Tuesday, 4 August 2015

Poetry of Fernando Pessoa


Poetry of Fernando Pessoa

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English Translations

...

XIII

I do not know how many souls I have


I do not know how many souls I have.

Each moment I have changed.
Feeling myself always as a stranger.
Never have I seen nor found myself.
Being so much, yet only soul I have.
Those who have souls have no peace
He who sees is just what he sees
He who feels is not he who he is.

Attentive to what I am and what I see,
Turns me into them and I am not I.
Each of my dream and desire
Is his who owned and not mine.
I am my own landscape
I witness my own journey,
Diverse, moving and alone,
I can’t feel myself where I am.

That’s why, like a stranger I read
The pages of my being.
What will follow I can’t prevent
What has passed I forget.
I note at the margin of what I read
What I thought I felt.
Rereading I say: “Was it I?”
God knows, because he wrote it.

Não sei quantas almas tenho
Não sei quantas almas tenho.
Cada momento mudei.
Continuamente me estranho.
Nunca me vi nem achei.
De tanto ser, só tenho alma.
Quem tem alma não tem calma.
Quem vê é só o que vê,
Quem sente não é quem é,
Atento ao que eu sou e vejo.
Torno-me eles e não eu.
Cada meu sonho ou desejo
É do que nasce e não meu.
Sou minha própria paisagem,
Assisto à minha passagem,
Diverso, móbil e só,
Não sei sentir-me onde estou.

Por isso, alheio, vou lendo
Como páginas, meu ser.
O que segue prevendo,
O que passou a esquecer.
Noto à margem do que li
O que julguei que senti.
Releio e digo: "Fui eu"?
Deus sabe, porque o escreveu.


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फ़र्नांडो पेसोवा की पोर्चुगीज़ कविता
हिंदी अनुवाद

मुझे नहीं पता, कितनी हैं मेरी अस्मिताएँ, ..
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मुझे नहीं पता, कितनी हैं मेरी अस्मिताएँ, ..
हर पल बदलता गया हूँ मैं,
अपने आपको हमेशा अजनबी महसूस करते हुए,
कभी नहीं देखा, या पाया अपने आपको मैंने,
इतना सब होते हुए भी, एक ही तो है अस्मिता मेरी,
जिनकी होती हैं अनेक अस्मिताएँ, उन्हें शांति नहीं मिलती,
वह, जो कि देखता है, वही होता है, जिसे कि वह देखता है,
वह, जो कि वह महसूस करता है,
-वह नहीं होता, जिसे कि वह महसूस करता है,

मैं जो हूँ और जिसे मैं कि देखता हूँ,
उस ओर मेरा ध्यान दिया जाना ही,
मुझे उनमें बदल देता है,
मेरा हर स्वप्न और मेरी हर इच्छा,
उसकी है, जो कि उन पर आधिपत्य रखता है,
-न कि मेरी!
अपना धरातल, मैं तो स्वयं ही हूँ, 
मैं बस साक्षी हूँ,
-अपनी स्वयं की यात्रा का ।
विविध दिशाओं की ओर गतिशील,
और अकेला,
मैं नहीं महसूस कर सकता,
-अपने-आपको,
कि कहाँ हूँ मैं!




और यही कारण है,
कि मैं पढ़ता हूँ,
एक अजनबी की तरह,
अपने अस्तित्व के पृष्ठों को मैं,
वह जो होनेवाला है,
मैं उसे होने से नहीं रोक सकता,
जो गुज़र चुका, उसे मैं भूल जाता हूँ,
जो कुछ भी मैं पढ़ता हूँ,
उसे हाशिए पर नोट कर देता हूँ,
जो भी सोचा, जो भी महसूस किया,
दोबारा उसे पढ़ते हुए कहता हूँ,
"क्या यह मैं था?"
भगवान जाने!
क्योंकि उसने ही इसे लिखा है ।
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