Saturday, 31 October 2015

वेणी-श्रेणी-शृङ्गाराः / veṇī-śreṇī -śṛṅgārāḥ /

आज की संस्कृत रचना
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वेणी-श्रेणी-शृङ्गाराः / veṇī-śreṇī -śṛṅgārāḥ /  
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शृङ्गास्तु पृथिव्याः वा
शृङ्गास्तु धेनूनाम् ।
अपि च किरीटे देव्याः
सर्वे घ्नन्ति पातकान् ॥
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śṛṅgāstu pṛthivyāḥ vā
śṛṅgāstu dhenūnām |
api ca kirīṭe devyāḥ
sarve ghnanti pātakān ||
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अर्थ :
पर्वतों रूपी पृथ्वी के शृङ्ग हों,
या वे गौओं के हों,
या जगदंबा के किरीट के हों,
ये वेणी-श्रेणी शृङार सभी पापों का नाश करते हैं ।
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Meaning :
Be that the ornamental mountain-tops of Earth,
Be that the majestic horns of cows,
Be that there in the corona of  devī*
These all kill all the sins.
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*devī = The Mother-Principle as the Supreme Divine Reality.
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Wednesday, 28 October 2015

Angels of the Anglo-anglers!!

Angels of the Anglo-anglers!!

"The Angles of the Angels!"

“Origin of our Hindu-Arabic Numerals”


The Numbers that we use today in the c. 21st are still known as Arabic Numerals, but really their origin goes way back 2,000 years ago to the ancient Aryan (Vedic) culture. Their glyphs representing numbers were really a memory of how many angles or turns the number required.
e.g.: the Number 3 would have 3 angles, and the Number 4 would have 4 angles.
The Angles of the Angels!
Interestingly, our word for the “English” language was originally spelled as “Anglish”.
During the Renaissance times, these numbers and their specific angles were used as memory aids for teaching the forms or shapes of the numerals.
I can't say if it is knowingly or unmindful of the one who edited the 'pic' all numbers except '0' have been captioned with their respective number of 'angles' while '0' has been with 'angel'. The whole 'Angliography' is revealed in one picture! These Angles are the real Angels of the Anglo-anglers!!

पार्षद् / pārṣad / परिषद् / pariṣad / परि √सद् / pari √sad / in Sanskrit becomes 'FarishtaH' in Persian That means 'Angels' .परिषद् / pariṣad / परि √सद् / pari √sad / in Sanskrit means coterie, circle around a Chief authority. Thus there are पार्षद् / pārṣad ( servants) of Vishnu, Ganesha, Devi, Shiva, Surya . The whole पञ्चायतन / pañcāyatana / is what 'pagan' have as their origin.पञ्चजन / pañcajana > pantheon . पाञ्चजन्य / pāñcajanya / was the conch blown by Arjuna in Mahabharata war. There is a straight link if we would like to discover.
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Tuesday, 20 October 2015

हिन्दुत्व की चुनौती -2

हिन्दुत्व की चुनौती -2
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हिन्दुत्व एक भावना है और हिन्दुत्व एक विचार भी है।
विचार के रूप में यह उन्हीं सब विशेषताओं से युक्त है जिनसे इस्लाम, ज्यू और कैथोलिक या क्रिश्चियनिटी भी ग्रस्त हैं ।
भावना तथ्य है जबकि विचार व्याख्या ।
हिन्दुत्व की भावना अपने आप में सनातन धर्म का सार है । हिन्दुत्व का विचार राजनीति है । और राजनीति हमेशा द्वन्द्वयुक्त होती है ।
अगर आपको किसी से प्रेम है तो प्रेम की यह भावना व्याख्यायित नहीं की जा सकती, और जब भी ऐसा करने का प्रयास किया जाता है तो वह प्रयास अधूरा ही सिद्ध होता है । किन्तु कर्म के द्वारा उस प्रेम की अभिव्यक्ति संभवतः उस भावना की पूर्ण सार्थक अभिव्यक्ति होगी । इसलिए प्रेम की भाषा पशु-पक्षी भी समझते हैं । वे घृणा की भाषा नहीं समझते क्योंकि घृणा भय और प्रतिरोध की भावना की वैचारिक अभिव्यक्ति है । घृणा प्रतिक्रिया मात्र होती है जो वैचारिक रूप ले सकती है या बिना वैचारिक रूप लिए भी कृत्य में व्यक्त हो सकती है । परिस्थितियों के अनुसार यह घृणा भिन्न-भिन्न रूप लेती है और सामान्यतः यही ’राजनीति’ है ।
घृणा मूलतः भय और लोभ, अर्थात् ’सुखद’ और ’दुःखद’ की स्मृति से उपजी आशा या आशंकारूपी प्रतिक्रिया मात्र है । हम देख सकते हैं कि घृणा के साथ क्रोध, वासना, द्वेष और गर्व भी अभिन्नतः जुड़े होते हैं । और ’विचार’ इन सबकी एकमात्र शरणस्थली होता है । जब हिन्दुत्व एक ’विचार’ या ’आदर्श’ होता है तो वह भी अपने-आप में इस्लाम, ज्यू, कैथोलिक या क्रिश्चिनियटी जैसे किसी भी अन्य विचार की ही तरह अविवेकी, अराजक, अन्तर्विरोधपूर्ण, विरोधाभासी, असंगत और नितांत अव्यावहारिक भी होता है । और इससे भी बढ़कर वह अत्यन्त विनाशकारी तो होता ही है ।
विचार सदा एकाँगी, खंडित , और अपने से विपरीत किसी अन्य विचार पर आश्रित होता है । इसलिए विचार तब तक  स्वयं अपने ही द्वारा सृजित विपत्ति का कभी निराकरण नहीं कर सकता जब तक कि विचार के संपूर्ण चरित्र को नहीं देख लिया जाता । विचार इस अर्थ में सदा अपनी ही कारा में बद्ध होता है और उसे कोई दूसरा इस कारा से मुक्त कैसे कर सकता है ।
’मेरा विचार’-रूपी विचार पुनः एक विचारक को प्रक्षेपित करता है जिसे वह ’मैं’ का नाम देता है । इस प्रकार ’विचारकर्ता’ आभासी अस्तित्व ग्रहण कर लेता है ।
वस्तुतः समस्त विचार स्मृति से ही आते हैं और ’विचार’ तथा ’विचारकर्ता’ रूपी द्वन्द्व भी स्मृति में एक केन्द्रीय विचार के रूप में स्मृति से परिचालित होता है ।
इसलिए वैचारिक स्वतन्त्रता के दो रूप हो सकते हैं :
पहला है ’विचार करने / रखने की स्वतन्त्रता’ जिसकी बात हम अमेरिका के उदय के समय से सुनते आ रहे हैं । किन्तु दूसरी ओर ’विचार’ स्मृति और स्मृति में संचित अनुभवों की व्याख्या भर होता है इसलिए सदैव स्मृति-आश्रित होने से वस्तुतः वह ’स्वतन्त्र’ अर्थात् ’बंधनमुक्त’ कदापि नहीं हो सकता ।
इस तथ्य को देख लिये जाने पर विचार के अत्याचारों का अन्त / शमन हो जाता है और उसके साथ ’विचारकर्ता’-रूपी ’मैं’ का आग्रह भी समाप्त हो जाता है । इस आग्रह के मिटने से भय, लोभ, घृणा, ईर्ष्या, गर्व आदि भी शेष नहीं रह जाते । यदि वे हैं तो तात्पर्य यही हुआ कि ’विचार’ को उसके समूचे स्वरूप में नहीं देखा गया है ।
विचार के इस बंधन से निवृत्ति को, विचार से स्वतन्त्रता को भी ’वैचारिक स्वतन्त्रता’ कहा जा सकता है ।
इस प्रकार विचार करने की स्वतन्त्रता और विचार से मुक्ति रूपी स्वतन्त्रता, ’वैचारिक स्वतन्त्रता’ इन दो रूपों में संभव है । पहली वस्तुतः स्मृति की दासता मात्र है जबकी दूसरी स्मृति पर स्वामित्व ।        
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धृति / धैर्य, दुःसाहस, हठ, तितिक्षा, दुराग्रह

धृति / धैर्य, दुःसाहस, हठ, तितिक्षा, दुराग्रह
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उपरोक्त गुणों का समावेश युद्ध में या चर्चा में मनुष्य की उपलब्धि का द्योतक होता है ।
आध्यात्मिक विषयों पर बातचीत करने पर जल्दी ही पता चल जाता है कि कौन पात्र / अधिकारी है, कौन नहीं है ।
धैर्य खोकर बौखला उठना दुराग्रह का संकेतक है, वहीं अपनी मान्यता की सत्यता की परीक्षा तक के लिए तैयार न होना हठ है, किसी भी मूल्य पर अपनी मान्यता को बलपूर्वक थोपना दुःसाहस है ।
इस बारे में कुछ मित्रों से बातचीत में जो अनुभव प्राप्त हुए उनसे इस बारे में लिखने का मन हो रहा है ।
.... और .... की मैं मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करना चाहूँगा कि उनमें असहमति को सुनने का धैर्य और बौखलाए बिना नम्रता से अपनी बात रखने का साहस है. इसे ही धैर्य कहा जाता है जबकि धृति का अर्थ है मन में पहले से संचित किए गए बिना परीक्षा किए गए स्वीकार कर लिए गए ’विचार’ । ये ’विचार’ अपने परिवेश से अनजाने ही ग्रहण कर लिए जाते हैं और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में पले-बढ़े व्यक्तियों में एक दूसरे से बहुत भिन्न या परस्पर अत्यन्त विरोधी भी हो सकते हैं । बुद्धिजीवी भी प्रायः उन विचारों को प्रथमदृष्ट्या अकाट्य ’सत्य’ के रूप में जाने-अनजाने स्वीकार कर उनके कट्टर समर्थक भी हो जाते हैं, और विचार की उस दहलीज का उल्लँघन करने की कल्पना तक उन्हें असह्य होती है ।
एक सर्वाधिक सशक्त विचार जिसने पूरी मनुष्यता को त्रस्त कर रखा है वह है ’ईश्वर’ (के होने / न होने) का विचार ।
जे. कृष्णमूर्ति की एक अंग्रेज़ी पुस्तक का शीर्षक है "On God" इसके हिन्दी अनुवाद को शीर्षक दिया गया है : "ईश्वर क्या है?" जिसने भी यह शीर्षक दिया है उसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतना कम है । यह शीर्षक हमारी इस भूल की ओर संकेत करता है कि ’ईश्वर’ शब्द से हमारा अभिप्राय क्या है इसे जाने-समझे और अपने लिए स्पष्ट हुए या स्पष्ट किए  बिना ही हम उसके होने / न होने पर बहस और युद्ध तक करते हैं । और यह संक्षेप में हमारा संक्षिप्त इतिहास रहा है ।
ठीक इसी प्रकार जे.कृष्णमूर्ति की एक अन्य अंग्रेज़ी पुस्तक का शीर्षक है "On Religion" जिसके हिंदी अनुवाद को दिया गया शीर्षक जहाँ तक मुझे स्मरण है, संभवतः :  "धर्म क्या है?" है ।
किन्तु हमारे समय (पिछले 2000 वर्षों से) हमने इन मूल प्रश्नों को प्रमादवश या दूसरी प्राथमिकताओं के चलते किसी कबाड़खाने में डाल रखा है और इसलिए "धर्म क्या है" और "ईश्वर क्या है" इन प्रश्नों पर गौर करने की बजाय हम ’मेरा धर्म’ और ’मेरा ईश्वर’ ही सबको स्वीकार करना होगा इस पर जोर देते चले आए हैं । और हमारी ’सहिष्णुता’ के गौरव से अभिभूत होकर हमने ’अधर्म’ और ’मिथ्या ईश्वर’ / ’अनीश्वरवाद’ के साथ समझौता कर लिया है । हमारी इस दुर्दशा के लिए हम ही उत्तरदायी हैं ।
जहाँ इस दिशा में हमें बहुत काम करना है वहीं अपनी मौलिक भूलों को भी सुधारना है ।
इसके लिए हममें तितिक्षा / सहिष्णुता भी होनी चाहिए ।
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Wednesday, 14 October 2015

Andrew Crane

Andrew Crane 
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ईषत्विवृत् महाप्राण / īṣatvivṛt mahāprāṇa /
In the Vedika Science of word, this letter precisely 'H', corresponds to the class of 
ईषत्विवृत् महाप्राण / īṣatvivṛt mahāprāṇa 
- slightly uttered sound (syllable) associated with vital breath (life-force), - the phoneme pronounced with slight accent but having greatest vital effect. And one of 
2 वसु, 2 अश्विनीकुमार / 2 vasu, 2 aśvinīkumāra 
- The prominant vedika spirits देवता / devatā / in the Vedik pantheon.
Astonishingly, The Artist Andrew Crane has knowingly / unknowingly succeeded in invoking this Vedika spirit in his work. This is evident from the description given by him in the title 'H' as in 'exhale'.
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Tuesday, 13 October 2015

भावना और विचार

भावना और विचार
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धर्म अस्तित्व का वह सनातन आधार है जिस पर अस्तित्व अवलंबित और कार्यरत है ।
हिन्दुत्व उसी सनातन-धर्म का भावनात्मक पक्ष है । इस प्रकार हिन्दुत्व एक अत्यन्त सशक्त, प्रखर और उत्कट भावना की अभिव्यक्ति है ।
भावना के रूप में शक्ति है, शक्ति के रूप में दुर्गा है, भावना से ही शक्ति का आवाहन होता है, और शक्ति से ही भावना का उन्मेष होता है ।
शक्ति का कार्यरूप में आविर्भाव ही उसका संकल्प है ।
चूँकि अब्राहमिक परंपरा को ’धर्म’ के रूप में प्रस्तुत करने और उसका प्रचार प्रसार करने के कुत्सित विचार ने हमारी बुद्धि को भ्रमित कर रखा है और हम धर्म और अधर्म के अन्तर पर ध्यान तक नहीं दे रहे इसलिए यह आवश्यक है कि विचार (बुद्धिवाद) और भावना (शुभ अन्तःप्रेरणा) के बीच के अन्तर को समझा जाए और विचार की सीमित क्षमता और उपयोगिता के आधार पर उसे उसकी मर्यादा का उल्लंघन करने से रोका जाए ।
गीता के सन्दर्भ में -
अध्याय 18, श्लोक 31

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥
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(यया धर्मम् अधर्मम् च कार्यम् अकार्यम् एव च ।
अयथावत् प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥)
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भावार्थ :
जिस (बुद्धि) के द्वारा धर्म तथा अधर्म को, एवं करने योग्य उचित तथा अनुचित को उनके वास्तविक स्वरूप से भिन्न रूप में बुद्धि में जाना / ग्रहण किया जाता है, हे पार्थ (अर्जुन) वह बुद्धि राजसी (बुद्धि) होती है ।
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अध्याय 18, श्लोक 32,

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥
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(अधर्मम् धर्मम् इति या मन्यते तमसा आवृता ।
सर्वार्थान् विपरीतान् च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥)
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भावार्थ :
जो बुद्धि अधर्म को ’यह धर्म है’, मोहवश इस मान्यता से ग्रस्त रहती है, जो सभी तात्पर्यों (और यथार्थ) को उनकी वास्तविकता के विपरीत सत्य की भाँति स्वीकार करती है, हे पार्थ वह बुद्धि तामसी है ।
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इस प्रकार की राजसी एवं तामसी बुद्धि धर्म और अधर्म अंतर को कैसे समझ सकती है? किसी परम्परा / मान्यता / मत / विश्वास को उसकी सत्यता की परीक्षा किए बिना 'धर्म' कहना स्वयं और दूसरों के साथ भी अन्याय और छल है, कपट और दुराग्रह है।   
विचार से विचार जन्म लेता है और विचार में ही समाप्त हो जाता है । किन्तु विचारों की निरंतरता से उसके स्वतन्त्र अस्तित्व का भ्रम पैदा होता है और परस्पर विरोधी मतों का निर्माण होता है । ये विभिन्न मत होते तो विचार ही हैं किन्तु ’मत’ के अपने सुगठित रूप में अपेक्षाकृत स्थिर प्रतीत होते हैं । यह है विचार और वाद का यथार्थ । विचार रक्तबीज है जिसकी हर बूँद में शत-शत रक्तबीज छिपे होते हैं और धरती का स्पर्श पाते ही सक्रिय हो उठते हैं । ईश्वर के होने / न होने / एक या अनेक होने का विचार भी यदि भावनारहित विचार मात्र है तो वह दुराग्रह ही बन जाता है और किसी भी प्रकार से मनुष्य के लिए अत्यंत क्षतिकारक है। वह मनुष्यों में परस्पर द्वेष वैमनस्य, असंवेदनशीलता  और कटुता  पैदा करता है न कि सौहार्द्र और संवेदनशीलता।    
विचार रूपी यह राक्षस मूलतः एक होते हुए भी छल-छद्म से असंख्य रूप ग्रहण करता रहता है, जो परस्पर युद्धरत रहते हैं ।
यह राक्षस कला, विज्ञान, तकनीक और अधर्म की तमोगुणी-रजोगुणी शक्ति से युक्त होता है और महाप्रलय आने तक उनका प्रयोग संशय और असंतोष को जन्म देने और परिवर्धित करने में, अपने और दूसरों के विनाश के ही लिए करता रहता है । व्यक्ति के स्तर पर ही यह संभव है कि यह राक्षस अपने मन-मस्तिष्क और हृदय में प्रविष्ट हो, इससे पहले ही इससे सतर्क हो जाया जाए । मूलतः भोगवादी और भौतिकतावादी, सुखवादी होने से यह वैसे भी मृण्मय अर्थात् मृतप्राय ही होता है और मनुष्य को मृत्यु से मृत्यु में ले जाता है ।
विचार से भावना का परिवर्धन तो किया जा सकता है पर तब वह कृत्रिम उत्तेजना मात्र होती है जिसे पुनः पुनः पाने के प्रयास में विचार अन्ततः अपने ही विनाश के चरम पर पहुँच जाता है जहाँ अवसाद, विषाद और शोक के अलावा और कुछ नही शेष होता । अपनी निरर्थकता जानने पर वह आत्महत्या का संकल्प भी बन सकता है किन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है ।
किन्तु मनुष्य सिर्फ़ विचार तो नहीं है । मूलतः तो वह भावना ही है, अपने होने और इस अस्तित्व से अपने अभिन्न होने की सहज जन्मजात भावना । यद्यपि विचार का आगमन इस भावना को दबाकर ’अपने’ और ’अपने जगत् में अपने होने’ के काल्पनिक द्वन्द्व को सत्यता दे देता है, किन्तु भावना (शुभ अन्तःप्रेरणा) की शक्ति मनुष्य को पुनः यथार्थ के आविष्कार में प्रवृत्त और सक्षम बना देती है । इसलिए विचार अधिक अंशों में तो ’अधर्म’ का ही विस्तार है ।
इस प्रकार से युद्ध कहीं है तो विचार और भावना (शुभ अन्तःप्रेरणा) के मध्य ही है । विचार अल्पायु होता है, जबकि भावना दीर्घायु, सनातन, असीम, अनंत और शाश्वत् ।
दूसरी ओर यह भी सत्य है कि भावना का आवाहन न करने पर शक्ति का आगमन नहीं होता तथा भावना के अभाव में शक्ति अप्रकट बनी रहती है, अपनी अभिव्यक्ति नहीं करती । विचार से ग्रंथों और किताबों का, निष्प्राण मूढतापूर्ण, विवेकहीन हृदयहीन परंपराओं का जन्म होता है, जिनकी निरंतरता के लिए भोगवाद, संशय, लोभ, तात्कालिक लाभ, भय, लोलुपता, मद अहंकार एवं मोह ही मौलिक कारण होते हैं ।
भावना से वेद और पुराणों, धर्मशास्त्रों का  सनातन परंपराओं का जन्म होता है जिनमें यद्यपि विकार आते रहते हैं किन्तु समय के साथ भावना अपने-आपका शोधन करते हुए गंगा की भाँति पवित्र बनी रहती है ।
धरती पर यह युद्ध सदैव चलता रहता है, चलता रहेगा इसमें संशय नहीं है ।
आसुरी प्रवृत्तियाँ हमेशा भावनाहीन विचार की पक्षधर रहेंगी जबकि दैवी शक्ति भावना के रूप में उनका संहार करती रहेगी ।
आसुरी प्रवृत्तियाँ संशय से संशय की ओर गतिशील रहेंगी जबकि दैवी शक्ति अपनी अनेक विभूतियों के रूप में उन्हें परास्त करती रहेगी । मनुष्य तो उन प्रवृत्तियों और उन विभूतियों के हाथों से संचालित यन्त्र-मात्र है । किन्तु फ़िर भी उसे इतनी स्वतन्त्रता तो है ही कि अपने विवेक से यह चुनाव करे कि वह किस पक्ष के लिए अपनी सेवाएँ अर्पित करे, किन हाथों से संचालित हो  ।
वह भगवती भागवत्-शक्ति त्रिगुणात्मिका होते हुए भी त्रिगुणातीत है । त्रिगुणात्मिका के रूप में माया और त्रिगुणातीता रूप में भवानी ।
हिन्दुत्व को इस रूप में जान-समझ लेने के बाद जिस मनुष्य में थोड़ा भी विवेक है वह हिन्दुत्व-विरोधी होना नहीं चाह सकता । किन्तु जब तक कोई हिन्दुत्व के इस स्वरूप से अवगत नहीं है और हिन्दुत्व को भावना की बजाय अन्य संस्कृतियों जैसी एक और विचारजनित एक परंपरा, मत-विशेष समझता है, उसे चाहिए कि वह भावना और विचार के इस संबंध को ठीक से समझ ले और अपने विवेक का समुचित प्रयोग करते हुए विचार को दुराग्रह बनने से रोके ।
नवरात्र पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ !
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Monday, 12 October 2015

A debate inconsequential.

A debate inconsequential.

--Vaidyaji namaste,

Please read this article and give your feedback on verses quoted here from various scriptures of India for approval of meat-eating. There is lot of debate going on whether these verses are correctly translated or not.



Hope you find time to read this and provide your valuable suggestions....



Regards

Ram
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My Reply to the above :

This whole article seems to have been written by and commented upon by अनधिकारी anadhikAree, may be a learned scholar like so many are these days. The words 'During Vedika Period' and the mention of स्मृति smriti, संहिता and धर्मसूत्र dharmasutra elaborates my point.
The first error is done while presenting veda as 'books'. Veda is अपौरुषेय  / apaurusheya वाक् / vak that is 'seen' by / revealed to one who is duly qualified to understand / grasp the same. And veda speak of truth for all times. veda, even in written form are the guide-lines only for those who belong to one of the 4 classes and stages of life. In other words, follow the spirit of वर्णाश्रम . Even if Rishis may have consumed meat and wine, even the kings have sacrificed animals in yajna that is perfectly fitting with the instructions of veda. And veda include many instructions which are contradictory or coherent according to the one who belongs to  वर्णाश्रम धर्म . The most of veda constitutes teachings in the form of 'do-s' and 'do not'. While these are meant for those who can't grasp सांख्य, there are वेदान्त / उपनिषत् part that speak from the stand-point of
'सांख्य-निष्ठा ' 'sAnkhya-niShThA '.  
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अध्याय 3, श्लोक 3,

श्रीभगवान् उवाच :

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
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(लोके-अस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया अनघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानाम् कर्मयोगेन योगिनाम् ॥)
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भावार्थ :
हे अनघ अर्जुन! इस लोक में (अधिकारी-भेद के अनुसार भिन्न-भिन्न मनुष्यों में) जो दो निष्ठाएँ  (परमार्थ की सिद्धि / प्राप्ति कैसे होती है, इस विषय में) होती हैं, उनके बारे नें मेरे द्वारा बहुत पहले ही कहा जा चुका है । साङ्ख्ययोग के प्रति ज्ञानयोगियों की निष्ठा, और कर्मयोग के प्रति कर्मयोगियों की निष्ठा ।
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Chapter 3, shloka 3,

śrībhagavān uvāca :

loke:'smindvividhā niṣṭhā
purā proktā mayānagha |
jñānayogena sāṅkhyānāṃ
karmayogena yoginām ||
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(loke-asmin dvividhā niṣṭhā
purā proktā mayā anagha |
jñānayogena sāṅkhyānām
karmayogena yoginām ||)
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Meaning :

Lord śrīkṛṣṇa said :

O sinless arjuna of pure mind! Long ago in times, there are two different kinds of ways to follow for approaching the Supreme which were described by ME (for those who deserve, according to the specific bent of their mind). Those who are inclined to follow the way of sāṅkhya-yoga (by deduction and enquiry into the nature of Reality, Self) are the jñāna-yogins. Others, who emphasize and are inclined to follow the way of action are the karma-yogins.
This may help us to see how scholars too can't grasp the spirit of veda and are bound to mis-interpret.
According to ज्ञान-निष्ठा, be a jnAnI or ignorant,man is forced to act as is prompted by त्रिगुणात्मिका प्रकृति and no one escape it.
For a jnAnI, there is no contadiction if he is served beef or fruits but for the ignorant who don't understand this ज्ञान-निष्ठा this causes a 'karma' sin or virtue 'pApa' or 'puNya' and adds to destiny.
And veda never instruct do this or that, do not do this or that. veda just point out what karma would yield what result.Veda leaves choosing the option to you. And again. Veda is in Sanskrit only, could not be even written down or pronounced, though heard in a pure heart by अधिकारी adhikAree,
I see this whole article just a useless exercise only.
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Saturday, 10 October 2015

हिन्दुत्व की चुनौती / एक सनातन प्रश्न

हिन्दुत्व की चुनौती / एक सनातन प्रश्न 
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हिन्दुत्व को एक सामाजिक यथार्थ (Ethnic fact) के रूप में ग्रहण करते हुए ऐसे ही शेष अन्य सामाजिक यथार्थों के सन्दर्भ में हिन्दुत्व के द्वारा उनके समक्ष प्रस्तुत चुनौती तथा हिन्दुत्व को उनके द्वारा दी जानेवाली चुनौती दोनों ही वर्तमान वैश्विक स्थितियों में संप्रेक्ष्य हैं । इस चिन्तन का मुख्य आधार बिन्दु यह हो सकता है कि क्या ’धर्म’ के बारे में कोई ऐसी परिभाषा है जिस पर सभी सामाजिक यथार्थ सहमत हों? यह बिन्दु इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जिसे प्रचलित अर्थों में ’धर्म’ की तरह स्वीकार किया जाता है, सामाजिक परंपराओं और उनके प्रेरक विचारों तथा सिद्धान्तों / शास्त्रों में समानता कम विषमता ही अधिक है । तात्पर्य यह कि जिन शास्त्रों के आधार पर विभिन्न सामाजिक यथार्थ ’धर्म’ क्या है, इसे तय करते हैं वे शास्त्र न केवल परस्पर भिन्न-भिन्न मतों का आग्रह करते हैं बल्कि एक दूसरे के प्रबल विरोधी तक हैं । इसलिए जब तक ’शास्त्रों’ के आधार और उनके अनुसार धर्म क्या है यह तय किया जाता है तब तक सामाजिक एकरसता और सौहार्द्र की कल्पना करना दिवास्वप्न ही होगा ।
(सामाजिक यथार्थ के रूप में) हिन्दुत्व की प्रमुख विशेषता है उसका लचीलापन, जो एक ओर तो हिन्दुत्व को अजर-अमर बना देता है, वहीं दूसरी ओर उसमें परिवर्तन की तमाम संभावनाओं को भी सरलता से स्वीकार कर लेता है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि ऐसी परंपराएँ भी हिन्दुत्व का हिस्सा बन गईं हैं जो मूलतः हिन्दुत्व की इस उदारता का दुरुपयोग अपने कुत्सित और भ्रमित ध्येयों की प्राप्ति के लिए करने लगती हैं । इस प्रकार हिन्दुत्व में ऐसी धाराएँ भी आकर मिल गई हैं जो मूलतः हिन्दुत्व के मूल आधार को ही विनष्ट कर सकती हैं । किन्तु इसके साथ यह भी सत्य है कि आत्मावलोकन और स्व-आलोचना करने की वह शक्ति भी हिन्दुत्व की आत्मा में है जो उसे निरंतर स्थिर और प्रवाहशील बनाए रखती है ।
हिन्दुत्व किसी भी मत का अनादर नहीं करता और न किसी मत का आग्रह ही करता है, जबकि दूसरे प्रायः सभी सामाजिक यथार्थ न केवल बलपूर्वक अपने मत का प्रचार और उसके पक्ष में नैतिक दृष्टि से भी बहुत हद तक उचित, अनुचित यहाँ तक कि निषिद्ध, वर्जित, गर्हित साधनों का भी प्रयोग करते हैं । संक्षेप में जिसे ’राजनीति’ भी कह सकते हैं । राजनीति मुख्यतः जहाँ सामाजिक व्यवस्था को सुचारु और सामञ्जस्यपूर्ण प्रबन्धन मात्र होना चाहिए, किन्तु राजनीति को जब इस प्रकार के साधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता है तो वह सभी के लिए विनाशकारी होता है । जैसे विदेशी आक्रान्ताओं ने भारत-भूमि (हिन्दुत्व के सामाजिक यथार्थ की पहचान का आधार) को युद्ध के द्वारा जीता और अपने ’मत’ और परंपरा को धर्म कहकर भारत पर लादा, वैसे ही भारत की तथाकथित ’स्वतन्त्रता-प्राप्ति’ के बाद भी वे राजनीति के माध्यम से उसे अपने चंगुल में जकड़े हुए हैं । यह है हिन्दुत्व की चुनौती । यह हिन्दुत्व के लिए भी एक और उन तमाम हिन्दुत्व-विरोधी शक्तियों के लिए भी एक चुनौती है । और यह तो आनेवाला समय ही बताएगा कि कौन इस चुनौती का सामना कैसे करता है । यदि हिन्दुत्व मिट जाता है तो संसार को मिटने से नहीं बचाया जा सकता और यदि हिन्दुत्व अक्षुण्ण है तो कोई शक्ति संसार को नहीं मिटा सकती ।
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श्रुता एषा मया कथा ! / śrutā eṣā mayā kathā !

श्रुता एषा मया कथा !
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लोकपाला पालयंति लोकान्
कपालाः 'क'स्य केषां तनून्
कपालो एको हि आसीत्
बभूव सैव अनेकधा ।
कपालो प्राकृतां गते
अपभ्रंशं च भाषासु,
क्यूपोला, कॆप सेपश्च ।
सिफैलस् विफलितं
मुफ़लिस् सिफिलिसपि,
फलस् फलं फल-तत्समं
कैपिलरीय केशरीय च ।
सबल कबीला क़ब्ल,
कबला अक्षरसमाम्नायः
क्यूब, ख़ूब, कॅबिनश्च तत्
कप्, क्यूपित, सुप्-इदं ।
लसति अल्-काबा भूत्वा,
महालये महा नाम्ना
दिवस-दिन-दिवा देवाः
डेषष्टित्रिंशतस्य मूर्तयः।
महादेवो च देवानाम्
विश्वस्य परमेश्वरो
अपि खर्परः कापालिकस्य
फलत्वेन खप्परः।
खेः परे अन्वयेनापि
नटो स सो- सो नटो बभूव
मद-मोहेन तिरस्कृत्वा
ततः विपूज्यः इव लिङ्गः।
देवैः सह सर्वैः अथ
लोकान् सर्वान् कुपितवान
संक्षेपेण कथिता एषा
यथा या च श्रुता कथा ।
फलश्रुतिः का अस्याः
न इति विदितं मया
किं फलं भविता अत्र
विजानाति परमेश्वरः ॥
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śrutā eṣā mayā kathā !
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lokapālā pālayaṃti lokān
kapālāḥ kasya keṣāṃ tanūn
kapālo eko hi āsīt
babhūva saiva anekadhā |
kapālo prākṛtāṃ gate
apabhraṃśaṃ ca bhāṣāsu,
kyūpolā, kepa sepaśca
siphailas viphalitaṃ।
mufalis siphilisapi,
phalas phalaṃ phala-tatsamaṃ
kaipilarīya keśarīya ca
sabala kabīlā qabla।
kabalā akṣarasamāmnāyaḥ
kyūba, k̲h̲ūba, kêbinaśca tat
kap, kyūpita, sup-idaṃ
lasati al-kābā bhūtvā।
mahālaye mahā nāmnā |
divasa-dina-divā devāḥ
ḍeṣaṣṭitriṃśatasya mūrtayaḥ
mahādevo ca devānām
viśvasya parameśvaro ।
api kharparaḥ kāpālikasya
phalatvena khapparaḥ
kheḥ pare anvayenāpi
naṭo sa so- so naṭo babhūva।
mada-mohena tiraskṛtvā
tataḥ vipūjyaḥ iva liṅgaḥ
devaiḥ saha sarvaiḥ atha
lokān sarvān kupitavāna ।
saṃkṣepeṇa kathitā eṣā
yathā yā ca śrutā kathā
phala-śrutiḥ kā asyāḥ
na iti viditaṃ mayā ।
kiṃ phalaṃ bhavitā atra
vijānāti parameśvaraḥ ||
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Notes : kyūpolā, > cupola, phallus > cephalic,, kapālāḥ > cabala, cube, cap, cubic, cupid, mahā > Mecca, Medina. There are some other hints to be found out by one-self.
Leaving this partly edited. Don't have time to translate / explain the Sanskrit text into English for the obvious reasons.
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मत् > मदीनः plural >  meaning my own
mahā > Mega, magic, Mc, > as in Mc-Aurthur
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Monday, 5 October 2015

एक ’मत’ संप्रदायवाद के पक्ष में

एक ’मत’ संप्रदायवाद के पक्ष में

गत दिनों एक भारतीय आध्यात्मिक गुरु के किसी विदेशी भक्त ने अपने घर में स्थापित गुरु की प्रतिमा के और उस प्रतिमा की पूजा के कुछ चित्र संचार माध्यम (मीडिया) में प्रकाशित किए थे । शीर्षक में ’... ... संप्रदाय के गुरु ...’ आदि का उल्लेख था । उसी गुरु के उपदेशों के अनुयायी एक दूसरे शिष्य ने आपत्ति उठाई :
हमारे गुरु की शिक्षाएँ सभी के लिए हैं, इसे आप 'संप्रदाय’ तक क्यों सीमित रखना चाहते हैं ?
हमारे राजनैतिक पथ-प्रदर्शकों ने इतना ज़हर घोल रखा है कि अच्छे-अच्छों की बुद्धि कुंठित है ।
संप्रदाय और संप्रदायवाद तो सनातन-धर्म की सामाजिक परंपरा है जो वास्तव में अनेकता में एकता, समरसता के दर्शन का व्यावहारिक उदाहरण है ।
भगवान् आद्य शङ्ककराचार्य ने चार मठों की स्थापना की ताकि आर्यावर्त में सनातन-धर्म का संरक्षण होता रहे ।
इन चार मठों / विभागों को संप्रदाय कहते हैं । इसके अलावा मत-वैभिन्न्य से वैसे भी अनेक आध्यात्मिक सम्प्रदाय हो सकते हैं जो परस्पर भिन्न प्रकार के होते हुए भी अंतिम एक ही लक्ष्य की सिद्धि के लिए अपनी अपनी रूचि के अनुसार हर व्यक्ति के लिए दूसरों से अलग हो सकते हैं।  आध्यात्मिक परंपरा में व्यक्तियों के मन, बुद्धि, मानसिक, परिपक्वता के अनुसार वह जिस परंपरा-विशेष को अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए सर्वाधिक अनुकूल और ग्राह्य पाता है, वह उसका स्वाभाविक संप्रदाय होता है । इसलिए सनातन धर्म हर व्यक्ति की स्वतन्त्रता का सम्मान करता है जब तक कि वह व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों  / समुदायों व शेष अन्य सभी परंपराओं पर अपना मत नहीं लादता । इसलिए सनातन-धर्म में एक ओर जहाँ किसी पर अपना मत लादने तक को अधर्म समझा जाता है, वहीं भय और प्रलोभन से ऐसा करने को तो अधर्म की पराकाष्ठा ही कह सकते हैं ।
किन्तु इस्लाम और क्रिश्चिनियटी के भारत में आने के बाद जब तक ये दोनों ’मत’ जिस किसी भी प्रकार से संभव हुआ भारत की जनता को अपने मत में मतान्तरित करते रहे, वहीं पिछले दो-सौ वर्षों में ’मत’ पर ’धर्म’ की मुहर लगाकर वे भारतीयों को भ्रमित भी करते रहे कि उनका मत सनातन-धर्म जैसा ही एक ’धर्म’ है । चूँकि उदारता सनातन-धर्म का एक आधारभूत-तत्व है, इसलिए भारतीय उनके द्वारा फैलाए गए भ्रम में फँस गए, यहाँ तक कि आर्य-समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती भी ’मूर्ति-पूजा’ के विरोध के अपने अपरिपक्व विचारयुक्त पूर्वाग्रह / दुराग्रह के कारण उन मूर्ति-पूजा विरोधी मतवादियों का सशक्त 'मोहरा' बन गए जो भारतीय परंपरा की उदारता का लाभ अपने कुत्सित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लेने और  सनातन धर्म की जड़ों पर कुठाराघात करने के लिए कटिबद्ध थे।
ध्यान देने योग्य  बात यह है कि स्वामी दयानंद के द्वारा उन विदेशी 'मतवादों' के खंडन-मंडन से उन्हें तो कोई क्षति नहीं होती थी क्योंकि उनके लिए कुटिलता छल-छद्म लक्ष्य-प्राप्ति के 'साधन' थे, जबकि स्वामी दयानंद जी जैसे लोग भ्रम का शिकार थे कि उनसे स्वस्थ-संवाद के द्वारा उन्हें 'सुधारा'  सकता है।  उन विदेशी 'मतवादियों' के लिए 'सर्व-धर्म-समभाव' एक मुखौटा थी, जबकि स्वामी जी और उनके जैसे दूसरे अधिकाँश सनातन-धर्मी उनकी  इस धूर्तता से नितांत अनभिज्ञ थे। अपनी परम्परा की 'जांच-परख और सुधार' जहां स्वामीजी जैसे लोगों के लिए एक कर्तव्य और 'धर्म' था, वही विदेशी मतवादियों का सारा जोर किसी भी प्रकार से सनातन-धर्म की जड़ें काटने और उनके अपने मत के प्रचार-प्रसार पर ही था।  उनका 'मत' तो सदा से वैसे ही 'श्रेष्ठतम' था इसमें उन्हें संदेह करने तक की आज्ञा उनका मत नहीं देता था / है।
इस प्रकार 'संप्रदायवाद' का प्रचलित अर्थ हो गया -  (सनातन धर्म जिसे)  'हिंदू' (नाम दिया गया उस मत /) 'धर्म' को माननेवाले लोगों की संकीर्ण मनोवृत्ति और सोच।  और इसका एक परिणाम यह हुआ कि संप्रदायवाद  जो अपने मूल अर्थ में सनातन-धर्म की उदारता की परंपरा और उदाहरण था,  'sectarianism' के अर्थ में 'विभाजनकारी शक्ति' समझा जाने लगा। और मजे की बात यह कि इस्लाम या ख्रीस्त मतावलंबी  यदि उनके मत / 'धर्म' की मान्यताओं पर चलते हुए राज्य और देश तथा देश की उस जनता की उन मान्यताओं का विरोध करें, जो 'सनातन-धर्म' को अपना अधिकार और धर्म मानती है, तो उन्हें ऐसा करने की स्वतन्त्रता है।  इस प्रकार के 'सेकुलरिज्म' से किसके हितों के पूर्ति होगी? क्या यह सनातन-धर्म के लिए घातक ही नहीं है? किन्तु हमारे बहुत से हिन्दू भाई भी राजनीतिक स्वार्थ-बुद्धि से अंधे होकर सनातन-धर्म की लुटिया डुबोने में गौरवान्वित अनुभव करते और प्रसन्न होते हैं।
भला करनेवाले भलाई किए जा, बुराई के बदले दुआएँ दिए जा !
यदि यही हमारा व्यवहारिक, राजनैतिक दर्शन है तो आज नहीं तो कल भारत का भी वही हाल होनेवाला है जो आज तमाम इस्लामिक और क्रिश्चियन राष्ट्रों का है।
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Sunday, 4 October 2015

विवेकचूडामणि / vivekacūḍāmaṇi

आद्य शङ्कराचार्यविरचित विवेकचूडामणि
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ādya śaṅkarācāryaviracita vivekacūḍāmaṇi
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श्लोक / śloka  /
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