Tuesday, 19 May 2015

किमाश्चर्यम् / kimāścacaryam

किमाश्चर्यम् / kimāścaryam!
--
©

वर्धते प्रवर्धते संवर्धते नित्यम् ब्रह्म ।
आत्मनाऽपि आत्मनि स निजात्मा ॥
न तस्य अन्तरेण कञ्चन् च कोऽपि ।
किमाश्चर्यम् अतो हि परमन्यत् ॥
--
vardhate pravardhate saṃvardhate nityam brahma |
ātmanā:'pi ātmani sa nijātmā ||
na tasya antareṇa kañcan ca ko:'pi  |
kimāścaryam ato hi paramanyat ||
--
अर्थ :
ब्रह्म ही अपनी ही निज नित्य और निरंतर आत्मा की तरह से आत्मा में ही, अनेक रूपों और स्तरों पर विस्तृत होता है । ऐसा कुछ कभी कहीं नहीं है, जो उससे भिन्न या पृथक् हो।  इससे बड़ा और आश्चर्य  क्या है?
--
Meaning :
Brahman in timeless Self own alone, expands, grows and manifests ever so.
There is nothing who-so-ever or what-so-ever that is other than Brahman.
Oh! What other wonder there is greater than this?
--
विजानाति प्रजानाति सञ्जानाति नित्यं स्वं ।
आत्मनाऽपि आत्मनि स निजात्मा ॥
न तस्य अन्तरेण कश्चन् च कमपि ।
किमाश्चचर्यम् अतो हि परमन्यत् ॥
--
jānāti prajānāti sañjānāti nityaṃ svām |
ātmanā:'pi ātmani sa nijātmā ||
na tasya antareṇa kaścan ca kamapi |
kimāścacaryam ato hi paramanyat ||
--
अर्थ :
ब्रह्म ही अपनी ही निज नित्य और निरंतर आत्मा की तरह से आत्मा में ही, अनेक रूपों और स्तरों पर अपने को ही (मैं, तुम, वह, यह और इतर) के रूपों में जानता है । ऐसा कुछ कभी कहीं नहीं है, जो उससे भिन्न या पृथक् हो।  इससे बड़ा और आश्चर्य  क्या है?
--
Meaning :
Brahman in timeless Self own alone, knows, perceives, greets (as I, you, He, She, That, This and the other) ever so.
There is nothing who-so-ever or what-so-ever that is other than Brahman.
Oh! What other wonder there is greater than this?
--

No comments:

Post a Comment