Friday, 1 May 2015

’अहम्’ / ’aham’

’अहम्’ / ’aham’
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’अलोऽन्तस्य’ (अष्टाध्यायी, 1.1.52.)
में जिस ’अल्’ प्रत्याहार’ का उल्लेख है, उसका विस्तृत रूप है :
अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स ह ।
तात्पर्य यह कि वर्ण माला के सभी वर्ण जिसमें सम्मिलित हैं वह प्रत्याहार ’अल्’ के रूप में भी जाना जाता है । वर्णमाला के ही दूसरे रूप में,
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ लृ लॄ ए ऐ ओ औ अं अः
क ख ग घ ङ,
च छ ज झ ञ,
ट ठ ड ढ ण,
त थ द ध न,
प फ ब भ म,
य र ल व,
श ष स ह,
उपरोक्त सभी वर्ण होते हैं । इन्हें भी एक अन्य रीति से संक्षेप में ’अहं-प्रत्यय’ के रूप में जाना जाता है,
वर्ण का अर्थ है व्यक्त-स्वरूप, वाणी या आकृति के रूप में समस्त अभिव्यक्ति ’वर्ण’ के अन्तर्गत है । इसलिए ’अहं’ / ’अल्’ दोनों पद ’सर्व’ तथा ’ब्रह्म’ के ही पर्याय हैं ।
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इस प्रकार ’अहम्’ नामक वस्तु, व्यक्त और अव्यक्त इन दो रूपों में सदैवे अकाट्यरूप से ग्राह्य है । वर्तमान में जो हमारे प्रत्यक्ष संवेदन के अन्तर्गत ग्राह्य होता है उसके अस्तित्व पर तो सन्देह उठाया जाना संभव ही नहीं है, किन्तु इसी वर्तमान में कार्यशील ’बुद्धि’ नामक जिस यन्त्र के माध्यम से मनुष्य दूरस्थ स्थित वस्तुओं, स्थितियों आदि का अनुमान करता है और दूसरों की पुष्टि से उन्हें सत्य समझता है, वह बुद्धि, वह मन भी किसी चेतन-तत्त्व के आश्रय से ही अस्तित्ववान है, इस बारे में सन्देह करना तक उस चेतन तत्व के अस्तित्व को असिद्ध नहीं कर सकता । इसलिए जागृत अवस्था में अनुभव किए जानेवाले विषयों के अतिरिक्त भी जो भिन्न स्थितियाँ मन-बुद्धि की होती हैं, उन्हें जागृत दशा में जिस प्रकार ’अव्यक्त’ कहा जाता है, उनकी अपनी प्रकट स्थिति में जागृत दशा भी वैसी ही ’अव्यक्त’ होती है । इस प्रकार हम अस्तित्व के एक ही आधारभूत आश्रय को ’वह’, ’तुम’ और ’मैं’, तथा यह, वह, ’कौन’ इन विभिन्न रूपों में इंगित करते हैं । व्याकरण की दृष्टि से जिसे क्रमशः ’अन्य पुरुष’, ’मध्यम पुरुष’ तथा ’उत्तम पुरुष’ कहा जाता है । अंग्रेज़ी में इन्हें क्रमशः 'third person', 'second person' एवं 'first person' कहा जाता है ।
वह, वे,  ’यह’ ’ये’ अन्य पुरुष के उदाहरण हैं ।
तुम, आप मध्यम पुरुष के उदाहरण हैं ।
’मैं’, ’हम’ उत्तम पुरुष के उदाहरण हैं ।
इसलिए ’अहम्’ का व्यावहारिक तात्पर्य है वह अर्थ जो कि ’मैं’ अथवा ’हम’ के रूप में ग्रहण किया जाता है ।
किन्तु इस अर्थ को भी तीन प्रकार से ग्रहण किया जा सकता है और विवेचना के द्वारा हम समझ सकते हैं कि इसकी आवश्यकता और उपयोगिता किसे है और किसे नहीं ।
आत्मा का प्रत्यक्ष लक्षण यह है कि वह सदैव स्व-निर्देशित है । अर्थात् कोई ऐसा नहीं है जो ’मैं’ से अनभिज्ञ हो । हर मनुष्य, प्राणिमात्र अपने-आपके अस्तित्व की सत्यता के संबंध में असंदिग्ध रूप से सुनिश्चित होता है और इस बारे में  कोई प्रश्न तक नहीं किया जा सकता । अपने अस्तित्व की इस अकाट्य सत्यता को किसी तर्क, प्रमाण या अनुभव से झुठलाया नहीं जा सकता । इस प्रकार यह सत्यता स्वयंसिद्ध तथ्य है ।
अपने अस्तित्व की अभिव्यक्ति के अनेकार्थी पद ’अहम्’ के भिन्न भिन्न अर्थ भिन्न भिन्न सन्दर्भों के अनुसार बदलते रहते हैं । वाच्यार्थ के रूप में अपने नाम-रूप के अर्थ में इसका प्रयोग किया जाता है । लक्ष्यार्थ के रूप में उस व्यक्ति के अर्थ में जिसे हर मनुष्य ’मैं’ समझता-मानता है । जीव के अर्थ में उस चेतना से जो व्यक्ति और नाम-रूप की निरन्तर परिवर्तनशील स्थिति में भी उसके आश्रय और पहचान के लिए सहायक है । यही जीव-चेतना व्यक्ति-निरपेक्ष रूप में समष्टि चेतना ही है, जिसे समष्टि के सन्दर्भ में ’परमात्मा’ कहा जाता है और व्यक्त-अव्यक्त दोनों रूपों में इसके समग्र स्वरूप को अविकारी ब्रह्म कहा जाता है । इसलिए ’अहम्’ का निहितार्थ हुआ ’ब्रह्म’ ।
’अहम्’ का इस प्रकार का तीन भिन्न अर्थों में सन्दर्भ के अनुसार भिन्न अर्थ ग्रहण किया जाना चाहिए ।    
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श्रीभगवद्रमणमहर्षिविरचितद्राविडग्रन्थस्य संस्कृतानुवादात्मकम्
"सद्दर्शनम्"
श्रीवासिष्ठगणपतिमुनिविरचितम्
भारद्वाजेन कपालिना विरचितेन भाष्येण संयुतम्
अरुणाचलक्षेत्रस्थ-रमणाश्रमनिर्वाहकाध्यक्षेण प्रकाशितम्
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1984

IV
अहंपदार्थविचारः
’सर्वम्’ खलु इदं ब्रह्म’, ’एकमेव-अद्वितीयं ब्रह्म’, ’सत्यं-ज्ञानं-अनन्तं-ब्रह्म’, ’प्रज्ञानं ब्रह्म’ -इत्यादि परमार्थ-सत्य-प्रतिपादकेषु वाक्येषु प्रथमपुरुषं प्रयुज्य सृष्टिप्रकरणे ’अनेन जीवेन आत्मना नामरूपे व्याकरवणि’, ’सः अहम् अस्मि- इति अग्रे व्याहरत् ततो अहम् नाम अभवत्’ इति उत्तम-पुरुषप्रयोगश्रवणात् तत्-सत्यं वस्तु अहं पदस्य परमार्थभूतः पुरुष आत्मा भवति-इति अवगम्यते ।
अतः सर्वभूतात्म-भूतात्मा सर्वेश्वरः पुरुषः सर्वत्र सृष्टौ-अहं-प्रत्यय-आश्रयः सन् अहंपदस्य परमार्थह् भवति । अग्नेः-विस्फुलिङ्गेषु-इव- ब्रह्मणः नाना-जीवेषु-अभिव्यक्तेषु देवदत्ते जीवव्यक्तौ-अहं प्रत्यय-आश्रयः य आत्मा स एव लक्ष्यः भवति ।
सर्वभूतात्म-भूतात्मा हि ब्रह्म ।
सर्वेषाम् भूतानाम्-आत्मभूतो य आत्मा स हि अद्वितीयः सर्वेश्वरः परमात्मा ।
तस्मात्-देवदत्त-यज्ञदत्त-आदिषु प्रत्येकम्-अहम्-आश्रयभूत-आत्मा-एव- अहम्-पदस्य लक्ष्यार्थः भवति ।
स च आत्मा व्यक्तौ व्यक्तौ पृथक्-अहम्-भावानुभूतेः आश्रयः भवति ।
सर्वाश्रयभूत-अव्यक्त-अखण्डात्मनः एव व्यक्त्याश्रय-भूतात्म-भूतत्वात्  व्यक्तजीवाश्रय-भूतात्मा अखण्ड-आत्मनः न भिन्न इति अभेदसिद्धान्त-रहस्यम् ।
इदम्-उक्तम् भवति ।
अहंपदस्य-अव्यक्त-अखण्ड-पद-परमात्मा परमार्थः ।
स एव-अनन्त-जीवव्यक्तीनाम्-आत्मरूपेण-आश्रयभूतत्वात्-लक्ष्यार्थो भवति ।
व्यक्तिषु प्रत्येकम् लक्ष्यभूतस्य-अन्तरात्मनः अनुग्रहात्-जडचेतन्न-उभय-संबंधवत्-प्राण-मनोमयो-उपाधिपदवाच्येन सूक्ष्मेण शरीरेण तादात्म्यम्-अनुभवन्-आत्माभासो अहङ्कारः एव अहंपदस्य वाच्यार्थो भवति ।
अहंपदवाच्यार्थभूतानां अनन्तानां व्यक्तिगतानां अहङ्काराणां सूक्ष्मशरीरवत्त्वात्-जीवपदवाच्यत्वं भवति ।
तस्मात् अहंपदवाच्यार्थः प्रतिजीवव्यक्तिः भिन्नः सन् सर्वत्र व्यक्तिषु पृथक्-अनुभवान् परिगृह्णन् पृथक्व्यक्तित्वानुकूलं व्यवहरति ।
कालत्रयसंबंधिनं अन्वयिनं सर्वार्थदर्शनं सर्वत्र व्यक्तिषु अहंपदस्य लक्ष्यार्थभूतं व्यक्त्याश्रयमेकं आत्मानं आश्रित्य एव जीवाख्यस्य अहङ्कारस्य व्यवहारः प्रवर्तते ।
अतो जीव- आत्मा-इति लोके व्यवहारः ।
भूतात्म-देहात्म-प्राणात्म-विज्ञानात्मादिपदवत् अभिमानि-चैतन्य-परमात्मपदम् अवगन्तव्यम् ।
अहङ्कारजीवनस्य चिदाभासस्य जीवस्य जन्मवत्वात्-अनित्यत्वम् ।
जीवव्यक्तेः आश्रयभूतचिदात्मा तु नित्य एव ।
तस्य अखण्ड-आत्मस्वरूपानन्यत्वात् ।
एवञ्च, अहंपदस्य परमार्थः एकः एव परमपुरुषः-अनेकजीवव्यक्त्याश्रयाभिमानेन लक्ष्यार्थः,व्यक्तिगतचिदाभासानुग्राहकत्वेन वाच्यार्थः च भवति इति अवधार्यम् ।
तस्मात् त्रिविधं अहं पदार्थं विविच्य गृह्णीयात् ।
तथा ग्रहणं परमार्थबोधोपयुक्तं भवति ।
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Excerpt from :
SAT-DARSHANA BHASHYA AND TALKS WITH MAHARSHI.
By K.
(Eighth Edition, 1993)
(SIRAMANASRAMAM Tiruvannamalai-606603
Chapter IV, page 18-19-20
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The Upanishads use the third person in stating the nature of Brahman as the Supreme Reality, as for instance in texts like "All this is verily Brahman" (सर्वं खल्विदं ब्रह्म), "The Brahman is one without a second" (ekamevādvitīyaṃ brahma),  (एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म), "Brahman is truth, knowledge, endless" (satyaṃ jñānamanantaṃ brahma),  (सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म), "Brahman is consciousness", (prajñānaṃ brahma).  (प्रज्ञानं ब्रह्म). But, we find the first person used with reference to creation as in passages like "By this my living self, may I define it in name and form"- (anena jīvenātmanā nāmarūpe vyākaravāṇi)  (अनेन जीवेनात्मना नामरूपे व्याकरवाणि), He said at the outset 'I am' (Asmi); therefore 'I' (Aham), is His name" - (सोऽहमस्मीत्यग्रे व्याहरत् ततोऽहं नामाभवत्) (so:'hamasmītyagre vyāharat tato:'haṃ nāmābhavat).
The underlying idea is that the Supreme Truth, the One Existence mentioned in the third person becomes the self of all the created world and hence it is the Supreme 'I', -the 'पुरुष' - 'puruṣa'.
The Supreme Truth as it exists in and to itself cannot be referred to as either 'I' or 'this' as there can arise no question of 'I-ness' and 'this-ness' when the Absolute is viewed as it is in itself, unrelated to created or formed existence. But, viewed as the supreme soul source of all that is created, it is the पुरुष' - 'puruṣa', the Supreme Self, the 'I' of the whole movement. Hence, everywhere in creation, पुरुष' - 'puruṣa', the Lord of all, is the Supreme Self that has become the in-dwelling self of all His becomings and persists as the basis and support of the notion of 'I' in every being. Therefore, he is the first and final 'I', the ultimate reference and supreme sigmificance (परमार्थ) - (paramārtha)   of the word.
When like sparks from the flaming fire fire, the innumerable soul-forms or (जीव) (jīva) get differentiated from the (ब्रह्म) Brahman, it is the soul Self, the basis of the notion of 'I' that is signified in the various individuals. For ब्रह्म / Brahman is the Self that has become the self in and all created beings. (गीता 2/28) And this self is really the Supreme Self (परम आत्मन्)  (parama-ātman), the Lord of all, one without a second. It is the Self, the basis of 'I-notion' that is really signified in the various individuals, in X and in Y (देवदत्त / यज्ञदत्त) (devadatta  or yajñadatta). Free and Supreme in itself, it becomes the basis and support of the distinct experience of the separate egos formed in the different individuals. As it is the one not-manifest (अव्यक्त) (avyakta) / Ttranscendental Infinite that becomes the support of all manifested beings, the self in them is not different from but is the same as the One Infinte Self. And, this is the essential sense as the philosophic teaching that there are not as many selves but only One Self.
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Now then, the परमार्थ (paramārtha), the supreme sense of 'I', is the Supreme Self, transcendent / un-manifest and infinite, the पुरुष (puruṣa). At the same time, as the inner self and support of all individual manifestations, He is the real significance of 'I', its लक्ष्यार्थ (lakṣyārtha) (Implied meaning) the 'I' really signified in the individuals.
The immediate and apparent sense of 'I' is the ego, as even that is a derivation from and figure of the surface, identifying itself with, and appropriating to itself, the subtle stuff of 'mind and life' that links the spirit with matter, the self with the body.
As the ego, which is the direct and immediate sense of 'I', is centered and figured in each of the distinct and separate individuals in a subtle movement of life-force and mind-stuff, it is termed जीव (jīva) here. This sense of 'I' is separate in each individual being and preserving the distinctness of the individual, behaves in a manner that would strengthen the individual's distinct character. But, such a movement of the ego or the apparent self has its roots and support in something that is the real basis of individuality and that does not move with or lose itself in the movement of the apparent self, a something that is a continuous conscious principle related to the past, present and future; that is the Real Self signified, the लक्ष्यार्थ (lakṣyārtha), in the individual, of which the ego is the apparent self.  This latter is different in different individuals and is loosely called जीव-आत्मन्  (jīva-ātman). But, आत्मन्  (ātman) the self is really one; the self of all individuals as of all existence is one. But, जीव (jīvas) or living beings are many, as many as the individuals that are formed. These are soul-formations that are dissoluble in time, unlike their supporting self which is eternal, being identical with the Infinite Eternal which maintains its many-centered existence in an endless movement of formation and dissollution.
Thus, we see that there are three distinct senses in which 'I' ’अहम्’ / ’aham’ is used.
The supreme meaning of 'I' ’अहम्’ / ’aham’, its परमार्थ (paramārtha), is the पुरुष (puruṣa) who becomes  the लक्ष्यार्थ (lakṣyārtha),  (the signified sense) in the individual, as it is the same self that presides over individual existence and the immediate or apparent sense of ’अहम्’ / ’aham’ 'I' , वाच्यार्थ (vācyārtha) is the ego or the apparent self formed temporarily for purposes of individuation.
Threefold then is the sense of self, the ’अहम्’ / ’aham’ 'I', and in its threefold sense it is to be understood.
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