Tuesday, 13 October 2015

भावना और विचार

भावना और विचार
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धर्म अस्तित्व का वह सनातन आधार है जिस पर अस्तित्व अवलंबित और कार्यरत है ।
हिन्दुत्व उसी सनातन-धर्म का भावनात्मक पक्ष है । इस प्रकार हिन्दुत्व एक अत्यन्त सशक्त, प्रखर और उत्कट भावना की अभिव्यक्ति है ।
भावना के रूप में शक्ति है, शक्ति के रूप में दुर्गा है, भावना से ही शक्ति का आवाहन होता है, और शक्ति से ही भावना का उन्मेष होता है ।
शक्ति का कार्यरूप में आविर्भाव ही उसका संकल्प है ।
चूँकि अब्राहमिक परंपरा को ’धर्म’ के रूप में प्रस्तुत करने और उसका प्रचार प्रसार करने के कुत्सित विचार ने हमारी बुद्धि को भ्रमित कर रखा है और हम धर्म और अधर्म के अन्तर पर ध्यान तक नहीं दे रहे इसलिए यह आवश्यक है कि विचार (बुद्धिवाद) और भावना (शुभ अन्तःप्रेरणा) के बीच के अन्तर को समझा जाए और विचार की सीमित क्षमता और उपयोगिता के आधार पर उसे उसकी मर्यादा का उल्लंघन करने से रोका जाए ।
गीता के सन्दर्भ में -
अध्याय 18, श्लोक 31

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥
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(यया धर्मम् अधर्मम् च कार्यम् अकार्यम् एव च ।
अयथावत् प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥)
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भावार्थ :
जिस (बुद्धि) के द्वारा धर्म तथा अधर्म को, एवं करने योग्य उचित तथा अनुचित को उनके वास्तविक स्वरूप से भिन्न रूप में बुद्धि में जाना / ग्रहण किया जाता है, हे पार्थ (अर्जुन) वह बुद्धि राजसी (बुद्धि) होती है ।
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अध्याय 18, श्लोक 32,

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥
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(अधर्मम् धर्मम् इति या मन्यते तमसा आवृता ।
सर्वार्थान् विपरीतान् च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥)
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भावार्थ :
जो बुद्धि अधर्म को ’यह धर्म है’, मोहवश इस मान्यता से ग्रस्त रहती है, जो सभी तात्पर्यों (और यथार्थ) को उनकी वास्तविकता के विपरीत सत्य की भाँति स्वीकार करती है, हे पार्थ वह बुद्धि तामसी है ।
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इस प्रकार की राजसी एवं तामसी बुद्धि धर्म और अधर्म अंतर को कैसे समझ सकती है? किसी परम्परा / मान्यता / मत / विश्वास को उसकी सत्यता की परीक्षा किए बिना 'धर्म' कहना स्वयं और दूसरों के साथ भी अन्याय और छल है, कपट और दुराग्रह है।   
विचार से विचार जन्म लेता है और विचार में ही समाप्त हो जाता है । किन्तु विचारों की निरंतरता से उसके स्वतन्त्र अस्तित्व का भ्रम पैदा होता है और परस्पर विरोधी मतों का निर्माण होता है । ये विभिन्न मत होते तो विचार ही हैं किन्तु ’मत’ के अपने सुगठित रूप में अपेक्षाकृत स्थिर प्रतीत होते हैं । यह है विचार और वाद का यथार्थ । विचार रक्तबीज है जिसकी हर बूँद में शत-शत रक्तबीज छिपे होते हैं और धरती का स्पर्श पाते ही सक्रिय हो उठते हैं । ईश्वर के होने / न होने / एक या अनेक होने का विचार भी यदि भावनारहित विचार मात्र है तो वह दुराग्रह ही बन जाता है और किसी भी प्रकार से मनुष्य के लिए अत्यंत क्षतिकारक है। वह मनुष्यों में परस्पर द्वेष वैमनस्य, असंवेदनशीलता  और कटुता  पैदा करता है न कि सौहार्द्र और संवेदनशीलता।    
विचार रूपी यह राक्षस मूलतः एक होते हुए भी छल-छद्म से असंख्य रूप ग्रहण करता रहता है, जो परस्पर युद्धरत रहते हैं ।
यह राक्षस कला, विज्ञान, तकनीक और अधर्म की तमोगुणी-रजोगुणी शक्ति से युक्त होता है और महाप्रलय आने तक उनका प्रयोग संशय और असंतोष को जन्म देने और परिवर्धित करने में, अपने और दूसरों के विनाश के ही लिए करता रहता है । व्यक्ति के स्तर पर ही यह संभव है कि यह राक्षस अपने मन-मस्तिष्क और हृदय में प्रविष्ट हो, इससे पहले ही इससे सतर्क हो जाया जाए । मूलतः भोगवादी और भौतिकतावादी, सुखवादी होने से यह वैसे भी मृण्मय अर्थात् मृतप्राय ही होता है और मनुष्य को मृत्यु से मृत्यु में ले जाता है ।
विचार से भावना का परिवर्धन तो किया जा सकता है पर तब वह कृत्रिम उत्तेजना मात्र होती है जिसे पुनः पुनः पाने के प्रयास में विचार अन्ततः अपने ही विनाश के चरम पर पहुँच जाता है जहाँ अवसाद, विषाद और शोक के अलावा और कुछ नही शेष होता । अपनी निरर्थकता जानने पर वह आत्महत्या का संकल्प भी बन सकता है किन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है ।
किन्तु मनुष्य सिर्फ़ विचार तो नहीं है । मूलतः तो वह भावना ही है, अपने होने और इस अस्तित्व से अपने अभिन्न होने की सहज जन्मजात भावना । यद्यपि विचार का आगमन इस भावना को दबाकर ’अपने’ और ’अपने जगत् में अपने होने’ के काल्पनिक द्वन्द्व को सत्यता दे देता है, किन्तु भावना (शुभ अन्तःप्रेरणा) की शक्ति मनुष्य को पुनः यथार्थ के आविष्कार में प्रवृत्त और सक्षम बना देती है । इसलिए विचार अधिक अंशों में तो ’अधर्म’ का ही विस्तार है ।
इस प्रकार से युद्ध कहीं है तो विचार और भावना (शुभ अन्तःप्रेरणा) के मध्य ही है । विचार अल्पायु होता है, जबकि भावना दीर्घायु, सनातन, असीम, अनंत और शाश्वत् ।
दूसरी ओर यह भी सत्य है कि भावना का आवाहन न करने पर शक्ति का आगमन नहीं होता तथा भावना के अभाव में शक्ति अप्रकट बनी रहती है, अपनी अभिव्यक्ति नहीं करती । विचार से ग्रंथों और किताबों का, निष्प्राण मूढतापूर्ण, विवेकहीन हृदयहीन परंपराओं का जन्म होता है, जिनकी निरंतरता के लिए भोगवाद, संशय, लोभ, तात्कालिक लाभ, भय, लोलुपता, मद अहंकार एवं मोह ही मौलिक कारण होते हैं ।
भावना से वेद और पुराणों, धर्मशास्त्रों का  सनातन परंपराओं का जन्म होता है जिनमें यद्यपि विकार आते रहते हैं किन्तु समय के साथ भावना अपने-आपका शोधन करते हुए गंगा की भाँति पवित्र बनी रहती है ।
धरती पर यह युद्ध सदैव चलता रहता है, चलता रहेगा इसमें संशय नहीं है ।
आसुरी प्रवृत्तियाँ हमेशा भावनाहीन विचार की पक्षधर रहेंगी जबकि दैवी शक्ति भावना के रूप में उनका संहार करती रहेगी ।
आसुरी प्रवृत्तियाँ संशय से संशय की ओर गतिशील रहेंगी जबकि दैवी शक्ति अपनी अनेक विभूतियों के रूप में उन्हें परास्त करती रहेगी । मनुष्य तो उन प्रवृत्तियों और उन विभूतियों के हाथों से संचालित यन्त्र-मात्र है । किन्तु फ़िर भी उसे इतनी स्वतन्त्रता तो है ही कि अपने विवेक से यह चुनाव करे कि वह किस पक्ष के लिए अपनी सेवाएँ अर्पित करे, किन हाथों से संचालित हो  ।
वह भगवती भागवत्-शक्ति त्रिगुणात्मिका होते हुए भी त्रिगुणातीत है । त्रिगुणात्मिका के रूप में माया और त्रिगुणातीता रूप में भवानी ।
हिन्दुत्व को इस रूप में जान-समझ लेने के बाद जिस मनुष्य में थोड़ा भी विवेक है वह हिन्दुत्व-विरोधी होना नहीं चाह सकता । किन्तु जब तक कोई हिन्दुत्व के इस स्वरूप से अवगत नहीं है और हिन्दुत्व को भावना की बजाय अन्य संस्कृतियों जैसी एक और विचारजनित एक परंपरा, मत-विशेष समझता है, उसे चाहिए कि वह भावना और विचार के इस संबंध को ठीक से समझ ले और अपने विवेक का समुचित प्रयोग करते हुए विचार को दुराग्रह बनने से रोके ।
नवरात्र पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ !
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