हिन्दुत्व की चुनौती / एक सनातन प्रश्न
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हिन्दुत्व को एक सामाजिक यथार्थ (Ethnic fact) के रूप में ग्रहण करते हुए ऐसे ही शेष अन्य सामाजिक यथार्थों के सन्दर्भ में हिन्दुत्व के द्वारा उनके समक्ष प्रस्तुत चुनौती तथा हिन्दुत्व को उनके द्वारा दी जानेवाली चुनौती दोनों ही वर्तमान वैश्विक स्थितियों में संप्रेक्ष्य हैं । इस चिन्तन का मुख्य आधार बिन्दु यह हो सकता है कि क्या ’धर्म’ के बारे में कोई ऐसी परिभाषा है जिस पर सभी सामाजिक यथार्थ सहमत हों? यह बिन्दु इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जिसे प्रचलित अर्थों में ’धर्म’ की तरह स्वीकार किया जाता है, सामाजिक परंपराओं और उनके प्रेरक विचारों तथा सिद्धान्तों / शास्त्रों में समानता कम विषमता ही अधिक है । तात्पर्य यह कि जिन शास्त्रों के आधार पर विभिन्न सामाजिक यथार्थ ’धर्म’ क्या है, इसे तय करते हैं वे शास्त्र न केवल परस्पर भिन्न-भिन्न मतों का आग्रह करते हैं बल्कि एक दूसरे के प्रबल विरोधी तक हैं । इसलिए जब तक ’शास्त्रों’ के आधार और उनके अनुसार धर्म क्या है यह तय किया जाता है तब तक सामाजिक एकरसता और सौहार्द्र की कल्पना करना दिवास्वप्न ही होगा ।
(सामाजिक यथार्थ के रूप में) हिन्दुत्व की प्रमुख विशेषता है उसका लचीलापन, जो एक ओर तो हिन्दुत्व को अजर-अमर बना देता है, वहीं दूसरी ओर उसमें परिवर्तन की तमाम संभावनाओं को भी सरलता से स्वीकार कर लेता है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि ऐसी परंपराएँ भी हिन्दुत्व का हिस्सा बन गईं हैं जो मूलतः हिन्दुत्व की इस उदारता का दुरुपयोग अपने कुत्सित और भ्रमित ध्येयों की प्राप्ति के लिए करने लगती हैं । इस प्रकार हिन्दुत्व में ऐसी धाराएँ भी आकर मिल गई हैं जो मूलतः हिन्दुत्व के मूल आधार को ही विनष्ट कर सकती हैं । किन्तु इसके साथ यह भी सत्य है कि आत्मावलोकन और स्व-आलोचना करने की वह शक्ति भी हिन्दुत्व की आत्मा में है जो उसे निरंतर स्थिर और प्रवाहशील बनाए रखती है ।
हिन्दुत्व किसी भी मत का अनादर नहीं करता और न किसी मत का आग्रह ही करता है, जबकि दूसरे प्रायः सभी सामाजिक यथार्थ न केवल बलपूर्वक अपने मत का प्रचार और उसके पक्ष में नैतिक दृष्टि से भी बहुत हद तक उचित, अनुचित यहाँ तक कि निषिद्ध, वर्जित, गर्हित साधनों का भी प्रयोग करते हैं । संक्षेप में जिसे ’राजनीति’ भी कह सकते हैं । राजनीति मुख्यतः जहाँ सामाजिक व्यवस्था को सुचारु और सामञ्जस्यपूर्ण प्रबन्धन मात्र होना चाहिए, किन्तु राजनीति को जब इस प्रकार के साधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता है तो वह सभी के लिए विनाशकारी होता है । जैसे विदेशी आक्रान्ताओं ने भारत-भूमि (हिन्दुत्व के सामाजिक यथार्थ की पहचान का आधार) को युद्ध के द्वारा जीता और अपने ’मत’ और परंपरा को धर्म कहकर भारत पर लादा, वैसे ही भारत की तथाकथित ’स्वतन्त्रता-प्राप्ति’ के बाद भी वे राजनीति के माध्यम से उसे अपने चंगुल में जकड़े हुए हैं । यह है हिन्दुत्व की चुनौती । यह हिन्दुत्व के लिए भी एक और उन तमाम हिन्दुत्व-विरोधी शक्तियों के लिए भी एक चुनौती है । और यह तो आनेवाला समय ही बताएगा कि कौन इस चुनौती का सामना कैसे करता है । यदि हिन्दुत्व मिट जाता है तो संसार को मिटने से नहीं बचाया जा सकता और यदि हिन्दुत्व अक्षुण्ण है तो कोई शक्ति संसार को नहीं मिटा सकती ।
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हिन्दुत्व को एक सामाजिक यथार्थ (Ethnic fact) के रूप में ग्रहण करते हुए ऐसे ही शेष अन्य सामाजिक यथार्थों के सन्दर्भ में हिन्दुत्व के द्वारा उनके समक्ष प्रस्तुत चुनौती तथा हिन्दुत्व को उनके द्वारा दी जानेवाली चुनौती दोनों ही वर्तमान वैश्विक स्थितियों में संप्रेक्ष्य हैं । इस चिन्तन का मुख्य आधार बिन्दु यह हो सकता है कि क्या ’धर्म’ के बारे में कोई ऐसी परिभाषा है जिस पर सभी सामाजिक यथार्थ सहमत हों? यह बिन्दु इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जिसे प्रचलित अर्थों में ’धर्म’ की तरह स्वीकार किया जाता है, सामाजिक परंपराओं और उनके प्रेरक विचारों तथा सिद्धान्तों / शास्त्रों में समानता कम विषमता ही अधिक है । तात्पर्य यह कि जिन शास्त्रों के आधार पर विभिन्न सामाजिक यथार्थ ’धर्म’ क्या है, इसे तय करते हैं वे शास्त्र न केवल परस्पर भिन्न-भिन्न मतों का आग्रह करते हैं बल्कि एक दूसरे के प्रबल विरोधी तक हैं । इसलिए जब तक ’शास्त्रों’ के आधार और उनके अनुसार धर्म क्या है यह तय किया जाता है तब तक सामाजिक एकरसता और सौहार्द्र की कल्पना करना दिवास्वप्न ही होगा ।
(सामाजिक यथार्थ के रूप में) हिन्दुत्व की प्रमुख विशेषता है उसका लचीलापन, जो एक ओर तो हिन्दुत्व को अजर-अमर बना देता है, वहीं दूसरी ओर उसमें परिवर्तन की तमाम संभावनाओं को भी सरलता से स्वीकार कर लेता है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि ऐसी परंपराएँ भी हिन्दुत्व का हिस्सा बन गईं हैं जो मूलतः हिन्दुत्व की इस उदारता का दुरुपयोग अपने कुत्सित और भ्रमित ध्येयों की प्राप्ति के लिए करने लगती हैं । इस प्रकार हिन्दुत्व में ऐसी धाराएँ भी आकर मिल गई हैं जो मूलतः हिन्दुत्व के मूल आधार को ही विनष्ट कर सकती हैं । किन्तु इसके साथ यह भी सत्य है कि आत्मावलोकन और स्व-आलोचना करने की वह शक्ति भी हिन्दुत्व की आत्मा में है जो उसे निरंतर स्थिर और प्रवाहशील बनाए रखती है ।
हिन्दुत्व किसी भी मत का अनादर नहीं करता और न किसी मत का आग्रह ही करता है, जबकि दूसरे प्रायः सभी सामाजिक यथार्थ न केवल बलपूर्वक अपने मत का प्रचार और उसके पक्ष में नैतिक दृष्टि से भी बहुत हद तक उचित, अनुचित यहाँ तक कि निषिद्ध, वर्जित, गर्हित साधनों का भी प्रयोग करते हैं । संक्षेप में जिसे ’राजनीति’ भी कह सकते हैं । राजनीति मुख्यतः जहाँ सामाजिक व्यवस्था को सुचारु और सामञ्जस्यपूर्ण प्रबन्धन मात्र होना चाहिए, किन्तु राजनीति को जब इस प्रकार के साधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता है तो वह सभी के लिए विनाशकारी होता है । जैसे विदेशी आक्रान्ताओं ने भारत-भूमि (हिन्दुत्व के सामाजिक यथार्थ की पहचान का आधार) को युद्ध के द्वारा जीता और अपने ’मत’ और परंपरा को धर्म कहकर भारत पर लादा, वैसे ही भारत की तथाकथित ’स्वतन्त्रता-प्राप्ति’ के बाद भी वे राजनीति के माध्यम से उसे अपने चंगुल में जकड़े हुए हैं । यह है हिन्दुत्व की चुनौती । यह हिन्दुत्व के लिए भी एक और उन तमाम हिन्दुत्व-विरोधी शक्तियों के लिए भी एक चुनौती है । और यह तो आनेवाला समय ही बताएगा कि कौन इस चुनौती का सामना कैसे करता है । यदि हिन्दुत्व मिट जाता है तो संसार को मिटने से नहीं बचाया जा सकता और यदि हिन्दुत्व अक्षुण्ण है तो कोई शक्ति संसार को नहीं मिटा सकती ।
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