Friday, 28 July 2023

किसी दूसरे ब्लॉग से

A I App  /  आई  ऐप 

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मेरे "हिन्दी का ब्लॉग" में 'नोट्स' इस लेबल से एक क्रम लिख रहा हूँ। उसी ब्लॉग में 'ए आई ऐप' / 'A I App' लेबल से भी कुछ लिख रहा हूँ। अकसर यह दुविधा होती है कि जिस विषय में लिखा जा रहा है उसे इस स्वाध्याय ब्लॉग में लिखना चाहिए या '"हिन्दी का ब्लॉग" में। इस दुविधा का कोई हल भी नहीं है। वैसे सभी कुछ लिखने का एकमात्र कारण केवल यह है कि कुछ लिखने और उसे एडिट करने के लिए इससे अच्छा दूसरा प्लेटफार्म मुझे उपलब्ध नहीं है। मैं यह मानकर चलता हूँ कि एक बार ही कोई पोस्ट लिख लेना भी काफी है। कौन और कितने लोग पढ़ते हैं, इस पर मेरा ध्यान नहीं होता। मैं इसलिए भी निश्चिन्त रहता हूँ। हाँ, कभी कभी पुराने पोस्ट्स देखकर एक अलग ही अनुभूति होती है। और यह भी लगता है कि इतने वर्षों बाद भी मेरे चिन्तन और अभिव्यक्ति में जो लिखता हूँ उसकी प्रेरणा अपने भीतर से ही आती है। यह थोड़ा विचित्र भी लग सकता है कि यह प्रेरणा किसी आदर्श या विशेष सिद्धान्त पर निर्भर बौद्धिकता की उपज नहीं होती। 

"Ideals are brutal things"

क्योंकि आदर्श और सिद्धान्त बुद्धि के अनुसार बदलते रहते हैं। "जो है" उसे किसी आदर्श या सिद्धान्त तक न तो सीमित किया जा सकता है और न शब्दों में व्यक्त ही किया जा सकता है। इसलिए सभी निष्कर्ष आधे-अधूरे और अपर्याप्त होते हैं।

फिर यह प्रेरणा मुझमें कहाँ से आती है?

इसका सीधा स्पष्ट उत्तर होगा सनातन अर्थात् वैदिक धर्म के प्रामाणिक ग्रन्थों के अध्ययन से :

तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।।

यह अध्ययन इस तरह से महर्षि पतञ्जलि द्वारा निर्दिष्ट  क्रियायोग ही है।

इन धर्मग्रन्थों में से सर्वाधिक प्रमुख श्रीमद्भगवद्गीता है,

जिसकी फलश्रुति में कहा गया है :

अध्याय १८

सञ्जय उवाच :

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।।

संवादमिमश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।।७४।।

व्यासप्रसाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।।७५।।

राजन् संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।।

केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।।७६।।

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।।

विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः।।७७।।

यत्र योगेश्वरः कृष्ण यत्र पार्थो धनुर्धरः।।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवानीतीर्मतिर्मम।।७८।।

सिद्धान्त बौद्धिक निष्कर्ष ही तो होते हैं जो कि नीति या अनीति से प्रेरित होते हैं। नीति (या अनीति) ही नियति अर्थात् अचल और अटल भावी, भवितव्य। नीति ही धर्म और अनीति ही अधर्म है। धर्म-अधर्म के बीच का भेद तो विवेक से ही जाना जाता है, शुष्क बौद्धिक तर्क से नहीं। यह विवेक ही वह प्रेरणा है जो मेरे लिए लिखने के लिए  प्रेरणा सिद्ध होती है। और यह भी सच है कि इस लिखने का भी अपना ही आनन्द है।

इस बहाने से अध्ययन, अन्वेषण, अनुशीलन, अनुसंधान और आत्म-सन्तोष भी मिलता ही है।

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Friday, 30 June 2023

Dharma Universal

The Five Universal Principles 

Of Dharma 

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महर्षि पतञ्जलि का योगदर्शन

पाँच सार्वभौम महाव्रत

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The Lifestyle Of A Yogi. 


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Tuesday, 27 June 2023

डायरी या ब्लॉग?

डायरी या ब्लॉग?

क्षण या अवधि, पहचान या स्मृति? 

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अचानक अपने ब्लॉग अतीत पर दृष्टि जाती है, तो खयाल आया इससे बहुत पहले मैं डायरी लिखा करता था। डायरी में लिखा कुछ सुधारना संभव नहीं होता, जबकि ब्लॉग में लिखे पोस्ट को डिलीट किया जा सकता है। डायरी में भी मैं ऐसा कुछ लिखता ही नहीं था जिसे बाद में सुधारना पड़ता। तमाम डायरियाँ अब कहाँ हैं, न तो ठीक से कुछ पता न याद है। 

अतीत स्मृति की पहचान है और स्मृति अतीत की। और दोनों ही अन्योन्याश्रित वृत्ति हैं, इसलिए न तो डायरी का और न ही ब्लॉग में लिखे गए पोस्ट का कोई महत्व है। तात्कालिक दृष्टि से उपयोग हो सकता है। उपयोग भी सिर्फ यही कि समय काटने का यह एक साधन है। समय क्या है? समय वृत्ति है और क्षण या अवधि होता है। दोनों ही पानी पर उठी लहर की तरह शीघ्र ही विलीन हो जाते हैं। तब इससे फर्क नहीं पड़ता कि कौन सी अवधि कितनी छोटी या बड़ी थी।

एक पुराना पोस्ट देखते हुए ऐसा ही लग रहा था। 

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Monday, 26 June 2023

The Self Enquiry

And the Self Realization Through it. 

Self-care.

My WordPress Blog. 

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विश्वास और प्रतीक

धारणाविचार और विश्वास 

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जड insentient और चेतन sentient, दोनों समष्टि प्रकृति के प्रकार हैं।

अस्तित्व Existence और चेतना consciousness / sentience एक दूसरे से अभिन्न हैं, इसे सिद्ध करने के लिए भी किसी विशेष तर्क की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अस्तित्व Existence तो एक स्वयंसिद्ध और स्वप्रमाणित तथ्य है, जिसका बोध निरपवादतः हर चेतन प्राणी को अनायास ही होता है। यह चेतन / sentient कौन / क्या है? वह, जिसमें कि किसी न किसी प्रकार का भान / awareness विद्यमान होता है। उसी बोध / awareness के आधार पर वह स्वयं से भिन्न किसी भी वस्तु को जड और चेतन की तरह वर्गीकृत करता है। यह वर्गीकरण विचार thought पर ही अवलंबित होता है जबकि विचार स्वयं भी चेतन sentience की तुलना में जड insentient ही होता है। विचार एक दृष्टि से तो प्रवाह है, और दूसरी दृष्टि से अनुमान। किसी चेतन में ही यह बोध हो सकता है कि विचार प्रवाह के ही साथ साथ अनुमान भी है। फिर विचार भी, केवल एक ही शब्द या कुछ शब्दों का समूह भी होता है। यह विवेचना भी केवल मनुष्य के सन्दर्भ में ही की जा रही है। क्योंकि मनुष्य के पास उसकी भाषा होती है, जिसमें शब्दों का कोई अर्थ तय होता है। संज्ञा की परिभाषा के अनुसार यह शब्द किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थान आदि का नाम होता है, जो कि पुनः वस्तुवाचक अर्थात् (इन्द्रियगम्य) / sensory या भाववाचक / abstract हो सकता है। इसीलिए दो या  अधिक मनुष्यों के बीच भाषा अर्थ के संप्रेषण का माध्यम है। स्पष्ट है कि इस प्रकार से किसी अभीप्सित अर्थ का ऐसे संप्रेषण को ही उनके बीच होनेवाला संवाद कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि ऐसा संवाद, किन्हीं जड वस्तुओं के बीच नहीं, किन्हीं दो या दो से अधिक मनुष्यों या चेतनाओं के बीच ही संभव होता है।

अपनी अपनी भाषा -चेतना (ethnicity) के आधार पर विभिन्न समूह अपने विशिष्ट विचार पर आधारित अपनी अपनी पृथक् पृथक् विभिन्न मान्यताएँ और विश्वास निर्मित कर लेते हैं, जिन्हें परंपरा / tradition  कहा जाता है। ऐसे किसी ईश्वर के होने या न होने, या एक अथवा अनेक होने का विचार भी मूलतः एक विचार ही तो होता है, कोई इन्द्रियगम्य या वस्तुपरक तथ्य (a fact experienced through senses, or a sensory perception, indirectly inferred objective truth) नहीं होता।

भाषा के संबंध में तैत्तिरीय उपनिषद् की शीक्षा वल्ली में वर्णाः मात्राः के उल्लेख से शिक्षा के आधार को वर्ण एवं मात्रा के रूप में व्यक्त किया गया है। वर्ण का अर्थ स्वर / स्वन / sound है, जबकि मात्रा / quantity का अर्थ है विस्तार / span जो पुनः व्यापकता के रूप में स्थान / Space और काल / समय / Time दोनों का ही द्योतक है। यह उल्लेख इसलिए भी रोचक (interesting) है, क्योंकि उपनिषद् के इस मंत्र से द्रव्य / matter, स्थान / Space और काल / समय / Time तीनों के पारस्परिक परिवर्तन (mutual transformation) को समझा जा सकता है। जैसे स्थान, किसी नियत स्थल / exact location पर केंद्र और सर्वत्र every-where इन दो रूपों में ग्राह्य हो सकता है, वैसे ही काल / समय को भी एक बिन्दु की तरह एक क्षण-विशेष / moment की तरह या समय-अन्तराल (time-interval) की तरह से भी ग्रहण किया जा सकता है। उक्त मंत्र में अस्तित्व / भौतिक जगत (Physical objective world के तीन आयामों लंबाई L / मात्रा M / काल T को परस्पर कैसे रूपान्तरित किया जा सकता है, यह निष्कर्ष प्राप्त होता है। भौतिक विज्ञान की यही मर्यादा / limitation है। भौतिक विज्ञान विचार आधारित आकलन है जिसका उल्लेख पातञ्जल योगसूत्र के समाधिपाद में :

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।१०।।

उपरोक्त सूत्रों के माध्यम से किया गया है।

विश्वास मूलतः कोई विचार ही होता है। जब तक चेतना में विचार और विचारकर्ता का (वैचारिक और आभासी) विभाजन है, तब तक भिन्न भिन्न समुदाय अपने अपने विश्वासों का आग्रह करते रहेंगे। इसलिए विचार से ऊपर उठने पर ही "जो नित्य सनातन और सदा, सर्वथा और सर्वत्र" है उसका परिचय हो पाना संभव है।

शाब्दिक विचार किसी भी रूप में हो, उसे व्यावहारिक स्तर पर ठोस आधार देने के लिए कोई प्रतीक चुन लिए जाते हैं और कोई वैचारिक अवधारणा की बुनियाद पर उन्हें स्थापित कर दिया जाता है। तब वह विचार मानों अमर हो उठता है। तब बुद्धि विचार से विचार में घूमती रहती है और यह भ्रम हो जाता है कि यह सब सनातन काल से चला आ रहा सत्य है। 

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Wednesday, 21 June 2023

The forgotten Links to इल आख्यानः / ila ākhyānaḥ

वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ८७
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According to 'Valmiki Ramayana', Venus (Virgin) was daughter of Bhrugu Rishi,

https://swaadhyaaya.blogspot.in/2016/11/ila-akhyanah.html/ ...
The moon was son of Budha (Mercury) and Ila (ilā), ilā was feminine form of King ila (इल् / male form) ... This Bhrugu Rishi is शुक्र > śukra > शुक्र > priya (Fri in 'Friday') meaning Romantic Love. And at the same Time The Teacher of  दैत्य / daitya, demons, where-as Jupiter (Brihaspati) is the Teacher of (देवता) / The Divine Conscious entities. This whole story is so beautifully narrated in वाल्मीकि रामायण / Valmiki-Ramayana.....
This 'ila' came to be known as देव इल / 'deva-ila', मनु इल, manu-ila, अव मनु इल / ava-manu-ila, asmila and अब्रह्मन् / a-brahman ... There is much more to it. So we have Emmanuel / Aman-ul, (अहं) अस्मि इल / Ismail, अब्राह्म / अब्राह्म /  Abraham / Ibrahim, ..!
From (अहं) अस्मि इल  / was the son of  ब्रह्मन / Brahman .
Homer wrote about इल / Il alias Ilyasa / Iliad on the basis of the story of Il, but somehow altogether entirely drifted away from the context and that is why he created another classic in Greek.
Still the story of नचिकेता / Nachiketa described in the मुण्डकोपनिषद् / MundakopniShad bearse vidence and relevance with the theme, how 
उशन् ह वाजश्रवा 
gave away / sacrificed his son to यम / Yama The Lord of Death.
The rest of this story as an analogy could be found subsequently narrated in the different religious texts, need not be mentioned here.

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Wednesday, 14 June 2023

Time Travels

P O E T R Y

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A Voyage In Time.

Time Is Past, Present And Future,

Mind Is Past, Present And Future.

Though The Past Is But The Memory,

And The Future Is But Imagination,

The Two Are Different Altogether.

Yet There Is Also, Now -The Present,

Ever So New, In Time, A Movement.

Mode Of The Mind Is, 

Neither The Memory,

Nor The Imagination,

The Two Reach Nor Touch The Present, 

While The Two Keep On Reverberating,

Ceaselessly In This Moment Present.

The Moment Present Is Though Still,

Is The Only Support For The Two.

Neither The Past, Nor The Future,

Could Ever Assume Existence,

Of This Moment's  Now's Absence. 

While The Present Reigns Supreme,

Over The Past And The Future.

The Two, Overlapping The Present,

Keep The Mind Occupied, Indulging,

In The Memory And The Imagination.

The Truth Lives On,

In Oblivion.

The Reality,  That Is The Very Moment.

A Fictitious Life, The Individual,

Who Becomes Thus This I,

Our Existence, So Superficial.

In Relation To This Very I And Me,  

A Life Personal Is Thought To Be!

This Is The Conflict The Ignorance,

 This Is The Sum Of All Non-Sense.

The Mother of All The Conflict,

The Hope And The Despair,

The Fear And The Desire,

The Doubt And The Agony,

The Anxiety And The Worry.

Ignoring The Imagination,

And Ignoring All Thought,

Discarding, The Future,

And Disowning The Past,

Staying, In This Very Moment,

Devoid Of All Imagination, Thought,

Getting Free From Future And Past,

Staying Happy, Cool And Content, 

Now, In This Very, Present Moment.

There Is No Other Way What-so-ever,

No Path Any In The Past And Future,

This Present Moment Is The Same, 

That is Verily The Pathless Land.

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Saturday, 13 May 2023

इतरेतर अध्यास वृत्ति न्याय

Superimposition  / इतरेतर अध्यास वृत्ति न्याय 

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This refers to :

Vedanta Lifestyle  drvarsha79.wordpress.com 

Wrote an interesting post about अध्यारोप / Superimposition.

Explaining the rope and serpent analogy, it was said that the appearance of the serpent in the rope is in the imagination.

Then the memory of the serpent too is of the one, a serpent as was seen in the past. These two have been superimposed on each-other.

I can say this is what is precisely meant by  वृत्ति / vritti in the parlance of Patanjali Yoga darshana. In the वृत्ति-निरोध  / vritti -nirodha / cessation of vritti, इतरेतर अध्यास / the mutual Superimposition is at once eliminated.

I just can't say how far correct may be my  approach!

According to Maharshi Patanjali's darshana :

समाधिपाद :

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

The word "प्रमाण" as was used there is also in the true spirit of the sense as is in the above  aphorism 7th.

Still, there could be another approach to this one. The analogy of thought and the thinker. Is not the thought a वृत्ति / vritti? And is not the thinker, the memory of the past? Is not "the thinker" a विकल्प vikalpa, while thought is a विपर्यय / viparyaya?

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

accordingly, thought is विपर्यय / viparyaya, while "the thinker" is विकल्प / vikalpa.

इतरेतर अध्यास न्याय! 

Just wanted to make and share a note about this.

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Wednesday, 26 April 2023

इच्छामृत्यु और अनिच्छा मृत्यु

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।।

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मृत्यु एक ऐसा अकाट्य सत्य है जिसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। और फिर भी कोई नहीं जानता कि उसकी मृत्यु किस समय और स्थान पर और किस प्रकार से होगी। चूँकि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी अवश्यंभावी है, मृत्यु कहाँ, कैसे और कब होगी यह भी कोई नहीं जानता और यदि जानता भी हो तो भी अपनी मृत्यु की घटना में किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप  भी नहीं कर सकता। फिर, मृत्यु क्या है, मृत्यु किसकी होती है, और मृत्यु के बाद क्या होता है यह जान पाना तो असंभव जैसा ही है। विवेकशील मनुष्य वही है जो भावी मृत्यु को भी आसन्न ही मानकर उसका स्वागत करने से हिचकता न हो। अनिच्छा से बाध्य होकर मृत्यु का सामना करने से अच्छा है कि इच्छापूर्वक ऐसा किया जा सके। और फिर यह भी सत्य है कि मृत्यु अपनी इच्छा पर भी निर्भर नहीं होती।

तो इच्छा-मृत्यु का क्या अर्थ और प्रयोजन हो सकता है?

असामयिक के अतिरिक्त किसी भी प्रकार से होनेवाली मृत्यु के कुछ पूर्ववर्ती संकेत तो होते ही हैं और यदि ऐसे कोई संकेत या लक्षण प्रतीत हो रहे हों तो मनुष्य उन पर सावधानी से ध्यान तो दे ही सकता है।

इच्छा, अनिच्छा और प्रारब्ध वैसे तो मृत्यु इन्हीं तीन आधारों से सुनिश्चित होती है किन्तु चौथा और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है ईश्वरेच्छा। मान्यता के रूप में हो या परंपरा, बौद्धिक निष्कर्ष के रूप में, या मृत्यु के भय से ही क्यों न हो, यदि मनुष्य किसी भी रूप में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर सकता है, तो वह ईश्वरेच्छा के महत्व से इनकार नहीं कर सकता। किसी ईश्वर को बौद्धिक निष्कर्ष के रूप में बाध्य होकर स्वीकार या अस्वीकार करना और ईश्वर-निष्ठा बहुत भिन्न भिन्न प्रकार से मनुष्य के मन को संस्कारित करते हैं। सत्य को जाने बिना ही किसी भी प्रकार की बुद्धि से जीवन के किसी विशिष्ट अर्थ और प्रयोजन को मान लिया जाना, उसे ही जीना और उस अर्थ और प्रयोजन को ही सर्वोच्च स्थान देना भी स्मृति पर ही आधारित कार्य या गतिविधि होता है और कोई भी अत्यन्त मूढ बुद्धि ही ऐसा कर सकता है। स्मृति के स्वयं के भी अनित्य और सतत परिवर्तनशील होने से भी मनुष्य के लिए यह संभव ही नहीं है कि वह किसी आदर्श या विचार को ध्येय की तरह ग्रहण कर सके। बौद्धिक निष्कर्ष के रूप में प्राप्त ईश्वर या अनीश्वर भी ऐसा ही एक विकल्प है। 

दूसरी ओर मृत्यु एक प्रत्यक्ष व्यावहारिक तथ्य है और इतने ही बड़े आश्चर्य की बात यह भी है कि मृत्युरूपी इस ईश्वर के रहस्य, तत्व, यथार्थ या वास्तविकता को क्या कोई कभी जान सकेगा, या जानने पर भी वह इसे किसी से कह भी सकेगा।

सत्य की खोज और उपलब्धि के दो ही उपायों (मार्ग नहीं) का वर्णन गीता में पाया जाता है पहला है सांख्य और दूसरा है योग। चूँकि दोनों ही उपायों का प्रयोग एक दूसरे से भिन्न प्रकार का है, किन्तु उनमें से किसी भी उपाय से समान और एक ही फल की  प्राप्ति होती है, और दोनों उपाय व्यवहार में परस्पर अत्यन्त ही भिन्न भी हैं इसलिए भी प्रत्येक मनुष्य की मानसिकता, प्रकृति, स्वभाव आदि के आधार पर इन दोनों उपायों में से कोई एक ही  उसके लिए पर्याप्त होता है। पहला सांख्यनिष्ठा, और दूसरा योग अथवा कर्म। सांख्य और सांख्य-निष्ठा का वर्णन गीता के दूसरे अध्याय में विस्तार से किया गया है, जबकि तीसरे अध्याय और उसके बाद में कर्म-योग और कर्म-संन्यास योग का वर्णन है। चूँकि साँख्य के उपाय का आलंबन करनेवाले कुछ महानुभावों के अनुसार : Truth is a pathless land, इसलिए इस आधार पर, साँख्य (या साँख्य योग) और कर्म / कर्म-योग / कर्म-संन्यास, योग मार्ग नहीं उपाय हैं। और यह तो मानना ही होगा किसी भी तरह के मार्ग का कोई भी नक्शा ऐसा केवल एक road-map भर भी हो सकता है, केवल दिशा-निर्देश भी हो सकता है, जिसे आप सहेजकर, फ्रेम में जड़कर भी रख सकते हैं। इसलिए यह तो आपकी अपनी ही उत्कंठा (urge and earnestness) से भी तय होता है कि सत्य या ईश्वर प्राप्ति की यह उत्कंठा आपमें कितनी तीव्र और प्रबल है। इससे भी पहले,और जो और भी अधिक आवश्यक है वह है वैषयिक संसार (objective world) से मन उचट जाना, -मोहभंग हो जाना, जिसे विराग कहते हैं, और जो परिपक्व होने पर विवेक और बाद में वैराग्य का रूप ग्रहण करता है। 

गीता के आठवें अध्याय में इन दोनों ही उपायों का अवलम्बन करनेवाले तत्वजिज्ञासुओं के लिए निर्देश दिया गया है। इसे तो ध्यान देकर अध्ययन करने से ही समझा जा सकता है। फिर भी इस अध्याय में इच्छा-मृत्यु तथा अनिच्छा-मृत्यु दोनों ही के बारे में पर्याप्त मार्गदर्शन प्राप्त होता है जिससे कोई भी मनुष्य यह जान सकता है कि उसकी निष्ठा के अनुसार उसे क्या प्राप्त हो सकता है और किस उपाय को अपनाना उसकी अपनी प्रकृति और स्वभाव के अनुकूल होगा।

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Friday, 21 April 2023

||नैष्कर्म्य सिद्धिः||

कर्म और नैष्कर्म्य

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नैष्कर्म्यसिद्धिः नामक एक प्रसिद्ध वेदान्त-ग्रन्थ का नाम मैंने पढ़ा-सुना है, किन्तु कभी उस ग्रन्थ के दर्शन और अवलोकन का सौभाग्य नहीं मिला। 

श्रीमद्भगवद्गीता में इस संबंध में निम्न उल्लेख क्रमशः इस प्रकार से हैं :

अध्याय २ --

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।५०।।

उपरोक्त संदर्भ में नैष्कर्म्य सिद्धि का उल्लेख प्रत्यक्षतः तो नहीं, परोक्षतः देखा जा सकता है, बाद के सन्दर्भों में अपरोक्षतः है :

अध्याय ३

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।।

न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।४।।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।५।।

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।६।।

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।७।।

अध्याय ५

अर्जुन उवाच --

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।।

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।

श्रीभगवानुवाच --

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेसकरावुभौ।।

तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।२।।

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।३।।

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।

एकमपि आस्थितं सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।।

एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५।।

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति।।६।।

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।।

योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये।।११।।

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।।

अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।१२।।

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।१३।। 

अध्याय १८ 

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।।

विषादो दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।२८।।

अध्याय १८

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।।

नैष्कर्म्यसिद्धिं परमा संन्यासेनधिगच्छति।।४९।।

इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २ के अंतिम श्लोकों में ही अगले आनेवाले क्रमशः सभी अध्यायों की भूमिका "योगः कर्मसु कौशलम्।।" के वक्तव्य द्वारा घोषित कर दी गई, और अध्याय ३ के प्रारम्भ में ही :

नैष्कर्म्य सिद्धि

कैसे होती है इसे स्पष्ट कर दिया गया।

"नैष्कर्म्य" भी दो प्रकार का हो सकता है इसका वर्णन अध्याय १८ के श्लोकों (२८ तथा ४९) में स्पष्टता से कर दिया गया। 

कर्ता की अवधारणा कर्म की अवधारणा के अन्तर्गत ही संभव है। और कर्तृत्व की अवधारणा ही कर्ता या कर्तापन है। कर्तृत्व की यह बुद्धि ही "मैं स्वतन्त्र कर्ता हूँ।" इस प्रकार के अज्ञान के रूप में अहंकारविमूढात्मा है।

अयुक्त, प्राकृत, स्तब्ध, शठ, नैष्कृतिक, अलस, विषाद और दीर्घसूत्री आदि होने पर इस कर्ता को तामस कहा जाता है। नैष्कृतिक की स्थिति का एक प्रकार यह हुआ। 

दूसरी ओर, नैष्कर्म्यसिद्धि के रूप में उस स्थिति का वर्णन किया गया है, जब असक्तबुद्धि से सर्वत्र जितात्म तथा विगतस्पृह होने पर किसी कर्म का अनुष्ठान किया जाता है। दूसरे को नहीं, कर्म का अनुष्ठान करनेवाले को ही यह पता होता है, कि उक्त कर्म का अनुष्ठान अयुक्त, प्राकृत, स्तब्ध, शठ, नैष्कृतिक (मद एवं मोह से युक्त), अलस (प्रमाद), विषाद, और दीर्घसूत्री बुद्धि से प्रेरित होकर किया जा रहा है, या असक्तबुद्धि से सर्वत्र जितात्म और विगतस्पृहः कर्मसंन्यास की बुद्धि से प्रेरित होकर किया जा रहा है।

कर्म-संन्यास क्या है? 

अध्याय १८ के ही निम्न श्लोक में इसका वर्णन है :

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।।

सर्वकर्मफलस्त्यागंं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।२।।

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Friday, 31 March 2023

त्रयमेकत्र संयमः।।

संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम्।।१८।।

(पातञ्जल योग-सूत्र -- विभूतिपाद) 

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महर्षि वाल्मीकि की अद्भुत कथा

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उस लुटेरे ने दुर्भाग्यवश कुसंग के दुष्प्रभाव से बुद्धि के दूषित हो जाने पर परिवार के भरण पोषण के लिए यह सरल सा प्रतीत होनेवाला मार्ग अपना लिया था। बीहड़ सुनसान वन से आते जाते हुए पथिकों को वह डरा-धमका कर लूट लिया करता था। उनका धन और दूसरी सामग्रियाँ जैसे कि अन्न, पशु आदि भी!

सनातन काल से ही ध्रुव तारे की नित्य परिक्रमा करते हुए भृगु, मरीचि, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वसिष्ठ आदि सप्तर्षियों की दृष्टि उस पर पड़ी, तो उनके मन में उस के प्रति करुणा उमगी। वे पथिक का रूप लेकर उसकी ओर जानेवाले मार्ग की दिशा में चल पड़े। जब वे उसके समीप जा पहुँचे, तो उसने ललकार कर उन्हें रोका और उनसे कहा :

"यदि तुम्हें अपने प्राणों से प्यार है, तो तुम्हारे पास जो कुछ भी मूल्यवान वस्तुएँ हैं, उन्हें यहाँ लाकर सामने रख दो!"

ऋषि बोले : हमारे पास जो कुछ मूल्यवान है वह तुम्हें दिखलाई ही नहीं देता, और न तुम हमसे वह सब छीन या लूट सकते हो! अब रहा अपने प्राणों से प्यार होने का प्रश्न, तो जैसे तुम्हारे, वैसे ही हमारे प्राण भी विधाता ने हमें दी हुई आयु पूरी होने तक हमें कभी नहीं छोड़ेंगे, इसलिए यह सब कुछ मूल्यवान हमारे पास जो पाथेय और वस्त्र आदि हैं, उन्हें तुम अवश्य ही रख लो, और चाहो तो हमारे प्राण भी ले लो! किन्तु क्या हमारे एक प्रश्न का उत्तर दोगे!

"कौन सा प्रश्न?"

उसने धृष्टता और उपहास भरी कठोर वाणी में उनसे पूछा।

"यही, कि क्या आजीविका और परिवार का भरण पोषण करने के लिए तुम्हारे पास और कोई तरीका नहीं है? तुम जो कर रहे हो वह जघन्य पाप है, क्या तुम्हें नहीं दिखाई देता? आयु बीत जाने पर जब तुम वृद्ध, रुग्ण, और बहुत दुर्बल हो जाओगे, मृत्यु जब तुम्हारे जीवन का अन्त करने के लिए तुम्हारे सामने आकर खड़ी होगी तब क्या यह सब वस्तुएँ तुम्हें मृत्यु से बचा सकेंगीं?"

 "तुम कहना क्या चाहते हो?"

उसने उग्रतापूर्वक किन्तु कुछ डरते हुए पूछा!

"यही, कि यदि अभी जब तुम्हारा शरीर स्वस्थ और बलवान है, तो अपनी आजीविका श्रमपूर्वक क्यों नहीं कमाते? उससे तुम्हें नींद भी अच्छी आएगी और तुम सुख से रह सकोगे। अभी क्या तुम सुखपूर्वक जी रहे हो? क्या तुम्हारा मन चिन्ता और भय से व्याकुल नहीं होता?"

"हूँ..., तो परिवार को प्रसन्न रखने के लिए क्या यह सब करना जरूरी नहीं है? मेरी पत्नी, बच्चे क्या वे सब मुझसे प्यार नहीं करते? क्या उनकी खुशी के लिए यदि मैं पापकर्म से धन संपत्ति अर्जित करता भी हूँ, तो क्या वे भी मेरे इन पापों के भागी नहीं होंगे?"

"ठीक है, तुम घर जाकर उनसे पूछकर आओ, तब तक तुम्हारी प्रतीक्षा करते हुए हम यहीं रुके रहेंगे!"

"नहीं,  मुझे तुम पर भरोसा नहीं है, मैं तुम सबको पेड़ से बाँध देता हूँ!"

इसके बाद उसने सब को एक साथ पेड़ से बाँध दिया और फिर  परिवार से पूछने के लिए अपने घर पहुँचा। जब उसने यह घटना अपनी पत्नी और बच्चों को कह सुनाई और उनसे पूछा कि क्या उस के इन पापों के फलों को भी वे नहीं बाँट लेंगे, तो सभी ने कहा : "हम तो केवल वही बाँटेगें, जिससे हमें प्रसन्नता होती है, पापों के फलों को नहीं।"

तब वह घबरा गया और दौड़ता हुआ उस पेड़ के पास जा पहुँचा जिससे उसने उन पथिकों को बाँध रखा था। उसने अपने कृत्यों के लिए उनसे क्षमा माँगते हुए पूछा, कि इन पापों का प्रायश्चित क्या है?

तब उन्होंने उससे कहा :

"बहुत ही सरल है इसका प्रायश्चित ! तुम निरंतर राम के नाम, "रामनाम" का अर्थात् इस राम-मन्त्र का जप करो। तब तुम्हारे सारे पाप धुल जाएँगे, और तुम संसार के दूसरे भी सभी क्लेशों से छूट जाओगे।"

चूँकि धन संपत्ति और परिवार और संसार से तो उसका मोहभंग पहले ही हो ही चुका था, अतः वह कन्द-मूल, फल आदि खाते हुए अपनी भूख मिटाता। गर्मी, सर्दी आदि के कष्टों को धैर्य से सहन करता हुआ इस मन्त्र का श्रद्धापूर्वक जप करने लगा। रामनाम का जप करते हुए उसने अनायास ही, न जानते हुए भी योग की विधि अर्थात् धारणा, ध्यान और समाधि आदि के क्रम का यथा-रीति पालन और अनुष्ठान अनुभव किया। योगाभ्यास के तीन फल अर्थात् तीन परिणाम - पहला : निरोध परिणाम, दूसरा : एकाग्रता परिणाम, तीसरा : समाधि परिणाम, तब उस पर घटित हुए। इन तीनों परिणामों के प्रभाव से "संयम" नामक सिद्धि की प्राप्ति उसे प्राप्त हुई और अन्ततः भगवान् श्रीराम के साकार और निराकार तत्व का केवल साक्षात्कार ही नहीं हुआ, बल्कि संसार के कल्याण के लिए उसने भगवान् की लीला की गाथा रामायण की रचना भी की।

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Thursday, 30 March 2023

नया टेक्स्ट / नई इबारत!!

Writings

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Writing on the Posts on :

Patanjala Yoga-Sutra / पातञ्जल योग-सूत्र 

completed on 28-03-2024.

Today wrote another post on my blog:

vinayvaidya.wordpress.com

This was an answer to a question :

What's something most people

don't understand? 

Prompted by this, I wrote down this piece about :

Consciousness and Understanding the same.

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Tuesday, 28 March 2023

तदा विवेकनिम्नं

Patanjala Yoga-Sutra : vibhUtipad --

26-27-28-29-30-31-32-33

पातञ्जल योग-सूत्र : विभूतिपाद २६-२७-२८-२९-३०-३१-३२-३३

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This is the last post in this sequence on the Patanjala Yoga-Sutra.

These are my study-notes only. I would say that in order to have an elementary and introductory knowledge of this text, the reader may go through all these posts in this blog. Still it is very likely, there may be some errors like that of interpretation, grammar, punctuation and typographical, but I think, I may go through it again and again.

That is the only objective presently in my mind.

तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भावं चित्तम् ।।२५।।

(तदा विवेकनिम्नं कैवल्य-प्राक्-भावं चित्तम्।।)

पाठान्तरं --

तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्।।२५।।

(तदा विवेकनिम्नं कैवल्य-प्राक्-भारं चित्तम्।।)

The above योग-सूत्र / Aphorism was dealt with in the last post. The next one is : 

तच्छिद्रेषु प्रत्ययान्तराणि संस्कारेभ्यः।।२६।।

(तत् छिद्रेषु प्रत्यय-अन्तराणि संस्कारेभ्यः।।)

The चित्त / chitta is defined as 

विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भावम् / कैवल्यप्राग्भारम्  vivekanimnaM KaivalyaprAgbhAvaM / KaivalyaprAgbhAraM

This is the ordinary चित्त / chitta / mind, prior to attaining the कैवल्यम् / KauvalyaM. When one develops वैराग्य / vairAgya / dispassion by means of practicing the विवेक / viveka i.e. the discrimination, one deserves and becomes अधिकारी / पात्र / eligible / qualified for कैवल्यम् / the KaivalyaM.

This mind has still drawbacks, shortcomings and defects that are here referred to as the छिद्र / chhidra. Within those defects there are different संस्कार / samskAra in the form of the प्रत्यय / वृत्ति / vritti.

हानमेषां क्लेशवदुक्तम्।।२७।।

(हानं एषां क्लेशवत् उक्तम्।।)

The annihilation of these defects is done in the same way as of the क्लेश / Klesha that is described in the 

साधनपाद योग-सूत्र :

२, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११ .

Sadhanapada Aphorisms :

2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11.

प्रसङ्ख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः।।२८।।

(प्रसङ्ख्याने अपि अकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेः धर्ममेघः समाधिः।।)

One who is ripe enough, earnest and has no attraction whatsoever towards the pleasures and enjoyments etc. in this life or even in the next life, neither for any of the सिद्धि / siddhi, attains the samAdhi state that is known as the धर्ममेघः समाधिः / dharmamegha samAdhi. 

ततः क्लेशकर्मनिवृत्तिः।।२९।।

(ततः क्लेश-कर्म-निवृत्तिः।।)

Having attained this, all क्लेश / Klesha and the कर्म / karma comes to an end. 

तदा सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्यानन्त्याज्ज्ञेयमल्पम्।।३०।।

(तदा सर्व आवरण मल अपेतस्य ज्ञानस्य आनन्त्यात् ज्ञेयं अल्पम्।।)

The such a one whose all impurities and the defects have been removed, who is free from misery and sorrow attains the bliss eternal.  He has the infinity of the knowledge and the  wisdom and in comparison there is little for him to know further.

ततः कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिर्गुणानाम्।।३१।।

(ततः कृतार्थानां परिणाम क्रम समाप्तिः गुणानाम्।।)

Such a man who has nothing more to do in order to attain anything, abides in the state of perfect bliss and ultimate, lasting peace, because the परिणाम-क्रम / chain of कर्म / karma and the consequences, and the क्लेश / Klesha of the गुण / attributes has come to end. This chain क्रम is defined in the following योग-सूत्र / Aphorism :

क्षणप्रतियोगी परिणामापरान्तनिर्ग्राह्यः क्रमः ।।३२।।

(क्षणप्रतियोगी परिणाम अपरान्त निर्ग्राह्यः क्रमः।।)

The endless sequence of cause and effect of attributes being dissolved, there is no more any role left to be played by प्रकृति / Prakriti.

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति।।३३।।

(पुरुषार्थ-शून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चिति शक्तेः इति।।)

This dissolution of attributes in their source is called प्रतिप्रसवः / prati-prasavaH while their manifestation is called प्रसवः -- the beginning of the world and the ignorance of the Self.

When one has been freed from the grip of those attributes that cause the birth, death, rebirth and the endless chain of misery, it is indeed the liberation.

The प्रतिप्रसवः / prati-prasavaH is the कैवल्यम् / KaivalyaM : abiding in the स्वरूप / Self, that is सत् / sat चित् / chit and आनन्द / Ananda.

***

।।ॐ नमो महर्षये पतञ्जलये।।

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सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः

Patanjal Yoga-Sutra : Kaivalyapada --

17-18-19-20-21-22-23-24-25

पातञ्जल योग-सूत्र : कैवल्यपाद

१७-१८-१९-२०-२१-२२-२३-२४-२५

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सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्यापरिणामित्वात्।।१७।।

(सदा ज्ञाताः चित्तवृत्तयः तत् प्रभोः पुरुषस्य अपरिणामित्वात्।।)

The वृत्ति / vritti-s are known by one who is the knower and owner of them. This knower is changeless while the vritti-s keep changing all the time. This knower who claims "I know the vritti-s" is the individual पुरुष / purusha,  associated with those vritti-s, and is covered by and hidden, gets identified with another  वृत्ति / vritti that is the "I" sense. Who exactly is there that knows this I-sense? This I-sense is itself the consciousness, the knower of the vritti-s, yet assumes the form of something that is called उपाधि / upadhi / the adjunct. This adjunct could be a name, the memory,  the states of mind, This assumes existence in the four forms namely :

1  कर्तृत्व -- the sense of doer-ship -- The वृत्ति / vritti that is संकल्प / samkalpa like I do,  I did, I have to, I don't have to, I will do, etc. 

2 भोक्तृत्व -- the sense of enjoying, suffering and experiencing. Such as I am hungry, I'm thirsty,  I'm tired, I'm in pain. 

3 स्वामित्व -- the sense of being the owner, the one who possesses :  my house,  my family,  my money, my wealth, 

4 ज्ञातृत्व -- the sense "I know". All Knowledge is memory only. Because of the memory one remembers the knowledge.

Even in the absence of memory there is the sense that prevails in the form  : "I am".

So there is this knowing even without the knowledge of any object. This is the pure consciousness of just being, but it's not in the form of memory or knowledge. Once this knowing is overlapped by knowledge, there is the knower, the qualifying sense,  - as the adjunct. But the pure consciousness is the knower the individual, or the पुरुष / purusha. 

न तत्स्वाभासं दृश्यत्वात्।।१८।।

(न तत् स्व आभासं दृश्यत्वात्।।)

This individual, the पुरुष  / purusha is not the Self, but the inherent understanding "I am". 

एकसमये चोभयानवधारणम्।।१९।।

(एकसमये च उभय अनवधारणम्।।)

Because the चित्त / the chitta or the mind can't  grasp the both : the Self (I) and the identity as the knower / the पुरुष / the purusha, at the same time.  

चित्तान्तरदृश्ये बुद्धिबुद्धेरतिप्रसङ्गः स्मृतिसङ्करश्च।।२०।।

(चित्तान्तर-दृश्ये बुद्धि-बुद्धेः अतिप्रसङ्गः स्मृतिसङ्करश्च।।)

The chitta in transition between the interval from one to another वृत्ति / vritti, therefore becomes kind of a mental construct memory because of the intellect.

चितेरप्रतिसङ्क्रमायास्तदाकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनम्।।२१।।

(चितेः अप्रतिसङ्क्रमायाः तदाकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनम्।।)

As the चित् / chit or the pure knowing, the awareness of just being only, identified with the intellect is the consciousness of the pure Self, 

द्रष्टृदृश्योपरक्तं चित्तं सर्वार्थम्।।२२।।

(द्रष्टृदृश्य-उपरक्तं चित्तं सर्वार्थम्।।)

Such a चित् / chit, consciousness of the being only without the division of the observer and the observed, 

तदसङ्ख्येय वासनाभिश्चित्रमपि परार्थं संहत्यकारित्वात्।।२३।।

(तत् असङ्ख्येय वासनाभिः चित्रं अपि परार्थं -- संहति--- अकारित्वात्।।)

As if like a picture made of the innumerable desires, this knowing without essence is the Self as is realized in the state of mind by one,

विशेषदर्शिन आत्मभावभावनाविनिवृत्तिः।।२४।।

(विशेषदर्शिनः आत्मभावभावनाविनिवृत्तिः।।)

Is verily the Awareness "चित् / चैतन्य" / the chit, while the consciousness associated with the memory is  चेतना / the consciousness of being someone -- अहंकार, the ego or the self. 

तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भावं चित्तम्।।२५।।

(तदा विवेकनिम्नं कैवल्य-प्राक्-भावं चित्तम्।।)

पाठान्तरं  --

तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्।।२५।।

(तदा विवेकनिम्नं कैवल्य-प्राक्-भारं चित्तम्।।)

This चित्त / स्व आभास / चिदाभास, the inferior kind of the consciousness of the self is the state prior to कैवल्यम् / KaivalyaM, when there is विवेक / viveka - discrimination born of वैराग्य / dispassion.

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Monday, 27 March 2023

अतीतानागतं स्वरूपतो

Supplement to the earlier post.

पिछले पोस्ट के लिए पूरक

Patanjala Yoga-Sutra : Kaivalyapada 12, 13

पातञ्जल योग-सूत्र : कैवल्यपाद १२, १३

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अतीतानागतं स्वरूपतोऽस्त्यध्वभेदाद्धर्माणाम्।।१२।।

(अतीत-अनागतं स्वरूपतः अस्ति अध्वभेदात् धर्माणाम्।।)

This is about how past and future basically are only the विकार / vikAra, aberration and distortion of  - गुणानाम् / धर्माणाम् / of the three attributes as Dharma, namely : the सत् / सत्त्व / sattva, the रज / raja  and the तम / tama. As the three attributes follow different paths, the past and future appear / result as प्रत्यय / pratyaya (what appears though neither real nor unreal but hypothetical only).

ते व्यक्तसूक्ष्मा गुणात्मानः।।१३।।

(ते व्यक्तसूक्ष्माः गुणाः आत्मानः।।)

They past and future are the manifest form of the three subtle attributes of the आत्मन्  / the self / Self.

(To be read with the last post)

To be continued. ...

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