Tuesday, 20 October 2015

धृति / धैर्य, दुःसाहस, हठ, तितिक्षा, दुराग्रह

धृति / धैर्य, दुःसाहस, हठ, तितिक्षा, दुराग्रह
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उपरोक्त गुणों का समावेश युद्ध में या चर्चा में मनुष्य की उपलब्धि का द्योतक होता है ।
आध्यात्मिक विषयों पर बातचीत करने पर जल्दी ही पता चल जाता है कि कौन पात्र / अधिकारी है, कौन नहीं है ।
धैर्य खोकर बौखला उठना दुराग्रह का संकेतक है, वहीं अपनी मान्यता की सत्यता की परीक्षा तक के लिए तैयार न होना हठ है, किसी भी मूल्य पर अपनी मान्यता को बलपूर्वक थोपना दुःसाहस है ।
इस बारे में कुछ मित्रों से बातचीत में जो अनुभव प्राप्त हुए उनसे इस बारे में लिखने का मन हो रहा है ।
.... और .... की मैं मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करना चाहूँगा कि उनमें असहमति को सुनने का धैर्य और बौखलाए बिना नम्रता से अपनी बात रखने का साहस है. इसे ही धैर्य कहा जाता है जबकि धृति का अर्थ है मन में पहले से संचित किए गए बिना परीक्षा किए गए स्वीकार कर लिए गए ’विचार’ । ये ’विचार’ अपने परिवेश से अनजाने ही ग्रहण कर लिए जाते हैं और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में पले-बढ़े व्यक्तियों में एक दूसरे से बहुत भिन्न या परस्पर अत्यन्त विरोधी भी हो सकते हैं । बुद्धिजीवी भी प्रायः उन विचारों को प्रथमदृष्ट्या अकाट्य ’सत्य’ के रूप में जाने-अनजाने स्वीकार कर उनके कट्टर समर्थक भी हो जाते हैं, और विचार की उस दहलीज का उल्लँघन करने की कल्पना तक उन्हें असह्य होती है ।
एक सर्वाधिक सशक्त विचार जिसने पूरी मनुष्यता को त्रस्त कर रखा है वह है ’ईश्वर’ (के होने / न होने) का विचार ।
जे. कृष्णमूर्ति की एक अंग्रेज़ी पुस्तक का शीर्षक है "On God" इसके हिन्दी अनुवाद को शीर्षक दिया गया है : "ईश्वर क्या है?" जिसने भी यह शीर्षक दिया है उसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतना कम है । यह शीर्षक हमारी इस भूल की ओर संकेत करता है कि ’ईश्वर’ शब्द से हमारा अभिप्राय क्या है इसे जाने-समझे और अपने लिए स्पष्ट हुए या स्पष्ट किए  बिना ही हम उसके होने / न होने पर बहस और युद्ध तक करते हैं । और यह संक्षेप में हमारा संक्षिप्त इतिहास रहा है ।
ठीक इसी प्रकार जे.कृष्णमूर्ति की एक अन्य अंग्रेज़ी पुस्तक का शीर्षक है "On Religion" जिसके हिंदी अनुवाद को दिया गया शीर्षक जहाँ तक मुझे स्मरण है, संभवतः :  "धर्म क्या है?" है ।
किन्तु हमारे समय (पिछले 2000 वर्षों से) हमने इन मूल प्रश्नों को प्रमादवश या दूसरी प्राथमिकताओं के चलते किसी कबाड़खाने में डाल रखा है और इसलिए "धर्म क्या है" और "ईश्वर क्या है" इन प्रश्नों पर गौर करने की बजाय हम ’मेरा धर्म’ और ’मेरा ईश्वर’ ही सबको स्वीकार करना होगा इस पर जोर देते चले आए हैं । और हमारी ’सहिष्णुता’ के गौरव से अभिभूत होकर हमने ’अधर्म’ और ’मिथ्या ईश्वर’ / ’अनीश्वरवाद’ के साथ समझौता कर लिया है । हमारी इस दुर्दशा के लिए हम ही उत्तरदायी हैं ।
जहाँ इस दिशा में हमें बहुत काम करना है वहीं अपनी मौलिक भूलों को भी सुधारना है ।
इसके लिए हममें तितिक्षा / सहिष्णुता भी होनी चाहिए ।
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