी अनेक आध्यात्मिक सम्प्रदाय हो सकते हैं जो परस्पर भिन्न प्रकार के होते हुए भी अंतिम एक ही लक्ष्य की सिद्धि के लिए अपनी अपनी रूचि के अनुसार हर व्यक्ति के लिए दूसरों से अलग हो सकते हैं। आध्यात्मिक परंपरा में व्यक्तियों के मन, बुद्धि, मानसिक, परिपक्वता के अनुसार वह जिस परंपरा-विशेष को अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए सर्वाधिक अनुकूल और ग्राह्य पाता है, वह उसका स्वाभाविक संप्रदाय होता है । इसलिए सनातन धर्म हर व्यक्ति की स्वतन्त्रता का सम्मान करता है जब तक कि वह व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों / समुदायों व शेष अन्य सभी परंपराओं पर अपना मत नहीं लादता । इसलिए सनातन-धर्म में एक ओर जहाँ किसी पर अपना मत लादने तक को अधर्म समझा जाता है, वहीं भय और प्रलोभन से ऐसा करने को तो अधर्म की पराकाष्ठा ही कह सकते हैं ।
किन्तु इस्लाम और क्रिश्चिनियटी के भारत में आने के बाद जब तक ये दोनों ’मत’ जिस किसी भी प्रकार से संभव हुआ भारत की जनता को अपने मत में मतान्तरित करते रहे, वहीं पिछले दो-सौ वर्षों में ’मत’ पर ’धर्म’ की मुहर लगाकर वे भारतीयों को भ्रमित भी करते रहे कि उनका मत सनातन-धर्म जैसा ही एक ’धर्म’ है । चूँकि उदारता सनातन-धर्म का एक आधारभूत-तत्व है, इसलिए भारतीय उनके द्वारा फैलाए गए भ्रम में फँस गए, यहाँ तक कि आर्य-समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती भी ’मूर्ति-पूजा’ के विरोध के अपने अपरिपक्व विचारयुक्त पूर्वाग्रह / दुराग्रह के कारण उन मूर्ति-पूजा विरोधी मतवादियों का सशक्त 'मोहरा' बन गए जो भारतीय परंपरा की उदारता का लाभ अपने कुत्सित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लेने और सनातन धर्म की जड़ों पर कुठाराघात करने के लिए कटिबद्ध थे।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि स्वामी दयानंद के द्वारा उन विदेशी 'मतवादों' के खंडन-मंडन से उन्हें तो कोई क्षति नहीं होती थी क्योंकि उनके लिए कुटिलता छल-छद्म लक्ष्य-प्राप्ति के 'साधन' थे, जबकि स्वामी दयानंद जी जैसे लोग भ्रम का शिकार थे कि उनसे स्वस्थ-संवाद के द्वारा उन्हें 'सुधारा' सकता है। उन विदेशी 'मतवादियों' के लिए 'सर्व-धर्म-समभाव' एक मुखौटा थी, जबकि स्वामी जी और उनके जैसे दूसरे अधिकाँश सनातन-धर्मी उनकी इस धूर्तता से नितांत अनभिज्ञ थे। अपनी परम्परा की 'जांच-परख और सुधार' जहां स्वामीजी जैसे लोगों के लिए एक कर्तव्य और 'धर्म' था, वही विदेशी मतवादियों का सारा जोर किसी भी प्रकार से सनातन-धर्म की जड़ें काटने और उनके अपने मत के प्रचार-प्रसार पर ही था। उनका 'मत' तो सदा से वैसे ही 'श्रेष्ठतम' था इसमें उन्हें संदेह करने तक की आज्ञा उनका मत नहीं देता था / है।
इस प्रकार 'संप्रदायवाद' का प्रचलित अर्थ हो गया - (सनातन धर्म जिसे) 'हिंदू' (नाम दिया गया उस मत /) 'धर्म' को माननेवाले लोगों की संकीर्ण मनोवृत्ति और सोच। और इसका एक परिणाम यह हुआ कि संप्रदायवाद जो अपने मूल अर्थ में सनातन-धर्म की उदारता की परंपरा और उदाहरण था, 'sectarianism' के अर्थ में 'विभाजनकारी शक्ति' समझा जाने लगा। और मजे की बात यह कि इस्लाम या ख्रीस्त मतावलंबी यदि उनके मत / 'धर्म' की मान्यताओं पर चलते हुए राज्य और देश तथा देश की उस जनता की उन मान्यताओं का विरोध करें, जो 'सनातन-धर्म' को अपना अधिकार और धर्म मानती है, तो उन्हें ऐसा करने की स्वतन्त्रता है। इस प्रकार के 'सेकुलरिज्म' से किसके हितों के पूर्ति होगी? क्या यह सनातन-धर्म के लिए घातक ही नहीं है? किन्तु हमारे बहुत से हिन्दू भाई भी राजनीतिक स्वार्थ-बुद्धि से अंधे होकर सनातन-धर्म की लुटिया डुबोने में गौरवान्वित अनुभव करते और प्रसन्न होते हैं।
भला करनेवाले भलाई किए जा, बुराई के बदले दुआएँ दिए जा !
यदि यही हमारा व्यवहारिक, राजनैतिक दर्शन है तो आज नहीं तो कल भारत का भी वही हाल होनेवाला है जो आज तमाम इस्लामिक और क्रिश्चियन राष्ट्रों का है।
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