Tuesday, 19 May 2015

कब तक ?

बिखरकर धूल हो गया आखिर,
आखिर, कब तक खड़ा रहता पहाड़ ?
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मन पक जाता है तो उसे खा जाने का मन होता है, और जब उसे खा लिया जाता है तो मन कहीं नहीं होता ।
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व्याख्या 1
मन जब तक अपरिपक्व होता है, तब तक ही चञ्चल रहता है और एक से दूसरे विषय की ओर भागता रहता है । किन्तु जब यही मन परिपक्व हो जाता है तो स्थिर हो जाता है और आत्मा में लीन हो रहता है ।
व्याख्या 2
मन वृत्तिमात्र हैँ जब यह परिपक्व अर्थात् एकाग्र हो जाता है तो आत्मा में निमज्जित / निमग्न हो जाता है और उससे भिन्न की तरह शेष नहीं रहता ।
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मानसं तु किं मार्गणे कृते।
नैव मानसं मार्ग आर्जवात्  ॥
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(भगवान श्री रमण महर्षि कृत उपदेश सारः श्लोक 17)
अर्थ : 'मन' क्या वस्तु है, इस बारे में खोज-बीन करने पर इसे नहीं पाया जाता। 
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वृत्तयस्त्वहं वृत्तिमाश्रिता ।
वृत्तयो मनो विद्ध्यहं मनः ॥
(भगवान श्री रमण महर्षि कृत उपदेश सारः श्लोक 18)
अर्थ : समस्त वृत्तियाँ 'अहं-वृत्ति ' पर आश्रित होती हैं।
इसलिए वृत्तियाँ ही मन हैं और इस प्रकार 'अहं' भी मन ही है इस प्रकार से 'मन' को जानो ।
टिप्पणी : इस प्रकार 'अहं ' / 'मन' का आभासी अस्तित्व है और जिस 'चेतन तत्व' में यह आभास प्रकट और विलुप्त होता है, वह 'चेतन तत्व' नित्य स्थिर अविकारी आत्मा है ।
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