Tuesday, 20 October 2015

हिन्दुत्व की चुनौती -2

हिन्दुत्व की चुनौती -2
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हिन्दुत्व एक भावना है और हिन्दुत्व एक विचार भी है।
विचार के रूप में यह उन्हीं सब विशेषताओं से युक्त है जिनसे इस्लाम, ज्यू और कैथोलिक या क्रिश्चियनिटी भी ग्रस्त हैं ।
भावना तथ्य है जबकि विचार व्याख्या ।
हिन्दुत्व की भावना अपने आप में सनातन धर्म का सार है । हिन्दुत्व का विचार राजनीति है । और राजनीति हमेशा द्वन्द्वयुक्त होती है ।
अगर आपको किसी से प्रेम है तो प्रेम की यह भावना व्याख्यायित नहीं की जा सकती, और जब भी ऐसा करने का प्रयास किया जाता है तो वह प्रयास अधूरा ही सिद्ध होता है । किन्तु कर्म के द्वारा उस प्रेम की अभिव्यक्ति संभवतः उस भावना की पूर्ण सार्थक अभिव्यक्ति होगी । इसलिए प्रेम की भाषा पशु-पक्षी भी समझते हैं । वे घृणा की भाषा नहीं समझते क्योंकि घृणा भय और प्रतिरोध की भावना की वैचारिक अभिव्यक्ति है । घृणा प्रतिक्रिया मात्र होती है जो वैचारिक रूप ले सकती है या बिना वैचारिक रूप लिए भी कृत्य में व्यक्त हो सकती है । परिस्थितियों के अनुसार यह घृणा भिन्न-भिन्न रूप लेती है और सामान्यतः यही ’राजनीति’ है ।
घृणा मूलतः भय और लोभ, अर्थात् ’सुखद’ और ’दुःखद’ की स्मृति से उपजी आशा या आशंकारूपी प्रतिक्रिया मात्र है । हम देख सकते हैं कि घृणा के साथ क्रोध, वासना, द्वेष और गर्व भी अभिन्नतः जुड़े होते हैं । और ’विचार’ इन सबकी एकमात्र शरणस्थली होता है । जब हिन्दुत्व एक ’विचार’ या ’आदर्श’ होता है तो वह भी अपने-आप में इस्लाम, ज्यू, कैथोलिक या क्रिश्चिनियटी जैसे किसी भी अन्य विचार की ही तरह अविवेकी, अराजक, अन्तर्विरोधपूर्ण, विरोधाभासी, असंगत और नितांत अव्यावहारिक भी होता है । और इससे भी बढ़कर वह अत्यन्त विनाशकारी तो होता ही है ।
विचार सदा एकाँगी, खंडित , और अपने से विपरीत किसी अन्य विचार पर आश्रित होता है । इसलिए विचार तब तक  स्वयं अपने ही द्वारा सृजित विपत्ति का कभी निराकरण नहीं कर सकता जब तक कि विचार के संपूर्ण चरित्र को नहीं देख लिया जाता । विचार इस अर्थ में सदा अपनी ही कारा में बद्ध होता है और उसे कोई दूसरा इस कारा से मुक्त कैसे कर सकता है ।
’मेरा विचार’-रूपी विचार पुनः एक विचारक को प्रक्षेपित करता है जिसे वह ’मैं’ का नाम देता है । इस प्रकार ’विचारकर्ता’ आभासी अस्तित्व ग्रहण कर लेता है ।
वस्तुतः समस्त विचार स्मृति से ही आते हैं और ’विचार’ तथा ’विचारकर्ता’ रूपी द्वन्द्व भी स्मृति में एक केन्द्रीय विचार के रूप में स्मृति से परिचालित होता है ।
इसलिए वैचारिक स्वतन्त्रता के दो रूप हो सकते हैं :
पहला है ’विचार करने / रखने की स्वतन्त्रता’ जिसकी बात हम अमेरिका के उदय के समय से सुनते आ रहे हैं । किन्तु दूसरी ओर ’विचार’ स्मृति और स्मृति में संचित अनुभवों की व्याख्या भर होता है इसलिए सदैव स्मृति-आश्रित होने से वस्तुतः वह ’स्वतन्त्र’ अर्थात् ’बंधनमुक्त’ कदापि नहीं हो सकता ।
इस तथ्य को देख लिये जाने पर विचार के अत्याचारों का अन्त / शमन हो जाता है और उसके साथ ’विचारकर्ता’-रूपी ’मैं’ का आग्रह भी समाप्त हो जाता है । इस आग्रह के मिटने से भय, लोभ, घृणा, ईर्ष्या, गर्व आदि भी शेष नहीं रह जाते । यदि वे हैं तो तात्पर्य यही हुआ कि ’विचार’ को उसके समूचे स्वरूप में नहीं देखा गया है ।
विचार के इस बंधन से निवृत्ति को, विचार से स्वतन्त्रता को भी ’वैचारिक स्वतन्त्रता’ कहा जा सकता है ।
इस प्रकार विचार करने की स्वतन्त्रता और विचार से मुक्ति रूपी स्वतन्त्रता, ’वैचारिक स्वतन्त्रता’ इन दो रूपों में संभव है । पहली वस्तुतः स्मृति की दासता मात्र है जबकी दूसरी स्मृति पर स्वामित्व ।        
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