हिरुक् कर्म न मोक्षः?
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'ऋते' के अर्थ में यहाँ 'हिरुक्' अव्यय का प्रयोग व्याकरण की दृष्टि से तो ठीक है, किन्तु शास्त्रों के अनुसार मोक्ष का कर्म से कोई संबंध नहीं है । मोक्ष तो एकमात्र ज्ञान से ही होता है ।
शास्त्रों के अनुसार मोक्ष केवल और केवल 'ज्ञान' से ही प्रत्यक्ष होता है।
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इस बारे में क्रम यह है -
'जीव' को जब तक 'अपने' और 'अपने' संसार के बीच भेद की प्रतीति नहीं होती तब तक वह सुख-दुःख से अछूता होता है इसलिए उसके लिए 'बंधन' और 'मोक्ष' का प्रश्न ही नहीं उठता। जब इस 'प्रतीति' का उदय होता है तो 'ज्ञान' या 'ज्ञान' का आभास प्रारम्भ होता है। तब 'जीव' अपने पृथक 'अस्तित्व' को 'जानकर' दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति के लिए यत्न करता है। क्रमशः उसे ज्ञान होता है कि उसका 'संसार' अनित्य होने से उसे स्थायी सुख नहीं दे सकता। तब उसमें संसार से वैराग्य होने लगता है। यह 'विवेक' 'ज्ञान' का दूसरा सोपान है। इस प्रकार 'विवेक' और 'वैराग्य' की वृद्धि और यथोचित परिपक्वता होने पर उसे इस 'संसार' का संचालन करनेवाले किसी विधाता के अस्तित्व का ज्ञान होता है किन्तु उस विधाता के स्वरुप के बारे में अनिश्चय तथा अस्पष्टता फिर भी बनी रहती है। तब वह उसके स्वरूप का ज्ञान पाने की चेष्टा करता है। इस प्रकार का कर्म नहीं, उसे उस कर्म के लिए प्रेरित करनेवाला ज्ञान ही उस विधाता के स्वरूप के बारे में उसे किसी असंदिग्ध निश्चय तक ले जाता है। इसलिए विभिन्न प्रकार के अलग अलग 'कर्म' करते हुए भी कोई तो उस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है जबकि कोई अन्य उसे नहीं प्राप्त कर पाता।
पुनः कर्म से फल की प्राप्ति भी 'विधाता' के ही निश्चय पर अवलम्बित होती है। किसी भी कर्म के 'फल' के लिए जो 5 कारक सहायक होते हैं उनकी विवेचना गीता के अध्याय 18 श्लोक 13, 14, 15, 16 में दृष्टव्य हैं।
सांख्य और कर्म के माध्यम से 'ज्ञान' और तत्पश्चात 'मोक्ष' की प्राप्ति की दो प्रकार की 'निष्ठाओं' का वर्णन गीता अध्याय 3 श्लोक 3 में कही गई है।
इस विषय में 'जीवमात्र' अपने अपने संस्कारों के अनुसार 'सृष्टिकर्ता' को जानकर या तो उसके प्रति पूर्ण समर्पण से, या कर्मफल के त्याग से ही 'मोक्ष' प्राप्त कर लेता है।
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इस प्रकार शास्त्रों और आचार्यों के अनुसार 'कर्म' से ज्ञान का कोई प्रत्यक्ष (सीधा) सम्बन्ध नहीं है हाँ, कर्म की कुशलता (अर्थात कर्म को किस भावना से किया जाता है) को ही योग कहा गया है। तात्पर्य यह कि यहां भी 'भावना' ही कर्म को योग का स्वरूप प्रदान करती है। कर्म को वैसे भी 'जड' कहा गया है।
कर्तुराज्ञया प्राप्यते फलम् ।
कर्म किं परं कर्म तज्जडम् । ।
(भगवान श्री रमण महर्षि कृत उपदेश-सारः श्लोक 1)
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'ऋते' के अर्थ में यहाँ 'हिरुक्' अव्यय का प्रयोग व्याकरण की दृष्टि से तो ठीक है, किन्तु शास्त्रों के अनुसार मोक्ष का कर्म से कोई संबंध नहीं है । मोक्ष तो एकमात्र ज्ञान से ही होता है ।
शास्त्रों के अनुसार मोक्ष केवल और केवल 'ज्ञान' से ही प्रत्यक्ष होता है।
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इस बारे में क्रम यह है -
'जीव' को जब तक 'अपने' और 'अपने' संसार के बीच भेद की प्रतीति नहीं होती तब तक वह सुख-दुःख से अछूता होता है इसलिए उसके लिए 'बंधन' और 'मोक्ष' का प्रश्न ही नहीं उठता। जब इस 'प्रतीति' का उदय होता है तो 'ज्ञान' या 'ज्ञान' का आभास प्रारम्भ होता है। तब 'जीव' अपने पृथक 'अस्तित्व' को 'जानकर' दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति के लिए यत्न करता है। क्रमशः उसे ज्ञान होता है कि उसका 'संसार' अनित्य होने से उसे स्थायी सुख नहीं दे सकता। तब उसमें संसार से वैराग्य होने लगता है। यह 'विवेक' 'ज्ञान' का दूसरा सोपान है। इस प्रकार 'विवेक' और 'वैराग्य' की वृद्धि और यथोचित परिपक्वता होने पर उसे इस 'संसार' का संचालन करनेवाले किसी विधाता के अस्तित्व का ज्ञान होता है किन्तु उस विधाता के स्वरुप के बारे में अनिश्चय तथा अस्पष्टता फिर भी बनी रहती है। तब वह उसके स्वरूप का ज्ञान पाने की चेष्टा करता है। इस प्रकार का कर्म नहीं, उसे उस कर्म के लिए प्रेरित करनेवाला ज्ञान ही उस विधाता के स्वरूप के बारे में उसे किसी असंदिग्ध निश्चय तक ले जाता है। इसलिए विभिन्न प्रकार के अलग अलग 'कर्म' करते हुए भी कोई तो उस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है जबकि कोई अन्य उसे नहीं प्राप्त कर पाता।
पुनः कर्म से फल की प्राप्ति भी 'विधाता' के ही निश्चय पर अवलम्बित होती है। किसी भी कर्म के 'फल' के लिए जो 5 कारक सहायक होते हैं उनकी विवेचना गीता के अध्याय 18 श्लोक 13, 14, 15, 16 में दृष्टव्य हैं।
सांख्य और कर्म के माध्यम से 'ज्ञान' और तत्पश्चात 'मोक्ष' की प्राप्ति की दो प्रकार की 'निष्ठाओं' का वर्णन गीता अध्याय 3 श्लोक 3 में कही गई है।
इस विषय में 'जीवमात्र' अपने अपने संस्कारों के अनुसार 'सृष्टिकर्ता' को जानकर या तो उसके प्रति पूर्ण समर्पण से, या कर्मफल के त्याग से ही 'मोक्ष' प्राप्त कर लेता है।
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इस प्रकार शास्त्रों और आचार्यों के अनुसार 'कर्म' से ज्ञान का कोई प्रत्यक्ष (सीधा) सम्बन्ध नहीं है हाँ, कर्म की कुशलता (अर्थात कर्म को किस भावना से किया जाता है) को ही योग कहा गया है। तात्पर्य यह कि यहां भी 'भावना' ही कर्म को योग का स्वरूप प्रदान करती है। कर्म को वैसे भी 'जड' कहा गया है।
कर्तुराज्ञया प्राप्यते फलम् ।
कर्म किं परं कर्म तज्जडम् । ।
(भगवान श्री रमण महर्षि कृत उपदेश-सारः श्लोक 1)
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