कर्म और नैष्कर्म्य
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नैष्कर्म्यसिद्धिः नामक एक प्रसिद्ध वेदान्त-ग्रन्थ का नाम मैंने पढ़ा-सुना है, किन्तु कभी उस ग्रन्थ के दर्शन और अवलोकन का सौभाग्य नहीं मिला।
श्रीमद्भगवद्गीता में इस संबंध में निम्न उल्लेख क्रमशः इस प्रकार से हैं :
अध्याय २ --
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।५०।।
उपरोक्त संदर्भ में नैष्कर्म्य सिद्धि का उल्लेख प्रत्यक्षतः तो नहीं, परोक्षतः देखा जा सकता है, बाद के सन्दर्भों में अपरोक्षतः है :
अध्याय ३
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।४।।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।५।।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।६।।
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।७।।
अध्याय ५
अर्जुन उवाच --
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।
श्रीभगवानुवाच --
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेसकरावुभौ।।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।२।।
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।३।।
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।
एकमपि आस्थितं सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५।।
संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति।।६।।
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये।।११।।
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।१२।।
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।१३।।
अध्याय १८
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।।
विषादो दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।२८।।
अध्याय १८
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमा संन्यासेनधिगच्छति।।४९।।
इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २ के अंतिम श्लोकों में ही अगले आनेवाले क्रमशः सभी अध्यायों की भूमिका "योगः कर्मसु कौशलम्।।" के वक्तव्य द्वारा घोषित कर दी गई, और अध्याय ३ के प्रारम्भ में ही :
नैष्कर्म्य सिद्धि
कैसे होती है इसे स्पष्ट कर दिया गया।
"नैष्कर्म्य" भी दो प्रकार का हो सकता है इसका वर्णन अध्याय १८ के श्लोकों (२८ तथा ४९) में स्पष्टता से कर दिया गया।
कर्ता की अवधारणा कर्म की अवधारणा के अन्तर्गत ही संभव है। और कर्तृत्व की अवधारणा ही कर्ता या कर्तापन है। कर्तृत्व की यह बुद्धि ही "मैं स्वतन्त्र कर्ता हूँ।" इस प्रकार के अज्ञान के रूप में अहंकारविमूढात्मा है।
अयुक्त, प्राकृत, स्तब्ध, शठ, नैष्कृतिक, अलस, विषाद और दीर्घसूत्री आदि होने पर इस कर्ता को तामस कहा जाता है। नैष्कृतिक की स्थिति का एक प्रकार यह हुआ।
दूसरी ओर, नैष्कर्म्यसिद्धि के रूप में उस स्थिति का वर्णन किया गया है, जब असक्तबुद्धि से सर्वत्र जितात्म तथा विगतस्पृह होने पर किसी कर्म का अनुष्ठान किया जाता है। दूसरे को नहीं, कर्म का अनुष्ठान करनेवाले को ही यह पता होता है, कि उक्त कर्म का अनुष्ठान अयुक्त, प्राकृत, स्तब्ध, शठ, नैष्कृतिक (मद एवं मोह से युक्त), अलस (प्रमाद), विषाद, और दीर्घसूत्री बुद्धि से प्रेरित होकर किया जा रहा है, या असक्तबुद्धि से सर्वत्र जितात्म और विगतस्पृहः कर्मसंन्यास की बुद्धि से प्रेरित होकर किया जा रहा है।
कर्म-संन्यास क्या है?
अध्याय १८ के ही निम्न श्लोक में इसका वर्णन है :
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।।
सर्वकर्मफलस्त्यागंं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।२।।
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